Thursday, October 27, 2016

अशोक गहलोत के लिए बड़े निर्णय का समय यही है

वर्ष 2011 के पूर्वाद्र्ध में केन्द्र की संप्रग सरकार के कुछ मंत्रियों के घोटालों का लगातार खुलना, लुंज-पुंज भाजपा का संसदीय काम-काज में रोड़े अटकाऊ विरोध, जनता में कांग्रेसनीत केन्द्र की सरकार से उठता भरोसा, इसी बीच स्थानीय मुद्दों पर महाराष्ट्र के आन्दोलनकर्ताभोले और विचारहीन अन्ना हजारे का दिल्ली आना और 5 अप्रेल, 2011 के दिन भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन पर बैठना। इसी दिन उनके समर्थन में पूरे देश में कई स्थानों पर गिने-चुने ही सही, लोगों का एक दिन के सांकेतिक अनशन पर बैठना। भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का अन्ना हजारे को लगातार बढ़ता समर्थन और योगधंधी रामदेव का भी ऐसे माहौल का अपने धंधे में लाभ उठाने की नीयत से सक्रिय होना। इस माहौल को संभालने के लिए कांग्रेस की ओर से अनाड़ी नेताओं को सक्रिय किए जाने से माहौल लगातार और बिगड़ता गया। जिस संप्रग की पहली गठबंधन सरकार ने आंतरिक उठापठक के बावजूद जनता में अपनी साख बनाए रखी और 2009 का चुनाव पुन: जीत लिया वही संप्रग-दो सरकार बनने के साथ ही साख के मामले में हिचकोले खाने लगी। लोग विचारहीन अन्ना में उम्मीदें देखने लगे, डेढ़ वर्ष ऐसे ही असंतोष में बीता, इसी बीच 2012 की 16 दिसम्बर की रात दिल्ली में एक युवती के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने जैसे जनता के इस रोष की आग में घी का काम किया। दो वर्षों से लगातार साख खोती केन्द्र सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को इसे संभालने में असफल होते देख प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इस अवसर का लाभ-उठाने को बड़ा निर्णय करते हुए और भ्रमित करने में माहिर नरेन्द्र मोदी पर दावं खेलती है।
नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित हो चुकी कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व को फिलहाल नियति मान लिया है। ऐसी परिस्थितियों में अच्छी-भली साख से सरकार चलाने वाले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस को 2013 के विधानसभा चुनावों में शर्मनाक हार देखनी पड़ी। वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस लोकसभा में मात्र चवालिस सांसदों पर आ अटकी।
इस आलेख में इस लंबी-चौड़ी प्रस्तावना का आशय ये बताना भर है कि राजस्थान की वर्तमान वसुंधरा सरकार की साख भी प्रकारान्तर से वैसी ही है जैसी 2011-12 में केन्द्र में संप्रग-दो की सरकार की थी। राजस्थान में शासन नाम की कोई व्यवस्था दिखाई नहीं दे रही। दूसरे तो दूर की बात, खुद सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक और मंत्रियों तक को मुख्यमंत्री समय नहीं देतीं। जिस भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे का लाभ झपट कर केन्द्र और कुछ प्रदेशों में भाजपा सत्तारूढ़ हुई, वह भ्रष्टाचार अब दुगुना इसलिए नजर आने लगा कि सरकारी कामकाज करवाने की रिश्वत की दरें इस राज में पिछले राज से लगभग दुगुनी होने की जानकारी जब-तब मिलती ही रहती है। अलावा इसके अपनी पार्टी आलाकमान से उपेक्षित हो अनमनी हो चुकी सूबे की मुखिया प्रदेश के किसी भी जरूरी मुद्दे पर ध्यान नहीं दे पा रही हैं।
इस सरकार के खिलाफ जन असंतोष का लाभ उठाने के वास्ते प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस यदि अन्ना आन्दोलन और निर्भया कांड जैसी 2012-13 में भाजपा को मिली अनुकूलताओं का इंतजार कर रही है तो वह भारी भ्रम में है। वैसी अनुकूलता व्यावहारिक राजनीति में कभी-कभार ही मिलती है।
ऐसी परिस्थितियों में जब कांग्रेस आलाकमान केवल अनाड़ी राहुल के प्रयोगों में लगी है, उसे समाप्त होते देर नहीं लगनी है। उत्तरप्रदेश के चुनावों के परिणाम कांग्रेस के अनुकूल होते नहीं दिख रहे हैं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस यदि प्रियंका गांधी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करती तो हो सकता था कि वह कुछ चमत्कार सा कर गुजरती। फिलहाल जो कांग्रेस नेहरू-गांधी वारिसों की बैसाखियों के बिना पंगु है, उसमें इसके अलावा कुछ कल्पना दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं।
