Saturday, June 12, 2021

रास्ता और रेल रोको आंदोलन

राजेन्द्र राठौड़ की गिरफ्तारी के बाद उनके हितचिन्तकों और जिनके हितसाधक राठौड़ रहे हैं, उन लोगों ने विरोध स्वरूप कल सड़कों पर आवागमन रोका और चूरू में रेलगाड़ी भी। राठौड़ चूरू जिले से नुमाइंदगी करते हैं, जाहिर है उनके हितचिन्तक और उनसे लाभान्वित वहीं ज्यादा होंगे। इसीलिए चूरू जिले में उद्वेलन कुछ ज्यादा रहा। प्रदेश में और भी कई जगह इस तरह के छुटपुट प्रदर्शन हुए हैं।

कल बीकानेर शहर में भी नयी गजनेर रोड पर कुछ देर तक रास्ता रोका गया–सूचना है कि उस समय तीन ऐंबुलेंस भी इस रास्ता रोको की शिकार हुईं―उन ऐंबुलेंस में ऐसे रोगी थे जिन्हें तत्काल विशेषज्ञ-डाक्टरों की सेवाओं की जरूरत थीं। आन्दोलनकर्ताओं को इसकी सूचना भी दी गई, लेकिन उन्होंने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। कल ही जब चूरू में यही सब हो रहा था तब विरोध पर उतरे लोगों ने सरायरोहिल्ला-बीकानेर रेलगाड़ी को रोकने की कोशिश की―नहीं रोक पाने पर उन्होंने रेलगाड़ी पर पत्थरबाजी की। यह सब विरोध के नाम पर अब आम होने लगा है। कुछ माह पहले भी जब महिपाल मदेरणा और मलखानसिंह की गिरफ्तारी हुई तो इसी तरह से विरोध प्रदर्शन हुए।

राजेन्द्र राठौड़ सचमुच आरोपी हैं तो थोड़े दिनों बाद उनके समर्थक शांत होने लगेंगे और नहीं हैं तो सीबीआई ज्यादा दिन उन्हें अन्दर नहीं रख पायेगी। हमारे कानून की चाल कछुवा जरूर है-अचल नहीं।

रेलगाडिय़ां और सड़कें रोकना अब विरोध की अभिव्यक्ति मान ली गई है―बिना यह जाने कि इस तरह से हम कितनों की जान से खेल रहे हैं और अगर कोई युवा अपने कॅरिअर बनाने के अवसर को हासिल करने निकला है तो उसके पेशेवर जीवन को ताक पर रखने की गलती भी कर रहे होते हैं, अब ऐसे अवसर वैसे ही बहुत सीमित हो गये हैं। कल के गजनेर रोड के रास्ता रोको में दो प्रसुताएं कराह रही थीं। उनके या उनके नवजात के साथ कुछ भी हो सकता था। इस तरह के विवेकहीन विरोधों में लगे सभी से निवेदन है कि वह इतना तो विचारें कि इन रेलों को और सड़कों को रोकने से आपका भी कोई प्रिय और परिजन किसी बड़ी तकलीफ में आ सकता है।

लोकतंत्र में प्रत्येक को अपनी बात कहने का हक हासिल है―किसी को यह लगता है कि उनके साथ या उनके किसी स्नेहीजन के साथ अन्याय हो रहा है तो उन्हें विरोध के और ध्यानाकर्षण के ऐसे उपाय काम लेने चाहिए जिससे किसी अन्य के हकों और महती जरूरतों में व्यवधान ना आये। किसी का हक मार कर, असुविधाओं में धकेल कर या किसी की जान जोखिम में डाल कर अपने हक हासिल करना चाहेंगे तो इस तरीके के शिकार कभी आप भी हो सकते हैं।

