‘सब ओर सुरक्षा चाक-चौबन्द,
पर कोई एक भी सुरक्षित नहीं’
16 दिसम्बर की रात दिल्ली में जिस 23 वर्षीया युवती के साथ बस में सामूहिक बलात्कार हुआ था, देर रात 2.15 बजे उसकी मौत हो गई है। डरी हुई दिल्ली पुलिस ने तड़के से ही अधिकांश दिल्ली को असामान्य कर दिया है। दिल्ली की पुलिस भारी दबाव में है और बेहद डरी हुई भी कि कब-कहां क्या हो जायेगा। शुरू में दिया वाक्य उन सैकड़ों-हजारों सन्देशों में से एक है जो उत्तर-आधुनिक संचार माध्यमों से मीडिया तक पहुंचा और मीडिया ने इसे प्रसारित कर दिया। यह वाक्य एकबारगी तो अतिशयोक्तिपूर्ण
लगता है, लेकिन विचारें तो इसका सच भी समझ में आने लगता है।
हमारे देश के अपराध आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले औसतन प्रत्येक आध घंटे में कहीं न कहीं दर्ज होते हैं, होते तो कई गुना हैं। हत्या, मारपीट, लूटपाट, चोरी-चकारी आदि-आदि के मामले अलग!
लग यही रहा है कि वह युवती महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई की प्रतीक बन गई है। घटना से उद्वेलितों में से अधिकांश गुस्से में आरोपियों को तत्काल फांसी देने की मांग कर रहे हैं! गुस्सा जायज है पर हमें यह भी विचारना चाहिए कि हम उस देश में रहते हैं जिसका एक संविधान है, नियम व कायदे कानून हैं और यह सब लगभग पर्याप्त है। समस्या सारी क्रियान्वयन
की है, व्यवस्था की है जिसे हमारे भ्रष्ट राजनेताओं ने पंगु बना दिया है। इस तरह के उद्वेलनों में अकसर देखा गया है कि सबसे ज्यादा नुकसान सरकारी सम्पत्ति का होता है जो प्रकारान्तर
से हम सबकी है और व्यवस्था का जो समूह सबसे ज्यादा रोष का शिकार होता है वह पुलिस है। जबकि हम यह भूल जाते हैं कि पुलिस जिस तरह की भी हो गई है उसके कारणों पर हम विचार नहीं करते। उनके ड्यूटी के घण्टे तय नहीं, निश्चित छुट्टियां नहीं हैं, समय पर पद भरे नहीं जाते हैं, नेताओं की सुरक्षा और आयोजनों की व्यवस्था में उन्हें लगा दिया जाता है। सभी भ्रष्ट नेता उनसे अपने हित के काम साधते रहते हैं। कभी नहीं देखा गया कि घोषित भ्रष्ट और बलात्कारी नेताओं के खिलाफ गुस्से का सामूहिक इजहार किसी ने किया हो।
समाज लगातार गर्त में जा रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि इस युवती की मौत के बहाने हम कुछ ठिठकें और सभी असंगतियों पर खुलकर बात करें-विचार करें। इसी १९ दिसम्बर को विनायक में बलात्कार की इस घटना पर लिखे सम्पादकीय का एक हिस्सा उद्धृत करना जरूरी लगता है-
बलात्कार और इसी तरह की अन्य घटनाएं
दरअसल सामाजिक समस्या
ज्यादा है। समाज
में धर्म,
जाति, वर्ण
और लिंग की असमानता से उपजी
कुण्ठाएं इस तरह की घटनाओं के मूल में ज्यादा
होती हैं। जो अपना धर्म ऊंचा
मानता है वह दूसरे के धर्म
को नीचा मानेगा, जो अपनी जाति
को ऊंचा मानता
है वह दूसरी
सभी जातियों को नीचा और हेय मानेगा। इसी तरह लगभग पूरा पुरुष
वर्ग अपने को स्त्रियों से श्रेष्ठ
और समझदार मानता
है। और दूसरे
धर्म की स्त्रियों
व तथाकथित नीची
जातियों की स्त्रियों
का दर्जा तो उच्च धर्म,
उच्च वर्ग,
उच्च जातिवालों की नजर में तीसरा, चौथा, पांचवां
हो जाता है इसलिए उन्हें भुगतना
भी ज्यादा होता
है।
जिसे नीचा माना जाता
है वे समूह
नीचा कहे जाने
से कुण्ठित होते
हैं और जो अपने को ऊंचा
मानते हैं उन्हें
जब अपने से नीचे वालों से किसी भी तरह की चुनौती मिलती
है तो उनकी
कुण्ठाएं हिंस्ररूप में प्रकट होती हैं।
स्त्री के मामले
में समझें तो जो पुरुष कामप्रसंग
को जीत-हार की दृष्टि
से देखते हैं, उनकी जीतने की लालसा और न जीतने पर हार की कुण्ठाएं अकसर
स्त्री वर्ग को हेय समझकर,
उसकी खिल्ली उड़ाकर, उसे भोग्या बताकर
या उस पर गुस्सा करके,
उसको पीट कर और उसके साथ बलात्कार में प्रकट
होती है।
29 दिसम्बर, 2012