Thursday, January 28, 2016

गणतंत्र दिवस पर तमाशा, डॉ. कल्ला का फ्लॉप-शो और सूने तमाशबीन हम

पिछले लगभग एक माह से शहर में हलचल इसलिए थी कि गणतंत्र दिवस का इस बार का राज्य स्तरीय समारोह बीकानेर में रखा जाना है। सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस तरह के आयोजनों से किसी शहर-विशेष से अपने लगाव को जताने की कोशिश करती हैं लेकिन इस बार ऐसी छाप वह कहीं भी नहीं छोड़ पा रही। अपने पिछले कार्यकाल में वह जब ऐसा कुछ करतीं तो छाप भी छोड़ती थीं। उनके इस बदले रुख का असर उलटा होने लगा है। जहां आयोजन होता है वहां के लोग भारी उम्मीदें बांध लेते हैं और, जितनी भारी उम्मीदें होती हैं, निराशा की लम्बाई उतनी ही बढ़ जाती है।
बीकानेर शहर की सबसे बड़ी समस्या रेलफाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है। इस आयोजन से पहले इसके लिए जिस तरह की कवायद चल रही थी, उससे यहां के बाशिन्दों को लगने लगा था कि मुख्यमंत्री इसके समाधान की कोई घोषणा जरूर करेंगी। हां, मंशा जरूर जताई, हो सकता है अगले माह आने वाले राज्य के बजट में इसके लिए प्रावधान किए जाएं।
दूसरा मुद्दा यहां के तकनीकी विश्वविद्यालय का है जिसे इस सरकार ने आते ही बन्द कर दिया। शहर के तमाम नेताओं नेजिनमें दोनों ही मुख्य पार्टियों के नेता शामिल हैंइसे अपनी नाक का सवाल बना लिया। बनाएं भी क्यों नहीं जब यहां के इंजीनियरिंग कॉलेज का शैक्षणिक-गैर शैक्षणिक और जरूरत-बिना जरूरत का अधिकांश स्टाफ इन्हीं नेताओं के अपने लोग हों। और इसी के चलते इस कॉलेज ने न केवल अपनी साख खोई बल्कि इसे चलाने के लिए फिजूल का धन हर महीने इतना चाहिए कि यह कॉलेज इसी बोझ के तले बैठ जाये। इन नेताओं को लगता है कि यह कॉलेज यदि तकनीकी विश्वविद्यालय का संगठक कॉलेज बनेगा तो धन आने के कई रास्ते खुल जाएंगे, नहीं तो वर्ष-दो वर्ष में इनके घुसाए लोग बेकार होकर इनकी छाती पर आ बैठेंगे। तकनीकी विश्वविद्यालय की मांग के साथ इसके अलावा कोई अन्य सवाल नाक का हो तो इन नेताओं को जाहिर करना चाहिए। अन्यथा जब पिछली विधानसभा के आखिरी सत्र के एजेन्डे में इस तकनीकी विश्वविद्यालय का विधेयक रखा जाना तय था और तब के नेता प्रतिपक्ष भाजपा के कटारिया को इसे रोकने से सदन में न गोपाल जोशी ने रोका और न ही सिद्धीकुमारी ने, फिर देवीसिंह भाटी और डॉ. विश्वनाथ को इससे मतलब ही क्या था। अब अनशन का शो करने वाले डॉ. बीडी कल्ला ने भी तब अपनी पार्टी की सरकार के चलते इस विधेयक को रखवाने और उसे पारित कराने का राई-रत्ती भी कोई प्रयास किया हो तो जरूर बताएं।
