Friday, October 13, 2017

हिन्दू राष्ट्रवादी पत्रकार और 'नया इंडिया' के संपादक हरिशंकर व्यास का यह आलेख पढ़ा जाना चाहिए।

“ढाई लोगों के वामन अवतार ने ढाई कदम में पूरे भारत को माप अपनी ढाई गज की जो दुनिया बना ली है, उसमें अंबानी, अडानी, बिड़ला, जैन, अग्रवाल, गुप्ता याकि वे धनपति और बड़े मीडिया मालिक जरूर मतलब रखते हैं, जिनकी दुनिया क्रोनी पूंजीवाद से रंगीन है और जो अपने रंगों की हाकिम के कहे अनुसार उठक-बैठक कराते रहते हैं।

“आज का अंधेरा हम सवा सौ करोड़ लोगों की बीमारी की असलियत लिए हुए है। ढाई लोगों के वामन अवतार ने लोकतंत्र को जैसे नचाया है, रौंदा है, मीडिया को गुलाम बना उसकी विश्वसनीयता को जैसे बरबाद किया है - वह कई मायनों में पूरे समाज, सभी संस्थाओं की बरबादी का प्रतिनिधि भी है। तभी तो यह नौबत आई जो सुप्रीम कोर्ट के जजों को कहना पड़ा कि यह न कहा करें कि फलां जज सरकारपरस्त है और फलां नहीं!

“अदालत हो, एनजीओ हो, मीडिया हो, कारोबार हो, भाजपा हो, भाजपा का मार्गदर्शक मंडल हो, संघ परिवार हो या विपक्ष सबका अस्तित्व ढाई लोगों के ढाई कदमों वाले ‘न्यू इंडिया’ के तले बंधक है!

“आडवाणी, जोशी जैसे चेहरे रोते हुए तो मीडिया रेंगता हुआ। आडवाणी ने इमरजेंसी में मीडिया पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि इंदिरा गांधी ने झुकने के लिए कहा था मगर आप रेंगने लगे! वहीं आडवाणी आज खुद के, खुद की बनाई पार्टी और संघ परिवार या पूरे देश के रेंगने से भी अधिक बुरी दशा के बावजूद ऊफ तक नहीं निकाल पा रहे हैं।

“सोचें, क्या हाल है! हिंदू और गर्व से कहो हम हिंदू हैं (याद है आडवाणी का वह वक्त), उसका राष्ट्रवाद इतना हिजड़ा होगा यह अपन ने सपने में नहीं सोचा था। और यह मेरा निचोड़ है जो 40 साल से हिंदू की बात करता रहा है! मैं हिंदू राष्ट्रवादी रहा हूं। इसमें मैं ‘नया इंडिया’ का वह ख्याल लिए हुए था कि यदि लोकतंत्र ने लिबरल, सेकुलर नेहरूवादी धारा को मौका दिया है तो हिंदू हित की बात, दक्षिणपंथ, मुसलमान को धर्म के दड़बे से बाहर निकाल उन्हें आधुनिक बनवाने की धारा का भी सत्ता में स्थान बनना चाहिए।

“यह सब सोचते हुए कतई कल्पना नहीं की थी कि इससे नया इंडिया की बजाय मोदी इंडिया बनेगा और कथित हिंदू राष्ट्रवादी सवा सौ करोड़ लोगों की बुद्धि, पेट, स्वाभिमान, स्वतंत्रता, सामाजिक आर्थिक सुरक्षा को तुगलकी, भस्मासुरी प्रयोगशाला से गुलामी, खौफ के उस दौर में फिर हिंदुओं को पहुंचा देगा, जिससे 14 सौ काल की गुलामी के डीएनए जिंदा हो उठें। आडवाणी भी रोते हुए दिखलाई दें।

“आप सोच नहीं सकते हैं कि नरेंद्र मोदी, और उनके प्रधानमंत्री दफ्तर ने साढ़े तीन सालों में मीडिया को मारने, खत्म करने के लिए दिन-रात कैसे-कैसे उपाय किए हैं। एक-एक खबर को मॉनिटर करते हैं। मालिकों को बुला कर हड़काते हैं। धमकियां देते हैं।