इस तरह की समझाइश पर यह जवाब आम होता है कि इसके बिना सुनवाई नहीं होती है। अगर ऐसा है, और देखा भी गया है कि है भी तो इसके लिए भी आप और हम ही दोषी हैं। इस व्यवस्था को हम पर किसी ने थोपा नहीं है, और प्रति पांच वर्ष बाद इस तरह की व्यवस्था को अगले और पांच और वर्ष के लिए हम ही स्वीकार करते हैं। राज किसी भी पार्टी का रहा हो, व्यवस्थाएं यूं ही चल रही है। यह न केवल बद से बदतर हो रही है बल्कि जिन्दगी की मुश्किलें भी लगातार बढ़ती जा रही हैं।

कल फिर शहर में बन्द का आह्वान है। आह्वानकर्ताओं से यह उम्मीद है कि अपने इस बन्द से आवश्यक सेवाओं को छूट दें,  सड़कें और रेलें आवश्यक सेवाओं में ही आती हैं।

इस तरह के आंदोलनों के पीड़ितों से भी उम्मीद की जाती है कि वह अपनी पीड़ा टीवी और अखबारों के माध्यम से जाहिर करें ताकि समाज में संवेदनशील समझ विकसित हो सके।

―दीपचंद सांखला
7 अप्रेल, 2012

Friday, June 11, 2021

प्रकोप में पुलिस

परसों बुधवार की घटना है, म्यूजियम तिराहे पर होमगार्ड का एक सिपाही ड्यूटी पर था। जीप चलाते हुए मोबाइल पर बात करते एक चालक को जब उसने टोका तो चालक को इतना नागवार लगा कि उसने होमगार्ड के जवान की न केवल पिटाई कर दी बल्कि उसका कान चबा कर लहूलुहान भी कर दिया। जीप चालक की हेकड़ी इतने भर से संतुष्ट नहीं हुई, वह सरिया लेकर और सबक सिखाने तक को आतुर हो गया, ताकि वह होमगार्ड का वह जवान भविष्य में किसी अन्य के साथ इस तरह ड्यूटी ना निभाए।

9 फरवरी को सादुलसिंह सर्किल का एक दृश्य। इसी दिन यातायात पुलिस ने महात्मा गांधी रोड पर सादुलसिंह सर्किल तक इकतरफे यातायात की नई व्यवस्था लागू की थी। यातायात निरीक्षक (टीआई) स्वयं सर्किल पर तैनात थे। बावजूद इसके एक ऑटोचालक ने व्यवस्था के उल्लंघन की जुर्रत की। जब टीआई ने उस पर कार्यवाही के आदेश दिये तो ऑटोचालक का दुस्साहस देखिए, उसने अपने किसी निर्भयकर्ता 'आका' को मोबाइल लगा टीआई से कहने लगा, 'लो, बात करो।'

एक और घटना का जिक्र करना जरूरी है। लगभग एक वर्ष पहले की बात है, तौलियासर भैरूं मन्दिर चौराहे पर तब ऑटोरिक्शा अनधिकृत और बेतरतीब खड़े रहा करते थे, किसी की भी नहीं सुनते। ट्रैफिक पुलिस ने एक महिला सिपाही की वहां ड्यूटी लगा दी, यह जानते हुए भी कि वहां के ये ऑटोरिक्शा वाले पुरुष कांस्टेबल के भी ताबे नहीं आते। वह महिला सिपाही दो-तीन दिन में ही इन ऑटोरिक्शा वालों से इतनी कुंठित हुई कि एक ऑटोरिक्शा के कांच (विंड स्क्रीन) पर डंडा दे मारा। कांच टूट गया। हालांकि महिला सिपाही की यह कार्यवाही गलत थी लेकिन ऑटोरिक्शा वाला भी क्या सही था? ऑटोरिक्शा वालों को यह कैसे बर्दाश्त होता, वे तो पुरुष सिपाहियों को भी दिन में कई-कई बार आईना दिखाते रहते हैं, एक महिला सिपाही को इस तरह कैसे बर्दाश्त करते—हड़ताल कर दी—तब के पुलिस अधीक्षक ने भी खुद को बिना रीढ़ के होने का प्रमाण दिया—उस महिला सिपाही से उस ऑटोरिक्शा वाले से रू-बरू माफी मंगवाई। पुलिस अधीक्षक ने वस्तुस्थिति जानते हुए भी ऐसा करवाया जो उस महिला सिपाही के लिए ही नहीं पूरे पुलिस महकमे के लिए हतोत्साही करने वाला था। ऐसी परिस्थितियों में इन पुलिस वालों से हम कैसी उम्मीद कर सकते हैं!