खैर! लोक में कैबत है कि गई बातों तक घोड़े भी नहीं पहुंच पाते तो इन बातों से भी क्या बटेगा। 1967 से पहले कांग्रेस यह कहती थी कि बीकानेर विकास में इसलिए पिछड़ा है कि यह हमेशा विपक्ष को जिता कर भेजता है। उसके बाद से अधिकांशत: यह शहर सरकार में शामिल रहा। लेकिन इसे कभी उससे ज्यादा कुछ हासिल हुआ क्या जो एक संभागीय मुख्यालय को उसकी बारी के अंत में हासिल होता रहा है। कहने को सब जनप्रतिनिधि अपनी उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त गिनवाते हैं और मतदाताओं को बेवकूफ बनाते रहते हैं।
शहर की शेष छिट-पुट जरूरतें अपनी जरूरतों के ही दबाव में जैसे-तैसे भी कभी पूरी हो लेगी लेकिन फिलहाल जो सबसे बड़ी जरूरत कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है और जिसके समाधान की यह शहर पिछले पचीस वर्षों से बाट जोह रहा है, उसका निकट भविष्य में कुछ होना-जाना है क्या?
यह तो हो ली वर्तमान शासन की बात। लगे हाथ बात इस शहर के अपने होने का दावा करने वाले डॉ. बीडी कल्ला की भी कर लेते हैं कि वे अपने इसी दावे को पुष्ट करने के लिए उक्त में से एक बड़ी और दूसरी नाक की मांग के साथ अन्य कई मांगों को लेकर 21 जनवरी से सत्याग्रह पर बैठे और इसी क्रम में सांकेतिक भूख हड़ताल के रास्ते होकर हबीड़े में कहें या अपरिपक्वता के चलते 23 जनवरी से अपना घोषित आमरण अनशन भी कर बैठे।
पता नहीं उनकी इन मांगों में सत्य का आग्रह कितना है क्योंकि ये मांगें पिछले दो वर्ष की तो हैं नहीं। पिछली सरकार डॉ. कल्ला की थी और यह भी कि कोटगेट यातायात समस्या शुरू होने के पहले से भी वे सत्ता में थे और बाद में भी कई बार रहे। दो बार हार लिए हैं तो बैराग उमड़ा और सत्याग्रह पर बैठ लिए। पहले तो उन्हें आमरण अनशन जैसा अपरिपक्व निर्णय करना ही नहीं था क्योंकि यह गांधीवादी अनुष्ठान सचमुच के आग्रह के बिना पूरा नहीं होता। दूसरा बैठ गए तो मुख्यमंत्री के बुलावे पर उन्हें खुद न जाकर पार्टी के उन वरिष्ठों को भेजना चाहिए था जो अनशन पर नहीं थे। खुद उनके 'भाईजी' जनार्दन कल्ला और भानीभाई को भेजा जा सकता था, और आमरण अनशन से उठकर मुख्यमंत्री से मिलने चल ही दिए तो फिर सत्य पर आग्रह कैसा। डॉ. कल्ला समझदारी दिखाते तो मुख्यमंत्री से टका-सा जवाब सुनकर नहीं लौटते। इसके बाद भी दो दिन और धैर्य रखते, पुलिस द्वारा जबरन उठाकर ले जाने का इंतजार करते तो कुछ तो मान बना रहता। यह क्या हुआ कि कोई छिट-पुट बहाना लेकर ज्यूस पी लिया। जिस तरह की छोटी राजनीति खुद डॉ. कल्ला जीवनभर करते रहे हैं ऐसे में उन्होंने यह कैसे मान लिया कि उनके विरोधी दल की घाघ मुख्यमंत्री इस सबका श्रेय उन्हें लेने देगी। भारत के प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल का यह शेर शायद डॉ. कल्ला जैसे लोगों के लिए ही है :
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा, क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते है सफीनों में
रही हम बाशिन्दों की बात तो जब तक हम अपनी सून से निकलेंगे नहीं, तमाशाबीन बनकर भुगतना यूं ही होगा।