“जैसे गली का दादा अपनी दादागिरी, तूती बनवाने के लिए दस तरह की तिकड़में सोचता है, उसी अंदाज में नरेंद्र मोदी और उनके प्रधानमंत्री दफ्तर ने भारत सरकार की विज्ञापन एजेंसी डीएवीपी के जरिए हर अखबार को परेशान किया ताकि खत्म हों या समर्पण हो। सैकड़ों टीवी चैनलों, अखबारों की इम्पैनलिंग बंद करवाई।

“इधर से नहीं तो उधर से और उधर से नहीं तो इधर के दस तरह के प्रपंचों में छोटे-छोटे प्रकाशकों-संपादकों पर यह साबित करने का शिकंजा कसा कि तुम लोग चोर हो। इसलिए तुम लोगों को जीने का अधिकार नहीं और यदि जिंदा रहना है तो बोलो जय हो मोदी! जय हो अमित शाह! जय हो अरूण जेटली!

“और इस बात पर सिर्फ मीडिया के संदर्भ में ही न विचार करें! लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं को, लोगों को कथित ‘न्यू इंडिया’ में ऐसे ही हैंडल किया जा रहा है। ढाई लोगों की सत्ता के चश्मे में आडवाणी हों या हरिशंकर व्यास या सिर्दाथ वरदराजन, भाजपा का कोई मुख्यमंत्री या मोहन भागवत तक सब इसलिए एक जैसे हैं कि सभी ‘न्यू इंडिया’ की प्रयोगशाला में महज पात्र हैं, जिन्हें भेड़, चूहे के अलग-अलग परीक्षणों से ‘न्यू इंडिया’ लायक बनाना है। ...”
13 अक्टूबर, 2017

