Thursday, October 29, 2020

"उसने गांधी को क्यों मारा"

 'उसने गांधी को क्यों मारा' का सवाल किसी भी संवेदनशील मनुष्य को भीतर तक मथने का सवाल है। खासतौर पर तब जब उस हत्यारे ने कोर्ट में गांधी की हत्या की वजह बताते हुए जो लंबा बयान दिया, उसे इस हद तक प्रचारित और प्रसारित किया गया है कि लोगों का एक हिस्सा उसे अंतिम सच की तरह स्वीकार करने लगा है। भारत के आधुनिक इतिहास को पढ़ते हुए गोडसे के आरोपों का खोखलापन जैसे-जैसे स्पष्ट होता गया, इस पुस्तक को लिखने का संकल्प वैसे-वैसे मजबूत होता गया।

उक्त कथन 'उसने गांधी को क्यों मारा' किताब के लेखक अशोक कुमार पांडेय का है, इंडिया टुडे के ताजा अंक में इस पुस्तक को लिखने की वजह बताते हुए पांडेय ने उक्त टिप्पणी की है।

इस किताब पर लिखने की शुरुआत जिस बात से मैं करना चाहता था, वह बात भी पांडेय ने इंडिया टुडे के लिए लिखी अपनी टिप्पणी में कर दी है, अपनी शब्दावली में उसे दोहराते हुए कहूं तो जो जरूरत इस पुस्तक के लेखक ने आज महसूस की, वह जरूरत आज से 50 वर्ष पूर्व तब महसूस क्यों नहीं की गई जब गांधी हत्या पर गोपाल गोडसे की पुस्तक गयी थी, तमाम बौद्धिक और विचारक उस किताब को झूठ मान कर चर्चा तो करते रहे लेकिन लिखित और व्यवस्थित खंडन करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। अब स्थिति यह है कि भारत के नागरिकों का बड़ा समूह गोपाल गोडसे की किताब में नाथूराम द्वारा बताई गयी गांधी-हत्या की झूठी वजहों को सही मानने लगा है।

मन की तसल्ली को बौद्धिक यह कह कर संतोष चाहे कर लें कि वैश्विक हो चुके इतिहास को स्थानीय स्तर पर खुर्दबुर्द करने से कुछ नहीं होने वाला। मान लेते हैं कि इतिहास का अन्तत: कुछ नहीं बिगडऩा लेकिन झूठे इतिहास के आधार पर जनता को भ्रमित कर देश का बहुत कुछ बिगाड़ा जाने लगा है। ऐसे में क्या बौद्धिकों-विचारकों-लेखकों और इतिहासकारों की जिम्मेदारी नहीं थी कि गोपाल गोडसे लिखित पुस्तक के झूठ का व्यवस्थित खण्डन कर जनता को तथ्यों के साथ सत्य से अवगत करवाया जाता। अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी पुस्तक 'उसने गांधी को क्यों मारा' (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) में सत्य से अवगत करवाने का बौद्धिक कर्तव्य निभाया है। 278 पृष्ठों की इस पुस्तक में सन्दर्भ और पुस्तक सूची ही 30 पृष्ठों की है। 

सोशल मीडिया पर आजकल चल रहे झूठ पर पाण्डेय अपनी तकलीफ इसी पुस्तक में जाहिर करते हुए लिखते हैं : 'आज के समय में सोशल मीडिया पर पागलों की तरह लिखते वे युवा, जिन्हें इतिहास की जगह ऐसा पाठ पढ़ा दिया गया जिसका उद्देश्य सिर्फ नफरत फैलाना है।' एक और अध्याय में पांडेय लिखते हैं कि 'झूठ के लिए बस एक पतित उद्देश्य काफी है। फिर आप घंटों कुछ भी बोल सकते हो।'

इस तरह की तकलीफ उसे ही हो सकती है जिसे लगता है कि जो कुछ भी ज्ञान मैंने अर्जित किया है, वह इस चर-अचर जगत का मुझ पर ऋण है और भारतीय संस्कार उस ऋण से मुक्ति के लिए प्रेरित करते हैं। पांडेय ने ज्ञान के ऋण से मुक्ति की प्रक्रिया में यही एक पुस्तक नहीं लिखी बल्कि इससे पूर्व कश्मीर के इतिहास पर 'कश्मीरनामा' और 'कश्मीर और कश्मीरी पंडित'—दो पुस्तकें ऐसे ही सांगोपांग लिख काफी चर्चित हो चुके हैं। आतंकवाद की वजह से त्रस्त कश्मीर पर और वहां के पंडितों के पलायन पर लिखीं दोनों पुस्तकें उसी ऋण से मुक्त होने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। अशोक वाजपेयी के शब्दों में ही कहें तो इस तरह का लेखन बौद्धिक सत्याग्रह है। 

