प्रत्येक व्यक्ति सामान्य है, जो अपने को विशिष्ट मानता है वो भी। क्योंकि विशिष्टों की भी एक श्रेणी होती है, विशिष्टों की उक्त श्रेणी में समाये लोग जब आपस की किसी धारणा पर बात करेंगे, तब वे यही कहेंगे कि ऐसा या ऐसा होना सामान्य है। कहने का भाव यही है कि सभी की अपनी एक दुनिया होती है, जैसे कुएं के मेढक की दुनिया उस कुएं के व्यास जितनी और तालाब के मेढक की उस तालाब के किनारों तक!
इसी तरह देश और दुनिया की आबादी का बढ़ना लगभग सभी के लिए सामान्य बात है। पर्यावरण या जनसंख्या विशेषज्ञ इस बढ़ोतरी को विस्फोटक बताने लगे हैं। जनसंख्या की इस विस्फोटक बढ़ोतरी पर टीवी-अखबारों में लेख, खबरें, आंकड़े और वार्ताएं अकसर आती रहती हैं। सामान्यतः सभी सामान्य लोगों के लिए यह लगभग हाइगोल होती हैं, यही इस समस्या की बड़ी समस्या है।
आज एक खबर है हांगकांग से। इसमें बताया गया चूंकि चीन में केवल एक संतान पैदा करने का नियम लागू है, इसलिए दूसरे बच्चे की आकांक्षी चीनी महिला प्रसूति प्रवास पर हांगकांग चली जाती हैं। लेकिन वे अब वहां जाने के बाद भी जुर्माने से नहीं बच पायेंगी। कहने को कहा जा सकता है बच्चे कुदरत की देन होते हैं इसलिए इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए। बच्चों के जन्म को जब भगवान की कृपा, खुदा की नेमत या कुदरत की देन कहा गया तब बच्चों की मृत्युदर विकराल थी, नवजात बच्चों को ही नहीं प्रसूताओं को भी बचाने को सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं थी। पिछली एक-डेढ़ सदी में इस दुनिया ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में जबरदस्त तरक्की की है। नवजातों की और बड़ों की असमय मृत्युदर में आश्चर्यजनक कमी आ रही है। मुश्किल यही है कि जिस आश्चर्यजनक ढंग से उक्त मृत्युदर में कमी आई उसी अनुपात में जन्मदर पर नियन्त्रण नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह कि न केवल प्राकृतिक संसाधनों के समाप्त होते चले जाने के समाचार आते रहते हैं बल्कि मानव निर्मित सभी सुविधाओं और संसाधनों के लिए सभी जगह लाइनें लगी दिखाई देती हैं।
सामान्य तुलनाओं को भी घुड़दौड़ की तरह देखने वाला हमारा सामान्य मन गर्व के साथ यह कहने से भी नहीं चूकता कि आबादी के मामले में हमारा भारत दुनिया में अभी दूसरे नम्बर पर है और यह भी कि अगले कुछ दशकों में ही हम इसमें चीन को पछाड़ देंगे! क्या हमने कभी इसको बड़ी चिंता के रूप में भी लिया है कि आजादी के बाद से आज हमारे देश की आबादी दुगुनी से भी ज्यादा हो गई है? बढ़ती आबादी अगर प्रत्येक सामान्यजन की चिंता का कारण नहीं बनेंगी तो हमारी आगामी पीढ़ियां नहीं हमारे पोते-पड़पोते ही बढ़ती आबादी के दुष्परिणामों को भुगतेंगे! क्योंकि कुदरती और मानवीय दोनों ही साधन-संसाधन सीमित हैं। कानून सबकुछ नहीं कर सकता है यह भी हम सब की सामान्य धारणा है!
-- दीपचंद सांखला
8 फरवरी, 2012
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