Thursday, October 29, 2015

सहिष्णुता को पलीता न लगाने दें

पिछले वर्ष भी अक्टूबर में ही श्रीडूंगरगढ़ में दो समुदाय के बीच बदमजगी हुई। 'श्रीडूंगरगढ़ यूं लगता है सामाजिक सद्भाव के पलीता' शीर्षक से 'विनायक' में लिखे सम्पादकीय की चार-छह लाइन से बात शुरू करना प्रासंगिक लगा।
'ऐसे लोग भूल जाते हैं कि कुछ लोगों के अहम् की तुष्टि के लिए कितने लोगों का सुख-चैन छीन रहे हैं.....समाज के हेकड़ीबाज और संकीर्ण मानसिकता वाले लोग अच्छे-भले शांत माहौल को किस तरह खराब करवा देते हैं। श्रीडूंगरगढ़ कस्बा इसका ताजा उदाहरण।' (पूरा आलेख 8 अक्टूबर 2014 की तारीख  मे deepsankhla.blogspot.com पर पढ़ा जा सकता है।)
पिछले वर्ष लिखी 'विनायक' सम्पादकीय की इन पंक्तियों को हाल की बदमजगी पर ज्यों का त्यों चस्पा किया जा सकता है। ताजा घटनाओं के मूल में पिछले वर्ष का भूखण्ड विवाद ही है जिस पर वहां के नेताओं ने न समय रहते दृढ़ता दिखाई और न ही हाल ही के विवाद के बाद प्रशासन मुस्तैद हुआ। नतीजतन सामाजिक सौहार्द के इस आदर्श गांव के सद्भाव को चन्द हेकड़ीबाजों ने पलीता लगा दिया।
ताजा घटना में प्रशासनिक लापरवाही साफ दीख रही है। अब इसके लिए जिम्मेदार वहां के उपखण्ड अधिकारी हैं या पुलिस उपाधीक्षक, इसका निर्णय उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को करना है। वर्षों से घटना स्थल पर यह व्यवस्था रही है कि मेले-मगरियों के पदयात्रियों को बजाय मस्जिद वाले रास्ते के, वैकल्पिक रास्ते से ही गुजारा जाता रहा लेकिन इस बार ऐसा नहीं किया गया। क्यों नहीं किया गया समझ से परे है। पदयात्रियों के लिए यातायात की व्यवस्था पूर्ववत: होती तो वर्तमान स्थितियों से बचा जा सकता था। शनिवार 24 अक्टूबर को मुहर्रम था, सभी जानते हैं इस्लाम में यह त्योहार नहीं गम का दिन है। मुहर्रम की पूर्व रात को इशा की नमाज के बाद देर रात तक कुरान का पाठ होता है और मरसिया (शोकगीत) गाए जाते हैं। लगभग इसी समय मस्जिद के पास से सालासर के पदयात्री डीजे के साथ गुजर रहे थे। वहां खड़े मुस्लिम युवकों ने उन्हें वहां डीजे बन्द करने को कहा। कहते हैं पदयात्री न तो इसके लिए तैयार हुए बल्कि अपशब्द बोलते हुए वहीं खड़े होकर नाचने लगे। मुस्लिम युवकों का भी धैर्य जवाब दे गया, हाथापाई की नौबत आ गई। दूसरे गांव के इन पदयात्रियों ने श्रीडूंगरगढ़ चौराहे पहुंच के श्रीडूंगरगढ़ के कट्टरपंथियों को क्या बुलाया मानों स्थानीय असहिष्णु हेकड़ीबाजों को अवसर ही दे दिया। इस पूरे घटनाक्रम के बीच श्रीडूंगरगढ़ के किसी भले आदमी ने बीच-बचाव की कोशिश की हो, इसकी जानकारी नहीं। किसी ने कोशिश की भी होगी तो उसे मान नहीं दिया गया और इसके बाद जो कुछ हुआ, सबके सामने है। आगजनी में ज्यादातर नुकसान मुस्लिम समुदाय का ही हुआ है। रातभर दुकानें और थडिय़ां आग के हवाले की जाती रहीं। बावजूद इसके जिले की पुलिस और प्रशासन का मुस्तैद होना तो दूर की बात बल्कि दूसरे दिन दोपहर तक तो ये सब जिला मुख्यालय पर आयोजित खेलकूद प्रतियोगिता में ही मशगूल रहे। बाद इसके ही उन्होंने श्रीडूंगरगढ़ कस्बे की सुध लेने की ठानी।
परिवार में जिस तरह दो भाइयों के झगड़े में अक्सर मारपीट, मुकदमेबाजी, यहां तक, कई बार हत्याएं तक हो जाती हैं। देश के संदर्भ में बात करें तो ऐसी ही बदमजगियां दो समुदायों के बीच कुछेक नामसझों के चलते हो जाती हैं। ऐसे में यदि कोई समझदार बीच-बचाव में नहीं आए या आए तो उसकी नहीं मानें तो सुख-चैन तो सभी का छिनता है।
श्रीडूंगरगढ़ की स्थिति एक मानी में यूं भी भिन्न है कि यहां भाजपा के विधायक हैं। कहा जाता है कि भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्य संगठनों के पदाधिकारियों का विधायकजी से छत्तीस का आंकड़ा बना रहता है। देश-प्रदेशों में बनी नई सरकारों के बाद बहुसंख्यक असहिष्णु और हेकड़ीबाज इनमें अनुकूलताएं देखने लगे हैं। यह अकारण नहीं है कि बहुसंख्यक और उच्चवर्गीय मानसिकता वाली भाजपा के वर्चस्व के समय अल्पसंख्यकों और दलितों से अपनी 'औकात' में रहने की उम्मीदें की जाने लगी है और इनमें कुछेक लोग ऐसे भी होते हैं कि मौका मिलते ही इस हेतु सबक देने से भी नहीं चूकते।
पूरे देश की सनातन सहिष्णुता को इस बिना पर ताक पर धरा जा रहा है कि अन्य जो भी कमजोर हैं वे समर्थों के हिसाब से बरताव करें। देश में ज्यों ही बदमजगियां बढ़ेंगी ताक में बैठे दूसरे देश इसमें अनुकूलता देखने लगेंगे। पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान सहित खाड़ी के भी अनेक देश कट्टरपन के नतीजे भुगत रहे हैं। हम यह भूल रहे हैं कि कट्टरपन का एक्शन एक जैसा ही होता हैफिर वह चाहे मुसलमानों का हो या ईसाइयों का और फिर वह हिन्दुओं का ही क्यों न हो।
ऐसी परिस्थितियों को भुगतते सब हैं लेकिन ज्यादा वह भुगतते हैं जो कमजोर हैं, सामथ्र्यहीन हैं यानी अपने देश में अगर कुछ भी बदमजगी होती है तो दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों की ही शामत आनी है। नागरिक सजग और सावचेत नहीं रहेंगे तो भारत के नरक में बदलते देर नहीं लगेगी। नई सरकार आने के बाद वे सब समूह मुंह उठाने लगे हैं जो देश की सहिष्णु तासीर बदलना चाहते हैं।

