वर्ष 2011 के पूर्वाद्र्ध
में केन्द्र की संप्रग सरकार के कुछ मंत्रियों के घोटालों का लगातार खुलना,
लुंज-पुंज भाजपा का संसदीय काम-काज में रोड़े
अटकाऊ विरोध, जनता में
कांग्रेसनीत केन्द्र की सरकार से उठता भरोसा, इसी बीच स्थानीय मुद्दों पर महाराष्ट्र के आन्दोलनकर्ता—भोले और विचारहीन अन्ना हजारे का दिल्ली आना और
5 अप्रेल, 2011 के दिन भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन पर
बैठना। इसी दिन उनके समर्थन में पूरे देश में कई स्थानों पर गिने-चुने ही सही,
लोगों का एक दिन के सांकेतिक अनशन पर बैठना।
भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का अन्ना हजारे को लगातार बढ़ता समर्थन और योगधंधी
रामदेव का भी ऐसे माहौल का अपने धंधे में लाभ उठाने की नीयत से सक्रिय होना। इस
माहौल को संभालने के लिए कांग्रेस की ओर से अनाड़ी नेताओं को सक्रिय किए जाने से
माहौल लगातार और बिगड़ता गया। जिस संप्रग की पहली गठबंधन सरकार ने आंतरिक उठापठक
के बावजूद जनता में अपनी साख बनाए रखी और 2009 का चुनाव पुन: जीत लिया वही संप्रग-दो सरकार बनने के साथ
ही साख के मामले में हिचकोले खाने लगी। लोग विचारहीन अन्ना में उम्मीदें देखने लगे,
डेढ़ वर्ष ऐसे ही असंतोष में बीता, इसी बीच 2012 की 16 दिसम्बर की रात
दिल्ली में एक युवती के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने जैसे जनता के इस रोष
की आग में घी का काम किया। दो वर्षों से लगातार साख खोती केन्द्र सरकार और
कांग्रेस नेतृत्व को इसे संभालने में असफल होते देख प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इस
अवसर का लाभ-उठाने को बड़ा निर्णय करते हुए और भ्रमित करने में माहिर नरेन्द्र
मोदी पर दावं खेलती है।
नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित हो चुकी कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व को फिलहाल नियति मान लिया है। ऐसी परिस्थितियों में
अच्छी-भली साख से सरकार चलाने वाले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व
में कांग्रेस को 2013 के विधानसभा
चुनावों में शर्मनाक हार देखनी पड़ी। वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस
लोकसभा में मात्र चवालिस सांसदों पर आ अटकी।
इस आलेख में इस लंबी-चौड़ी प्रस्तावना का आशय ये बताना भर है कि राजस्थान की
वर्तमान वसुंधरा सरकार की साख भी प्रकारान्तर से वैसी ही है जैसी 2011-12 में केन्द्र में संप्रग-दो की सरकार की थी।
राजस्थान में शासन नाम की कोई व्यवस्था दिखाई नहीं दे रही। दूसरे तो दूर की बात,
खुद सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक और मंत्रियों
तक को मुख्यमंत्री समय नहीं देतीं। जिस भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे का लाभ झपट कर
केन्द्र और कुछ प्रदेशों में भाजपा सत्तारूढ़ हुई, वह भ्रष्टाचार अब दुगुना इसलिए नजर आने लगा कि सरकारी कामकाज
करवाने की रिश्वत की दरें इस राज में पिछले राज से लगभग दुगुनी होने की जानकारी
जब-तब मिलती ही रहती है। अलावा इसके अपनी पार्टी आलाकमान से उपेक्षित हो अनमनी हो
चुकी सूबे की मुखिया प्रदेश के किसी भी जरूरी मुद्दे पर ध्यान नहीं दे पा रही हैं।
इस सरकार के खिलाफ जन असंतोष का लाभ उठाने के वास्ते प्रमुख विपक्षी दल
कांग्रेस यदि अन्ना आन्दोलन और निर्भया कांड जैसी 2012-13 में भाजपा को मिली अनुकूलताओं का इंतजार कर रही है तो वह
भारी भ्रम में है। वैसी अनुकूलता व्यावहारिक राजनीति में कभी-कभार ही मिलती है।
ऐसी परिस्थितियों में जब कांग्रेस आलाकमान केवल अनाड़ी राहुल के प्रयोगों में
लगी है, उसे समाप्त होते देर नहीं
लगनी है। उत्तरप्रदेश के चुनावों के परिणाम कांग्रेस के अनुकूल होते नहीं दिख रहे
हैं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस यदि प्रियंका गांधी को मुख्यमंत्री के तौर पर
प्रोजेक्ट करती तो हो सकता था कि वह कुछ चमत्कार सा कर गुजरती। फिलहाल
जो कांग्रेस नेहरू-गांधी वारिसों की बैसाखियों के बिना पंगु है, उसमें इसके अलावा कुछ कल्पना दिवास्वप्न से
ज्यादा कुछ नहीं।
यह विषयान्तर नहीं लेकिन बीच में एक संदर्भ का जिक्र करना जरूरी है।
हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक अप्पू एस्थोस सुरेश ने पिछले सप्ताह एनडीटीवी
इंडिया के प्राइम टाइम में अपनी उस रिपोर्ट का जिक्र किया जिसमें वे बताते हैं कि
जून, 2013 से अब तक केवल