यह विषयान्तर नहीं लेकिन बीच में एक संदर्भ का जिक्र करना जरूरी है। हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक अप्पू एस्थोस सुरेश ने पिछले सप्ताह एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम में अपनी उस रिपोर्ट का जिक्र किया जिसमें वे बताते हैं कि जून, 2013 से अब तक केवल उत्तरप्रदेश में ही दस हजार से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे ऑन रिकार्ड हुए हैं। इन दंगों के रिकॉर्ड में एक और जो भिन्नता है वह यह कि दंगों के इतिहास से भिन्न इनमें से अधिकांश घटनाएं ग्रामीण इलाकों की हैं, जबकि अब तक के दंगों का इतिहास बताता है कि पूर्व के अधिकांश दंगे शहरी क्षेत्रों में ही होते रहे हैं। इस रिपोर्ट का मकसद यह बताना भर है कि चुनावी लाभ उठाने के वास्ते देश की तासीर को किस खतरनाक तरीके से बदला जा रहा है इस भयावहता से बेफिक्री देश के लिए खतरनाक हो सकती है। क्या गारंटी है कि वोटों के लिए ऐसे ही धु्रवीकरण से राजस्थान, अन्य प्रदेश और फिर पूरा देश बचा रह सकेगा। ऐसी करतूतें जिस तरह बेधड़क होने लगी हैं, इससे यही लगता है कि देश को बुरे दौर में झोंका जा रहा है।
प्रदेश के संवेदनशील लोग और नेतृत्व करने वाले सचेत नहीं हुए तो ऐसी करतूतों के लिए उत्तरप्रदेश के बाद जिन प्रदेशों की बारी आने वाली है उनमें राजस्थान का नम्बर पहले लग सकता है। यहां 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं और सूबे की वर्तमान सरकार की साख वैसी बन नहीं पा रही है कि अगला चुनाव आसानी से जीता जा सके। कांग्रेस आलाकमान को यह सब देखने की समझ ही जब नहीं है तो उससे लाभ उठाने के उपाय वह क्या करेगी? जबकि तीसरी ताकत के अभाव में प्रदेश को ऐसी भयावह परिस्थितियों से बचाने की उम्मीदें सिर्फ कांग्रेस पर टिकती हैं। न तो कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश प्रभारी में कोई कूवत दिखाई देती और ना ही प्रदेश अध्यक्ष में। सचिन जब टीवी बहसों में आते थे तो संजीदा और समझदार लगते थे लेकिन जनता में भरोसा जमाने में वे असफल होते दिख रहे हैं। सचिन गुर्जर समुदाय से आते हैं, प्रदेश में गुर्जर आरक्षण उद्वेलन के चलते गुर्जरों के काउण्टर समुदाय की छाप हासिल कर चुका मीणा समुदाय भावी मुख्यमंत्री के तौर पर सचिन पायलट पर कोई भरोसा नहीं करेगा। ऐसे में जिस सीमित क्षेत्र में सचिन कुछ हासिल कर सकने की स्थिति में हैं वहां भी उनकी सफलता संदिग्ध दिखती है। वहीं प्रदेश के शेष हिस्से में सम्पर्क बनाने का आत्मविश्वास तक वे इन दो वर्षों में हासिल नहीं कर पाए हैं। ऊपर से मुकुट पहनने और भेंट में तलवारें लेने के सामन्ती प्रतीकों में उनका विश्वास अलग छवि बनाता है। ऐसी ही सब बातें यदि कांग्रेस आलाकमान के समझ में नहीं आ रही हैं तो उसके लिए अल्लामा इकबाल का यह शेर नजर करना मोजूं लगता है।
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते हैं सफीनों में
ऐसे में अब अशोक गहलोत पर है कि वे डूबने वालों के साथ रहते हैं या बड़ा निर्णय कर उन्हें अपनी अलग नाव की व्यवस्था करनी है। क्योंकि वह नाव केवल उनकी नाव ही नहीं होगी, उस नाव को उन मानवीय मूल्यों की संवाहक होना है जिन्हें योजनागत तरीके से ताक पर रखकर देश की तासीर बदलने की कोशिशें बेधड़क परवान चढ़ाई जा रही है।
अब जब अगले चुनावों में लगभग दो वर्ष ही शेष बचे हैं। यही समय है कि गहलोत को पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से दो टूक बात कर इस निर्णय पर पहुंचना चाहिए कि उन्हें अपनी अलग कांग्रेस बनानी है या नहीं। राहुल गांधी प्रदेश संगठन को लेकर जिस तरह के निर्णय कर रहे हैं या प्रदेश अध्यक्ष को करने की छूट दे रहे हैं उससे नहीं लगता कि राहुल से उन्हें कोई उम्मीदें रखनी चाहिए। समय कम रहा तो नवगठित कांग्रेस पार्टी को चुनाव आयोग से औपचारिक मान्यता भी नहीं मिलेगी।
रही बात असली-नकली पार्टी की तो असली पार्टी साबित वही होती है जिसे जनता मान्यता देती है। उदाहरण कई गिनाए जा सकते हैं। दो बार तो कांग्रेस के ही उदाहरण हैं, देश की जनता ने दोनों बार इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को ही असली माना था। ऐसे ही एमजी रामचन्द्रन के बाद तमिलनाडु की जनता ने जयललिता वाली एआइएडीएमके (ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म) को ही असली माना, ना कि उनकी पत्नी जानकी रामचन्द्रन की एआइएडीएमके को। वहीं आन्ध्रप्रदेश में एनटी रामाराव के बाद वहां की जनता ने उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती की तेलगुदेशम पार्टी को खारिज करने में देर नहीं लगाई और एनटी रामाराव के विरोधी हो लिए दामाद चन्द्रबाबू नायडू की तेलगुदेशम को असली माना। राजस्थान में भी फिलहाल ऐसी परिस्थितियां लगती हैं कि जनता असली कांग्रेस उसे ही मानेगी जिसका नेतृत्व अशोक गहलोत करेंगे।