इन तीन घटनाओं का उल्लेख यहां यह बताने के लिए किया गया कि पूरे पुलिस महकमे को विभिन्न सत्तारूपों ने किस तरह से पंगु बना दिया है—यह सत्तारूप नेताओं के रूप में, यूनियन के रूप में और अब तो एक और सत्तारूप शालीनता से आवृत पत्रकारों की हमारी जमात का भी है। हमारे पत्रकार भी सिपाहियों से मोबाइल पर किसी को छोड़ने का आग्रह करते देखे जा सकते हैं—हालांकि पत्रकारों का स्वर शालीन होता है। नेताओं के स्वर में अकसर जो हेकड़ी देखी जाती है—वह पत्रकारों में अभी नहीं आई है। यानी जिस किसी के पास भी किसी पावर का दावं है, वह उसे लगाने से नहीं चूकता।

उस जीप चालक को किसी अपने 'आका' का जोम था, तभी उसने उस होमगार्ड को सबक सिखाने की ठानी। अब उस होमगार्ड के सिपाही को पुलिस से और अपने होमगार्ड के साथियों से यह नसीहत दी जा रही होगी कि ड्यूटी पर चुपचाप खड़े क्यों नहीं रहते—किसी से उलझना जरूरी है क्या?
9 फरवरी की घटना में भी जरूर उस ऑटोचालक को उसके आका ने नसीहत नहीं दे रखी होगी कि सिपाहियों को तो मेरे फोन का डर दिखा दिया कर—अफसरों को नहीं।

अपराधी या अनियमितता करने वालों में से जिस किसी के पास भी दावं बड़ा होता है, वह अपनी पावली चलाता ही है—लेकिन मदेरणा, मलखान, राठौड़, एडीजे एके जैन, आईजी पोन्नूचामी, एएसपी अरशद को सीखचों के पीछे देखकर इतना तो समझ लेना चाहिए कि न्याय के घर देर भले ही हो, अंधेर नहीं है। जरूरत दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ न्याय के घर का लगातार दरवाजा खटखटाते रहने की है।

—दीपचंद सांखला
6 अप्रेल, 2012

'खलनायक' अशोक गहलोत

भारतीय मन में रचे-बसे दो महाकाव्य रामायण और महाभारत, दोनों अतुलनीय। लोक में इन दोनों के ही सैकड़ों रूप मिलते हैं। जीवन के अनगिनत आयामों को बारीकी से समझाने में सक्षम इन दोनों ही महाकाव्यों के मुख्यपात्रों को आधुनिक सिनेमाई अन्दाज से देखें तो नायक की उपस्थिति इन दोनों में मिलती है। रामायण में नायक के रूप में राम और खलनायक के रूप में रावण हैं तो महाभारत में यह बड़ा गड्ड-मड्ड है―वहां नायक केवल कृष्ण हैं और सभी पात्रों को कहीं न कहीं खलनायकी के कठघरे में खड़ा पाते हैं, कहीं-कहीं कृष्ण को भी।

वर्तमान राजनीति को देखें तो महाभारत की तर्ज पर कोई भी पात्र यहां भी खलनायकी से अछूता नहीं है। चूंकि आज के इस ‘महाभारत’ को रचने वाले ॠषि वेदव्यास नहीं है तो कृष्ण के रूप में कोई नायक भी नहीं है। इसलिए कोई राजनेता अपने को नायक साबित करता तो नहीं दिखता पर अपने बरअक्स अन्य को खलनायक साबित करने की जुगत में जरूर लगा मिलेगा, गोया बरअक्स शख्सियत को खलनायक साबित करना ही अपने को नायक साबित करना है।