28 जनवरी, 2016

Thursday, January 21, 2016

सरकार! पुलिस महकमें में इतना सुधारा तो हो/ बीकानेर के शहरी थानों का पुनर्सीमांकन जरूरी

पुलिस महकमें में सुधार की बातें और जरूरतें जब-तब बखानी जाती रही हैं। कई कमेटियां व आयोग बने, उनके सुझाव और रिपोर्टें बर्फ में इसलिए लगाई जाती रही कि जिन्हें इस महकमें के लिए कुछ करना है, उन राजनेताओं को इन सुझावों से अपनी ताकत कम होने का भय दीखने लगता है। कहा जाता है कि इस महकमें के लकवाग्रस्त होने के सर्वाधिक जिम्मेदार कोई है तो राजनीतिक हस्तक्षेप और राजनेताओं के चंगुल में इसका फंसे होना है। आजादी बाद शुरू के वर्षों में अधिकतर कांग्रेस इसका इस्तेमाल करती रही। पिछली सदी के आठवें दशक के बाद आई गैर कांग्रेसी सरकारों के ढंगढाळे भी वैसे ही रहे जैसे कांग्रेस के थे। सरकारों की अदला-बदली से पहले तो पुलिस महकमा चकबम्ब रहा लेकिन धीरे-धीरे वह भी सभी पार्टियों के राजनेताओं को उनके माजने अनुसार परोटना सीख गया।
इस महकमें को इस सबसे कभी मुक्ति मिलेगी और आमजन को वह बिना राग-द्वेष के अपनी नैष्ठिक सेवाएं देने की स्थिति में आ पाएगा इसके आसार फिलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखते। क्योंकि इसके लिए पूरी तरह बदली राजनीतिक तासीर की जरूरत होगी। वैसे सुधार की कुछ गुंजाइश अन्ना आन्दोलन से टिमटिमाई जरूर थी लेकिन अनुगामी और सहयोगी अरविन्द केजरीवाल जिस ढंग से राज और राजनीति को हांक रहे हैं उनसे उम्मीदें काफूर ही हुई हैं।
बावजूद इस सबके इस महकमें में प्रशासनिक स्तर पर कुछ सुधारों की जरूरत महसूस की जाती रही है। सरकार सरकार चाहे तो प्रदेश स्तर पर इस महकमें में ही एक अलग अनुभाग बनाकर स्थानान्तरण, समानीकरण व नये थानों की जरूरत और थाना क्षेत्रों के पुनर्सीमांकन की गुंजाइश की पड़ताल लगातार करवाकर इसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया जारी रख सकती है।
बीकानेर शहर और सदर के सन्दर्भ से ही बात करें तो इनके थानों के पुनर्सीमांकन की सख्त जरूरत है। सरकार 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस पर शहर में होगी और इस तरह के काम में कोई बड़ी पेचीदगी इसलिए भी नहीं है कि इसमें धन की कोई खास जरूरत नहीं होगी।
'विनायक' के पाठकों से कुछ थाना क्षेत्रों की विसंगतियां और सुधार यहां साझा करें तो खुद उन्हें लगेगा कि इससे न केवल यहां के बाशिन्दों को राहत मिलेगी बल्कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने में भी चाक-चौबन्दी बढ़ेगी।