29 अक्टूबर, 2015

Thursday, October 22, 2015

सूने बाशिन्दें, अकर्मण्य नेता, ढेर सारी समस्याएं और जरूरतें

कोटगेट और सांखला रेल फाटकों के आसपास यातायात जाम रहने की समस्या, सार्वजनिक संपत्तियों पर अंधा-धुंध कब्जे, अवैध निर्माण, शहर में व्याप्त गंदगी, चरमराई सिवरेज व्यवस्था, अव्यवस्थित यातायात, जोधपुर और जैसलमेर रोड के बीच का बकाया बाइपास, फूडपार्क की उडीक, सिलिकॉन वैली का दिवास्वप्न, छीन लिया गया तकनीकी विश्वविद्यालय, नामभर का गंगासिंह विश्वविद्यालय, पचीस वर्षों से अटका रवीन्द्र रंगमंच, हिचकोले खाता कृषि विश्वविद्यालय, बाट जोहता सिरेमिक्स-हब, आसमान में टकटकी लगाए हवाई सेवा, गंगाशहर रोड को मोहता सराय से जोड़ने वाले लिंक रोड का निर्माण, भुट्टों के चौराहे से लालगढ़ स्टेशन को जोड़ने वाली सड़क का दुरुस्तीकरण और चौखूंटी पुलिया के इर्द-गिर्द की सर्विस रोड का निर्माण आदि-आदि के अलावा ऐसे वे छिटपुट और बड़े काम जो पाठकों के हिसाब से होने चाहिएं, फेहरिस्त में जोड़ लें।

अर्जुन मेघवाल, शंकर पन्नू, डॉ. गोपाल जोशी, डॉ. बीडी कल्ला, भवानीशंकर शर्मा, रामेश्वर डूडी, सिद्धिकुमारी, जनार्दन कल्ला, मकसूद अहमद, गोपाल गहलोत, तनवीर मालावत, भंवरसिंह भाटी, देवीसिंह भाटी, मानिकचन्द सुराना, डॉ. विश्वनाथ, गोविन्द मेघवाल, किसनाराम नाई, मंगलाराम गोदारा, बिहारीलाल बिश्नोई, सुमित गोदारा, सुशीला सींवर, नारायण चौपड़ा, जावेद पड़िहार, नन्दकिशोर सोलंकी, यशपाल गहलोत, सत्यप्रकाश आचार्य, विजय आचार्य, लक्ष्मण कड़वासरा, राजकुमार किराड़ू, अविनाश जोशी। इन नामों के अलावा पाठक हर उस नाम को शामिल कर सकते हैं, जिनसे कुछ या अधिक उम्मीदें शहर और जिले के बाशिन्दे करते रहे हैं।

