Thursday, December 1, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-30 (अंतिम)

 नगर सेठ कहलाने वाले लक्ष्मीनाथजी के मन्दिर में कसौटी पत्थर की प्रतिमाएं लक्ष्मी-विष्णु की हैं। पुराने रिकार्ड में इसका नाम लक्ष्मी नारायण मन्दिर है, लेकिन लोक में प्रचलित नाम लक्ष्मीनाथ मन्दिर है। इसी तरह लक्ष्मी-विष्णु की इन प्रतिमाओं का वर्तमान में शृंगार राधा-कृष्णा का होता है। नाम और शृंगार में लोक प्रचलित परिवर्तन कब हुए, उल्लेख नहीं मिलता।

जग प्रसिद्ध करणी माता मन्दिर के बारे में भी लोक प्रचलित भ्रम यह है कि संगमरमर नक्काशी का मुख्य द्वार गंगासिंह ने बनवाया। जबकि असल में यह काम सेठ चांदमल ढढ्ढा ने हीरजी चलवा (बीकानेर के फूलबाई कुएं के निवासी हीराराम कुलरिया) से बनवाया। एक कारीगर के हाथ की इस नक्काशी के बारे में जो कथा प्रचलित हैवह यह कि हीरजी चलवे ने इस काम में वर्षों लगाए। गेट का काम पूरा होने पर एक बार गंगासिंह दर्शनों के लिए गये तो नकारात्मक लहजे में हीरजी से पूछ लिया कि 'अबे इमें कित्ताक दिन लगासो' तब तक कुछे' मूर्तियां और द्वार पर लगे शेर पूरी तरह नहीं बने थे। हीरजी उन्हीं पर काम कर रहे थे। गंगासिंह का इतना कहना था कि हीरजी ने औजार-हथौड़ी उसी समय छोड़ दिये। इसलिए कुछ काम अपूर्ण रह गया। लेकिन इतिहास में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। जब काम सेठ चांदमल ढढ्ढा का था तो गंगासिंह धापी हुई भाषा में हीरजी से कुछ क्यों कहते। कहते तो चांदमल ढढ्ढा को कहते और कह भी दिया तो हीरजी बुरा क्यों मानते।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि देशनोक करणी माता मन्दिर की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय ख्याति वर्तमान में दो वजहों से है। एक तो मन्दिर परिसर में हजारों काबों (चूहों) का निर्भय विचरण और दूसरी मुख्यद्वार पर संगमरमर पर नक्काशी का काम। मन्दिर निर्माण के छह सौ वर्ष होने पर जो षट्शती समारोह हुआ तब मैंने आयोजकों को सुझाव दिया था कि हीरजी चलवे का फोटो उसके काम के उल्लेख के साथ द्वार-दीर्घा में कहीं लगाना चाहिए। क्योंकि इस मन्दिर की ख्याति की आधी वजह उन्हीं का काम है। मेरे इस सुझाव पर आयोजकों और मन्दिर प्रबंधकों ने संज्ञान नहीं लिया। यद्यपि उन्होंने कहा कि हीरजी की फोटो गेट के ऊपर बने चौबारे में लगा हुआ है। हीरजी को मान नहीं देना कृतघ्नता में आता है।

समय के साथ जिस तरह यहां के राजाओं के नाम की सजावट बदली, उसी तरह उनके सिर ढकने की पोशाक भी। महाराजा डूंगरसिंह तक यहां के शासक पाग ही पहनते थेजिनमें समय अनुसार बदलाव होता गया। लेकिन महाराजा गंगासिंह के समय सिर की पोशाक पाग से फेंटा हो गयी। इसी के साथ अलग-अलग समुदायों के सिर की पोशाकें भी बदलीं। इससे पूर्व अलग-अलग समुदाय के पुरुष बांधने के अलग-अलग तरीकों के साथ अलग-अलग रंग की पाग पहनते थे तो कुछे' सिर पर टोपियां भी लगाते थे। लेकिन गंगासिंह ने जब से फेंटा पहनना शुरू किया तब से फेंटा ही सिर की विशेष पोशाक हो गया। 

