Wednesday, April 27, 2022

प्रशान्त किशोर उर्फ पीके और कांग्रेस

देश के मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में इन दिनों चुनावी रणनीतिकार प्रशान्त किशोर (पीके) की विशेष चर्चा है। कांग्रेस से आये ताजा बयान—जिसमें कहा गया कि प्रशान्त किशोर ने पार्टी में शामिल होने से इनकार कर दिया है। पीके की ओर से आये ट्वीट से इसकी पुष्टि भी हो गयी। कांग्रेस और पीके के बीच आया यह गतिरोध पहला नहीं है, बल्कि पिछले वर्ष भी ऐसा ही हुआ था। कांग्रेस और पीके—वर्तमान परिस्थितियों में दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है और दोनों के पास ही एक-दूसरे का विकल्प नहीं है। न कांग्रेस के पास केन्द्र में कुशल संगठनकर्ता है और न ही 2014 में अपने किये के पश्चात्ताप के लिए पीके के पास कांग्रेस जैसी दूसरी पार्टी। इसलिए उम्मीद है यह संवाद हमेशा के लिए खत्म नहीं हुआ होगा। दोनों फिर मिल बैठेंगे और साथ-साथ काम करके देश को बुरे दौर से निकालेंगे। बात आगे करें उससे पूर्व पीके के नेपथ्य को थोड़ा जान लें।

वैसे तो प्रशान्त किशोर 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा के रणनीतिकार के तौर पर सक्रिय हुए, लेकिन सुर्खियों में वे 2014 में तब आये जब लोकसभा चुनावों में भाजपा या कहें नरेन्द्र मोदी के चुनाव की कमान संभाली। इस चुनाव का माहौल 2011 में तब से बनने लगा, जब अन्ना हजारे ने जन लोकपाल की मांग की आड़ में तब की संप्रग सरकार के समक्ष लगभग देशव्यापी विरोध खड़ा कर दिया। इस विरोध को भुनाने में चुनावी रणनीतिकार के तौर पर प्रशान्त किशोर ने मुख्य भूमिका निभाई। नारे, पोस्टर, बैनर, भाषण के कन्टेंट, चुनावी दौरे आदि सभी कुछ प्रशान्त किशोर की टीम ही तय करती थी।

याद कीजिये भाजपा के उस चुनाव अभियान में कुछ ऐसा नहीं था जिससे देश में घृणा या द्वेष फैले, लोग अराजक हों। हां, सपने बहुत दिखाये गये, फिर भी वह अभियान साफ-सुथरा था। इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी को भारी सफलता दिलवाने के साथ ही पीके चुनावी सफलता के ब्रांड बन गये।

उसके बाद पीके ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जदयू के लिए, 2017 में पंजाब विधानसभा चुनाव में अमरिंदरसिंह (कांग्रेस) के लिए, 2017 में ही उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए, 2019 में आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव में वाईएसआर रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के लिए, 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए, 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में एमके स्टालिन की द्रविड़ मुन्नेत्र कडग़म के लिए और 2021 के ही पं. बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की तूणमूल कांगे्रस के लिए अपनी सेवाएं दीं। एक उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को छोड़ सभी पक्षकारों को उन्होंने सफलता दिलवाई।

यह सब करते हुए 2018 में अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए  कहें या अपने कूटनीतिक बौद्धिक मित्र पवन के वर्मा—जो तब नीतीश कुमार की जनतादल यूनाइटेड में ही थे—के आग्रह पर जदयू की सदस्यता ग्रहण कर ली। इस बीच नीतीश कुमार सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संप्रग से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले राजग में आ लिए। थोड़े समय बाद नरेन्द्र मोदी, अमित शाह ने एनआरसी व सीएए का राग छेड़ दिया। राजग के घटक होने के नाते नीतीश इस मुद्दे पर चुप रहे लेकिन अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते पवन के वर्मा और प्रशान्त किशोर ने सीएए व एनआरसी का खुलकर विरोध किया। इसे लेकर नीतीश कुमार पर इतना दबाव पड़ा  कि अन्तत: अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशान्त किशोर और राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन के वर्मा—दोनों को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। जिनके साथ भी काम किया, नरेन्द्र मोदी को छोड़कर सभी के साथ पीके के निजी रिश्ते कायम हैं, यहां तक कि जदयू के नीतीश कुमार के साथ भी। 