ऊपर उम्मीदों की फेहरिस्त तो नीचे उनकी जिनसे उम्मीद पूरी करवाने की उम्मीदें की जाती रहीं। उम्मीद पर दुनिया कायम है जैसी कैबत का मतलब बीकानेरियों के लिए अब भी कुछ है तो समझ से परे है। कई उम्मीदें तो आइठाण की हद हासिल कर चुकी हैं, तो कुछ ऐसी भी रही हैं कि जो समाधान की घोषणा के बाद लगभग चिढ़ाने की चौखट से लौटा ली गईं। 2008 में कोटगेट और सांखला रेल फाटकों पर एलिवेटिड रोड से समाधान की योजना, तकनीकी विश्वविद्यालय जैसे कई उदाहरण हैं तो रवीन्द्र रंगमंच, गंगाशहर रोड-मोहता सराय की लिंक रोड और हवाई सेवा जैसी उम्मीदों की हवा में झूलना ही नियति है।

बीकानेर के लोग-बाग यूं तो हाकेबाज जाने जाते हैं लेकिन अपनी सुविधाओं और हितों को लेकर इतने बेपरवाह हैं कि इसके चलते यहां के नेताओं और जनप्रतिनिधियों की तो मानों पौ-बारह ही है।

जो भी जीतता है वह मान लेता है कि उसे इस सूने शहर का असल प्रतिनिधित्व मिल गया है, कुछ न करें तो भी ठीक और रूटीन में कुछ हो जाए तो सवाया ठीक। इस तरह रूटीन में हो लिए कामों को अपने द्वारा करवाया गिनवाना यहां कितना आसान है, इसे यहां के जनप्रतिनिधि अच्छी तरह जानते-समझते हैं। अन्यथा कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का समाधान और रवीन्द्र रंगमंच जैसे काम पचीस-पचीस वर्षों तक दिवास्वप्न बने नहीं रहते।

ऊपर गिनवाए नेताओं में करने-करवाने के दावे करते अनेक मिल जाएंगे लेकिन सत्ता में दो-तीन नम्बर की हैसियत पाने के बावजूद सच में उन्होंने कुछ किया होता तो शहर का रंग कोटा, उदयपुर और जोधपुर की तरह कुछ अलग ही होता।

नाली-सड़क जैसी अपनी समस्याओं के लिए जनता आए दिन कलक्ट्री भले ही पहुंच जाए पर असल जरूरत संगठित होकर इन नेताओं को घेरने की है ताकि ऊपर की फेहरिस्त में गिनाए कामों की प्राथमिकता तय करवा कर एक-एक काम को उसके असल अंजाम तक पहुंचाया जा सके। शहर की जरूरतों और समस्याओं के उक्त उल्लेख के मानी केवल फेहरिस्त पेश करना नहीं और न ही नेताओं की गेलैक्सी दिखाना है। असल मकसद है शहर के अबोध बाशिन्दों को जगाना। ये नेता अब तक ठगने और अपनी साजने के अलावा कुछ नहीं कर रहे, न इन्हें इस शहर से प्यार है और ना ही आपकी खैरख्वाही की चाह। ये नेता यदि धार-विचार लेते तो इनमें से एक भी जरूरत ऐसी नहीं है जो अब तक पूरी नहीं हो सकती थी और न ही एक भी ऐसी समस्या है जिसका हल नामुमकिन हो। बाशिन्दों को सिवाय बहलाने के--नेता कुछ कर ही नहीं रहे हैं। यह कहने में भी संकोच नहीं है कि इन सब नेताओं के लिए अनुकूलताएं बनाएं रखना मीडिया का भी कोई खास मकसद हो सकता है।

जरूरत है अपनी जरूरतों और समस्याओं के समाधान के लिए खुद जनता के जागरूक होने की। नहीं होंगे तो उल्लू बनते रहेंगे और भुगतेंगे भी।