सबसे ज्यादा जिन दो शहरी थानों के पुनर्सीमांकन की जरूरत है उनमें गंगाशहर और नयाशहर थानों के इलाके हैं। उसके बाद बीछवाल, सदर और जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्रों में परिवर्तन जरूरी लगते हैं।
गंगाशहर थाने के छोटा रानीसरबास, कादरी कॉलोनी, जनता प्याऊ, बंगलानगर, रंगा कॉलोनी व मुरलीधर व्यास कॉलोनी क्षेत्रों को नयाशहर थाने के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए। इसी तरह कोटगेट थाना क्षेत्र के रानी बाजार इंडस्ट्रियल एरिया के रोड नम्बर पांच के इर्द-गिर्द क्षेत्र को गंगाशहर थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना चाहिए।
वहीं रामपुरा, मुक्ताप्रसाद कॉलोनी क्षेत्र में नये थाने के सृजन की जरूरत है, जिसकी सीमा पूगल रोड के पूर्वी हिस्से तक रखी जा सकती है। शहर की यह सबसे बड़ी बसावट जिस तरह अपराध का अड्डा बनती जा रही है उसे देखते हुए यह जरूरी भी है। इस नये सृजित थाने में सदर थाना क्षेत्र का सुभाषपुरा वाला पूरा हिस्सा शामिल किया जा सकता है। बीछवाल थाने के एकदम असंगत इलाकोंबजरंगधोरा, इंजीनियरिंग कॉलेज, ख्वाजा कॉलोनी को इस नये सृजित थाने के अंतर्गत लिया जावे। बीछवाल थाना क्षेत्र के समतानगर, गांधी कॉलोनी, करणीनगर, रोडवेज बस अड्डा और इन्द्रा कॉलोनी आदि सभी अब घनी आबादी क्षेत्र बन चुके हैं। अत: इन इलाकों को वहां के बाशिन्दों की सुविधा और कानून-व्यवस्था के मद्देनजर सदर थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना जरूरी लगता है।
बीकानेर-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर उत्तरी हिस्से के सांगलपुरा से सोफिया स्कूल तक के हिस्से को जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र में शामिल किया जाना तार्किक है। यह इलाके फिलहाल सदर थाना क्षेत्र में आते हैं। इसी तरह इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर रायसर गांव तक के क्षेत्र को भी नापासर थाने से हटाकर जयनारायण व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र में शामिल करना इस मार्ग पर तेजी से बढ़ रही रिहाइशी कॉलोनियों के बाशिन्दों के लिए सुविधाजनक होगा। यातायात थाना व आदर्श कॉलोनी के छोटे हिस्से को संतुलन के लिए व्यास कॉलोनी थाना क्षेत्र से हटाकर कोटगेट थाना क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है।
ऐसे किंचित लेकिन जरूरी परिवर्तनों पर न तो चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने सुध ली और न ही सरकार ने। सून को हासिल जनता इन क्षेत्रीय विसंगतियों को भुगतती तो रहती है, पता नहीं आवाज क्यों नहीं उठाती। सरकार और यहां से चुने और चुने जाने की आस में बैठे नेता क्या इस ओर भी ध्यान देंगे?

