Thursday, November 1, 2018

असल समस्या क्रियान्वयन की (19 दिसंबर, 2011)

एक और लोक लुभावन योजना को लागू करने की वैधानिक प्रक्रिया शुरू हो गई है। खाद्य सुरक्षा विधेयक को केन्द्र की कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। संसद इसे संभवतः आज कल में पारित भी कर देगी। कांग्रेस का कहना है कि अपने चुनावी घोषणा-पत्र में कमजोर वर्ग के लिए दो रुपये किलो गेहूं देने का जो वादा किया था, उसे पूरा कर रहे हैं। राजस्थान की सरकार ने भी कुछ ऐसी ही योजना शुरू कर रखी है।
केन्द्र की ऐसी ही लोक लुभावन नरेगा योजना पहले से ही चल रही है। राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में शुरू की गई मुफ्त दवा योजना और जननी सुरक्षा योजना कुछ हिचकोलों के साथ चल रही है। इस तरह के कार्यक्रमों से योजना के स्तर पर किसी को भी एतराज शायद ही हो। सारे संशय क्रियान्वयन के स्तर पर हैं। पिछले 64 साल से क्रियान्वयन की व्यवस्था लगातार भ्रष्ट होती जा रही है। देखा यह गया है कि इन लोक लुभावन योजनाओं का ज्यादा लाभ भ्रष्ट लोगों को होता है। कांग्रेस के राजीव गांधी ने ही सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि सरकारी योजनाओं का लाभ लक्ष्यसमूह तक पहुंचते-पहुंचते मात्र पन्द्रह प्रतिशत रह जाता है।
आर्थिक उदारीकरण के चलते ऐसी योजनाओं के माध्यम से सरकार का मकसद क्या केवल बाजार को रोशन करना है? इन योजनाओं से बाजार रोशन हो भी रहा है। केवल यही मकसद शायद ना हो। क्योंकि ऐसी योजनाओं में भारी गड़बड़ियों और भ्रष्ट आर्थिक आचरण के चलते काला धन बड़ी मात्रा में बाजार में आ रहा है। लेकिन घोषित और असल मकसद आधा भी सिरे नहीं चढ़ता। केन्द्र की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी नरेगा योजना का एक दीर्घकालिक लाभ यह जरूर दिखलाई दे रहा कि इसके चलते असंगठित क्षेत्र के मजदूरों-कर्मचारियों की दैनिक मजदूरी में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोतरी हो रही है। क्योंकि नरेगा के चलते ये मजदूर अब मौल-भाव करके अपनी मजदूरी को लगातार बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। जो पहले कुछ ज्यादा ही कम थी।
सरकारें चाहें केन्द्र की हों या राज्यों की उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी लोक लुभावन योजनाएं क्रियान्वयन के स्तर पर अधिकतम कारगर हो। लोकपाल, लोकायुक्त, सूचना का अधिकार कानून, सिटीजन चार्टर या लोक सेवा गारंटी योजना जैसी युक्तियों को साफ मन से लागू करना एक उपाय हो सकता है।
-- दीपचंद सांखला
19 दिसम्बर, 2011

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