22 अक्टूबर, 2015

Wednesday, October 14, 2015

पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

सुना है गजानन्द माधव मुक्तिबोध यह तकिया कलाम अकसर उच्चारित करते थे। मुक्तिबोध अपने इस वाक्य के माध्यम से क्या जताना और जानना चाहते थे, पता नहीं। लेकिन लेखकों, विचारवेत्ताओं की हाल ही में हुई हत्याएं और दादरी में आशंका मात्र पर एक अल्पसंख्यक के घर पर भीड़ का हमला और एक को मार दिया जाना जैसी घटनाएं धार्मिक-असहिष्णुओं के बढ़ते हौसले का ही परिणाम है। लगता है पिछले दो वर्षों में कट्टरपंथियों को देश की तासीर बदलने की गुंजाइश मिल गई है। ऐसे आभास के बाद विभिन्न विधाओं के सर्जक, खास कर लेखक समुदाय जिस तरह से उद्वेलित हुआ और उस उद्वेलन पर हो रही चर्चा पढ़-सुन जो पहली प्रतिक्रिया सूझी, वह यही कि 'पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक़्स क्या है?
एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद कथाकार उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी से मिले अपने सम्मान से किनारा करने की घोषणा की थी। उनकी उस व्यक्तिगत मन:स्थिति से साझा तब किसी अन्य लेखक ने नहीं किया। उनकी वह तकलीफ अन्य समानधर्मियों को तब संभवत: उद्वेलित नहीं कर पायी। अभी जब दादरी की घटना के बाद अशोक वाजपेयी ने वैसी ही घोषणा की तो उनकी चिन्ताओं को उनकी तरह ही अन्य अनेक लेखक लगातार साझा कर रहे हैं और साहित्य अकादमी से मिले अपने-अपने सम्मानों को लौटा रहे हैं।
अशोक वाजपेयी की प्रतिक्रिया के बाद से ही लग रहा था कि उनकी चिन्ता तो वाजिब है। लेकिन विरोध जाहिर करने का तरीका जो उन्होंने इस बार अपनाया वह जम नहीं रहा। कारण, वही जो अन्य गिनवा रहे हैं जैसेसाहित्य अकादमी स्वायत्त है, वहां राजनीतिक व किसी अन्य तरह का हस्तक्षेप न्यूनतम है, इससे अकादमी की प्रतिष्ठा कम होगी और विरोध के अन्य तौर-तरीके आदि-आदि भी कारगर हो सकते हैं। जैसे-जो पुरस्कार व सम्मान सरकारों से हासिल हैं उन्हें लौटाने के अलावा लेखक अभियान के साथ आमजन के बीच जाएं और उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों की जानकारी दें-ऐसा करना मुश्किल जरूर है लेकिन यदि ऐसा होता तो इसके दूरगामी और स्थाई परिणाम मिलते। खैर, चिंता और विरोध जताने के तरीके अपने-अपने हो सकते हैं और, यह भी कि कौन-किस तरीके में विरोध की तीव्रता देखते और ज्यादा कारगर मानते हैं।
इसलिए विरोध के इस तरीके को गलत मानना, विरोध करना और इस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देना आदि-आदि असल मुद्दे को नेपथ्य में ही डालना है। चर्चा और चिन्ता इस पर होनी चाहिए थी कि उन समूहों को कैसे रोका जाए जो देश में असहिष्णुता बढ़ाने को आमादा हैं।
