Wednesday, March 30, 2022

चिन्ता विकल्पहीनता की है, विपक्षहीनता की नहीं

 हाल ही में पांच राज्यों (उत्तराखंड, पंजाब, उत्तरप्रदेश, मणिपुर और गोवा) में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों में विपक्षहीनता की चिन्ता प्रत्यक्ष है। वहीं मोदी समर्थक बड़ा और मुखर समूह परिणामों पर लहालोट है। देश में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का आधार लगातार खिसकता जा रहा है। इसकी वजह भी है, देश में पहली बार किसी पार्टी या उससे जुड़े नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ लम्बे अरसे से झूठ आधारित नकारात्मक अभियान के तहत ऐसा हो रहा है।

इस परिप्रेक्ष्य में आगे बातें करें उससे पूर्व हमें एक नजर अपने लोकतांत्रिक देश के इतिहास पर डाल लेनी चाहिए। 1947 में आजादी के बाद जो अंतरिम सरकार बनी उसमें सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व था और उसी की देखरेख में हमारे देश के संविधान का निर्माण भी हुआ। हमने बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली को स्वीकार किया जिसके तहत 1951-52 में लोकसभा और प्रान्तों की विधानसभाएं चुनी गयीं।

अपने-अपने प्रभाव और सामथ्र्य के अनुसार सभी दलों ने उसमें हिस्सा लिया, लोकसभा और विधानसभाओं में सभी दलों के प्रतिनिधि चुनकर भी पहुंचे। चूंकि आजादी का आन्दोलन कांग्रेस के नेतृत्व में चला इसलिए उसका प्रभावक्षेत्र पूरे देश में था-अत: ना केवल केन्द्र में बल्कि सभी प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनीं। देश के पहले चुने हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बने। देश के हर क्षेत्र में शून्य से शुरू करने की चुनौतियों में नेहरू के सामने यह चुनौती भी छोटी नहीं थी कि एक बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था विकसित हो। नेहरू विपक्षी विचारधाराओं से देश को मुक्त करने का आह्वान तो दूर, उन्हें बनाये रखने के लिए अपने सहयोगियों तक से जूझे। गांधी हत्या में शामिल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गृहमंत्री के नाते सरदार पटेल ने जब प्रतिबंध लगाया तो वे नेहरू ही थे जिन्होंने पटले को इस तरह के निर्णयों से बचने को कहा और प्रतिबंध हटाने के लिए तैयार किया। नेहरू विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं को हमेशा प्रोत्साहित करते, जिसका प्रमाण है 1967 के चुनाव परिणाम। लगभग शून्य से शुरू हुआ विपक्ष 1967 के चुनावों तक कांग्रेस के लिए एक चुनौती बनकर उभरा जिसमें समाजवादी पार्टियां प्रमुख थीं। यही वजह है कि 1967 के चुनाव के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आर्थिक क्षेत्र में समाजवादी कदम उठाने पड़े। 1971 के चुनाव परिणामों में इन्दिरा गांधी की शानदार जीत में 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर शानदार विजय के अलावा इन्दिरा सरकार के समाजवादी कदम भी मुख्य कारण बने। उठाव ले रही समाजवादी पार्टियों के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था। इन्दिरा गांधी की आपातकाल लगाने जैसी बड़ी भूल ने केवल विपक्षी के लिए संजीवनी का काम किया बल्कि उत्तर भारत में कांग्रेस की साख को बड़ा झटका भी दिया। चूंकि इंदिरा गांधी लोकतांत्रिक संस्कारों में पली-बढ़ी थी, इसलिए आपातकाल लम्बा खींचते हुए मात्र 19 महीने बाद ही चुनाव करवाने को तैयार हो गयीं।

1977 के बाद के भारतीय लोकतंत्र पर नजर डालें तो कांग्रेस का एक छत्र राज कभी नहीं रहा, केन्द्र में और ही राज्यों में। यह सब बताने का मकसद इतना ही है कि वर्तमान दौर से पूर्व किसी सत्ता की विपक्ष को खत्म करने की मंशा कभी नहीं रही। बल्कि सदन में पुरजोर विरोध के बावजूद आपसी सौम्यता-सौजन्यता हमेशा बनी रही जिसके अनेक उदाहरण मिलते हैं।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर बात करने से पूर्व ये समझना होगा कि विपक्ष और विकल्प, दो अलग-अलग हैं। विपक्ष को समझें तो दक्षिणपंथी पार्टियों का एक पक्ष है जिसमें भारतीय जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम जैसी पार्टियां हैं तो वामपंथी में तमाम वामपंथी पार्टियों को ले सकते हैं, जो फिलहाल अपने जैसे-तैसे अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जूझ रही हैं। समाजवादी पार्टियां परिवार या समूह विशेष में या क्षेत्रिय पार्टियों में सिमट कर रह गयी हैं। बची मध्यमार्गी कांग्रेस तो वह भी अब अपने बचे-खुचे अस्तित्व को ही बनाये रखने की चुनौतियां झेल रही है। 2019 चुनाव परिणामों में विभिन्न पार्टियों के वोट शेयर को देखें तो विपक्ष खत्म नहीं हुआ है। लगभग 60 प्रतिशत वोट शेयर के साथ वह आज भी खड़ा है, वह चाहे तो सत्ता पक्ष के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है।

