Thursday, February 25, 2016

हॉकरों की हड़ताल के बहाने कुछ असलियतों का साझा

फरवरी, 2016 की 22, 23 और 24 को बीकानेर शहर के वे लोग जो रोटी, कपड़ा और मकान जैसी प्राथमिक चिन्ताओं से कुछ या पूरे मुक्त हैं, उनमें से अधिकांश के घरों की सुबह कुछ भिन्न रही। शहर में सर्वाधिक प्रसारित अखबार राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर हॉकरों की हड़ताल के चलते नहीं पहुंचे। हड़ताल की वजह थी इन अखबारों के विक्रय मूल्य में कुछ ही महीनों में पचास पैसे की दूसरी बार की बढ़ोतरी। इस बढ़ोतरी पर हॉकरों का एतराज इसलिए था कि एक तो उनसे इस बारे में न सलाह ली जाती है और न ही पूर्व में सूचित किया जाता है। यह भी कि कुछ ही महीनों में इस तरह से यह दूसरी बढ़ोतरी नाजायज है और तीसरी व्यवस्थागत आपत्ति उनकी यह है कि बजाय पहली तारीख के कीमत को बीच में बढ़ाने से उन्हें हिसाब-किताब की असुविधा होती है। छिपी आपत्ति यह भी हो सकती है कि इस बढ़ोतरी में उनकी हिस्सेदारी को न बढ़ाना। हॉकरों की हिस्सेदारी यदि बढ़ा दी जाती और अखबार मालिक अपने लालच का कुछ साझा यदि उनसे भी कर लेते तो संभवत: हड़ताल की यह नौबत नहीं आती। यानी पहले की तीनों आपत्तियां दिखाने की और चौथी और असल आपत्ति खाने वाले दांत हुई।
यह तो हुई धंधेबाजों की बात, असल जो प्रभावित हुए, वे पाठक भुगतने के अलावा कुछ न कर पाने को लाचार हैं। कुछ वे जो मात्र 'स्टेटस' दिखाने को अखबार मंगवाते हैं उन्हें तो इससे कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन जो विभिन्न जरूरतों को पूरा करने को मंगवाते हैं, ऐसों को कुछ छूटा हुआ सा जरूर लगा। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी में वे देखे गए जो अखबार को पढऩा अपनी 'लत' में शामिल मान चुके हैं। असल में इनमें से ही अधिकांश लोग स्वार्थों से इतर देश, दुनिया और समाज के बारे में विचारना जारी रखने वाले होते हैं। यद्यपि अन्य अखबारों ने इसे एक अवसर मानकर पाठकों तक पहुंचने की कोशिश जरूरी की लेकिन जिन तक ये भी नहीं पहुंच पाए वे अधिकांश 'लत' संक्रमित लोग, सुबह-सवेरेे इन अखबारों की उपलब्धता वाले स्थानों तक अपनी 'लत' को शान्त करने पहुंच जाते।
फरवरी 25 को अखबारों का पूर्वत: पहुंचना सुचारु हुआ, पता किया तो मालुम हुआ कि हॉकरों की मांगें इन अखबारी धंधेबाजों ने नहीं मानी। हां, हॉकरों के इस रोष पर आश्वस्त जरूर किया कि आगे कीमत एक-डेढ़ वर्ष से पहले नहीं बढ़ाएंगे और बढ़ाने से पर्याप्त समय पूर्व हॉकरों को सूचित कर देंगे। बढ़ाने से पूर्व सलाह करने की उम्मीद तो मिशनरी व्यवसाय से धंधा बन चुके इस क्षेत्र से खत्म सी हो गई है और ऐसी हर हड़ताल के पीछे छिपे लालच ने हॉकरों की इस बात का वजन भी खत्म कर दिया कि इस अखबरी व्यवसाय की वे जरूरी कड़ी हैं, जिसके बिना यह धंधा चल ही नहीं सकता।
अखबारों के अधिकांश मालिक धंधेबाज हैं इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैंविज्ञापन, खबरों की अमानवीय प्रस्तुति, रोक के बावजूद छिपे रूप में 'पेड न्यूज', अपात्रों को सुर्खियां देकर पात्रता का सर्टिफिकेट देना समाचारीय पक्ष तो है ही। अलावा इसके एक ही अखबार दो अलग-अलग स्थानों पर दो विक्रय मूल्य रखें तो इसे फिर क्या कहेंगे। जयपुर और बीकानेर के बीच की ऐसी विक्रय कीमत दुभांत को समझें तो नियमित सभी रंगीन 28 पृष्ठों का अखबार पत्रिका व भास्कर दोनों चार रुपये में जयपुर में देते हैं और बीकानेर में अतिरिक्त विज्ञापनों के चलते कभी-कभार के अतिरिक्त चार पृष्ठों की बात छोड़ दें तो जयपुर से आधे चौदह पृष्ठों के ही यहां पांच रुपये वसूले जाने लगे हैं। व्यापार के इस गणित के माध्यम से समझना जरूरी है कि ये अपने उपभोक्ता वर्ग पाठकों के साथ दुभांत कर रहे हैं या धोखाधड़ी।
अलावा इसके लाखों प्रतियां प्रतिदिन छापकर बेचने वाले ये धंधेबाज आकार घटाने की चतुराई लगातार कर रहे हैं, जो इसके उपभोक्ता पाठकों के सीधे ध्यान नहीं आती। ब्रॉडशीट अखबर के एक पृष्ठ का स्टैण्डर्ड आकार 16 गुणा 22 इंच होता है लेकिन ये अखबार लगातार इसका आकार घटाकर रोजाना टनों कागज की बचत करके करोड़ों के अपने लालच की पूर्ति अलग कर ही रहे हैं और इस तरह अपने अखबार का आकार 16 गुणा 22 इंच से घटाते-घटाते 13.5 गुणा 21.5 इंच से कम पर ले आएं हैं। कभी-कभार साथ दिये जाने वाले सप्लीमेंट का आकार तो अब इससे भी छोटा किया जाने लगा है। इस तरह टनों कागज की रोजाना बचत से की जा रही यह मुनाफा वसूली अखबारी कीमत से अलग है। यह अलग बात है कि एक अखबार को छापने की लागत सामान्यत: इसके विक्रय मूल्य से तीन-चार गुणा और अधिक भी हो सकती है। लेकिन न केवल इस घाटे की पूर्ति ही बल्कि लाभ तो इन स्थापित अखबारों को मिलने वाले विज्ञापनों से होता है और अपने इन अखबारों की धाक से ये अखबारी धंधेबाज अन्य तौर-तरीकों से कितना कमाने लगे हैं उसकी कूंत तो आंखें फाड़ देगी। यह बात लिखने-बताने का मकसद असलियत को साझा करना है ताकि कम-से-कम अखबारी पाठक 'भोले' नहीं गिने जाएं।