Thursday, October 12, 2017

सूबे की सरकार और उपचुनावों के बहाने प्रदेश कांग्रेस की पड़ताल

देश की वर्तमान राजनीति को सरसरी तौर पर देखें तो राजस्थान उन प्रदेशों में से है, जहां आज भी कांग्रेस की ठीक-ठाक जड़ें कायम हैं। भले ही पिछले चुनाव में इस पार्टी की विधानसभा में सीटें लगभग अप्रभावी रह गईं थी। लहर और आंधी में आए चुनाव परिणाम स्थाई नहीं होते, इसकी पुष्टि पिछले लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद के दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणामों में और फिर उसके बाद हुए वहां के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों से भलीभांति हो जाती है।
राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों में 'ना भूतो' बहुमत के साथ वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री का पद संभाला। जीत की उस खुमारी में राजे प्रदेश के लिए कुछ करने का मन बनाती, तब तक भाजपा के अच्छे-खासे बहुमत के साथ केन्द्र में नरेन्द्र मोदी काबिज हो लिए। बाद इसके, जैसी कि मोदी की अधिनायकवादी फितरत है, मोदी के 'सरकिट' माने जाने वाले अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनाकर, पार्टी पर भी वे पूरी तरह काबिज हो गए। यह बात अलग है कि यह सरकिट फिल्मी नहीं है, खुद मुन्नाभाई होने की हसरत इनकी कभी भी जाग सकती है। अमित शाह ने तौर-तरीके एकदम बदल दिए। जो भाजपा अब तक क्षत्रपों से पोषित-प्रभावित होती आई है, ये नयी स्थितियां कई दिग्गजों के साथ क्षत्रपों को भी असहज करने वाली थी। भैरोसिंह शेखावत के बाद से राजस्थान की भाजपाई क्षत्रप वसुंधरा राजे रही हैं। जिस मिजाज की वसुंधरा हैं, उनके लिए इन नये तौर-तरीकों में अपने को अनुकूलित कर पाना असंभव-सा था। इन्हीं स्थितियों का खमियाजा ये प्रदेश भुगत रहा है। अपने पिछले कार्यकाल में दीखती सक्रियताओं में रही वसुंधरा राजे इस बार अनमनी ही नजर आती हैं।
सूबे की ऐसी अकर्मण्य परिस्थितियों ने जहां विपक्ष को कई गुंजाइशें दीं तो हैं, लेकिन 2013-14 के चुनावों में घायल हुआ विपक्ष आज तक अपने को संभाल नहीं पाया। जिस तरह की लोकतांत्रिक प्रणाली को हमने स्वीकार किया है उसमें एक सशक्त विपक्ष का होना लाजमी है। प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ही है, इसलिए विपक्ष की भूमिका में प्रदेश में और देश में भी लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेजे रखने की उम्मीदें फिलहाल कांग्रेस से ही की जा सकती हैं।
पिछले चुनावों में लुंज-पुंज हुई कांग्रेस में ऊर्जा के संचार के लिए कहने को कमान युवा सचिन पायलट को सौंपी गई। इस 'कहने को' कहने का वाजिब कारण भी है। जब से सचिन को कमान मिली, तब से ही प्रदेशव्यापी सक्रियता उनकी वैसी देखी नहीं गई, जैसी बदतर गति को प्राप्त पार्टी में जोश पैदा करने के लिए जरूरी थी। हो सकता है उन्हें जिम्मेदारी देते वक्त यह अहसास करा दिया गया हो या हो सकता है अपनी अक्षमताओं के चलते यह भान हो गया है कि उनकी यह नियुक्ति अस्थाई है। यदि ऐसा है भी तो एक पूर्णकालिक राजनेता से उम्मीद की जाती है कि वह दी गई किसी भी जिम्मेदारी को नैष्ठिक जोश-खरोश अंजाम तक पहुंचाए। अपनी नियुक्ति के बाद से सचिन पायलट ने ऐसी सक्रियता आज तक नहीं दिखाई। सचिन चाहते तो अब तक वे राजस्थान के सभी कस्बों और छोटे-बड़े शहरों की एकाधिक यात्राएं करके पार्टी में जान फूंकने का काम कर सकते थे। जिसका लाभ केवल पार्टी को ही नहीं, खुद उन्हें भी मिलता। वे