बड़ी उम्मीद वाली बहुजन समाजवादी पार्टी खुद से उम्मीदें पूरी तरह खत्म कर चुकी है। अनुसूचित जातियों की कोई नई पार्टी बने और कांशीराम जैसी सोच और इच्छाशक्ति वाला नेता आगे आये तो इनकी प्रभावी पार्टी खड़ी हो सकती है। ओबीसी ने अपनी सोच को कथित सवर्णों से नत्थी कर दिया है। नरेन्द्र मोदी जैसा कोई खड़ा भी होगा तो मोदी की तरह उसी सोच के लिए काम करेगा, अपने और अपने से कमजोर के लिए नहीं। 

वामपंथी पार्टियों की लाइन यूरोपियन है। इनमें कोई नयी धारा ऐसी खड़ी हो, जिसकी सोच, शब्दावली और तौर-तरीके भारतीयता के अनुकूल हो तो वामपंथ की गुंजाइश अभी यहां खत्म नहीं हुई हैबल्कि गांधी के विचारों की तरह ही वामपंथ की गुंजाइश यहां कभी खत्म नहीं होगी बल्कि गांधी, अम्बेडकर और भगतसिंह की वैचारिक त्रिवेणी ज्यादा अच्छे से ना केवल हमारे लोकतंत्र को सींचती रह सकती है बल्कि आमजन के लिए बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थितियां बनाने में कारगर भी साबित हो सकती है।

विकल्प का दायरा सीमित है। पार्टियों के भीतर नेतृत्व के विकल्प का अकाल साफ नजर आता है। जैसे भाजपा में नरेन्द्र मोदी का विकल्प अभी तक नजर नहीं रहा था। लेकिन अब अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के नाम लिए जाने लगे हैं। भाजपा के लिए यह सब मुश्किल नहीं, क्योंकि उनकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्व्यंसेवक संघ जरूरत पडऩे पर इसे अच्छे से हैंडल कर सकती है। लेकिन यह भी कि लोकतंत्र बना रहा तो जरूरी नहीं कि भाजपा हमेशा आज वाली स्थिति में ही हो। 

दूसरी बात कांग्रेस की है जहां जबरदस्त विकल्पहीनता है। जमीनी नेता कोई नहीं है। घरानों से आए हुए और प्रोफेशनल्स का जमावड़ा है। गिनती के नेता हैं जो जमीन से जुड़े हैं। यही वजह है कि कांग्रेस को हमेशा नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भर रहना पड़ता है। 2019 के चुनावों में अपनी सबसे बुरी स्थिति के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर 19 प्रतिशत ज्यादा है जो भाजपा के वोट शेयर से आधा है। वोट शेयर के मामले में शेष सभी विपक्षी पार्टियां 5 प्रतिशत के पार जाती हांफने लगती हैं। 

अपनी यूरोपियन सोच और ऐजेन्डे के चलते वामपंथी पार्टियों का वोट शेयर लगातार घट रहा है। इसकी एक बड़ी वजह उनकी धर्मविरोधी छाप भी रही है जिसे आरएसएस ने अच्छे से भुनाते हुए आमजन में उन्हें लगभग अछूत के तौर पर स्थापित कर दिया है। समाजवादी पार्टियां पारिवारिक पार्टियां बनकर नाम या छाप की समाजवादी रह गयी हैं, इनका अस्तित्व अन्य क्षेत्रीय पार्टियों से भिन्न नहीं है।

वर्तमान में दक्षिणपंथी आम आदमी पार्टी की तरह ही बहुजन विचार के साथ कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी अपने गैर संगठनीय कार्य-कलापों के चलते खत्म होने के कगार पर है, जबकि भविष्य की राजनीति में इस पार्टी से सर्वाधिक उम्मीदें थीं।