25 फरवरी, 2016

Wednesday, February 17, 2016

देश में बिगड़ते माहौल के लिए जिम्मेदार कौन

नई दिल्ली के जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन कौंसिल (एनएएसी) की ओर से अब तक किसी विश्वविद्यालय को मिलने वाली सर्वाधिक चौथे स्केल पर 3-9 सीजीपीए की ग्रेडिंग दी गई वह विश्वविद्यालय इन दिनों देशद्रोह की गतिविधियों के आरोप को लेकर सुर्खियों में है।
देश के विभिन्न क्षेत्रों के अधिकांशत: कमजोर तबकों से आए तकरीबन आठ हजार विद्यार्थियों वाले इस विश्वविद्यालय में पढऩा कम गौरव की बात कभी नहीं रहा। वैचारिक खुलेपन के माहौल के चलते यहां से निकलने वाला लगभग प्रत्येक विद्यार्थी बौद्धिकों में शुमार हो लेता है।
ताजा विवाद इसी 9 फरवरी को तब शुरू हुआ जब परिसर में आयोजित एक गोष्ठी में पाकिस्तान जिन्दाबाद के साथ कश्मीरी अलगाववादियों के समर्थन में नारेबाजी हुई। ऐसा कभी-कभार पहले भी हुआ है लेकिन केवल इस बिना पर ऐसी हरकतों की छूट नहीं दी जा सकती। असल दोषियों को चिह्नित कर उन पर नियम और कानून-सम्मत कार्यवाही होनी चाहिए। ऐसी वारदातों से निबटने को जहां विश्वविद्यालय के अपने नियम-कायदे हैं वहीं इनके ओछे पडऩे पर पुलिस और प्रशासन के अपने कानून-कायदे हैं ही। विश्वविद्यालय प्रशासन का मानना है कि घटना की जानकारी के बाद जांच बैठा दी गई, जल्द ही रिपोर्ट आ जानी है।
घटना के तीन दिन बाद दिल्ली पुलिस विश्वविद्यालय प्रशासन के बिना बुलाए विश्वविद्यालय परिसर में घुसती है और उक्त घटना के आरोप में विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैयाकुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर ले जाती है। कन्हैया आज तक पुलिस रिमाण्ड पर है। जबकि उसे देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाया गया। इसके उलट कन्हैया का पक्ष यह है कि वह तो नारेबाजों को रोकने वालों में था। यह जरूर माना जा सकता है कि विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव में बहुमत से जीत हासिल करने वाले कन्हैया का केन्द्र में बहुमत से सरकार में आए दल से वैचारिक विरोध है, जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संभव है।
दरअसल मामला दूसरा है, जब से केन्द्र में वर्तमान सरकार आयी है तब से देश के सभी बड़े शिक्षण संस्थानों में सत्तारूढ़ पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे अपनी विचारधारा थोपने का अवसर मान लिया। इसके लिए उसने मोर्चा बजाय वैचारिक के, थोपने वाला खोला, जिसकी गुंजाइश विचारशील समाज में न्यूनतम होनी चाहिए। पूना फिल्म इंस्टिट्यूट में चेयरमैन के मनोनयन का विरोध, हैदराबाद के एक विश्वविद्यालय में विपरीत विचारधारा वाले विद्यार्थियों के खिलाफ ओछी कार्रवाई और परिणामस्वरूप रोहित की आत्महत्या जैसी घटनाएं उद्वेलनकारी सिद्ध हुई। इस आत्महत्या पर उपजा आक्रोश देश के कई शिक्षण संस्थानों