'उसने गांधी को क्यों मारा' पुस्तक में मुख्य प्रतिक्रिया नाथूराम गोडसे की ओर से दिये गये उस लम्बे बयान पर है जिसमें उसने कोशिश की कि गांधी की हत्या और उसकी योजना में उसके गुरु दामोदार विनायक सावरकर की कोई भूमिका नहीं है। अपने उस लम्बे बयान में उसने हत्या करने की कई वजहों को भी गिनवाया है। पांडेय ने अपने अध्ययन और तथ्यों के आधार पर गोडसे के बयान को जांचा और पाया कि उसकी बातों में सच्चाई लेश मात्र भी नहीं है। पांडेय ने वे सभी तथ्य दिये हैं जिससे पुष्टि होती है कि नाथूराम गोडसे में गांधी के प्रति घृणा के बीज बोने से लेकर हत्या तक, सब कुछ सावरकर से ही प्रेरित है। पुस्तक में पांडेय अपने तथ्यों से यह भी स्थापित करते हैं कि काले पानी की सजा के बाद सावरकर की मंशा मैली होती गयी। 

अपनी पुस्तक में पांडेय सावरकर के समुदाय चितपावन ब्राह्मणों की उत्पत्ति पर हिन्दुत्वादी लेखक 'कोएनराड एलस्ट' की मिथकीय धारणा से अवगत करवाते हैं। जबकि चितपावन ब्राह्मणों की उत्पत्ति की 'एलस्ट' की मिथकीय धारणा की बजाय लोक-प्रचलित धारणा ज्यादा सटीक लगती है, जिसमें बताया गया है कि राजपूत पिता और ब्राह्मण माता की संतानों को ब्राह्मणों के द्वारा ब्राह्मण मानने से इनकार पर उनके वंशजों में उपजी हीनभावना की वजह से समुदाय का बड़ा हिस्सा 'बिहार क्षेत्र' से पलायित होकर वर्तमान महाराष्ट्र के कोंकण/रतनागिरी क्षेत्र में जा बसा था। मुझे लगता है कि रक्त शुद्धि की रूढ़ हो चुकी अवैज्ञानिक धारणा से उभरने के लिए ही उस समूह ने अशुद्ध रक्त की अपनी छाप के बरक्स अन्त:करण के पवित्र होने की धारणा बनाकर अपनी पहचान चितपावन ब्राह्मण के तौर पर अपनाई।

खैर! यह तय करना अपना काम नहीं है। दरअसल पुस्तक के लेखक चितपावनी ब्राह्मणों की उत्पत्ति के संदर्भ से यह बताना चाहते हैं कि शिवाजी के बाद 18वीं शताब्दी में पेशवाओं के तौर पर लगभग 100 वर्षों तक सत्ता भोग चुके चितपावनी ब्राह्मणों के वंशज सावरकर को लगने लगा कि सत्ता पर बने रहने का हक चितपावनी ब्राह्मणों का ही है, वह सत्ता चाहे उपनिवेश के तौर पर अंग्रेजों के अधीन ही क्यों ना हो। यही वजह है कि काले पानी की सजा से माफी मांगकर छूटे सावरकर ने फिर कभी अंग्रेजी सत्ता का विरोध नहीं किया।

आजादी के लड़ाई के दौरान सावरकर दब्बूपने के साथ जैसी-तैसी भी सत्ता की जुगत में लगे रहे। जो 'वीर' अंग्रेजों के खिलाफ 1857 के जनविद्रोह पर लिखते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता की पैरवी करता है, वही सावरकर हिन्दुत्व की बात करते हुए रणनीति के तौर पर मुसलमानों के विरोधी हो जाते हैं। इसे रणनीतिक इसलिए कहा कि अन्यथा उन्हें सत्ता के लिए मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन पर भी कोई एतराज नहीं हुआ।

उसी दौर में ऐसे ही एक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी उदय हुआजिसकी पहचान आर एस एस के तौर भी है। यह संगठन भी महाराष्ट्र के उन्हीं चितपावनी ब्राह्मणों का है जिससे सावरकर थे, और मंशा भी उनकी वही पेशवाई पाने की। आजादी के आन्दोलन के दौरान सावरकर के संगठन हिन्दू महासभा और आरएसएस का मेलजोल ऐसा कि कब ये एक हैं और कब अलगपता ही नहीं चलता। दोनों संगठनों में इतना रणनीतिक अंतर जरूर था कि सावरकर जहां हिन्दूओं में छुआछूत के विरोधी थे वहीं आरएसएस इससे मुक्त नहीं था, लेकिन दोनों ही मुस्लिम विरोधी तब भी थे। गांधी से दोनों की घृणा की वजह यही थी कि वे एक सच्चे हिन्दू के तौर पर ना केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे बल्कि छुआछूत के भी प्रबल विरोधी थे। दूसरी वजह आजादी के आन्दोलन के दौरान गांधी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता भी थी। सावरकर और आरएसएस दोनों को सत्ता के अपने लालच में गांधी बड़ी बाधा लगे और बाधा भी ऐसी कि उन्हें लगने लगा कि गांधी को खत्म किये बिना पेशवाई हासिल नहीं हो पायेगी। अशोक कुमार पांडेय ने यही सब पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में तथ्यों के आधार पर बताने की कोशिश की है।