सर्जनात्मक व्यक्तित्वों से उम्मीद की जाती है कि वे मानवीय मूल्यों के प्रति आग्रही होंगे और उन्हीं की ओर अग्रसर-तत्पर रहेंगे। चूंकि ऐसे लोगों को समाज में विशिष्ट दर्जा हासिल है इसलिए कम-से-कम ऐसी प्रवृत्तियां और घटनाएं जिनसे सामाजिक-राजनीतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने और देश की तासीर बदलने की आशंका हो, उन पर लेखन और सृजन की अन्य विधाओं में लगे लोग प्रतिक्रिया इस तरह से दें जिससे समाज को मानवीय मार्गदर्शन मिले और विचलन ना आए।
लेकिन खेद है कि तमाम चर्चाओं को दिग्भ्रमित कर दूसरी ओर ले जाया जा रहा है। इससे असहिष्णुता जैसा चिंताजनक और विचारणीय मुद्दा गौण हो रहा है और इस तरह से असहिष्णु प्रवृत्तियों में जो लगे हैं उनके लिए अनुकूलताएं बनाने में अनायास सहायक भी हो रहे हैं। बेलगाम घोड़े की तरह मीडिया भी मुद्दे को उसी ओर हांकने में प्रवृत्त दीख रहा है।
ऐसे समय वे कुतर्क, जिनमें यह प्रतिप्रश्न किया जाता है कि फलां-फलां समय जब वैसा हुआ तब ऐसी प्रतिक्रिया देने वाले कहां थे, तब इनकी जबानें बंद क्यों थी, ऐसे प्रतिप्रश्न करने वाले यह पड़ताल करने की भी कोशिश नहीं करते कि जिन पर ऐसे प्रतिप्रश्नी आक्षेप लगाए जा रहे हैं वे आक्षेप प्रामाणिक कितने हैं, हो सकता है तब उन्होंने अन्य तरीकों से विरोध जताया हो, हो यह भी सकता है कि वे तब चुप ही रहे हों। बावजूद इस सब के कोई सृजनधर्मी गलत का विरोध अब कर रहे हैं तो उनके तरीके से असहमति जताना और उस पर ही चर्चा करना अमानवीय और असहिष्णु प्रवृत्तियों में लगे लोगों को शह देना ही है।
कुतर्की लोग जो समान्तर घटनाओं के उदाहरण देते हैं वे ये बताएंगे कि क्या उन जैसा हो जाना ही इसका समाधान है, या जिन देशों में ऐसी हिंसक और असहिष्णु प्रवृत्तियां आम हैं, उनका उदाहरण देकर क्या यह सन्देश देना चाहते हैं कि हमारा देश भी वैसी ही बदतर स्थितियों की ओर बढ़े।
बीकानेर के दो स्थानीय अखबारों ने इस मुद्दे पर जो चर्चा आयोजित की वह पूर्णतया मुद्दे से भटकाने वाली थी। चर्चा असहिष्णुता जैसे असल मुद्दे पर न करवा कर विरोध के तरीकों पर केंद्रित करवा कर मीडिया अपने इस अबोध-बोध में प्रकारान्तर से उन्हीं लोगों का सहायक बन रहा है, जिसके असल विरोध की जरूरत है और जिनसे समाज को बचाना है। मीडिया तो जैसे हंकने-हंकवाने को प्रस्तुत ही है।
खेद यह भी है कि तमाम स्थानीय लेखक मीडिया के हांके हंक गये और गैर-जरूरी मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देकर मुक्त हो लिए। असहिष्णुता की घटनाओं और प्रवृत्तियों को किसी ने गलत बताया भी तो सांकेतिक तौर पर, जबकि चर्चा का केन्द्रीय बिन्दु यही होना चाहिए था। ये लेखक यदि सावचेत होते तो चर्चा की दिशा बदल सकते थे लेकिन लगता है इनमें से कुछ या तो इस पर अपनी राय नहीं रखते, रखते भी हैं तो असहिष्णु प्रवृत्तियों को एक समाधान के रूप में देखते होंगे और जो हो रहा है उसको उचित मानकर जाहिर नहीं करना चाहते हों। कई तो ऐसे भी होंगे जो इस बलाय में पडऩा ही नहीं चाहते। इसीलिए इस आलेख का शीर्षक मुक्तिबोध के हवाले से लगाया गया