इसी बीच सुलझे विचारों के पवन के वर्मा के साथ उनकी संगत बनी रही। वहीं दूसरी ओर 2019 की जीत के बाद केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के समान्तर सत्ता के केन्द्र बने अमित शाह की अगुवाई में लगातार सीएए, एनआरसी और इसके साथ ही धारा 370 की खुर्दबुर्दगी जैसे निर्णय लिए गये, आरोपियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाने लगा। माहौल खराब करने में लिप्त लोगों के साथ सम्प्रदाय और विचार के आधार पर रियायत बरतना, इसी आधार पर झूठे मामले बना लोगों को लंबे समय तक जेलों में प्रताडि़त किया जाने लगा। इससे देश में न केवल माहौल खराब होने लगा बल्कि संविधान में भरोसा करने वालों में निराशा और आक्रोश भी व्यापने लगा।

लगता है इन्हीं सब के चलते पीके की अन्तरआत्मा उन्हें कोसने लगी। इसीलिए लगभग दो वर्ष से वे मोदी-शाह का सशक्त विकल्प खड़ा करने की कोशिश में लगे हैं। कांग्रेस हाइकमान के साथ पिछले वर्ष भी कई बैठकें कीं, संभवत: राहुल गांधी उनकी पूरी रूपरेखा पर सहमत नहीं हो पाये। राहुल ऐजेन्डा एकदम साफ-सुथरा चाहते होंगे। अपनी उस पहली कोशिश में कांग्रेस से निराश पीके ने ममता बनर्जी में केन्द्रीय नेतृत्व की क्षमता तलाशनी चाही। ममता के लिए विपक्ष के दिग्गजों और विभिन्न क्षत्रपों से मुलाकातें कीं। एक नहीं, अनेक कारणों से ममता बनर्जी के नेतृत्व पर सहमति नहीं बन पायी। सभी से यही सलाह मिली कि 2019 में लगभग 20 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली कांग्रेस के बिना मजबूत विकल्प की बात बेमानी है।

देश की वर्तमान दुर्दशा से आहत प्रशान्त किशोर इसके लिए कहीं खुद को भी दोषी मानते हैं, क्योंकि 2014 के जिस चुनाव से नरेन्द्र मोदी को भारी जीत मिली, उसमें पीके की बड़ी भूमिका थी। शायद इसीलिए वे देश को इस बुरे दौर से निकालने की जद्दोजेहद में हैं। घूम फिर कर इन दिनों वे फिर कांग्रेस के मुखातिब हुए। नई रूपरेखा के साथ कांग्रेस हाइकमान संग अनेक बैठकें कीं।

लेकिन इस बार भी बात सिरे नहीं चढ़ी। इसी को लेकर मीडिया-सोशल मीडिया में न केवल पीके पर आक्षेप लगाये जा रहे हैं, बल्कि कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार अपनी कुठाएं निकाल रहे हैं। पीके पर आक्षेप लगाने वालों को यह समझना होगा कि प्रोफेशनल लॉयल्टी और वैचारिक निष्ठा—दोनों अलग-अलग हो सकते हैं। अन्य नेताओं तथा पार्टियों के साथ जो काम पीके ने किया वह उसकी प्रोफेशनल जरूरत थी। साथ ही वे समय-समय पर अपनी वैचारिक निष्ठा भी जाहिर करते रहे हैं। कांग्रेस में उनकी रुचि वैचारिक निष्ठा के चलते है न कि प्रोफेशनल लॉयल्टी के चलते। इसी तरह कांग्रेस को लेकर भी यह समझना होगा कि पीके ने जिनके लिए भी काम किया वे सब पार्टी सुप्रीमो थे जबकि कांग्रेस में हाइकमान तो है लेकिन सुप्रीमो जैसा कुछ नहीं। खासकर सोनिया-राहुल गांधी के बाद, कांग्रेस के निर्णयों में अनेक वरिष्ठ नेता शामिल होते हैं। पीके से हुए संवाद की जो खबरें आ रही हैं, उससे इसकी पुष्टि भी होती है। इसलिए पीके को भी इस गतिरोध को उसी लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है और है ही कि पीके की एंट्री से कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं को अपनी हैसियत कम होती या खत्म होती लगने लगी हो।

प्रशान्त किशोर भी चाहते होंगे कि उन्हें कांग्रेस में ऐसी हैसियत मिले कि वे पूरी क्षमता के साथ अपनी रणनीति को जमीनी जामा पहना सकें। हालांकि कांग्रेस के साथ काम करना पीके के लिए पिछले टास्क्स जितना आसान नहीं होगा। एक वजह यह भी हो सकती है कि राहुल गांधी अपनी दादी और पिता से उलट मूल्यों की राजनीति करने के प्रबल आग्रही हैं। वहीं दूसरी ओर वर्तमान समय में जब मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से झूठ और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद से आज की दो पीढिय़ों को संक्रमित कर जहरीला बना दिया गया है कि वे सच सुनने को ही तैयार नहीं है, ये जहर-बुझे लोग सत्ता की शह से बेधड़क भी हैं। 

