Friday, August 29, 2014

नाबालिग नागरिक, लोकतांत्रिक देश और ये राजनीतिक समूह

आजादी बाद की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी और लम्बे समय तक रही। इसीलिए राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस से ही उम्मीद थी कि वह पार्टी संगठन में विकेन्द्रीकृत लोकतांत्रिक ढांचे को इस तरह विकसित करेगी जो अन्य पार्टियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सके। युवा और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी, नई और खुले सोच की इन्दिरा गांधी को पार्टी की कमान 1959 में ही सौंप दी गई, बीच में पिछली सदी के अन्तिम दशक को छोड़ दें तो तब से लेकर अब तक अधिकांशत: बतौर पार्टी संगठन कांग्रेस इन्दिरा गांधी और उनके पारिवारिक उत्तराधिकारियों की इच्छाओं को केवल प्रतिबिम्बित करती रही बल्कि उसमें एक नये प्रकार का सामन्ती ढांचा विकसित हो गया। इससे हुआ ये कि लोकतांत्रिक मूल्यों की जरूरत नीचे से ऊपर की ओर निर्मित होने वाला ढांचा उलट गया। अलबत्ता तो सांगठिक चुनाव होते ही नहीं, होते भी हैं तो मात्र रस्म अदायगी भर। किसे चुनना है यह इशारा भी ऊपर से आता है। नियुक्तियों का ऊपर से शुरू होने वाला सिलसिला नीचे तक जारी रहता है। ऐसी प्रक्रिया में पार्टी का भीतरी लोकतंत्र किनारे बैठा ठिठुरता रहता है। जिसमें दम होता है, जिसकी पहुंच होती है या जिसकी अंटी भरी होती है वही अपने सामथ्र्य अनुसार पार्टी पद हासिल कर लेता है। नतीजा सबके सामने है। कांग्रेस आज किस मुकाम पर है? वह अगर फिर-फिर लौटती भी है तो अपने पुरुषार्थ से नहीं बल्कि विकल्पहीनता की स्थिति में या प्रतिद्वन्द्वी पार्टी के उससे भी ज्यादा निकम्मा साबित होने पर। पार्टीगत ढांचे पर बात करते समय वामपंथियों को तो एक बारी इसलिए अलग कर देते हैं कि उनके वैचारिक खांचे में लोकतांत्रिक ढांचे की सोच भिन्न है। देश की पार्टियों में अलावा इनके भारतीय जनता पार्टी सहित सभी राजनीतिक पार्टियों ने सांगठनिक संदर्भ से कांग्रेस को रोल मॉडल मान लिया है। बल्कि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शेष सभी पार्टी संगठनों की लोकतांत्रिक ढांचागत उनकी सोच या तो कांग्रेस से बदतर है या बदतर होने को अग्रसर है। अधिकांश पार्टियां जेबी, पारिवारिक और एकल स्वामित्व वाली हो गई हैं, मीडिया ने ऐसे पार्टी मालिकों को पार्टी सुप्रीमो कहना शुरू कर ही दिया है।
इस विषय पर विचारने का तात्कालिक कारण फिलहाल देश की सबसे बड़ी पार्टी होने को अग्रसर भारतीय जनता पार्टी बनी है। भाजपा ने राजनीतिक तौर पर जो कुछ भी अब तक हासिल किया वह या तो कांग्रेसी तौर तरीकों से या उनसे भी बदतर होकर ही किया है। भाजपा जब तक 'पार्टी विद डिफरेंस' या अलग किस्म की पार्टी बनी रही तब तक का उसका हासिल उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। हालांकि 'पार्टी विद डिफरेंस' के दौर में भी संगठन निर्माण की प्रक्रिया लोकतांत्रिक नहीं थी, जनसंघ के दौर में तो ऐसी आवश्यकता ही नहीं समझी जाती थी। कांग्रेस से भिन्नता बस इतनी ही है कि कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार की इच्छाओंं को तरजीह दी जाती है और भाजपा में संघ परिवार की। दोनों ही परिवारों को लोकतांत्रिक मूल्यों से लेना-देना उतना ही है जितना सत्ता हड़पने के लिए संविधान ने छूट दे रखी है।
पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से या कहें जब से नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उनके ऐजेन्डे को देश में पूरी तरह लागू करने का भरोसा दिलवाया है तब से पार्टी के और राज हासिल होने के बाद सरकार के ढांचे में वैसा सब हो रहा है जैसी इच्छा नरेन्द्र मोदी प्रकट करते हैं या चाहते हैं। संघ ने उनको हर तरह से खुला खेलने की छूट इस बिना पर ही दे रखी है कि वे देश को वैसा ही बना देंगे जैसी कल्पना संघ करता रहा है।
विचारने वाली बात यही है कि सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक विविधताओं वाले देश में और एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली और व्यवस्था के अन्तर्गत क्या सचमुच ऐसी समरूपता संभव है? पार्टी के तौर पर कांग्रेस और भाजपा दोनों को ठीक-ठाक देखा समझा हुआ है, चूंकि अब जब पार्टी और शासन में कोरपोरेट हाउसों के सीइओ की तर्ज पर मोदी ही सब कुछ होने जा रहे हैं तो अब तक की उनकी कार्यशैली को अच्छी तरह देखना-समझना जरूरी है। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि संघ कहने को राष्ट्र की बात करता है, उनका असली मकसद अपनी कल्पना का देश है और मोदी उसका भरोसा देकर पूरी तरह फ्री-हेंड ले चुके हैं, अकेले दम पर बहुमत लेकर उसकी लोकतांत्रिक पुष्टि भी करवा चुके हैं।
आजादी बाद के इन सड़सठ वर्षों में यह सब इसलिए होता रहा है, क्योंकि देश का आम-आवाम एक लोकतांत्रिक देश के बालिग नागरिक के रूप में अपने को विकसित नहीं कर पाया है।

29 अगस्त, 2014