15 अक्टूबर, 2015

Friday, October 9, 2015

प्रकाशन के शुरुआती जुगाड़ और जरूरत

प्रकाशन का काम भी अन्य व्यवसायों की तरह धंधा ही हो गया है। समाज में कभी जिस तरह लेखकों का अतिरिक्त सम्मान था और कुछेक को अब भी हासिल है, वैसा ही अतिरिक्त सम्मान कभी प्रकाशन व्यवसाय में लगे लोगों का भी था। लेकिन पिछले तीस-चालीस वर्षों में प्रकाशकों के ऐसे सामाजिक सम्मान में लगातार कमी आती जा रही है। अपवादस्वरूप उन समृद्ध प्रकाशकों की बात यदि न करें जिन्हें वैसा सम्मान धनबल से हासिल है तो इस तलपट के कुल जमा असल सम्मान में प्रकाशकों की हिस्सेदारी अब कम ही है। ऐसे सम्मान के हक का दावा प्रकाशक अब इसलिए भी नहीं कर सकते क्योंकि पुस्तक को उन्होंने आपूर्ति की वस्तु मात्र बना दिया और सरकारें भी पुस्तकों की थोक खरीद अन्य वस्तुओं की तरह टेण्डर जैसी सामान्य प्रक्रिया से ही करने लगी है। पुस्तक जब वस्तु के रूप में ही तबदील हो चुकी तो उसका उत्पादन भी वस्तु की तरह होना शुरू हो गया और जिस तरह की लापरवाही और असावधानियां सामान्यत: अन्य वस्तुओं के निर्माण में देखी जाती हैं, वैसी ही इस व्यवसाय की विक्रय वस्तु पुस्तक के निर्माण में भी आम हो गई है।
निजी क्षेत्र के वे प्रकाशक जो अपने को ब्राण्ड रूप में स्थापित रखना चाहते हैं या हो गए हैं वे जरूर अच्छा प्रेस ढूंढ़ लेते हैं, अच्छा डिजायनर और प्रूफरीडर अनुबंधित कर लेंगे ताकि कसौटी पर उनके दावे कुछ तो खरे उतरें। लेकिन तमाम आधुनिक संसाधनों और सुविधाओं के बावजूद पुस्तक प्रकाशन में वैसी निष्ठा नहीं दिखाई देती जो आजादी बाद के तीस-चालीस वर्षों तक देखी गई। भारत में प्रकाशन के सौ-सवा सौ वर्षों का शुरुआती चौथाई काल स्थापित होने के संघर्ष और चुनौतियों से निबटने में गुजर गया, दूसरा एक-चौथाई देशप्रेम के जज्बे से आजादी के आन्दोलन में प्रकाशकीय योगदान कर कुछ कर गुजरने में, इस तरह से आजादी के बाद तीसरे एक चौथाई काल को उद्देश्यपूर्ण प्रकाशन व्यवसाय का नैष्ठिक काल कह सकते हैं। चूंकि मैं हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय से हंू इसलिए उचित ही होगा कि इसी भाषा के प्रकाशन व्यवसाय के माध्यम से बात करूं। मुझे लगता है अन्य अधिकांश भारतीय भाषाओं के प्रकाशन व्यवसायों की स्थितियां हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय की स्थितियों से बेहतर होंगी, इसलिए बात बदतर हिन्दी प्रकाशन के हवाले से करने पर शेष का कमोबेश अन्दाजा लगाया जा सकेगा।
पिछले लगभग चार दशकों से जब से पुस्तकों की सरकारी खरीद का दौर-दौरा चला तब से ऐसे बहुत से व्यापारी और लोग इस व्यवसाय में आ गये जो किताब को एक वस्तु से ज्यादा न मानते और न ही बरतते हैं। चिन्ताजनक यह भी है कि व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते स्थापित और प्रतिष्ठित प्रकाशकों का चाल-चलन भी कुछ तो पीढिय़ां बदल जाने के चलते और कुछ अति लालच में धंधेबाज प्रकाशकों जैसा ही हो गया।
ऐसे में प्रकाशन के प्रारंभिक चरणों की बात करना बेमानी-सा है। पाण्डुलिपि चयन के लिए निजी क्षेत्र के प्रकाशन प्रतिष्ठानों में अब पहले की तरह न तो चयनकर्ताओं के किसी पैनल की गुंजाइश बची है और न ही प्रकाशन प्रतिष्ठानों के मालिक वैसे रहे हैं जो चयन का प्राथमिक निर्णय भी खुद कर सकें। ऐसे में अधिकांश निजी प्रकाशनों में अब स्थापित लेखक की रचना होना ही चयन का एक आधार हो गया है। लेखक किसी प्रभावशाली पद पर है और कोई बड़ा लाभ दिलाने की हैसियत रखता है तो उसकी पुस्तक प्रकाशित हो जायेगी, इस तरह यह दूसरा आधार हो गया। तीसरा आधार आजकल बड़ा कारगर है, वह यह कि लेखक यदि उत्पादन लागत खुद वहन कर ले और रॉयल्टी प्राप्ति की रसीद पूर्व में ही प्रकाशक को थमा दे। इस तरह प्रकाशन के प्रारम्भिक चरण 'पाण्डुलिपि चयन' के मानकों का आधार ही बदल गया।
दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण पाण्डुलिपि के सम्पादन का था जो अब सिरे से गायब है। जिसकी पुस्तक है बहुत कुछ उस लेखक की प्रतिष्ठा के भरोसे ही छोड़ दिया जाता है। इस चरण का महत्त्व तब और भी नहीं बचता जब पता हो कि अधिकांश पुस्तकें थोक में खरीद होकर डम्प होनी हो। तथ्यात्मक व तथ्यहीन, प्रामाणिक या अप्रामाणिक जो कुछ भी लेखक की ओर से लिखकर दे दिया गया, उसे लिया और प्रकाशित कर दिया जाता है, यह मान कर कि लेखक जाने और लेखक की बलाय जाने, पाठकों की चिंता अब है भी किसे। इस तरह सम्पादक जैसी इकाई इस व्यवसाय से लगभग गायब है। जिस किसी प्रकाशन प्रतिष्ठान में सम्पादक जैसा कोई है, वहां नाम मात्र का ही या उनसे चयन और सम्पादन जैसी औपचारिकताएं ही पूरी करवायी जाती हैं।