21 जनवरी, 2016

Thursday, January 14, 2016

डॉ. बीडी कल्ला का मसाणिया बैराग

पिछले विधानसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार हार जाने के कुछ समय बाद डॉ. कल्ला ने सक्रियता फिर दिखानी शुरू की तो लोगों ने इस कैबत को याद किया कि 'पहली रहता यूं तो तबला जाता क्यूं'
प्रदेश में भाजपा राज के दो वर्ष जिस तरह से गुजरे हैं और केन्द्र की मोदी सरकार ने जिस तरह उम्मीदें बंधा फिर उनसे मुंह फेरा उससे प्रदेश के कांग्रेसियों में हौसला लौटने लगा है। कांग्रेसियों में यह आश्वस्ति भी दीखने लगी कि केन्द्र और सूबे की सरकार से निराश हुए लोग 2018 के विधानसभा चुनावों में उनकी वैसी गत तो नहीं करेंगे जैसी 2013 में की थी। कांग्रेसी ही क्यों, राजनीति करने वाले सभी ऐसा मानते हैं कि जनता की स्मृति इतनी टिकाऊ नहीं होती कि वह चार-पांच वर्ष पुरानी बातों को पकड़े रखे। जनता वोट ताजी निराशा देने वालों के खिलाफ करती है। इस तरह कल्ला की दी निराशाओं को जब अगले विधानसभा चुनावों तक लोग भूल जाएंगे तो उनका पलड़ा और भी भारी यूं ही हो जाएगा। और यदि वर्तमान राजे-राज के बाकी के तीन वर्ष भी यदि वैसे ही गुजरेंगे जैसे बीते दो वर्ष गुजरे हैं तो फिर कहना ही क्या।
डॉ. कल्ला यह मानकर चल रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी बीकानेर पश्चिम से चुनाव उन्हें ही लड़वाएगी। ऐसी उम्मीद पर भरोसा इसलिए भी किया जा सकता है कि बावजूद दो बार लगातार और कुल जमा तीसरी बार हार चुके कल्ला ने पार्टी में प्रदेश स्तर पर अपनी इतनी हैसियत तो बना ही ली कि बिना किसी तात्कालिक कारण के कल्ला की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी बीकानेर पश्चिम में किसी राजनेता ने अपनी धाक ऐसी नहीं  बना ली है कि उसका दावा कल्ला के दावे से इक्कीस पड़े।
कांग्रेस के इस अकाल समय में डॉ. कल्ला की बात इसलिए हो रही है कि प्रदेश स्तरीय गणतंत्र दिवस के आयोजन पर सूबे का राज बीकानेर में रहेगा। ऐसे अवसर को तब कोई अवसरवादी क्यों छोड़ेगा जब सत्ता पक्ष दो वर्ष में कुछ कर ही न पाया हो। कल्ला ने मांगों की एक फेहरिस्त रख कर घोषणा की है कि शहर की कुछ जरूरतों के लिए 21 जनवरी से वे क्रमिक अनशन करेंगे और सरकार ने उनकी मांगों पर चौबीस-छत्तीस घंटों में ध्यान नहीं दिया तो 23 जनवरी से ही अनिश्चितकाल के लिए अनशन पर बैठ जाएंगे। अनिश्चितकाल के लिए अनशन की घोषणा करना जितना आसान है उसे निभाना ऐसे समय में उतना ही मुश्किल है जब सरकारें पिछले दशकों से असंवेदनशीलता और हेकड़ी से चलाई जाने लगी हों। ऐसा कांग्रेस और भाजपा पर समान रूप से लागू होता है।
कल्ला के इस घोषित सत्याग्रह का ऊंट किस करवट बैठता है या खड़ा ही रहेगा कह नहीं सकते लेकिन उन्होंने जो मुद्दे उठाए हैं उनकी पड़ताल कल्ला के पक्ष से एक बार पुन: कर लें कि जब वे इन मुद्दों पर कुछ करने की हैसियत में रहे थे तब शुतुरमुर्ग क्यों बने रहे।