उत्तरप्रदेश में ही दस हजार से ज्यादा सांप्रदायिक दंगे ऑन रिकार्ड हुए हैं। इन
दंगों के रिकॉर्ड में एक और जो भिन्नता है वह यह कि दंगों के इतिहास से भिन्न इनमें
से अधिकांश घटनाएं ग्रामीण इलाकों की हैं, जबकि अब तक के दंगों का इतिहास बताता है कि पूर्व के अधिकांश दंगे शहरी
क्षेत्रों में ही होते रहे हैं। इस रिपोर्ट का मकसद यह बताना भर है कि चुनावी लाभ
उठाने के वास्ते देश की तासीर को किस खतरनाक तरीके से बदला जा रहा है इस भयावहता
से बेफिक्री देश के लिए खतरनाक हो सकती है। क्या गारंटी है कि वोटों के लिए ऐसे ही
धु्रवीकरण से राजस्थान, अन्य प्रदेश और
फिर पूरा देश बचा रह सकेगा। ऐसी करतूतें जिस तरह बेधड़क होने लगी हैं, इससे यही लगता है कि देश को बुरे दौर में झोंका
जा रहा है।
प्रदेश के संवेदनशील लोग और नेतृत्व करने वाले सचेत नहीं हुए तो ऐसी करतूतों
के लिए उत्तरप्रदेश के बाद जिन प्रदेशों की बारी आने वाली है उनमें राजस्थान का
नम्बर पहले लग सकता है। यहां 2018 में विधानसभा
चुनाव होने हैं और सूबे की वर्तमान सरकार की साख वैसी बन नहीं पा रही है कि अगला
चुनाव आसानी से जीता जा सके। कांग्रेस आलाकमान को यह सब देखने की समझ ही जब नहीं
है तो उससे लाभ उठाने के उपाय वह क्या करेगी? जबकि तीसरी ताकत के अभाव में प्रदेश को ऐसी भयावह
परिस्थितियों से बचाने की उम्मीदें सिर्फ कांग्रेस पर टिकती हैं। न तो कांग्रेस के
वर्तमान प्रदेश प्रभारी में कोई कूवत दिखाई देती और ना ही प्रदेश अध्यक्ष में।
सचिन जब टीवी बहसों में आते थे तो संजीदा और समझदार लगते थे लेकिन जनता में भरोसा
जमाने में वे असफल होते दिख रहे हैं। सचिन गुर्जर समुदाय से आते हैं, प्रदेश में गुर्जर आरक्षण उद्वेलन के चलते
गुर्जरों के काउण्टर समुदाय की छाप हासिल कर चुका मीणा समुदाय भावी मुख्यमंत्री के
तौर पर सचिन पायलट पर कोई भरोसा नहीं करेगा। ऐसे में जिस सीमित क्षेत्र में सचिन
कुछ हासिल कर सकने की स्थिति में हैं वहां भी उनकी सफलता संदिग्ध दिखती है। वहीं
प्रदेश के शेष हिस्से में सम्पर्क बनाने का आत्मविश्वास तक वे इन दो वर्षों में
हासिल नहीं कर पाए हैं। ऊपर से मुकुट पहनने और भेंट में तलवारें लेने के सामन्ती
प्रतीकों में उनका विश्वास अलग छवि बनाता है। ऐसी ही सब बातें यदि कांग्रेस
आलाकमान के समझ में नहीं आ रही हैं तो उसके लिए अल्लामा इकबाल का यह शेर नजर करना
मोजूं लगता है।
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते हैं सफीनों में
ऐसे में अब अशोक गहलोत पर है कि वे डूबने वालों के साथ रहते हैं या बड़ा
निर्णय कर उन्हें अपनी अलग नाव की व्यवस्था करनी है। क्योंकि वह नाव केवल उनकी नाव
ही नहीं होगी, उस नाव को उन
मानवीय मूल्यों की संवाहक होना है जिन्हें योजनागत तरीके से ताक पर रखकर देश की
तासीर बदलने की कोशिशें बेधड़क परवान चढ़ाई जा रही है।
अब जब अगले चुनावों में लगभग दो वर्ष ही शेष बचे हैं। यही समय है कि गहलोत को
पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से दो टूक बात कर इस निर्णय पर पहुंचना चाहिए कि
उन्हें अपनी अलग कांग्रेस बनानी है या नहीं। राहुल गांधी प्रदेश संगठन को लेकर जिस
तरह के निर्णय कर रहे हैं या प्रदेश अध्यक्ष को करने की छूट दे रहे हैं उससे नहीं
लगता कि राहुल से उन्हें कोई उम्मीदें रखनी चाहिए। समय कम रहा तो नवगठित कांग्रेस
पार्टी को चुनाव आयोग से औपचारिक मान्यता भी नहीं मिलेगी।
रही बात असली-नकली पार्टी की तो असली पार्टी साबित वही होती है जिसे जनता मान्यता
देती है। उदाहरण कई गिनाए जा सकते हैं। दो बार तो कांग्रेस के ही उदाहरण हैं,
देश की जनता ने दोनों बार इन्दिरा गांधी के
नेतृत्व वाली कांग्रेस को ही असली माना था। ऐसे ही एमजी रामचन्द्रन के बाद
तमिलनाडु की जनता ने जयललिता वाली एआइएडीएमके (ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र
कडग़म) को ही असली माना, ना कि उनकी पत्नी
जानकी रामचन्द्रन की एआइएडीएमके को। वहीं आन्ध्रप्रदेश में एनटी रामाराव के बाद
वहां की जनता ने उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती की तेलगुदेशम पार्टी को खारिज करने
में देर नहीं लगाई और एनटी रामाराव के विरोधी हो लिए दामाद चन्द्रबाबू नायडू की
तेलगुदेशम को असली माना। राजस्थान में भी फिलहाल ऐसी परिस्थितियां लगती हैं कि
जनता असली कांग्रेस उसे ही मानेगी जिसका नेतृत्व अशोक गहलोत करेंगे।
27 अक्टूबर, 2016