तक फैल गया, ऐसे में जेएनयू कैसे अछूता रहता। इस घटना ने संभवत: सरकार को विचलित कर दिया और जेएनयू की इस अलगाववादी नारेबाजी की घटना को इनके दिवालिये बौद्धिकों के हुड़े में न केवल इतना प्रचारित करवाया बल्कि आनन-फानन में कन्हैया को राजद्रोह में गिरफ्तार कर माहौल को और भी खराब होने दिया। अब तो सुरक्षा एजेन्सियों ने भी गृहमंत्रालय को दी अपनी रिपोर्ट में बता दिया है कि कन्हैया उस देश विरोधी नारेबाजी में शामिल ही नहीं था। इस रिपोर्ट ने सार्वजनिक तौर पर, मीडिया और सोशल मीडिया पर उसके समर्थन में आए सभी को सही और सरकार को गलत साबित कर दिया है।
इस बीच 1617 फरवरी को लगतार दोनों दिन कन्हैया की पटियाला कोर्ट में पेशी पर वकीलों जैसे काले कोट पहने कई लोग परिसर में घुस गए और कन्हैया व उसके समर्थकों तथा पत्रकारों के साथ मारपीट व बदसलूकी की, जिसे उच्चतम न्यायालय ने तत्काल ही गंभीरता से लिया। इस कुकृत्य का नेतृत्व पहले दिन केन्द्र में सत्तासीन पार्टी के विधायक ही कर रहे थे। दिल्ली की स्थिति बड़ी विचित्र है, उपराज्यपाल और पुलिस आयुक्त दोनों की भूमिका भद्देपन की हद तक संक्रमित कर दी गई है। खैर, यह अलग मुद्दा है।
इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया का एक हिस्सा जहां अपनी जिम्मेदारी निभाता नजर आया वहीं कोर्ट में हुई मारपीट की घटना के बावजूद मीडिया का दूसरा हिस्सा केन्द्र की सत्ता की गुलामी करता साफ दीखा। मीडिया का यह भदेसपन यदि इसी तरह बढ़ता है तो ज्यादा चिन्ताजनक है।
सोशल मीडिया की स्थिति और भी बुरी है। केन्द्र में जिस पार्टी का शासन है उसके समर्थक तो विवेक और लोकतांत्रिक मूल्यों की सारी सीमाएं लांघते हुए अशालीन नजर आने लगे हैं। ऐसा लगने लगा है कि उन्हें अपनी ही सरकार की कानून और व्यवस्था में कोई भरोसा नहीं। वे खुद ही जुर्म तय करेंगे और खुद ही सजा देंगे। ऐसी स्थितियों में बढ़ोतरी होती है तो देश को शासन-प्रेरित अराजकता की ओर बढऩे से रोका नहीं जा सकेगा। प्रधानमंत्री भी ऐसे सभी अवसरों पर चैन की बंसी बजाते ही नजर आते हैं मानों उन्होंने खुद अपने समर्थकों को रोम में आग लगाने की छूट दे दी है।
ऐसी पुनरावृति इस देश में 1975-76 (आपातकाल) के बाद पहली बार देखी गई लेकिन इस बार उग्रता ज्यादा महसूस की जा रही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी से जो असहमति जताते हैं और सरकारी कामकाज से असंतुष्ट हैं उन्हें देश के खिलाफ माना जाने लगा है। इस तरह शासन और देश को एक मानना बेहद खतरनाक है। शासन के कामकाज और पार्टी विशेष की विचारधारा के विरोध को देश का विरोध कैसे माना जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों के लिए न केवल राजनीतिक विचारों के प्रति अतार्किक और अलोकतांत्रिक आग्रहों को जिम्मेदार माना जा सकता हैं बल्कि धर्मच्युत मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है।