27 अक्टूबर, 2016

Thursday, October 20, 2016

रोटरी क्लब के आयोजन के बहाने कुछ यूं ही और कुछ राजस्थानी पर

अक्टूबर की 19 और 20 तारीख को रोटरी क्लब की ओर से राजस्थानी भाषा पुरस्कार समारोह आयोजित किया जा रहा है। चार विभिन्न परिवारों के प्रायोजन से राजस्थानी में सृजनरत तीन लेखकों और एक शोधार्थी को तय राशि और विभिन्न औपचारिकताओं के साथ सम्मानित किया जायेगा। सृजनात्मक विधाओं के ऐसे सामाजिक संज्ञान के लिए प्रायोजक परिवार धन्यवादी इसलिए भी हैं कि उन्होंने अपने अर्जित में से विसर्जन के लिए सृजनात्मक विधाओं को चुना है।

जैसी कि जानकारी है कि इन पुरस्कारों के चयन प्रक्रिया की शुरुआत सृजक के आवेदन से होती है। यदि सचमुच ऐसा है तो भविष्य में प्रक्रिया की इस अशालीन शुरुआत से बचना चाहिए। चाहें तो साहित्य अकादमी, दिल्ली की चयन प्रक्रिया को कुछ पेचीदगियों को छोड़ अपनाया जा सकता है। अलावा इसके इस बार तीन पुरस्कार राजस्थानी साहित्यकारों और एक राजस्थान के शोधार्थी को दिया जा रहा है। आगे से इसमें यह हो सकता है कि साहित्यकारों को दिए जाने वाले तीन में से एक पुरस्कार अन्य सृजनात्मक विधाओं के लिए और एक भाषा पर विशेष काम करने वाले को दिया जाय। बल्कि सर्वोच्च सम्मान राजस्थानी भाषा के लिए उल्लेखनीय काम करने वाले सृजक को ही दिया जाना चाहिए। साहित्यकारों के लिए राजस्थानी में पुरस्कार पहले से ही इतने हैं कि हिन्दी को छोड़ दें तो किसी भी अन्य भारतीय भाषा के साहित्कारों के लिए शायद ही हो। राजस्थानी को भाषा के रूप में प्रतिष्ठ करने का कोई महत्ती काम इस कालखण्ड में हो रहा है तो प्रकाश में नहीं है। यदि नहीं हो रहा है तो उसके लिए साहित्य अकादेमी, दिल्ली की राजस्थानी समिति, सूबे की राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी और राजस्थानी के नाम पर चल रही अन्य अनेक संस्थाएं भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। खैर, चर्चा का यह दूसरा मुद्दा है जिन पर विस्तार से बातें पहले भी की जा चुकी हैं।