तीसरा प्रारंभिक चरण प्रि-प्रेस, मुद्रण और बंधाई का आता है जिसमें इन इकाइयों की भूमिका भौतिक उत्पादन की है। हालांकि प्रि-प्रेस में कम्पोजिंग-टाइपिंग के काम में प्रूफरीडर की प्राथमिक भूमिका होती है इसलिए इस भूमिका को निभाने वाले जैसे-तैसे भी हैं वे पीस रेट या पृष्ठदर के आधार पर मिल जाते हैं—रही बात आकल्पक या डिजायनर की तो कम्प्यूटर और उसके सॉफ्टवेयर जैसे नये आए साधनों के बाद यह काम कोई बहुत मुश्किल काम नहीं रहा है। तीसेÓक वर्षों से रिबिल्ट या पुरानी ऑफसेट मशीनों के सुलभ आयात के बाद मुद्रण का काम भी जितना खर्च प्रकाशक करना चाहता है उसके अनुसार विभिन्न दरों और क्वालिटी का अब आसानी से होने लगा अन्यथा लैटरप्रेस जमाने के बुकवर्क को याद करके आज अचम्भा ही किया जा सकता है। यही स्थिति बंधाई के काम की भी है, बंधाई से जुड़ी न केवल रिबिल्ट या पुरानी मशीनें आयात होने लगी बल्कि कई निर्माता देश में भी इन्हें बनाने और उपलब्ध करवाने लगे हैं। फोल्डिंग मिसल और जुज सिलाई से लेकर कवर पेस्टिंग और गत्ता बाइंडिंग का काम जहां आज हाथ से भी होता है वहीं इन सबके लिए मशीनें आ गई हैं और बंधाई के आधुनिकतम प्रतिष्ठान सेवाएं देने लगे हैं।
इन प्रारम्भिक चरणों में पुस्तक बनने तक की बात तो हो ली पर तैयार होने के बाद उसका बिकना अब उतना आसान भी नहीं रहा। हां, सरकारी खरीदों के चलते इतना आसान भी हो गया कि पुस्तक संस्कृति ही खतरे में दीखने लगी है। सरकारी खरीदों के चलते जहां अनाप-शनाप पुस्तकें छपने लगी हैं वहीं रिश्वत और कमीशनखोरी की जरूरत में किताबों की कीमतें इतनी अधिक रखी जाने लगी है कि आम पाठक उसे खोलकर देखने तक की हिम्मत नहीं कर पाता। इसलिए बात होना यह जरूरी है कि पुस्तकों को सामान्य पाठकों के लिए भी सुलभ कैसे बनाया जाय। प्रकाशकों का ध्यान इस ओर लगभग नहीं है। वाजिब मूल्यों पर मनचाही पुस्तक मिले तो ऐसे पाठक भी देखे जाते हैं जो न्यूनतम मजदूरी से भी कम आय वर्ग के लगते हैं लेकिन पुस्तक खरीदने के लिए जेब से तीन-चार सौ रुपये निकाल लेते हैं।
साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के प्रकाशन उपक्रम नहीं होते तो पाठकों को वाजिब मूल्य पर न साहित्येतर पुस्तकें मिलती और न ही अच्छे अनुवाद। निजी क्षेत्र के प्रकाशकों ने अच्छे अनुवाद करवा कर प्रकाशित करना बहुत कम कर दिया है। निजी क्षेत्र के प्रकाशक अनुवाद उन्हीं पुस्तकों का करवाते हैं जो अन्य भाषाओं में बेस्टसेलर रही हों। कई प्रकाशक अनुवाद छाप भी रहे हैं तो इस लोभ में कि पुस्तक कॉपीराइट से मुक्त है और उसका अनुवाद आसानी से हासिल हो गया है। अनुवाद कैसा है इसकी पड़ताल सामान्यत: अब जरूरी नहीं मानी जाती। अलावा इसके साहित्येतर पुस्तकों के प्रति निजी क्षेत्र के प्रकाशक गम्भीर नहीं लगते हैं। प्रकाशित करते भी हैं तो नई स्थापनाओं, और प्रामाणिकता पर ध्यान कम ही दिया जाता है। इस तरह की जो पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं उन्हें पिष्ट पेषण कहने में संकोच कैसा। साहित्यिक प्रकाशनों की खरीद के सरकारी बजट को खपाने में प्रकाशित पीएचडी के शोधग्रंथ बड़े काम आ रहे हैं। नौकरियों के लिए ये शोधग्रंथ न केवल पैसा देकर लिखवाएं जाते हैं बल्कि पैसा देकर प्रकाशित भी करवा लिए जाते हैं। ऐसी पुस्तकों का स्तर क्या होता है, बताने की जरूरत नहीं।
बड़ी प्रतिकूलता यह भी है कि लेखक भी ऐसी परिस्थितियों को लेकर सचेष्ट नहीं लगते हैं। लेखक छपने तक की चेष्टाओं से ऊपर उठें और इस पूरे परिदृश्य पर चिंतन-मनन और चर्चा-परिचर्चा शुरू करें, चर्चा होगी तो संभवत: वैकल्पिक रास्ता भी निकलेगा। उनके यह मानने-कहने से अब काम चलने वाला नहीं कि यह जिम्मेदारी समाज की और प्रकाशकों की है। इसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि लेखक समाज का अहम हिस्सा है और प्रकाशकों के हमजाद अग्रज भी। पाठकों के संदर्भ से बात करें तब लगता है कि प्रकाशन व्यवसाय के बुरे दिनों का प्रमाण इससे ज्यादा क्या होगा कि बीते पचास वर्षों में प्रति पुस्तक संस्करण संख्या इक्कीस सौ से घटते-घटते तीन सौ पर आ चुकी है, वह भी यदि किसी थोक खरीद में नहीं आई या लेखक स्वयं लेकर बांटने न लगे तो इतनी कम प्रतियों का यह पहला संस्करण भी प्रकाशक के गोदाम या उसके बाइंडर के यहां पड़ा धूल चाटता रहता है।
—दीपचन्द सांखला
विनायक शिखर, पॉलिटेक्निक कॉलेज के पास
शिवबाड़ी रोड, बीकानेर 334003        deepsankhla@gmail.com