एक सर्वमान्य नेता के तौर पर प्रदेश में स्थापित होते। युवा और सौम्य कदकाठी के साथ-साथ वैचारिक तौर पर भी तार्किक सचिन काफी सुलझे हुए हैं, ऐसी छाप उन्होंने टीवी-डिबेटों में कई बार छोड़ी है। प्रदेश के सभी हिस्सों में जनता और कार्यकर्ताओं तक पहुंच कर व्यक्तिगत वाकफियत बढ़ाने का अवसर सचिन पायलट ने लगभग हाथ से निकल जाने दिया है। इतना ही नहीं, भीड़ में वे अपने को असहज पाते हैं और दूर-दराज से आए पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों मिलने से बचते रहते हैं, कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की यह आम शिकायत है कि पीसीसी अध्यक्ष उसी दिन कम ही मिलते हैं जिस दिन कार्यकर्ता जयपुर पहुंचते हैं, उन्हें मिलने के लिए दूसरे-तीसरे दिन तक वहां रुकना पड़ता है। सचिन पायलट के ऐसे व्यवहार से लगता है कि उनकी राजनीतिक आकांक्षा सूबे में क्षत्रप होना ना हो।
यह भी सुनने में आता है कि राजस्थान की राजनीति बाहरी लोगों को स्थापित करने का जरीया है, इसके लिए वे भाजपा और कांग्रेस दोनों को भुंडाते हैं। उदाहरण के तौर पर वसुंधरा राजे और सचिन पायलट का नाम लिया जाता है, ये दोनों ही इस आरोप में सटीक इसलिए नहीं बैठते कि मराठी मूल की वसुंधरा चाहे मध्यप्रदेश की हों, वह शादी करके राजस्थान आयीं हैं। शादी के बाद स्त्री का घर ससुराल को मानने वाली संस्कृति में ऐसी बातें परम्परागत समाज व्यवस्था को चुनौती है। ऐसे ही यूपियन मूल के पिता राजेश पायलट का और अब खुद सचिन का घर बार चाहे दिल्ली में ही हो लेकिन पिता-फिर मां और अब खुद की राजनीतिक स्थली राजस्थान ही रही है। इस तरह सचिन को भी साफ-साफ बाहरी नहीं कह सकते। यह भी कि सचिन का मन यदि सूबे की राजनीति में रमता तो प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलने के बाद वे अपने घर-परिवार को राजस्थान ले आते।
उक्त सब बातों को छोड़ भी दें तो अपने लिए तय जिम्मेदारी पर खरा जताने को सचिन के लिए लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव माकूल अवसर हैं। खुद उन्हें आगे आकर अपनी हारी अजमेर लोकसभा सीट पर उम्मीदवारी जतानी चाहिए।
नोटबंदी की मूर्खता व जीएसटी लागू करने में जो अनाड़ीपना मोदी सरकार ने दिखाया है, उसके चलते पिछले डेढ़-दो माह में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आया है वहीं सूबे में वसुंधरा के कामचलाऊ राज से जनता को जैसी निराशा मिली, उसमें सचिन का अजमेर सीट से जीतना मुश्किल नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अजमेर के साथ ही अलवर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस को जिताने की चुनौती सचिन को पूरे आत्मविश्वास से लेनी चाहिए। अशोक गहलोत गुजरात चुनावों की जिम्मेदारी के चलते व्यस्त भले ही हों, इन उपचुनावों में उनकी काबिलियत और समझ का सहयोग ले कर तीनों 'उपचुनावों' में जीतने का संकल्प उन्हें बना लेना चाहिए। इससे जहां राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को बल मिलेगा वहीं इस हार से प्रदेश भाजपा भी वर्ष भर बाद प्रदेश विधानसभा के चुनावों के मद्देनजर दबाव महसूस करेगी। अलवर लोकसभा उपचुनाव को सीट को जहां राहुल-सखा जितेन्द्रसिंह की प्रतिष्ठा का हेतु बनाया जा सकता है तो फिर माण्डलगढ़ विधानसभा उपचुनाव सीपी जोशी की नाक का सवाल क्यों नहीं हो सकता। सचिन पायलट को केन्द्र की राजनीति में यदि लौटना ही है तो प्रदेश की ये तीनों जीतें उन्हें बढ़े कद के साथ वहां प्रतिष्ठ करेगी।
दीपचन्द सांखला