इस आयोजन के पुरस्कार प्रदान सत्र में मुख्य और विशिष्ट अतिथियों के तौर पर रियासतकालीन जोधपुर के शासकों के उत्तराधिकारी दम्पती को बुलाया गया है। इन्हें बुलाए जाने पर कोई ऐतराज भला क्यों करेगा। यह आयोजकों के निजी विवेक का मसला है, वे चाहे जिन्हें आमंत्रित करें। खटकने वाली बात निमन्त्रण पत्र में उन्हें दिए गए सम्बोधनों से है। हिज हाइनेस महाराजा और हर हाइनेस महारानी जैसे सम्बोधन बीते युग की बात हो गए हैं। आश्चर्य की वजह यह भी है कि यह क्लब संस्कृति जिस पश्चिम से आई, उसी पश्चिम से शेष दुनिया तक आधुनिक दौर की लोकतांत्रिक बयार भी पहुंची है, बावजूद इसके इन क्लबों के आयोजनों में लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा। तथ्यों पर गौर करें तो अपने देश में ही राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए महामहिम जैसे सामन्ती सम्बोधन वर्जित कर दिए गए हैं। ऐसे में इस तरह के हास्यास्पद और चापलूस सम्बोधनों से आयोजक बचते तो ज्यादा गरिमामय होता। जिन्हें तब सेठ कहकर सम्बोधित किया जाता था उनके लिए  इस निमंत्रण पत्र में उद्योगपति और समाजसेवी जैसे संबोधन काम में लिए ही गये हैं। देश को आजाद हुए सत्तर वर्ष हो रहे हैं, नहीं जानता हमारा यह तथाकथित पढ़ा-लिखा और समृद्ध समाज गुलामी की इस तरह की खुमारियों से कब मुक्त होगा।

इसी तरह आयोजन के निमन्त्रण पत्र में पदनाम परिचय के साथ दो विशिष्ट व्यक्तियों को जिस तरह 'फिट' किया गया है उससे साफ लगता है कि क्षेत्र के दो बड़े अखबारों के प्रभारी संपादकों को तुष्ट केवल इसलिए किया जा रहा है कि आयोजन को पूरा कवरेज मिल सके। आयोजक चाहते तो कार्ड में इनके पदनाम ना देकर इनकी निजी सृजनात्मक और पत्रकारीय उपलब्धियों पर आधारित विशेषण देने की चतुराई बरत सकते थे, जो उल्लेखित महानुभावों ने अर्जित कर ही रखी है। वैसे भी किसी महत्त्वपूर्ण आयोजन की व्यवस्थित विज्ञप्ति यदि मीडिया तक पहुंचती है तो उसे सामान्यत: प्रकाशित-प्रसारित किया ही जाता है। हां, यह जरूर है कि डेस्क संभालने वाला या प्रभारी संपादक का आयोजन से कोई निजी दुराग्रह नहीं हो। इस दूसरे उल्लेख से समाज के मोजिजों को आगाह करने का आग्रह बस इतना ही है कि पत्रकार-पेशेवरों के तालवे में गुड़ चिपकाने से परहेज करना चाहिए। समाज में जब टोका-टोकी और आलोचना सामान्यत: गायब होती जा रही है, ऐसे में मीडिया मालिकों के पूर्ण व्यावसायीकारण के बावजूद पत्रकारीय पेशे में जो आलोचक भाव थोड़ा-बहुत बचा है, उसे बचाए रखने की जिम्मेदारी इस समाज की भी है। अन्यथा सभी एक-दूसरे को चाटने में लग गये तो स्वाद बताने वाला ही नहीं मिलेगा। समाज में मिनखों की समझ को बचाए रखना अब ज्यादा जरूरी लगने लगा है।

यह आलेख जब तक लोगों की नजरों में आयेगा तब तक यह आयोजन लगभग पूर्ण हो लेगा। इसलिए यह मान लेना व्यक्तिगत संतोष की ही बात है कि रंग में भंग डालने के आरोप से तो बच ही गया होऊंगा।