(9 अक्टूबर, 2015 को साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली की गंगटोक संगोष्ठी में पढ़ा गया पर्चा।)

Wednesday, October 7, 2015

पीबीएम के बहाने आज कुछ घाइ-घुती

सूबे की इस सरकार के स्वास्थ्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़ पीबीएम अस्पताल की सर्जरी करने की जरूरत डेढ़ वर्ष पूर्व भले ही बता गये हों लेकिन सर्जरी का समय उन्होंने अभी तक संभवत: इसलिए तय नहीं किया कि उसे न करने की फीस उनके पास पहुंच गई होगी। इसके ठीक उलट पीबीएम के सर्जनों के लिए कहा जाता है कि ऑपरेशन की तारीख ये तभी देते हैं जब इनके घर फीस पहुंच जाए। यानी यह फीस भी कभी काम करने की होती है तो कभी न करने की। वैसे हल्लर-फलरियों से यह तक सुना है कि बीकानेर के एसपी मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल बनने की फीस अभी दो करोड़ है। कभी पीबीएम के अधीक्षक बनने की भी फीस अच्छी-खासी हुआ करती थी, लेकिन जब से माथा-फोड़ी ज्यादा होने लगी और डॉक्टरों को लगने लगा कि भले यह ऊपर की कमाई का अच्छा पद हो लेकिन 'नींद बेच कर ओजकौ मोल लेणे से कम भी नहीं'। दूसरा, ऊपर की कमाई तब ही भोगेंगे ना जब स्वस्थ रहेंगे, तनाव में बीमार रहने लगे तो उलटे इलाज के लिए ही फीस न देनी पड़ जाय। कुछ बनने के लिए और किसी को न बनने देने की अपनी आदत से मजबूर पीबीएम के एक पूर्व अधीक्षक और कॉलेज के पूर्व प्राचार्य के बारे में पिछली सरकार के समय सुना गया कि उन्होंने पांच करोड़ अटैची में इसलिए रख छोड़े थे कि उन्हें राज्यपाल बना दिया जाए।
आज पीबीएम का यह कौथीणा फिर इसलिए काढ़ लिया कि कल यहां फिर बदमजगी हो गई, वह भी एक पत्रकार-परिजन के साथ। जो कुछ हुआ, अलबत्ता दोनों तरफ से कुछ जोड़-घटाकर बताया गया। वह आज के अखबारों में अलग-अलग रंग-ढंग से आ ही गया है। अपने-अपने विवेकानुसार अनुचित हटाए को जोड़कर व अनुचित जोड़े को घटा कर पढ़ा-मान लिया जाना चाहिए। लेकिन इस बार पुलिस जो बिना वजह बीच में आ पड़ी, वह माजरा समझ से परे का है। अब तक तो पुलिस वाले घटना होने तक पहुंचते नहीं, टाइमिंग की गलत समझ से समय पर पहुंच भी जाते हैं तो डाफाचूक की मुद्रा में तब तक साक्षी बने रहते हैं जब तक कि उस होम में हाथ जलने की गुंजाइश खत्म नहीं हो जाए। हमारे पत्रकार बन्धू भी इन दिनों एके-के साथ सक्रिय हैं और आन पर आंच आते ही अतिरिक्त चेतन हो लेते हैं।
वैसे अस्पताल वाले कारकुन इतनी चतुराई तो बरतते रहे हैं और नेताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों से बिना ऊपरी फीस लिए तवज्जो यह मानकर देते रहे हैं कि ये लोग आधुनिक व्यवस्था के पितर-भोमिये हैं, इन्हें राजी रखने पर ही वे अपनी कारगुजारियों को निर्बाध जारी रख सकेंगे। इसका प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि पीबीएम अस्पताल उस गत को हासिल हो गया जिसमें सामान्यत: बीमार और उसके परिजन की कोई सुनवाई ही नहीं है। यह गिरावट अचानक नहीं आयी। इसमें बरसों लगे हैं और इस सबको होने देने के लिए राजनेता, राजनीतिक कार्यकर्ता और पत्रकारोंसभी ने अनदेखी की मुद्रा अपना ली। कभी कुछ करते भी हैं या छापते हैं तो ठीक सर्कस के उस मास्टर की तरह जो शेर-बघेरों को बिना छुआए ही आवाज करने वाला हंटर बजाते हैं ताकि डॉक्टर और अस्पताल के अन्य कारकुनों को उनकी हैसियत का भान रहे।
रही बात अवाम की तो पीबीएम और मेडिकल कॉलेज हांकने वाले गत 27 जुलाई को आम जनता के मुंह में अंगुली फेर कर अच्छी तरह आश्वस्त हो लिए हैं कि दांत एक भी नहीं है। पीबीएम की व्यवस्था संबंधी उस जागरूक अभियान के अगुआ अभिनव नागरिकों को नेतृत्व देने वालों के बारे कैसी भी धारणाएं प्रचारित करवाई गई हों, जो मुद्दा उन्होंने उठाया और मुकाम तक पहुंचाने से पहले डॉक्टरों और अन्यों में जो भय जगाया उसे आम जनता 27 जुलाई को हथिया लेती तो पीबीएम का काफी ढंगढाळा सुधर जाता। आम जनता ने इस अभियान को कोई खास भाव नहीं दिया और जिस जोश से ज्वार आया उससे उलट भाटे के साथ ही वह तिरोहित हो लिया।
सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों की अगुवाई हमेशा सामथ्र्यवानों ने की और उससे लाभान्वित पूरा समाज होता आया। लेकिन अब वैसा भाव सिरे से गायब है। सामथ्र्यवान अपना काम ले-देकर निकालने लगे और नीचे के सामाजिक तबके को पूरी तरह भुगतने को छोड़ दिया गया है। ऐसी भावना के बाद मानवीय उम्मीदें करना समर्थों को असहज-सा लगने लगा है। कहा जा सकता है कि हमारा यह दौर अमानवीय होने को तत्पर है। रही बात कल की घटना की तो इससे पहले हुई ऐसी अनेक घटनाओं की तरह जांच के नाम पर बिना पछाड़े उसे कैसे धोया जाएगा, उसकी कथा कोई कभी लिखे तो उत्सुकता से पढऩे लायक होगी। क्योंकि ऐसी घटनाओं पर आरोप-प्रत्यारोपों के बाद जो होता है उसमें आम-आदमी की जरूरतों का नहीं, अपने ही स्वार्थों को पोसने और अपने अहम् को बनाए रखना ही मुख्य ध्येय होता है।

8 अक्टूबर, 2015