वर्तमान समय में जब राजनीति अराजक हो गयी है तो मूल्यगत मर्यादाओं के साथ काम कर परिणाम हासिल करना मुश्किल है। ऐसे में उम्मीद ही कर सकते हैं कि जो भी हो देश और आमजन के लिए अच्छा हो।

अन्त में सवाल यह कि प्रशान्त किशोर कांग्रेस में शामिल होकर चुनावी जिम्मेदारी संभालते तो इन दो बड़ी चुनौतियों से कैसे निपटते, इसका रास्ता भी उन्होंने अवश्य सोचा होगा। पहली, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने उस भाजपा के लिए काम किया जिसके पास आरएसएस जैसा ऐसा देशव्यापी संगठन है जिसके बुद्धिबंद स्वयंसेवक ऊपर से मिले निर्देशों का पालन अक्षरश: करते हैं। कांग्रेस के पास ऐसा संगठन होना तो दूर की बात, समर्पित कार्यकर्ता तक नहीं हैं। दूसरी चुनौती होती—पीके की कम्पनी जो विभिन्न दलों के साथ अनुबंध करके काम करती है। जैसा कि सुन रहे हैं कि हाल ही में उनकी कंपनी ने तेलंगाना की टीआरएस के साथ अनुबंध किया है। तेलंगाना में 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस वहां दूसरी बड़ी पार्टी है। ऐसे में दोनों को एक साथ पीके कैसे साधते। अनुबंध अनुसार कंपनी के माध्यम से टीआरएस के लिए काम करेंगे तो वहां की कांग्रेस के लिए पीके की क्या भूमिका होती—कांग्रेस के कुछ वरिष्ठों ने यह सवाल भी उठाया है। ऐसी आशंका में 1979 की उस उथल-पुथल का स्मरण हो आया जिसमें दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी की सरकार चली गयी थी।

—दीपचंद सांखला

27 अप्रेल, 2022

Thursday, April 21, 2022

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र की राजनीति

राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023 के अन्त में होने हैं और लोकसभा चुनाव 2024 के मध्य में। चूंकि हमारे प्रधानमंत्री बारह महीने सुपर-प्रचारक मोड में ज्यादा रहते हैं, इसलिए कई पार्टियां और नेता समयपूर्व तैयारी में लग गये हैं। बीकानेर जिले में सात विधानसभा क्षेत्र हैं, सातों में दोनों मुख्य पार्टियों—कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों में कोई खास बदलाव नहीं लगता। बीकानेर शहर की दोनों सीटों पर बदलाव की गुंजाइश जरूर लगती है, लेकिन इस पर कोई अनुमान फिलहाल संभव नहीं है। हो सकता है शहर की दोनों सीटों पर दोनों पार्टियां नये उम्मीदवार दें या जो वर्तमान में विधायक हैं, उन्हें रिपीट करें। बात आम आदमी पार्टी की राजस्थान में दस्तक देने की चल रही है। यह गुजरात, हिमाचल प्रदेश के नतीजें पर निर्भर करेगा और ऐसा नहीं भी हो लेकिन राजस्थान में पंजाब वाली स्थिति नहीं है। यहां भाजपा पहले से ही अच्छी स्थिति में है, ऐसे में हो सकता है आम आदमी पार्टी बजाय कांग्रेस के भाजपा को नुकसान पहुंचाए।

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की ओर से वर्तमान सांसद और केन्द्रीय राज्य मंत्री अर्जुनराम मेघवाल सदन में मेज थप-थपा कर और हंस-हंस कर अपनी उम्मीदवारी पक्की करने में लगातार लगे हुए हैं। यदि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व में परिवर्तन नहीं होगा तो बीकानेर से उम्मीदवारी में भी परिवर्तन नहीं होगा। अर्जुनराम मेघवाल ने जिला मुख्यालय पर अंबेडकर जयंती की पूर्व संध्या (13 अप्रेल) को शक्ति प्रदर्शन का कार्यक्रम रखा। इसी के काउण्टर में कांग्रेस के खाजूवाला विधायक और सूबे में केबीनेट मंत्री गोविन्दराम मेघवाल ने 14 अप्रेल को कार्यक्रम रख उतर-पातर कर लिया।

ऐसी रैलियों की कूत अब तक लोगों के शामिल होने की संख्या से की जाती थी, लेकिन भीड़ जब से मैनेज की जाने लगी, तब से विशेषज्ञ-कूत का पैमाना बदल गया है। अब देखा जाता है कि आपकी पार्टी से क्षेत्र के कितने नेता आपके साथ हैं।