20 अक्टूबर, 2016

Thursday, October 13, 2016

कांग्रेस : बींद रे मूंडे सूं लार पड़े तो जानी बापड़ा कांई करे

इसी 13-14 अक्टूबर को प्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेता बीकानेर में हैं। प्रदेश कार्य समिति की बैठक और सेवादल का प्रदेश सम्मेलन जैसे कार्यक्रम बीकानेर में रखे गये हैं। दरअसल कांग्रेस की फिलहाल स्थिति वैसी है जैसी लोक में प्रचलित कैबत के हवाले से उक्त शीर्षक में बताई गई है।
पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को इतनी समझ है कि पार्टी हित में उन्हें किस तरह के लोगों की सलाह पर चलना है। अस्वस्थता के चलते सोनिया लम्बे समय से पार्टी की नीति निर्धारण प्रक्रिया से लगभग अलग हैं। ऐसे में पार्टी की कमान उपाध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ ही है। पिछले चालीस वर्षों से बजाय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के वंशानुगतता से ग्रसित कांग्रेस की इस समय सबसे बड़ी प्रतिकूलता यही है कि उसे विरासत में मिले राहुल गांधी को ना व्यावहारिक राजनीति की समझ है और ना ही लोक के मिजाज की। ऐसे में उनसे यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि पार्टी में ऐसे लोगों को पहचानने की समझ उनमें होगी जिससे पार्टी के हित साधे जा सकें। देश हित की बात तो दूर की है। यही वजह है कि पार्टी के वे सब नेता निष्क्रय हैं जो विपक्ष की भूमिका संजीदगी से निभा सकें। भाजपा सरकारों की अकर्मण्यता, आवाम के खिलाफ उनकी करतूतों और देश की तासीर को बदलने की हरकतों और बयानों का सटीक तरीके से जवाब देने और उघाडऩे जैसी सक्रियता के मामले में कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व और उसके प्रवक्ता पूरी तरह असफल हैं।
देशीय फलक पर देखें तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं इस समय उस दोराहे के केन्द्र बिन्दु पर ठिठकी हुई हैं जिस पर भाजपा और कांग्रेस जैसी दोनों राष्ट्रीय पार्टियां लौट कर आ ठहरती हैं। तीसरे विकल्प की ना उम्मीदी की ऐसी पस्थितियों में विकास के मुद्दे पर शासन में आई भाजपा देश की तासीर के उलट जहां संकीर्णता के असल ऐजेन्डे को लागू करने जुटी है वहीं कांग्रेस राहुल गांधी के नाकारा नेतृत्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था में जरूरी विवेकी और मजबूत विपक्ष की भूमिका में कहीं नजर नहीं आ रही। कांग्रेस से ऐसी उम्मीदें तब दूर की कौड़ी लगने लगी जब वह अपने अस्तित्व को बचाए रखने तक के लिए तर्कसंगत व्यवहारिक राजनीति करती भी नजर नहीं आई।
भाजपा जिसे अब मोदी पार्टी कहना ही उचित होगाजिन वादों और उम्मीदों के बूते सत्ता में आई उन पर खरी उतरना तो दूर की बात, उन्हें पूरा करने की कोशिश करती भी नजर नहीं आती। मोदी सरकार ने अब तक जो किया उसे पिछली सरकार के समय की अपनी करतूतों को धोना ही कहा जायेगा। जिन-जिन विधेयकों का संपं्रग की सरकार पर्याप्त बहुमत के अभाव तथा भाजपा के नकारात्मक रवैये के चलते पारित न करवा पायी उन्हें इस राज में पारित