वर्तमान की चिन्ता यह है कि मोदी-शाह के तौर-तरीकों के चलते जब न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका सहित मीडिया भी जब अपने असल अस्तित्व के लिए जूझ रहा है, तब इन परिस्तिथियों से निकला कैसे जाए ? ऐसे में उम्मीदें विपक्ष पर टिकती हैं। फिर वह चाहे जैसा-तैसा भी हो। 1977 की तरह घोषित आपातकाल भी नहीं है, जिसने विपक्ष को एक होने को मजबूर कर दिया था। वर्तमान में सत्ता पक्ष की ओर से हर वह निकृष्टता अपनायी जा रही है जिससे विपक्ष और विपक्ष के नेता पंगु हो जाएं। इन्दिरा गांधी के लगाये आपातकाल में इस तरह की स्थितियां नहीं थी।

लेकिन उम्मीदें खत्म इसलिए नहीं मान सकते कि 2019 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो कुल मतदान का 60 प्रतिशत वोट विपक्ष के साथ तथा लगभग 40 प्रतिशत भाजपा के साथ था। मतदान प्रतिशत को बाद करके देखें तो देश के कुल मतदाताओं में से मात्र 24 प्रतिशत मतदाता ही संघ-मोदी या भाजपा के साथ थे। ये आंकड़े अभी भी लोकतंत्र के प्रति भरोसा बनाये रखने के लिए पर्याप्त हैं।

वर्तमान परिस्थितियों से निकलने के लिए विपक्ष 1977 की तरह फिर एक क्यों नहीं हो सकता ? मानते हैं वह प्रयोग विफल रहा। लेकिन लोकतंत्र का कोई प्रयोग सर्वथा विफल नहीं होता। लोकतंत्र में विफलताएं सबक बनती हैं।

अन्त में, विपक्ष किस तरह एक होकर वर्तमान में संतुलन बना सकता हैइस पर बात कर लेते हैं। विपक्षी एकता के नेतृत्व के लिए कांग्रेस के राहुल गांधी के अलावा जिन चेहरों पर बात होती रही है उनमें नीतिश कुमार तो कभी के फिस्स हो लिए। उनके बाद शरद पवार का नाम भी लिया जाता रहा है। पवार 80 वर्ष के पार हैं, अस्वस्थ हैं, अलावा इसके उनके इतने झमेले हैं कि कोई कोई पुरानी फाइल खुल सकती है। शायद इसलिए वे विपक्षी एकता को नेतृत्व देने के लिए तैयार नहीं लगते। ममता बनर्जी का नाम भी चला, लेकिन शॉर्ट टेम्पर्ड ममता का मिजाज देशव्यापी नेतृत्व का नहीं है-एक सूबे की पार्टी वे अपने तरीके से चला सकती हैं। अलग-अलग ऐजेन्डे और सोच वाली देश की विभिन्न पार्टियों को जोड़कर रखने जैसी कूवत सोनिया गांधी में थी, वैसा नेता चाहिए। दक्षिण के किसी नेता की रुचि राष्ट्रीय राजनीति में नहीं है। उनके खुद के इतने झमेले हैं कि वे उन्हें ही संभाल लें तो बहुत है।

एक नेता जिस पर अभी तक इस तरह से विचार नहीं हुआ, वे उद्धव ठाकरे हो सकते हैं। शिव सेना को संभालने के बाद उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता अलग तरह से साबित की है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि शिव सेना जो एक दक्षिणपंथी पार्टी मानी जाती है, वह भाजपा, आम आदमी पार्टी या एआईएमआईएम जैसी दक्षिणपंथी पार्टी नहीं है। शिव सेना की सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद रणनीतिक है कि वैचारिक। यह स्पष्ट उद्धव ठाकरे के नेतृत्व के बाद ही हो पाया। खुली सोच और सामंजस्यवादी मिजाज के चलते विपक्षी नेता का जिम्मा उद्धव ठाकरे को दिया जा सकता है, मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे इसे बखूबी अंजाम दे सकते हैं।

इस तरह से अपनी बात रखने का मकसद इतना ही है कि विपक्ष होगा तो संविधान बचेगा, लोकतंत्र बचेगाये सब बचेंगे तभी देश बचेगा अन्यथा 1947 से ज्यादा बिखराव के कगार पर देश पहुंच जायेगा। तब गांधी थे, नेहरू थे, वैसा अब कोई नहीं है। अत: देश के लिए विपक्ष का मजबूत होना जरूरी है।

दीपचंद सांखला

31 मार्च, 2022