हमारे बीकानेर में भी यह प्रपंच बदस्तूर जारी है। यहां यह प्रयास लगातार जारी रहता है कि बीकानेर के विकास में सबसे बड़ी बाधा अशोक गहलोत हैं―इसमें विपक्षियों से ज्यादा कांग्रेसियों की सक्रियता अधिक दिखाई देती है। अशोक गहलोत को खलनायक के तौर पर स्थापित कर देने भर से यहां के राजनेताओं और जनप्रतिनिधियों की बहुत-सी मुश्किलें आसान हो जाती हैं और उनकी अक्षमताओं को आड़ भी मिल जाती है।

राज्य के इस वर्ष के बजट को ही लें, मुख्यमंत्री ने छः विश्‍वविद्यालयों की घोषणा की है, बीकानेर का नाम उनमें नहीं था। लेकिन जब बीकानेर के लिए वेटेनरी विश्‍वविद्यालय की घोषणा की गई तब किसी अन्य संभाग के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं थी, यह ना तो कांग्रेस के नेता बताते हैं और ना ही मीडिया इसका उल्लेख करता है। हां, मीडिया नागौर के लिए की गई घोषणाओं को जोधपुर के खाते में जरूर डाल देगा, यह बिना जाने कि नागौर, अजमेर संभाग में है। 

केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय का उलाहना मुख्यमंत्री को हमेशा रहेगा―विजयशंकर व्यास कमेटी की सिफारिश के बावजूद उसे अजमेर को दे दिया जाना बीकानेर के साथ अन्याय है। केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय की इस घोषणा में क्या दाबा―चींथी नहीं हुई–इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि सचिन पायलट के सामने हमारे दिग्गज बालक हो लिए।

हमारे नेताओं ने कभी इस पर चिन्तन किया कि यहां के इंजीनियरिंग कॉलेज की जिस तरह की प्रतिष्ठा लगभग पांच वर्ष पहले थी, वैसी अब क्यों नहीं है? या यह कि उसका स्तर लगातार क्यों गिरता जा रहा है―इस तरह के कॉलेजों की प्रतिष्ठा प्लेसमेंट के लिए वहां पर आने वाली कम्पनियों और उनके द्वारा दिए जाने वाले मोटे पैकेज से तय होती है। बीकानेर का इंजीनियरिंग कॉलेज किस तरह की राजनीति का शिकार हो रहा है?

गंगासिंह विश्‍वविद्यालय आज भी किस हैसियत में है―यहां के नेताओं ने उसके लिए क्या प्रयास किये। अगर सचमुच किये हैं तो उनका रंग दिखाई क्यों नहीं दे रहा।

सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरों के कितने पद खाली हैं, तकनीकी स्टाफ के कितने और अन्य कर्मचारियों के कितने पद भरे नहीं जा रहे हैं। इसकी जवाबदेही अशोक गहलोत से ज्यादा यहां के नेताओं की बनती है, उन्होंने इसके लिए अब तक क्या प्रयास किये हैं।

यहां के सरकारी स्कूलों और सरकारी कॉलेजों में कक्षाएं नियमित नहीं लगती हैं। आज से नहीं पिछले बीसेक वर्षों से स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। क्या यह स्थानीय नेताओं की जिम्मेदारी में नहीं आता है कि इन स्थितियों को दुरस्त करवाएं। ना पुलिस महकमे में सिपाही पूरे हैं और ना ही ट्रैफिक पुलिस के पास। इन पदों को भरवाना तो दूर, उलटे पुलिस वालों का मनोबल गिराने को ये नेता नाजायज कामों के लिए दिन में कितने फोन करते हैं―इसकी सूचना तो किसी भी अधिकार के तहत हासिल नहीं की जा सकती।