फेंटा-साफा विशेषज्ञ स्मृतिशेष भंवरलालजी तंवर के अनुसार ये फेंटा मराठों से हमारे इधर आया। उनका यह भी कहना था कि फेंटे को साफा या साफे को फेंटा नहीं कह सकते। शोक में बदले रंग के साथ पहना जाने वाला साफा कहलाता है। इसलिए खुशी के मौके पर पहने जाने वाले फेंटे को साफा नहीं कहा जाना चाहिए।

लोक प्रचलित धारणाएं तथ्यों को किस तरह बदल देती हैं, इसका उदाहरण 'न्यू शिवबाड़ी रोड' है। जिसे आज न्यू शिवबाड़ी रोड कहा जाता है, असल में वह ही पुरानी शिवबाड़ी रोड है, इसका प्रमाण आईटीआई के सामने लगा रियासत कालीन 'माइल स्टोन' है। जब यहां बसावट नहीं थी तब मेडिकल छात्र हॉस्टल के आगे वाली सड़क होते हुए इसी रोड से शिवबाड़ी जाना होता था। हॉस्टल परिसर को सादुलगंज तक बढ़ाने से वह पुरानी रोड हॉस्टल की चार दिवारी में चली गयी। जिसे पुरानी शिवबाड़ी रोड कहा जाता है, वह तो पटेल नगर की बसावट के बाद बनी है।

बीकानेर की बीकाणा पहचान के ऐतिहासिक प्रमाण कहीं देखने को नहीं आये। हो सकता है मारवाड़ के जोधपुर-जोधाणा, नागौर-नागाणा की तर्ज पर बीकाणा थोड़ा-बहुत चलन में लिया होगा। लेकिन ऐतिहासिक उल्लेख बीकानेर नाम के ही मिलते हैं।

बीकानेर के बाशिंदे मारवाड़ी नहीं, बीकानेरी हैं। मारवाड़ बीकानेर से दक्षिण  में दूर अलग सांस्कृतिक-भौगोलिक पहचान वाला क्षेत्र है जिसमें पाली, जोधपुर और नागौर आते हैं। अपने को मारवाड़ी मानना बीकानेरी पहचान को मारवाड़ में मर्ज करना है।

इस शृंखला के अंत में जग प्रसिद्ध प्रकाशक और मुद्रक वेंकटेश्वर प्रेस का उल्लेख करें, यह कैसे हो सकता है। बीकानेर रियासत के चूरू के दो भाई गंगाविष्णु बजाज और खेमराज बजाज ने बम्बई में श्री वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस की स्थापना 1893 . में की। इससे पूर्व 1871 में वे छोटे रूप में प्रिंटिंग का काम शुरू कर चुके थे। गीताप्रेस, गोरखपुर से पूर्व उन्होंने हिन्दी और संस्कृत के ग्रंथों के मुद्रण-प्रकाशन का केवल उल्लेखनीय काम किया बल्कि संस्कृत-हिन्दी के विद्वानों को इसके लिए प्रेरित भी किया। इसके अलावा 'वेंकटेश्वर समाचार' के नाम से कई दशकों तक साप्ताहिक समाचार पत्र भी उन्होंने निकाला।

श्री वेंकटेश्वर प्रेस के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि गीताप्रेस की स्थापना से पूर्व 1926-27 में 'कल्याण पत्रिका' के शुरुआती अंक इसी प्रेस से मुद्रित हुए।

भारत के मुद्रण-प्रकाशन जगत में श्री वेंकटेश्वर प्रेस की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह कहना कि संस्कृत-हिन्दी के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की आज उपलब्धता श्री वेंकटेश्वर प्रेस की वजह से है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ...समाप्त

दीपचंद सांखला

1 दिसम्बर, 2022