18 फरवरी, 2016

Thursday, February 4, 2016

दुश्मन की गरज साजते हैं हमारे नुमाइंदे

राजस्थान के सन्दर्भ में बात करें तो प्राकृतिक रूप से पहले से ही समृद्ध 'अपने' क्षेत्र उदयपुर को मोहनलाल सुखाडिय़ा ने बबुआ बना दिया। पिछली सदी के छठे-सातवें दशक में सूबे के मुख्यमंत्री रहे सुखाडिय़ा की आलोचना इसीलिए भी हुई कि वे अपने क्षेत्र पर ही ज्यादा ध्यान देते थे, यह उलाहना तो आया गया हो गया पर तब विकसित हुए उदयपुर का सुख वहां के बाशिन्दों की कई पीढिय़ां भोगती रहेंगी।
इसी तरह मुख्यमंत्री रहे हों या नहीं, अशोक गहलोत अपनी चतुराई से न केवल 'अपने' जोधपुर का डोळिया लगातार सुधारते रहे बल्कि वहां कई प्रकार की सुविधाएं बढ़ाने में भी सदा सचेष्ट रहे हैं। गहलोत के लिए चतुराई का प्रयोग इसलिए किया कि जहां आधारभूत रूप से अधिकांश लक-दक उदयपुर उसी काल में हुआ जब सुखाडिय़ा सूबे के मुख्यमंत्री रहे लेकिन गहलोत की जोधपुर के साथ ट्यूनिंग ऐसी है कि भले वे सत्ता में रहे या नहीं और यह भी कि केन्द्र और प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकारें भी चाहे न हों, अपने प्रबन्धकीय कौशल से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जोधपुर को संवारने में सचेष्ट रहे हैं।
ठीक सुखाडिय़ा-सा उलाहना जोधपुर को लेकर गहलोत को भी मिलता रहा है लेकिन तब हम यह भूल जाते हैं कि गहलोत ने 'अपने' दूसरे घर जयपुर के लिए भी बहुत कुछ किया और यह भी कि सत्ता में न रहते हुए भी वे जोधपुर के लिए लगे रहते हैं। हालांकि केवल इस कारण भर से गहलोत को बरी इसलिए नहीं किया जा सकता कि सूबे के मुखिया होने से प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों से दुभान्त में फासला इतना भी नहीं होना चाहिए। उन्नीस-इक्कीस का अन्तर तो समझ में आता है।
ऊपर बताई बातों के अनुसार यह तो हुई मुख्यमंत्रियों की बात जोधपुर-गहलोत पर यद्यपि उस तरह लागू नहीं होती जिस तरह सुखाडिय़ा पर हुई। इसके ठीक उलट अपने शहर से प्यार करने का बड़ा उदाहरण शान्ति धारीवाल का दे सकते हैं। उन्होंने मात्र कैबिनेट मंत्री रहते अपने शहर कोटा का वर्ष 2008 से 2013 में जो हुलिया बदला अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए यह बड़ा उदाहरण है। धारीवाल के उदाहरण से यह जाहिर होता है कि आप मुख्यमंत्री न भी हों, अपने क्षेत्र से यदि प्यार करते हैं तो केवल मंत्री रहते भी उसका काया-कल्प कर सकते हैं और जो मंत्रालय सीधे आपके अधीन नहीं हैं, अंगुली टेढी कर उन मंत्रालयों से सम्बन्धित जरूरी विकास भी 'अपने' शहर में करवा सकते हैं।
अब आते हैं अपने क्षेत्र बीकानेर की ओर। आजादी बाद के शुरू के बीस वर्ष में यह मान लें कि लोकतंत्र के लिए जरूरी विपक्ष को बीकानेर ने ताकत दी लेकिन फिर उसके बाद से तो यह क्षेत्र अधिकांशत: सत्ता पक्ष के साथ ही रहा है। इस क्षेत्र में 1980 के बाद कहने को दो पावरफुल मंत्री दोनों मुख्य दलों के रहेडॉ. बीडी कल्ला और देवीसिंह भाटी, लेकिन अपने क्षेत्र के लिए इनके दाय पर बात करें तो सिफर ही निकलेगा।