रेल बायपास एक ऐसा मुद्दा है जिससे इस बीकानेर शहर का कोई भला नहीं होने वाला―इसके बावजूद यहां के नेता इस लॉलीपॉप को न छोड़ने की जिद पर अड़े हैं। 
यह भी कि देश में कहीं रेल बायपास इस बिना पर बनने का कोई उदाहरण है कि रेल लाइन शहर के बीच आ गयी है। रेल फाटकों की समस्या का समाधान रेल ओवरब्रिज-रेल अन्डरब्रिज और एलिवेटेड रोड ही हैं–यहां कि नुमाइंदगी करने वालों से विनम्र अनुरोध है कि अपने तुच्छ स्वार्थों को साधने के वास्ते जनता को गुमराह ना करें।

अशोकजी! बीकानेर में लम्बे समय से पुलिस अधीक्षक नहीं है, माध्यमिक शिक्षा आयुक्त नहीं है, पीबीएम अस्पताल में अधीक्षक नहीं है। मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और डूंगर कॉलेज में प्रिंसिपल नहीं है। यह जानते हुए भी कि आपको सात संभागों के तैंतीस जिलों को देखना होता है―लेकिन फिर भी किसी संभाग या जिले पर ध्यान देने का नम्बर कभी तो आना चाहिए! कहा भी गया है कि शासक न्यायप्रिय हो इतना ही काफी नहीं है, न्याय होता दिखना भी चाहिए।
―दीपचंद सांखला
3 अप्रेल, 2012

कर्मचारी ईमानदार भी और रिश्वतखोर भी

बीकानेर के केन्द्रीय कारागार में सेवारत प्रहरी निहालचन्द कल जब रिश्‍वत लेते धरे गये तो उन्होंने बताया कि इस जेल में पैसे देने पर सब कुछ हासिल हो सकता है। कुंठित स्वरों में निहालचन्द ने जो कुछ बताया उन सूचनाओं की वाकफियत शहर के कई लोगों को है। इन कई में वे भी शामिल हैं जिनकी जिम्मेदारी ही है कि जेल में कैदियों को सबकुछ हासिल ना होने दें। अपने सजग होने का दम भरने वाले अधिकतर पत्रकारों को, जिला प्रशासन को, पुलिस महकमे को, कोर्ट-कचहरी में होने वाली हथाइयों में शामिल होने वालों को भी यह जानकारियां रहती हैं। जिनके मित्र-परिजन जेल में कभी रहे हैं या इन दिनों हैं―उन्हें तो इन सबका ज्ञान सांगो-पांग हो जाता है। यह भी नहीं कि जेल-कर्मचारियों में निहालचन्द पहली बार धरे गये हैं, अपने राजस्थान में तो जेल अधीक्षक तक रिश्‍वत लेते धरे गये हैं। कल निहालचन्द धरे गये―क्या कोई भी यह गारंटी ले सकता है कि बीकानेर जेल में कोई अवैध लेन-देन कम से कम आज तो नहीं हुआ होगा? शायद नहीं। अन्य कोई सरकारी कार्यालय इससे अछूता नहीं है। सरकारी ही क्यों, बड़ी निजी कंपनियों के कार्यालयों में भी रिश्‍वत के लेन-देन के बारे में सुना जाने लगा है। जबकि ईमानदार कर्मचारियों से तो यह भी सुना गया है कि छठे वेतन के बाद तो सरकार इतना देने लगी है कि खाये-ओढ़े खूटता ही नहीं है।