12 अक्टूबर, 2017

Thursday, October 5, 2017

पड़ताल मोदी-शाह की साझेदारी फर्म हो चुकी भाजपा की

पिछले डेढ़-दो माह से देश में राज के खिलाफ बेचैनी वैसी सी कसकने लगी जैसी 2011-12 में तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग-दो के राज में दिखने लगी थी। वाजिब वजह भी है, राहत तो दूर सभी तरह की परिस्थितियां पिछले राज से भी लगातार बदतर होती जा रही हैं। ऊपर से सरकार के नोटबन्दी जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय और बाद फिर हाल में अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी कर-प्रणाली ने अवाम का धैर्य चुका दिया है। संघनिष्ठ घुन्नों और उन मोदीनिष्ठों को छोड़ दें जो अब भी खुद के गलत साबित होने का हौसला नहीं जुटा पा रहे हैं, तो शेष मोदी समर्थक असफल-पुराण बंचने पर या तो चुप हो लेते हैं या इतना भर कह पाते है कि मोदी ने तो मरवा दिया। कुछेक पुराने मोदीनिष्ठ ऐसे भी हैं जो मोदीजी को मजा चखाने को अगले चुनाव का इन्तजार करने का भी खुलकर कहने लगे हैं।
मोदी को नसीबवाला तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि 2011-12-13 में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए अनुकूलताएं लगातार बनती गईअन्ना हजारे का सक्रिय होना, योगधंधी रामदेव की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का जागना और उस सब के बीच निर्भया काण्ड का घटित होना, ऐसी सभी घटनाएं और प्रतिक्रियाएं तत्कालीन शासन को उघाड़ कर रखने को पर्याप्त सिद्ध हुईं। लेकिन इस सब के बावजूद अवाम को हासिल क्या हुआ, इस बदले राज को भी साढ़े तीन वर्ष हो लिए, अन्ना द्वारा उठाये किसी भी मुद्दे पर अमल करना तो दूर, यह सरकार उन मुद्दों पर मसक ही नहीं रही। बावजूद इसके अन्ना का चुप्पी साधे रखना लोगों को अब सालने लगा है। सोशल साइट्स पर अन्ना से पूछा जाने लगा है कि पिछली सरकार को भुंडाने की कितनी सुपारी मिली थी। वहीं रामदेव इस राज में मिली पोल से अपने धंधे को अच्छे से चमकाने में लग गये हैं। खुद द्वारा उठाए गए मुद्दों को रामदेव अब याद भी नहीं करना चाहते।
लोकतांत्रित विडंबना यह है कि पूरे विपक्ष को सांप सूंघ गया है। वह शायद वैसी अनुकूलता के इंतजार में है, जैसी भाजपा और मोदी को 2012-13 में मिल गई थी। गुजरात में वैसी अनुकूलता कांग्रेस को मिलती दिखने भी लगी है।
भारतीय जनता पार्टी संगठन नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की साझेदारी फर्म में लगभग तबदील हो चुका है। कुछ वरिष्ठों को मार्गदर्शक बना कर थरप दिया है तो शेष वरिष्ठ सहम कर साझेदारी फर्म भाजपा के कारिंदें होने में ही अपनी भलाई मान जैसी-तैसी हैसियत में चुप हैं।
रही बात लोकतंत्र का चौथा पाया माने जाने वाले अखबारों की, टीवी आने के बाद ये पेशा थोड़ा व्यापक सम्बोधन के साथ मीडिया बनकर लगभग धर्मच्युत हो लिया है। पिछली सदी के आठवें दशक में इन्दिरा गांधी की बड़ी भूल आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के दौरान धर्मच्युत हुए मीडिया को फटकारते हुए कहा था कि शासन ने आपातकाल में झुकने के लिए कहा और आप तो दंडवत हो लिए। वे ही आडवाणी आज अपने पार्टी संगठन के साझेदारी फर्म में तबदील होने और मीडिया के टुकड़ैल हो जाने पर मूर्तिवत हैं। परिस्थितियां आपातकाल में मीडिया के दंडवत हो जाने से बदतर हैं। नहीं कह सकते कि मीडिया की नियति क्या बनेगी लेकिन फिलहाल यही लग रहा है कि अधिकांश की नीयत ठीक नहीं है। अब तो किसी को पत्रकार कहते भी संकोच होने लगा है।
प्रधानमंत्री मोदी को अभी भी लग रहा है कि उनके असत्यमेध के रथ को कोई रोकने वाला नहीं है। हाल ही में उन्होंने अपने भाषणों से गुजरात-हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं का चुनाव अभियान शुरू किया है, वहां की जनसभाओं में वे भ्रमित करने वाले अपने उसी अंदाज में नजर आए। उन्हें लगता है कि देश की अधिकांश जनता भोली और मासूम है-जो है भीफिर उनके बहकावे में आ लेगी। उन्हें यह भी भरोसा है कि भाजपा कंपनी में उनके घाघ साझीदार अमित शाह कम्पनी के फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद के साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का अप्रत्याशित लाभ उनकी कंपनी उठा चुकी है। हिमाचल प्रदेश में भले ही ऐसे दंगों की गुंजाइश कम हो लेकिन वहां शासन कर रही कांग्रेस की सरकार ने इस कम्पनी हेतु काफी अनुकूलताएं बना दी हैं। गुजरात में भाजपा कम्पनी का विपक्ष ना केवल चौकन्ना है बल्कि वहां के अल्पसंख्यक भी पूरे सावचेत हैं। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की अनुकूलता मोदी एण्ड शाह एसोसिएट को वे इस बार शायद ही दें। रही सही कसर भाजपा के परम्परागत वोट रहे पटेलों की नाराजगी से पूरी हो सकती है तो गोरक्षा के नाम पर नरभक्षकों के शिकार हुए गुजरात के दलितों में भी चेतना का संचार हुआ है। लेकिन अमित शाह को हलके में लेना गुजरात में कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है वहीं राज के विरोधी हुए पटेलों और दलितों में फांट डालकर बदलाव के उनके सामूहिक मंसूबों पर भी पानी फेर सकता है।
दीपचन्द सांखला

5 अक्टूबर, 2017