पहले डॉ. बीडी कल्ला की बात कर लें, वे अपने खाते में जो काम गिनवाते हैं उनमें से अधिकांश वे ही हैं जो सूबे के बीकानेर जैसे बड़े शहर या संभागीय मुख्यालय के नाते वैसे ही होने थे। उनके गिनवाए कामों के काल का अन्य बड़े शहरों में वैसे ही कामों के होने के काल से तुलना करें तो अधिकांश कामों के यहां होने की बारी अंत में ही आई। ऐसे में कल्ला किस बात का श्रेय लेना चाहते हैं। उनके काल में हुए कामों के लिए यथा इंजीनियरिंग कॉलेज, सदर जेल और परिवहन कार्यालय इन तीनों को जंगलों में स्थान दिलवाया गया जबकि वे निहित लोभ छोड़ कर बाशिन्दों के व्यापक हित की सोचते तो यह तीनों वहां नहीं होते जहां आज हैं। इसमें परिवहन कार्यालय (आरटीओ) का स्थान चयन तो उनकी संवेदनशून्यता को ही जाहिर कर रहा है। इस कार्यालय से जिन अधिकांश का साबका पड़ता है वे उनमें अधिकांश किशोर-किशोरियां होते हैं जिन्हें अपना लाइसेंस दो बार बनवाना होता है। अब बताएं उन्हें इस काम के लिए कहां जाना पड़ता है। इसी तरह जेल के अधिकांश सजायाफ्ता गरीब और कमजोर वर्ग से होते हैं, अब हो यह गया कि उनका परिजन कभी अपने प्रियजन से मिलना भी चाहे तो जेल तक पहुंचना काफी खर्चीला है और पहुंच जाएं तो मुलाकात उससे भी ज्यादा खर्चीली होगी।
इसी तरह यहां के जो कॉलेज-विश्वविद्यालय हैं, ये सब गोशाला की तर्ज पर यहां के नेताओं के हाजरियों की हाजरिया-शाला से कम नहीं हैं। इनमें अधिकांश लोग यहां के जनप्रतिनिधियों के हाजरिए ही ठूंसे गये हैं।
देवीसिंह भाटी भी कल्ला की तरह 1980 से अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते रहे। इस बार जनता ने उन्हें हराकर ठिठकाया भर है। लेकिन खुद उनके विधानसभा क्षेत्र कोलायत की गिनती प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में होती है। खनिज सम्पदा लूट का बड़ा क्षेत्र भी कोलायत गिना जाने लगा है। ये देवीसिंह भाटी ही हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में कुछ किया नहीं किया पर बढ़ते बीकानेर क्षेत्र की महती जरूरत जोधपुर-जैसलमेर मार्ग को जोडऩे वाले सड़क बाइपास निर्माण को गोचर के नाम पर अंडग़ा लगवा कर रुकवा दिया और शहर ने बर्दाश्त भी कर लिया।
गोपाल जोशी की दूसरी बार जनप्रतिनिधि होने की आस उस उम्र में पूरी हुई जब सक्रियता और विजन दोनों ही सिमटने लगते हैं। इस दूसरी पारी का उनका पहला कार्याकाल विपक्ष में निकला और दूसरा कार्यकाल उनकी नेता वसुंधरा राजे की काम के प्रति अरुचि की भेंट चढ़ रहा है। बीकानेर से ही दूसरी सिद्धीकुमारी को जनता जितवाती ही सत्ता भोगने को है तो फिर उनसे कुछ उम्मीद करना ज्यादती होगी।