इस विषय को उठाने का मतलब यह मान लेना कतई ना समझें कि सभी कर्मचारी रिश्‍वतखोर हैं। निष्पक्ष सर्वे करवाया जाय तो आधे से अधिक कर्मचारी ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और काम से मतलब रखने वाले मिल जायेंगे। हमारे टीवी, अखबार ऐसे लोगों को कभी सुर्खियां नहीं देते हैं। उनका तर्क होता है कि हम गारंटी कैसे दे सकते हैं। कम से कम सेवानिवृत्ति पर तो ईमानदार-कर्मठों को सुर्खियां मिलनी ही चाहिए। हां, इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि कुछ कार्यालय ऐसे भी होंगे जहां नब्बे प्रतिशत रिश्‍वतखोर या हरामखोर होंगे तो कुछ दफ्तर ऐसे भी मिल जायेंगे जहां नब्बे प्रतिशत कर्मचारी भले होंगे, तर्क देने वाले कह सकते हैं कि ऐसे दफ्तरों में बेईमान होने की गुंजाइश ही नहीं होती―यह पूरा झूठ नहीं तो आधा सच तो हो ही सकता है―कोई बेईमान नहीं भी होना चाहे तो लोग करने को तत्पर रहते हैं। जनरल वी के सिंह कहते हैं कि उन्हें चौदह करोड़ की रिश्‍वत की जब पेशकश की गई तो इस कुतर्क से समझाने की कोशिश की गई कि ‘सभी लेते हैं, आप भी ले लो।’ यह कुतर्क चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सत्ता के शिखर पर बैठे तक अकसर कारगर साबित होता देखा गया है। लेकिन कुछ लोग हैं जो पता नहीं किस मिट्टी के बने है। राजस्थान की जनता पार्टी सरकार की एक घटना है, महबूब अली जलदाय विभाग में मंत्री थे, एक अभियंता का ‘मलाईदार’ पद से ट्रांसफर हो गया―ब्रीफकेस लेकर वह अभियंता पहुंच गये मंत्रीजी के बंगले। मंत्रीजी ने लगभग झाड़ते हुए कह दिया कि ‘पानी के विभाग से हो–आपको यह पता नहीं कि मेरे शहर बीकानेर का पानी कितना गहरा है। जाओ, जहां के आर्डर हुए हैं, जाकर ज्वाइन कर लो।’ कहने वाले कह सकते हैं कि महबूब अली को उस अभियंता को गिरफ्तार करवाना चाहिए था, लेकिन अधिकांश ईमानदार ऐसे लफड़ों से बचते देखे गये हैं। एक घटना और बताते हैं―उसी जलदाय विभाग के एक सहायक अभियन्ता थे हमारे बीकानेर में, बेहद ईमानदार-निष्ठावान और कर्मठ अधिकारी की छवि भी थी उनकी। वे अपने घर के दरवाजे पर खड़े थे, तभी एक पत्रकार उनके पड़ौसी से मिलने आये। उन पत्रकार महोदय ने उन अभियन्ता के लिए पड़ोसी के सामने भद्दी और अपमानजनक टिप्पणी की, जिसे ज्यों का त्यों नहीं लिखा सकता, लेकिन उन पत्रकार का कहना यही था कि यह मूर्ख है।

जेल प्रहरी निहालचन्द शायद माहौल का मारा हो सकता है, कुंठित इसलिए हुआ हो कि जब सभी रिश्‍वत लेकर खोटे कर रहे हैं तो शिकार वो अकेला ही क्यों हो रहा है?
कुछ भ्रष्टों के हृदय परिवर्तन होते भी देखे गये हैं। सौ-सौ चूहे खाकर हज जाने की तर्ज पर―पिछले वर्ष आठ अप्रैल को भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के अनशन के समर्थन में बीकानेर के कुछ लोग एक दिन के सांकेतिक अनशन पर गांधी पार्क में बैठे थे, वहां बैठने वालों में दो-एक ऐसे भी थे जिन्होंने सेवानिवृत्ति के दिन तक रिश्‍वत दोनों हाथों बटोरी थी। हो सकता है सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अपने किये पर ग्लानि होने लगी हो, तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां आकर बैठे होंगे।
―दीपचंद सांखला
2 अप्रेल, 2012