                —तकनीकी विश्वविद्यालय की घोषणा कांग्रेस की पिछली सरकार ने भागते चोर की लंगोटी ही सही की तर्ज पर शासन की अंतिम छ: माही में की। लेकिन तत्परता नहीं दिखाई कि इस अध्यादेश का विधेयक पारित करवाना है। क्या कल्ला बताएंगे कि अपनी सरकार के समय इसके लिए वे आना-पायी जितने भी सक्रिय हुए थे क्या?
                —कल्ला की दूसरी मांग है: कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या के समाधान के लिए बाइपास का निर्माण शीघ्र करवाया जाए। पिछले पचीस वर्षों से शहरी इस समस्या पर उद्वेलित हैं। बीते इन पचीस वर्षों में लगभग दस वर्ष से ज्यादा समय तो उस कांग्रेस का ही शासन रहा जिसमें कल्ला प्रदेश स्तर की हैसियत बना चुके हैं, पांच वर्ष तो वे मंत्री भी रहे। अलावा इसके इन पचीस वर्षों में वे तेरह वर्ष यहां से विधायक भी रहे। इस समस्या को किसी परिणाममूलक समाधान तक पहुंचाने के लिए कल्ला सक्रिय रहते तो यह समस्या आज रहती ही नहीं।
                —बीकानेर संभाग में उच्च न्यायालय बैंच की मांग वर्षों पुरानी है। इस बीच कांग्रेस की सरकार कई बार रही कल्ला क्या इस हैसियत में नहीं थे कि वे कुछ करवा पाते?
                —रवीन्द्र रंगमंच के लिए कल्ला ने कभी रुचि इसलिए नहीं दिखाई क्योंकि उनका स्वभाव ही रहा है कि अपने विधानसभा क्षेत्र के बाहर नाली भी बने-न-बने, फूटे उनके। पिछले बाइस वर्षों में कल्ला ने इस निर्माणाधीन रंगमंच के लिए कोई प्रयास किया हो तो बताएं। इस रंगमंच की बड़ी प्रतिकूलता यह भी रही कि जिन देवीसिंह भाटी ने अपने विधानसभा क्षेत्र में इसका शिलान्यास किया, खुद उन्होंने ही कभी इसकी सुध नहीं ली तो कल्ला भला क्यों लेते।
                —कल्ला ने शिक्षा निदेशालय को कमजोर करने का मुद्दा भी उठाया है। 1980 में कल्ला जब से शहर की राजनीति में सक्रिय हुए तभी से ही इसे कमजोर करने का सिलसिला लगातार जारी है। स्वयं कल्ला के पास अधिकांशत: शिक्षा मंत्रालय रहा है, कल्ला चाहे न बताएं कि उन्होंने इसे मजबूती देने का क्या प्रयास किया, क्योंकि ऐसा कुछ उन्होंने किया भी नहीं है। लेकिन वे यह तो बता सकते हैं कि इसे कमजोर होने से रोकने के लिए ही कभी कुछ किया है क्या। सभी राजनेता जनता को इसी तरह बरगला कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। कल्ला की यह कवायद भी वैसी ही है।
दो बार हारे कल्ला की स्थिति अन्तिम संस्कार में गए उन मसानियां बैरागियों सी है जिन्हें संसार निस्सार लगने लगता है और वहां थेपड़ी देने के इंतजार में कुछ धर्म या कर्म की घोषणा तो कर देते हैं पर बाहर आने से पहले धोती और पेंट को झाडऩे के साथ ही उन घोषणाओं को झाड़ देते हैं। कल्ला व उन जैसे ही अन्य नेताओं के संदर्भ से बात करें जो चुनाव जीतने के बाद मसाणियां बैराग की तर्ज पर घोषणाओं को झाड़ देते हैं और जीतने के बाद उस जीत को भोगने के अलावा उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। व्यावहारिक भारतीय राजनीति की विडम्बना यह भी हो गई है कि कल्ला की हाल की जैसी सक्रियता पर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो विरोधी पार्टी की ऐसी 'ठक-ठकों' पर वह 'ठठेरे की बिल्ली' हो लेती हैं।