नोखा के जनप्रतिनिधियों की लड़ाई हमेशा नाक की लड़ाई की भेंट चढ़ती रही है। रामेश्वर डूडी सिर्फ नेताई के लिए नेताई करते हैं उन्होंने न तब कुछ किया जब सांसद थे तो अब क्या करेंगे। उनकी रुचि इस शहर के लिए इतनी है कि नोखा जाने वाली बसें शहर के हर उस चौराहे पर बेतरतीबी बढ़ाए जहां से उसे गुजरना है। अन्यथा शहर से निकलने वाले चारों बड़े मार्गों पर अलग-अलग बस अड्डे विकसित हों तो शहर का यातायात कुछ सुधर सकता है।
सच्चे जनप्रतिनिधि की भूमिका निभाने को सचेष्ट मानिकचन्द सुराना अपने क्षेत्र ही नहीं पूरे सूबे के लिए उदाहरण हैं। अपने क्षेत्र के विकास हेतु लगातार सक्रिय रहने के बूते ही इस उम्र में हाल का चुनाव निर्दलीय रूप में लड़कर जीत लिया। सुराना ने बीकानेर शहर के प्रति अपने लगाव को तब जाहिर किया जब कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड का पक्ष उन्होंने दृढ़तापूर्वक लिया। ठीक इनके उलट जिन डॉ. कल्ला की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है वे बाइपास की झक झाले रखकर अपनी भद्द पिटवा ही चुके हैं।
कोलायत के विधायक भंवरसिंह भाटी को अभी समय मिलना चाहिए वहीं खाजूवाला के डॉ. विश्वनाथ अपना पहला चुनाव अपने राजनीतिक गॉडफादर देवीसिंह भाटी के प्रभाव से जीते तो दूसरा देश में कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल के बूते। इस तरह की लॉटरियां हमेशा नहीं निकलती और राजनीति में तो हरगिज नहीं। इस सरकार ने उन्हें संसदीय सचिव जैसा गैर प्रभावी पद जरूर दे दिया है। यदि उन्हें लम्बी पारी खेलनी है तो अपने क्षेत्र के गांवों की चार मूलभूत जरूरतों को पुख्ता करवाएंपानी-बिजली के आधारभूत ढांचे के अलावा सरकारी-स्कूलों और सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की सेवाएं यदि वे चाक-चौबंद करवा पाते हैं तो न केवल अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए वे उदाहरण बन सकते हैं बल्कि अपनी सीट को पक्की रख सकेंगे। नहीं तो 'उतर भीखा म्हारी बारी' को हासिल होते देर नहीं लगेगी।
श्रीडूँगरगढ़ के किसनाराम नाई हों या मंगलाराम गोदारा इनकी राजनीति के तौर तरीके अपने क्षेत्र के अन्य अधिकांश राजनेताओं की तर्ज पर मात्र क्षेत्र को उपनिवेश समझने से ज्यादा नहीं हैं। इनसे जनता छुटकारा लेवे तो कुछ बात बने अन्यथा भुगतते रहना जनता की मजबूरी है। इन दोनों ही ने अपने क्षेत्र के लिए उल्लेखनीय कुछ करवाया हो ऐसा दीखता नहीं है।
इन जनप्रतिनिधियों से अपने क्षेत्र के लिए कुछ करवाना तो दूर अधिकांश तो कुछ होने में या तो अड़ंगे लगाते नजर आते हैं या उसका कबाड़ा करते। रही बात यहां आने वाले अफसरों की तो उनमें से अधिकांश धापकर यहां तक कहने लगे हैं कि आप जिन नेताओं को जिताकर ताकत देते हैं जब उनकी ही रुचि यहां के विकास और सुधारे में नहीं है तो हमारे बाप का क्या जाता है, हमें तो साल दो साल ही गुजारना है।

4 फरवरी, 2016