करवाने को भाजपा उपलब्धियों माने तो भले ही माने। इस उल्लेख के ये मानी कतई नहीं कि वे सारे विधेयक कांग्रेस भी अवाम हित में लाई हो। अलावा इसके वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं को नाम बदल कर पुन: प्रस्तुत इस तरह किया मानों अब सचमुच उन पर पर्याप्त अमल होगा। लेकिन जनधन, सब्सिडी का खातों में सीधा ट्रांसफर, स्वच्छ भारत को बदले नाम से और मनरेगा तथा आधार जैसी योजनाओं का नाम भले ही ना बदला हो, इन सब का हश्र क्या हुआ, जानना ज्यादा मुश्किल नहीं है। भाजपा के शासन के बाद देश में किसानों की आत्महत्याओं और स्त्रियों के साथ दुष्कर्मों में बढ़ोतरी, सरकारी कार्यों के लिए रिश्वत की दरें लगभग दोगुनी होना और महंगाई से कोई राहत ना मिलना भाजपा सरकारों के शासनिक और प्रशासनिक निकम्मेपन की बानगियां हैं। मोदी और अमित शाह के चहेते औद्योगिक घरानों को फलने-फूलने की भारी अनुकूलताएं देना जैसे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस या अन्य विपक्ष शासन पर दबाव बना सकता है। लेकिन इन सब पर कांग्रेस सहित विपक्ष की चुप्पी यह सन्देश देने के लिए पर्याप्त है कि वे भी ऐसा ही चाहते रहे हैं लेकिन उनमें यह सब बेधड़क करने का साहस नहीं है। यह भी कि सामाजिक समरसता वाली देश की तासीर को बदलने के कुत्सित प्रयासों में इस शासन में जिस तरह बढ़ोतरी हुई, ऐसी करतूतों पर भी कांग्रेस और अन्य विपक्ष की चुप्पी उनके असल चरित्र पर संदेह पैदा करती है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास ऐसे नेता और प्रवक्ता नहीं हैं जो सशक्त, तार्किक और विवेकमयी विपक्ष की भूमिका निभा सकें बल्कि राहुल गांधी जैसे नेता के पास वैसे पार्टीजनों को पहचानने की कुव्वत ही नहीं। कांग्रेस को डूबते देखना लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण इसलिए कह सकते हैं कि ऐसी शासन प्रणालियों में विपक्ष की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती।
राहुल गांधी यदि कांग्रेस पार्टी की मजबूरी हैं तो कांग्रेस को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। हां, यह बात अलग है कि देश वर्तमान शासन की करतूतों से भी गले तक वैसे ही धाप जाए जैसे 2013-14 के चुनावों में कांग्रेस से धापा हुआ था और मोदी जैसे नेता के भ्रमों में आ जाए। वैसी ही मजबूरी में अगले चुनावों में जनता यदि राहुल गांधी के अधकचरे नेतृत्व में कांग्रेस को फिर चुन लेगी तो उसे आदर्श विकल्प ठीक वैसे ही नहीं कहा जायेगा जैसे वर्तमान में मोदी सरकार को नहीं कहा जा सकता।
गेंद अब जनता के पाले में है। ऐसे में उसे या तो कोई तीसरा विकल्प खड़ा करना होगा, तीसरा विकल्प यदि नहीं दिखता है तो 'नोटा' का प्रयोग कर दोनों को नकारना होगा। लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने का रास्ता इसी से होकर निकलेगा, समय भले ही लगे। अन्यथा देश जिन परिस्थितियों को भुगत रहा है, उससे भी ज्यादा भयावहता सामने आएगी जिन्हें भी भुगतने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होगा।