बीकानेर क्षेत्र से लोकसभा सीट पर अर्जुनराम मेघवाल के संभावित प्रतिद्वंद्वी गोविन्दराम माने जाते हैं। ऐसे में इन रैलियों का ऑब्जरवेशन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अर्जुनराम मेघवाल के साथ जिले के वरिष्ठ भाजपा नेता सामान्यत: नहीं होते हैं, इसलिए अपने आयोजनों में वे केन्द्र के किसी छुटभैये मंत्री को लाकर भरपाई करते रहे हैं, चूंकि इस बार इन्हीं दिनों दिल्ली में बड़े आयोजन थे इसलिए दिल्ली से कोई आये नहीं। 13 अप्रेल की उनकी रैली में राज्यस्तरीय छोड़ जिले से भी कोई वरिष्ठ नेता नहीं थे। मतलब यही कि अर्जुनराम मेघवाल अपनी ब्यूरोक्रेटिक हेकड़ी के चलते चुनावी जीत के लिए केवल मोदी नाम पर निर्भर हैं।

वहीं इसके उलट गोविन्दराम मेघवाल की रैली में जिले के अधिकतर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शामिल हुए जिनमें सूबे के अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को भी ले आये। मतलब यही कि अर्जुनराम मेघवाल जहां पूरी तरह मोदी नाम पर निर्भर हैं वहीं गोविन्दराम मेघवाल क्षेत्र की राजनीति अपने बूते कर रहे हैं।

 दूसरी बात यह कि अर्जुनराम मेघवाल जहां अपने बेटे को राजनीति में लॉन्च करने में अभी तक असफल रहे हैं वहीं गोविंदराम अपने बेटी-बेटे दोनों को राजनीति में अच्छे से स्थापित कर चुके हैं। 

गोविन्दराम को तो बस रामेश्वर डूडी को साधना बाकी है, जिसकी गुंजाइश डूडी की हेकड़ी और बचकानी राजनीति के चलते कम लगती है।

यद्यपि पिछली बार 2019 में भी अपनी पुत्री सरिता चौहान या अपने लिए गोविन्दराम ने कांग्रेस से उम्मीदवारी की कोशिश की थी। लेकिन रामेश्वर डूडी के चलते सफल नहीं हो पाए। रामेश्वर डूडी ने जिन्हें चाहा उनके लिए उम्मीदवारी ले आए, लेकिन जिता नहीं पाये। रामेश्वर डूडी ने उम्मीदवारी दिलाई अर्जुनराम मेघवाल के रिश्ते में भाई पूर्व आईपीएस अधिकारी मदनगोपाल को। पूर्व आईएएस अर्जुनराम की ही तरह मदनगोपाल मेघवाल ने भी राजनीति में आने के लिए समयपूर्व वीआरएस लिया। अन्यथा वे एडीजी के तौर पर सेवानिवृत्त हो सकते थे।

कोशिश 2024 में भी मदनगोपाल कांग्रेस से उम्मीदवारी की करेंगे और गोविन्दराम मेघवाल से खुनस के चलते रामेश्वर डूडी भी सहयोग करेंगे। हो सकता है इस बार भी मदनगोपाल मेघवाल को उम्मीदवारी मिल भी जाए। लेकिन डूडी के बारे में जो आकलन है, और जिसे लिखता भी रहा हूं कि डूडी खुद चुनाव जीत सकते हैं, और किसी अन्य को चुनाव हरा भी सकते हैं, लेकिन किसी को जितवा भी सकते हैं—ऐसी कूवत डूडी में नहीं है, और ये भी कि गोविन्दराम मेघवाल के मुकाबले मदनगोपाल मेघवाल का प्रभाव बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में न के बराबर है। गोविन्दराम जहां एक से अधिक विधानसभा क्षेत्रों की नुमाइंदगी कर चुके वहीं अन्य विधानसभा क्षेत्रों के विधायकों और पूर्व विधायकों से उनके अच्छे संबंध है। वहीं डूडी जिले के अन्य नेताओं से कभी अच्छे सम्पर्क बनाकर नहीं रख पाए। गोविन्दराम मेघवाल के लिए एक सकारात्मक पक्ष उनकी बेटी का स्त्री उम्मीदवार होना भी हो सकता है। वे अपनी बेटी सरिता चौहान को ही सांसद बनाना चाहते हैं जो एक अरसे से राजनीति में सक्रिय भी है। प्रियंका गांधी के फॉर्मूले को लागू किया गया तो बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से सरिता चौहान से बेहतर उम्मीदवार कांग्रेस के पास फिलहाल नहीं दिख रहा है वहीं गोविन्दराम चुनाव लडऩे-लड़वाने में पारंगत हैं ही।

—दीपचंद सांखला

21 अप्रेल, 2022