14 जनवरी, 2016

Thursday, January 7, 2016

गणतंत्र दिवस समारोह : हरी होती दीखती उम्मीदें

सूबे के संवैधानिक मुखिया राज्यपाल और कामकाजी मुखिया मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, दोनों को 26 जनवरी पर्व पर इस बार बीकानेर में होना है। गणतंत्र दिवस के राज्य स्तरीय समारोह का आयोजन यहां तय किया गया है। अत: हो सकता है कि मुख्यमंत्री कम से कम एक दिन पहले तो बीकानेर आ ही जायें।
दीपावली पूर्व आसोज में जिस तरह साफ-सफाई और रंगरोगन का दौर-दौरा घरों में चलता है, कुछ-कुछ वैसा ही माहौल खासकर शहर के उन क्षेत्रों में दिखाई देने लगा है, जहां-जहां इन अतिविशिष्टों को जाना या जिन-जिन स्थानों से गुजरना है। जून, 2014 में 'सरकार आपके द्वारÓ के समय मुख्यमंत्री यहां कई दिनों तक रहीं, यद्यपि उन्होंने तब कुछ खास ऐसी उम्मीदें नहीं दी कि उन्हें फिर आगामी यात्रा में बगलें झांकनी पड़े। लेकिन शहर की कुछ जरूरतें और कुछ नाक के सवाल ऐसे हैं जिन पर वसुंधरा को ध्यान यहां आने पर देना होगा।
शहर की पहली और बड़ी जरूरत तो कोटगेट और सांखला रेल फाटकों के चलते दिन में कई-कई बार लगने वाले जाम का समाधान देना हैं। इसके समाधान की यहां के शहरी लगभग पिछले पचीस वर्षों से बाट जोह रहे हैं। लेकिन बाइपास, अण्डरपास और एलिवेटेड रोड के समाधानों में से कोई-सा भी सिरे नहीं चढ़ रहा। इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार तो यहां के नेता और चुने जनप्रतिनिधि हैं जिन्होंने इस समस्या को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। जो लेते तो जनता की एकराय बनवाते और फिर उसकी क्रियान्विति के लिए प्रयास ही करते। इसके प्रस्तावित समाधानों पर हुआ यह कि कुछ मुखर लोग सबसे खर्चीले-बाइपासी-समाधान पर अड़े हैं जिसे अंजाम तक पहुंचाना इतना दूभर है कि यह नामुमकिन सा हो गया। अन्यथा सात से पन्द्रह वर्ष के बीच निर्माण की यह योजना इन पचीस वर्षों में कभी जमीन पर आ लेती और यहां के बाशिंदे सुकून का अनुभव कर लेते। इस पर अटके लोग आज भी इसी समाधान को झाले बैठे हैं। वे यह भी समझना नहीं चाह रहे हैं कि आर्थिक तंगी का रोना-रोने वाली सरकारें दो हजार करोड़ राशि के इस समाधान को मंजूर भी कर लेगी तो इसके क्रियान्वयन तक शहर पंद्रह वर्षों तक क्या यंू हीं और भी बदतर तरीके से भुगतता रहेगा।
बाइपासी समाधान के आग्रह को कायम रखते हुए भी जब तक यह समाधान जमीन पर उतरे तब तक एलिवेटेड रोड जैसी डेढ़-दो वर्षीय योजना पर अब शहरियों को एकराय हो लेना चाहिए और इसके शिलान्यास का उचित अवसर भी गणतंत्र दिवस समारोह के आगामी राज्य स्तरीय आयोजन पर हासिल कर लेना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो सूबे की यह सरकार 2018 के चुनावों में अपनी पार्टी का मुंह लेकर शहर के दोनों विधानसभा क्षेत्रों में आसानी से जा सकेगी।
दूसरा, नाक का सवाल बन चुके तकनीकी विश्वविद्यालय की पुनस्र्थापन की उम्मीद है। हो सकता है सरकार इसकी घोषणा अब 2017 में करे, तब तक पिछली कांग्रेसी सरकार का इसके लिए किया-धरा सब धुल जायेगा और इस विश्वविद्यालय की चमक का श्रेय अकेले इसी सरकार को हासिल हो जाए।
तीसरा, एक और मुद्दा जिसे समर्थों और उनसे हांके जाने वाले मीडिया ने नाक का सवाल बनाया है, वह हवाई सेवा शुरू करने का है। 'सरकार आपके द्वार' कार्यक्रम के समय संबंधित मंत्रालय के दो केन्द्रीय मंत्रियों और स्वयं मुख्यमंत्री ने आकर नाल सिविल टर्मिनल का उद्घाटन किया था और सभी संभावनाओं को टटोलने का पूरा भरोसा दिलाते हुए कहा भी कि निजी क्षेत्र की कोई कंपनी भले यह सेवा शुरू न करे पर एयर इण्डिया को इसके लिए राजी कर लिया जायेगा। पहले से भारी घाटे में चल रही एयर इण्डिया भी अब इतनी सयानी हो गई है कि महीने में दो-पांच दिन की फायदे की उड़ानों की नियमित सेवा वह भी अब शुरू करती नहीं। ऐसे में निजी एयरलाइनों से कुछ उम्मीद करना दिवास्वप्न-सा ही है। इसके उद्घाटन के समय ही ऐसी सभी आशंकाएं 'विनायक' ने जाहिर करते हुए जता दिया था कि जब तक उड़ानों का असल समय आएगा तब तक इस टर्मिनल के नवीनीकरण का समय आ लेगा। यह आशंका आज डेढ़ वर्ष बाद भी कायम है।
खैर, अपने शहर से सचमुच प्रेम करने वालों को इस पूरे महीने मुस्तैदी दिखानी चाहिए और कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या का समाधान ले पडऩा चाहिए।

7 जनवरी, 2016