13 अक्टूबर, 2016

Sunday, October 2, 2016

'उगे मौन के जंगलों में सहमा हुआ खो गया है'

साहित्य, संगीत और कला जैसी विधाओं के किसी सृजनकार की स्मृतियों को सार्वजनिक कर किसी शहर के बाशिन्दे अपने सुसंस्कृत होने की भले ही पुष्टि करते हों लेकिन सच यह है कि हरीश भादानी के बाद उनकी कही उक्त शीर्षक पंक्तियों को पुष्ट करते हुए यह शहर मौन का जंगल हो गया है।
पिछली सदी के सातवें, आठवें और नवें दशक में अपने लोक में सक्रिय साहित्यकार हरीश भादानी के सृजन के समग्र प्रकाशन के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम उनकी स्मृतियों को साझा करने का अवसर दे रहा है। देश के साहित्यिक लोक में विचरण करने वालों को बीकानेर के संदर्भ से यहां के जो व्यक्तित्व गौरवी-भान करवाते रहे हैं उनमें हरीश भादानी, यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' और नन्दकिशोर आचार्य विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके साहित्यिक अवदान पर लिखना मेरे बूते से बाहर है। चूंकि पिछले लगभग पांच दशकों से स्थानीय लोक का मैं सक्रिय हिस्सा रहा हूं तो इस आलेख में भादानी की लोकवी भूमिका का जिक्र करने का साहस जरूर कर सकता हूं।
सातवें और आठवें दशक में जिला प्रशासन की ओर से जिला जन सम्पर्क कार्यालय के माध्यम से स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्याओं पर कवि सम्मेलन और मुशायरों का आयोजन हुआ करता था। इस तरह के आयोजनों में तब श्रोताओं की ठीक-ठाक उपस्थिति हुआ करती थी। युवा होते रसिक प्रशिक्षुओं के लिए ऐसे अवसर विशेष प्रशिक्षण के होते थे। तब जिन कवियों-गीतकारों को सुनना अच्छा लगता था उनमें हरीश भादानी भी एक थे।
भादानी अवाम में सीधे हस्तक्षेप करने और उसे जगाए रखने की खैचल में लगे रहने वाले साहित्यकार थे। होली के दिनों में अश्लील गीतों को बनाने और उन्हें लोकप्रिय धुनों पर सार्वजनिक तौर पर सुनने का रिवाज यहां लम्बे समय से रहा है। सुसंस्कृत लोग इसे अनुचित मानते रहे हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को काउण्टर करने के लिए 1970 के इर्द-गिर्द बीकानेर के कवियों, गीतकारों ने भादानी की अगुवाई में टोली बनाई। चार पहियों के हाथगाड़े पर लाउडस्पीकर की व्यवस्था कर शहर की गली-गवाड़ और चौकों में वे स्वयं के रचे गीतों और कविताओं को गाकर सुनाते थे। तब यह प्रयोग न केवल लोकप्रिय हुआ बल्कि शहर से बाहर भी चर्चा में रहा।
भादानी के कई गीत और कविताएं व्यवस्था विरोधी और अवाम की खैरख्वाही वाले रहे हैं। सभी जानते हैं तब केन्द्र और राज्य—दोनों जगह शासन कांग्रेस का हुआ करता था। वामपंथी हो लिए भादानी चुनावों में अपनी विचारधारा वाले उम्मीदवारों की सभाओं में गीत और कविताएं पहले भी सुनाते रहे लेकिन आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी की सभाओं में भादानी अपने गीतों से श्रोताओं को मचलने को मजबूर कर देते थे। उस दौर में भादानी के 'मरजी राज जासी, लोकराज आसी' और 'रोटी नाम सत है कि खाए से मुकत है' जैसे गीत लोकतंत्र के प्रति अवाम की हुलस को पुष्ट करते देखे गये। साहित्य, कला और संस्कृति-कर्मियों का सीधा जनजुड़ाव तब के बाद यहां नहीं देखा गया। पिछले लगभग बीस-पचीस वर्षों से तो यह सून खलने भी लगी है।
उस दौर में वैचारिक सहिष्णुता थी, विरोध में बात करने वाले साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को भी सत्ता और राजनीतिक दलों द्वारा मान दिया जाता था। यही वजह है कि 'लोकराज कत्तई नहीं वह, देह धंसे कुर्सी में जाकर, राज नहीं है कागज ऊपर एक हाथ से चिड़ी बिठाना' जैसी पंक्तियां लिखने वाले भादानी को तब के शासक वर्ग के लोग पूरा मान देते थे।
पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में देश के साहित्यिक लोक में चर्चित 'वातायन' पत्रिका का सम्पादन हरीश भादानी ही करते थे। वातायन के उस दौर में यहां महात्मा गांधी रोड स्थित 5, डागा बिल्डिंग, वैचारिक उद्वेलन का केन्द्र था। तब साम्यवाद, समाजवाद और एमएन राय के नवमानववाद पर मनीषी डॉ. छगन मोहता के सान्निध्य में गंभीर चर्चाएं होती। ऐसी चर्चाओं में तब मानिकचन्द सुराना जैसे लोगों की पूरी सक्रियता रहती थी। राजनीतिक-सामाजिक और साहित्यिक चर्चाओं के उस माहौल से यह शहर पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से वंचित है। कहने को सांस्कृतिक आयोजन बढ़े हैं लेकिन आयोजनों में विमर्श नदारद है। डॉ. छगन मोहता होते तो कहते—केवल पानी बिलोया जा रहा है, जिससे हासिल कुछ नहीं होना।
