Thursday, February 18, 2021

बदलाव का कोई छूमंतर नहीं

 विकास के संदर्भ से चेंजमेकर्स, समुदाय और मूल्यों की भूमिका पर बात करने से पूर्व अपने अतीत में झांक लेना चाहिए। क्योंकि विकास में आने वाली बाधाओं के जड़भूत कारणों को समझे बिना हम ऊपरी समाधानों में उलझ कर रह जायेंगे, ऐसा ही हो भी रहा है। सभ्यता के विकास पर नजर डालें तो स्त्री और पुरुषमुख्यत: दो लिंगों से विकसित इस चर-जगत में नर के हावी रहने के प्रमाण मिलते हैं और साक्षात् हैं भी। कुछ श्रेणियों में अपवाद मिल सकते हैं। शारीरिक तौर पर बलिष्ठ होने के आधार पर लगभग सभी जीवों में नर हावी रहे हैं। लेकिन बुद्धि की अतिरिक्त विशेषता वाले मनुष्यों में ऐसा होना आश्चर्यजनक है। ज्ञात इतिहास में और वर्तमान समाज का पितृसत्तात्मक होना इसकी पुष्टि भी करता है। लिंग के आधार पर असमानता और भेदभाव को मानवीय नहीं कह सकते।

तथाकथित सभ्य होते समाज ने इसे सामाजिक जामा पहनाने के लिए विवाह संस्था का विकास भी इस तरह किया कि पुरुषों की निर्णायक स्थिति बनी रहे। बराबरी की भागीदारी के बावजूद दुनिया की आधी आबादी की उपेक्षा विकास में सूक्ष्म लेकिन बड़ी बाधा मानी जानी चाहिए। ऐसा नहीं कि इस तरह विचार नहीं हुआ है, गत एक शताब्दी से विचार होना शुरू हुआ है, लेकिन पितृसत्तात्मकता की मानसिकता किसी ठोस समाधान तक पहुंचने नहीं देती।

यह बात तो हुई वैश्विक सन्दर्भ में, भारत के सन्दर्भ में बात करें तो लैंगिक असमानता के अलावा हमारे यहां जो जाति व्यवस्था विकसित हुईवह कोढ़ में खाज का काम करती है, इस व्यवस्था में काम के आधार पर समाज को ऊँच-नीच के कई स्तरों पर केवल बांट दिया गया, बल्कि इन स्तरों को जन्मजात से भी तय कर दिया गया, जो लिंग-भेद जितना ही अन्यायपूर्ण है। ऐसा अन्य देशों में रंगभेद के रूप में मिलता है। लिंग-भेद भोग रहा हमारा समाज जाति-भेद में भी बंट गया। जाति-भेद भी ऐसा कि वह कई स्तरों में बंटा है। तथाकथित ऊपर वाला जाति समूह अन्य जाति समूहों से अपने को श्रेष्ठ मानता है। ऊंच-नीच के ऐसे अनगिनत स्तरों में भी स्त्रियों की आधी आबादी सर्वाधिक पीडि़त इसलिए है कि हर जाति-समूह में स्त्रियों की स्थिति पहले से ही दोयम हैइसको इस तरह भी समझ सकते हैं कि समाज के दसवें स्तर पर कोई जाति है तो उस जाति की स्त्री का स्थान ग्यारवां हो जाना है।

मानवीय मूल्यों के संदर्भ में इसका जिक्र जरूरी इसलिए है कि जाति आधारित समाज में मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की इस व्यवस्था में विकास से असल लाभांवित समाज का उच्च वर्ग ही होता है और ऐसा होना ही समग्र विकास में बड़ी बाधा है। इस विषय पर पर्यावरण के संदर्भ से भी विचार जरूरी है। मनुष्य नियंता है तो उससे पूरे चर-अचर जगत की जरूरतों के आधार पर विकास के तौर-तरीके तय करने की उम्मीद की जाती है। लेकिन विकास की अंधी दौड़ में जब लिंग और जाति के आधार पर ही भेदभाव कर रहे हैं तो अन्य जीवों और वनस्पतियों का ख्याल हम कहां रखते? खुद मनुष्य द्वारा विकसित वैज्ञानिक और तकनीकी संसाधन ही नहीं, प्राकृतिक संसाधनों का भी दोहन समर्थ समूह या कहें तथाकथित उच्च वर्ग केवल अपने लालच और विलासिता के लिए कर रहा है। 

लिंगभेद, रंगभेद और जाति-भेद के अलावा हमारे यहां समग्र विकास में बड़ी बाधा धर्म-भेद भी रहा है। खुद के धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को कमतर मानने के भाव ने आपसी झगड़े और युद्ध निरंतर करवाएं हैं, जिनके चलते विकास अवरुद्ध होता रहा है। लोकतंत्र के अलावा अन्य सभी शासन प्रणालियां इन भेदों को बनाये रखने में ना केवल सहायक रहीं बल्कि इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर अपने लिए अनुकूलता बनाने में भी लगी रहीं।

आधुनिक विकास को भारतीय संदर्भों में देखें तो इसके पहले चरण में आजादी के प्रयासों को मान सकते हैं। देश आजाद हुआ, शासन की गणतांत्रिक शासन प्रणाली अपनायी गई। विभिन्न समूहों के खयाल से संविधान बनाया गया, उसी के अन्तर्गत लगभग नष्ट की जा चुकी अर्थव्यवस्था को सम्भालने के प्रयास हुए। लिंग, जाति और धर्म के भेदों को कम करते हुए शासन-प्रशासन का स्वरूप तय किया गया। ऐसे प्रयासों को नकारने वालों को यह देखना चाहिए कि आजादी के समय देश की स्थिति क्या थीउनमें कितनी प्रगति हुई है। आंकड़े देखेंगे तो चामत्कारिक ना सहीसंतोषजनक हैं, विविधताओं वाले विशाल देश के विकास में किसी चमत्कार की उम्मीद करना कतई जायज नहीं है।