इस के बाद नाथूराम गोडसे के उस बयान पर आते हैं। पांडेय बताते हैं कि गोडसे के बयान का पहला उद्देश्य अपने गुरु सावरकर को गांधी हत्या के दाग से बचाना और दूसरे कारणों में पेशवाई के अपने लालच को छुपाने के लिए गांधी पर गढ़े गये वे झूठे आरोप जिनमें पहला : गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए उपवास किया। पांडेय तथ्य देकर विस्तार से बताते हैं कि गांधी का वह उपवास भारत और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रही हिंसा को लेकर था, ना कि पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने के लिए। उपवास से संबंधित किसी भी सूचना, पत्र और दस्तावेजों में 55 करोड़ का उल्लेख तक नहीं है।

दूसरे आरोप में गोडसे ने भारत के बंटवारे के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराया है। पांडेय बताते हैं कि आजादी के आन्दोलन के दौरान गांधी ही एकमात्र नेता थे जो बंटवारे के लिए अन्त तक तैयार नहीं थे जबकि अंग्रेजों के उपनिवेश के तौर पर भी पेशवाई मिलने पर सावरकर देश के एक और टुकड़े को भी तैयार थे। पुस्तक में वे तथ्य भी दिये गये हैं कि हिन्दू महासभा, आरएसएस और मुस्लिम लीग ने बंटवारे का पलीता किस तरह तैयार किया।

बंटवारा रोकने और भगतसिंह को फांसी से बचाने के गांधी के प्रयासों को भी पुस्तक में ना केवल विस्तार से बताया गया है बल्कि इन दोनों मसलों पर हिन्दू महासभा-आरएसएस की करतूतों को भी उजागर किया गया है। गांधी उपवास क्यों करते थे और अनशन-भूख हड़ताल से गांधी के उपवास क्यों अलग थेगांधी दृष्टि से लेखक ने बखूबी समझाया है।

कश्मीर को लेकर गांधी पर लगाये गोडसे के आरोपों के झूठ को भी पुस्तक के लेखक और कश्मीर विशेषज्ञ पांडेय ने अच्छे से उजागर किया है।

अशोक कुमार पांडेय इस पुस्तक को लिखते हुए भावुक तो थे ही, ऐसे एकमेक भी हो लिए लिखते-लिखते कहीं वे खीजने लगते और कहीं करारा व्यंग्य भी कर जाते हैं।

इन सब मसलों को विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासुओं को निर्मल मन से पुस्तक 'उसने गांधी को क्यों मारा' का अध्ययन करना चाहिए ताकि देश ही नहीं मानवता विरोधी झूठ में डूब कर देश को डुबोने से वे बच सकें और देश के प्रति अपने ऋण से मुक्त हो सकें।

अन्त में उन पाठकों की ओर से लेखक से गुजारिश है जो पढऩे के अभ्यस्त नहीं हैं। पुस्तक में पैराग्राफ बदलने पर जहां तारीख या माह का दोहराव हैआगामी संस्करण में सन् का उल्लेख पुन: करवा दें। इसी तरह जहां 'उनके', 'उन्होंने' कह कर बात कहने की कोशिश की गयी है, ज्यादा पंक्तियों के अन्तराल होने या पैरा बदलने पर उनके या उन्होंने के स्थान पर नाम-उपनाम का उल्लेख करवाना पाठकों के लिए सुविधाजनक होगा। नागरवाला, नुरानी जैसों के उल्लेख पूरे नाम और संक्षिप्त संदर्भ के साथ हों तो ग्राह्यता बढ़ जायेगी। गोडसे की ओर से गांधी पर लगाये आरोप संबंधी अन्तिम अध्यायों की शुरुआत में उन आरोपों का जिक्र भी कर दिया जाय तो जो पाठक नाथूराम गोडसे के आरोपों से अच्छी तरह वाकिफ नहीं है, वे ज्यादा अच्छे से समझ सकेंगे। शेष तो भाषा-प्रवाह ऐसा है कि ऐसे छोटे-मोटे स्पीड ब्रेकरों के बावजूद पढऩा शुरू करने पर पुस्तक छूटती नहीं है। जिन पाठकों को सत्य में थोड़ा भी भरोसा है, उन्हें इसे पढ़ लेना चाहिए, चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों।

दीपचन्द सांखला

29 अक्टूबर, 2020