'वातायन' के मुद्रण में आ रही समस्याओं से निपटने के वास्ते भादानी ने राजश्री प्रिंटर्स नाम से प्रिंटिंग प्रेस भी चलाया, शहर में जिसकी अपनी साख थी। तब भादानी को अपने प्रेस परिसर में प्रिंटिंग ब्लॉक के बराबर मोटाई वाले लकड़ी के फट्टे पर सुथारी औजारों से आकृतियां उकेरते देख सकते थे। इन्हीं आकृतियों को वे ब्लॉक की जगह काम लेकर पत्र-पत्रिकाओं के आवरण पर विभिन्न रंगों में छपवाते थे।
भादानी का ऐसा ही एक पक्ष ओर था। वामपंथी लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की सामान्य छवियों से उलट साफ-सुथरे रहने वाले भादानी का 'ड्रेस सेंस' गजब का था, उनके कुर्ते, जैकेट, पजामे विशिष्ट प्रकार के होते। यानी वे केवल शब्दों को ही नहीं संवारते बल्कि रोजमर्रा की अपनी जरूरतों में काम आने वाली वस्तुओं के साथ भी नये-नये प्रयोग करते। बहुधा तो शॉल, चद्दरों आदि से कुर्ते-जैकेट बनवाने के लिए अपना डिजायन वे खुद बताते और कपड़े सिलने वाले कारीगर से सिलवा लेते। भादानी रसोई में भी हाथ आजमाते, सब्जियों को नये-नये तरीकों से बनाते और बेहद स्वादिष्ट बनाते। यही नहीं, कई बार उनकी पहनी चप्पल और चश्मे का फ्रेम भी ध्यान खींचे बिना नहीं रहते।
हरीश भादानी समग्र के प्रकाशन के इस अवसर पर प्रकाशक से संबंधित एक प्रकरण साझा करना जरूरी है। पिछली सदी के आठवें दशक की बात है, राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रथम वर्ष, सामान्य हिन्दी की एक पाठ्यपुस्तक 'समवेत' में भादानी की दो कविताएं शामिल की गईं। पुस्तक के सम्पादक भादानी की उदारता से परिचित थे इसलिए स्वीकृति की तो दूर की बात, कविताओं को उन्होंने संग्रह में बिना पूछे ही शामिल कर लिया। इसकी जानकारी भादानी से पहले नन्दकिशोर आचार्य को हो गई, पूछने पर भादानी ने अनभिज्ञता जताई। फिर क्या, आचार्य ने प्रकाशक पर कार्यवाही करने के अधिकार भादानी से मौखिक ही ले लिए और देश के उस नामी प्रकाशन की मालकिन के खिलाफ न्यायालय में इस्तगासा लगवा दिया। वकील थे विजयसिंह एडवोकेट, जिन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार के तौर पर 1977 का विधानसभा चुनाव आरके दास गुप्ता के खिलाफ कोलायत से लड़ा।
जज साहब जब दूसरी-तीसरी तारीख देने को हुए तो विजयसिंह ने जज से निवेदन करते हुए कह दिया कि ये लोग मेरे मित्र हैं, हर तारीख को पांच-सात लोग कोर्ट आ धमकते हैं, फीस की बात तो छोडि़ए, कागज-पत्र तो घर से लगाता ही हूं, इनके चाय, कॉफी, नाश्ते की व्यवस्था भी मुझे ही करनी पड़ती है। जज ने निवेदन का संज्ञान लिया और प्रकाशक को नोटिस भेज दिया। सम्पादक तुरंत बीकानेर पहुंच गये। भादानी को संपादक से बात न करने को पाबन्द कर आचार्य ने खुद अपने को ही बात करने के लिए नियुक्त मान लिया। उस दौर में जब संपादक ने मानदेय के तौर पर दो कविताओं के पांच सौ रुपये भी किसी को नहीं दिए, आचार्य ने तब मानदेय के पांच हजार रुपये तय कर दिये। सम्पादक भादानी से चिरौरी करते रहे पर भादानी उनकी कोई सहायता न करने को लाचार। आखिर उन्हें भादानी को पांच हजार देने पड़े, रसीद पर हस्ताक्षर तो भादानी ने किए पर रुपए आचार्य ने यह कहते हुए ले लिए कि ये तो भाभी (भादानीजी की पत्नी) को दिए जाएंगे। भादानी असहाय होकर इतना ही कह पाए कि मेरी कविताएं हैं, इनमें से कुछ तो मुझे मिलने चाहिए। लेकिन उनकी सुनी नहीं गई।
अब अपनी बात करूं तो पत्रकार के रूप में शुरुआत में मेरी पहली और विस्तृत रिपोर्ट 1979 के जिस कार्यक्रम की 'मरुदीप' साप्ताहिक में छपी वह भादानी की काव्य पुस्तक 'नष्टो मोह' के लोकार्पण समारोह की थी। तब मरुदीप नन्दकिशोर आचार्य के सम्पादन में निकलता था। उस समय भादानी के साथ जो आत्मीय रिश्ता बना, अन्त तक कायम रहा।
---दीपचन्द सांखला 
1 अक्टूबर, 2016