लिंगभेद मिटाने की दिशा में स्त्रियों को मताधिकार दिया गया। उन्हें शासन, प्रशासन और सरकारी उपक्रमों में सेवाएं देने के अवसर पुरुषों के बराबर दिये गये। यद्यपि अनुसूचित जाति-जनजातियों की तरह स्त्रियों को भी आरक्षण दिया जाना था। बाद की सरकारों ने अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों के लिए अवसर आरक्षित किये, लेकिन वे अपर्याप्त ही माने जाएंगे। संसद और विधान मंडलों में स्त्रियों का आरक्षण आज भी लंबित है।

इसी तरह जाति और धर्म-भेद मिटाने के लिए भी शासन-प्रशासन और सरकारी उपक्रमों में जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव खत्म किया गया, सदियों से दबे-कुचले दलितों और आदिवासियों के आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी। इतना ही नहीं, आजीविका में इन वर्गों के हित सुरक्षित रखने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई गयी। 

आजादी बाद के शुरुआती प्रयासों में दो बड़ी चूकें दिखाई देती हैं, पहली चूक विकास के ग्रामीण मॉडल की बजाय शहरी मॉडल को अपनाया जाना मान सकते हैं। इस मॉडल को अपनाने से अधिकांश भारत जो गांवों में बसता है, वह ना केवल वांछित विकास से वंचित हुआ बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार खेती और पशुपालन को भी बड़ा धक्का लगा। इस भूल को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने अन्तिम समय मेें स्वीकार भी किया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दूसरी बड़ी चूक है भ्रष्टाचार को पनपने देना। लगातार बढ़कर विकराल हुए भ्रष्टाचार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के बड़े आयाम सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की साख खत्म कर उन्हें नुकसान पहुंचाया। पिछली सदी के नवें-दसवें दशक में स्थितियां ऐसी बनी कि आर्थिक उदारीकरण के नाम पर शासन को बाजारू अर्थव्यवस्था अपनाने का बहाना मिल गया। यही बाजारू अर्थव्यवस्था वह अजगर साबित हो रही है जो आजादी बाद हुए मानवीय और संवैधानिक प्रयासों को लील रही है। परिस्थितियां ऐसी बन गयी है कि जाति-भेद खत्म करने के प्रयास बेअसर हो गये और धर्म-भेद भी बढऩे लगा, ऐसे में लैगिंक भेदभाव कैसे कम हो सकता है?

बाजार यदि केवल निर्माता-वितरकों का ही हित साधक होगा तो गांवों में बसने वाले हमारे देश की स्थिति क्या होगी, इसे हमें समझना चाहिए। ग्रामीण केवल मजदूर होकर रह जाने हैं, शिथिल श्रम-कानूनों के चलते मजदूर भी अच्छे उपभोक्ता नहीं रह पाएंगे। विकास की हमारी अवधारणा यदि देश के सभी लोगों का समग्र विकास है तो इसे शासन के वर्तमान तौर-तरीकों से हासिल करना तो दूर, जो और जितना है उसे बचा कर रखना भी असंभव है। 

आजादी बाद के पचास वर्षों में भ्रष्टाचार को मान्यता लगभग मिल चुकी। वर्तमान दौर में 'झूठ' को भी हमने लगभग प्रतिष्ठित कर दिया है। झूठ की आड़ में संविधान को ताक पर रखकर लोकतंत्र को समाप्त करने की तैयारी है, धार्मिक उन्माद फैलाकार समर्थ वर्गफिर वह चाहे शासन में हो या कॉर्पोरेटकेवल अपनी अनुकूलता बनाने की फिराक में है। भ्रष्टाचार और झूठ की यह जुगलबन्दी केवल समर्थों के हित साधने वाली है। मध्यम, निम्न मध्यम और कमजोर वर्गों के हितों की उम्मीद करना बेमानी है। 

चेंजमेकर बिजली का कोई खटका नहीं है, जिसे किया और रोशनी की तरह बदलाव हो गये। भारत जैसे देश के नागरिक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी है कि संविधान सम्मत लोकतांत्रिक व्यवस्था असल में बनी रहे, नाममात्र की नहीं। यह बनी रही तभी लिंग, जाति और धर्म से उठकर प्रयास कर पायेंगे। इसके लिए समाज के सभी वर्गों और चर-अचर जगत के सभी जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के विकास और संरक्षण की दिशा में बढऩे की सोच विकसित करनी होगी। सीमित वर्ग का विकास शेष सब के साथ धोखा है और धोखा कभी विकास हो नहीं सकता, धोखे और सुख-चैन का कोई मेल भी नहीं है।

(उरमूल ट्रस्ट और अन्य कई संस्थाओं से जुड़े स्मृतिशेष अरविन्द ओझा का 14 फरवरी को जन्मदिन था। उनके जाने के बाद के पहले जन्मदिन के उपलक्ष्य में 13 और 14 फरवरी को उरमूल सीमान्त, बज्जू द्वारा आयोजित 'मरु-मंथन' आयोजन में 'विकास : चेंजमेकर्स, समुदाय और मूल्य' शीर्षक संगोष्ठी में कही बात को इस लिखित टिप्पणी से 'विनायक' के पाठकों से साझा कर रहा हूं।)

दीपचंद सांखला

18 फरवरी, 2021