Thursday, November 22, 2018

एस सी/एसटी कानून : समाज को बालिग होना होगा (27 जनवरी, 2012)

एससी/एसटी अत्याचार-उत्पीड़न के मामलों की तिमाही समीक्षा हेतु गठित बीकानेर जिला स्तरीय सतर्कता एवं मॉनीटरिंग समिति की बैठक 23 जनवरी, 2012 को हुई। इसमें बताया गया है कि अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत वर्ष 2011-12 में पीड़ितों के लिए बजट में कुल राहत राशि रुपये 15.5 लाख आवंटित की गई थी जिसमें से अब तक रुपये 14,12,500 की राशि स्वीकृत की जा चुकी है। यह राशि विभिन्न 58 प्रकरणों में 79 पीड़ितों को स्वीकृत-आवंटित की गई है।
सार्वजनिक धन की अन्य सभी योजनाओं और आवंटन में सामान्यतः जो गड़बड़ियां होती है, जाहिर है कमोबेश इसमें भी हुई ही होंगी। हो सकता है कुछ झूठे प्रकरण बनाये गये होंगे, कुछ अन्य मामलों का बदला लेने के लिए और कुछ केवल राहत राशि पाने के लिए बनाये गये होंगे।
भारतीय समाज में एस.सी./एस.टी. और स्त्री उत्पीड़न अधिकांशत इतनी बारीकी से और अनायास अंजाम दिए जाते हैं कि उस पर सामान्यतः ध्यान ही नहीं जाता। देखा गया है कि शोषक या उत्पीड़क इसे इतनी मासूमियत से अंजाम देता है कि अहसास ही नहीं होता कि उससे कोई अन्याय हो भी रहा है। यह सब होता ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’ की ही तर्ज पर है। कोई भी सत्तारूप जिस किसी के पास होता है वह इस तरह के उत्पीड़न-अत्याचार को सामान्य लोकाचार के रूप में अंजाम देने लगता है। शारीरिकबल, धनबल, शासनबल, कर्मकांडबल आदि-आदि जैसे सत्तारूप होते समाज में सीमितों के पास ही हैं जबकि इनसे उत्पीड़ित समाज का बड़ा हिस्सा होता है, बारीकी से या कभी-कभार मोटे रूप में और विभिन्न तरीकों से हुए ऐसे उत्पीड़नों को लोकाचार मान लिए जाने के चलते इस पर अधिकांशतः ध्यान ही नहीं जाता।
एस.सी./एस.टी. कानून के दुरुपयोग की आशंकाओं जैसी-सी आशंकाएं स्त्री-उत्पीड़न कानून को लेकर भी चर्चा में रहती हैं। अधिकतर यह सुना जाता है कि दहेज की मांग के अधिकतर मामले गलत होते हैं। यानी पति-पत्नी और बहू-सास-ससुराल के बीच तनाव के कारण अन्य कई होते हैं लेकिन थानों में दर्ज कारण दहेज ही होता है। जो गलत है, उसे गलत ही कहा जाना चाहिए। लेकिन समझना यह भी होगा कि भारतीय समाज का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा माने जाने वाले दलित और स्त्रियां, सदियों से दोयम दर्जे की नागरिकता को  अभिशप्त हैं, इन्हें लोकाचार के नाम पर जब तक अभिशप्त रहने देंगे तब तक कानूनों के दुरुपयोग की ऐसी संभावनाएं भी बनी रहेंगी। उत्पीड़न होगा तो कानून बनेंगे और कानून बनेंगे तो उसके दुरुपयोग की आशंकाएं भी बनी रहेंगी। ऐसे दुरुपयोगों से बचने के लिए मासूमियत को त्याग कर समाज को बालिग होना होगा, व्यापक सामाजिक संस्कारों में बदलाव लाना होगा। भाग्य में यही लिखा है, इस जुमले को छोड़ना होगा। हालांकि संस्कारों में बदलाव का काम तकनीक कर रही है लेकिन उसके सकारात्मक बदलावों की गति बेहद धीमी और प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित है।
-- दीपचंद सांखला
27 जनवरी, 2012

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