Thursday, November 28, 2019

हर बहुमत जनादेश नहीं होता

आधुनिक मीडिया नयी-नयी उक्तियां, नये-नये शब्द व्यवहारता तो है, लेकिन क्या उन्हें भाषाई आधार पर सटीक और तथ्यों के आधार पर प्रमाणित किया जा सकता हैं? जनादेश जैसा शब्द मीडिया लम्बे समय से उस 'पार्टी' या 'नेता' के लिए प्रयोग करता रहा है, जिसे सदन का बहुमत हासिल होता है। क्या प्राप्त हर बहुमत को जनादेश कहा जा सकता है?
बीते एक वर्ष में हुए तीन चुनावों के माध्यम से इस तथ्य पर विचार करते हैं। 2018 के राजस्थान विधानसभा के चुनाव परिणामों की पड़ताल करें तो कुल 4.77 करोड़ मतदाताओं में से 3.57 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आंकड़े के आधार पर सूबे में कांग्रेस की सरकार को कुल मतदाताओं में से मात्र 29.35 प्रतिशत का ही विश्वास हासिल है। शेष ने या तो अन्य किसी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिया या किसी को भी अपने वोट के योग्य नहीं (NOTA) माना या फिर किसी को भी वोट देना तक जरूरी नहीं समझा। इसे हम सदन में कांग्रेस का बहुमत तो कह सकते हैं लेकिन कांग्रेस को यह जनादेश मिला है, नहीं माना जा सकता।
इसी तरह मई, 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को वर्तमान शासक ना केवल जनादेश बताते रहे हैं बल्कि इसे ऐतिहासिक कहने से भी नहीं चूकते। अब जरा उस चुनाव के गणित की भी पड़ताल कर लेते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारत के कुल 90 करोड़ मतदाता थे जिनमें से 60.3 करोड़ (67 प्रतिशत) मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। जिन्होंने मतदान किया उनमें से मात्र 22.5 करोड़ मतदाताओं ने ही वर्तमान शासकों—भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया यानी कि केन्द्र के वर्तमान राज को कुल मतदाताओं के मात्र 25 प्रतिशत का विश्वास हासिल है, जबकि केन्द्र की ये सरकार कड़े फैसले इस हेकड़ी के साथ ले रही है कि इन्हें जनता ने चुना ही इसीलिए है।
बीकानेर में हाल ही में सम्पन्न नगर निगम चुनाव के परिणामों पर भी हम एक नजर डालते हैं। 4.41 लाख कुल मतदाताओं में से 2.95 लाख ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इनमें से कांग्रेस को 1.06 लाख (36 प्रतिशत) और भाजपा को 1.03 लाख (35 प्रतिशत) मतदाताओं ने वोट दिया। यानी कुल 80 पार्षदों में जो भाजपा के 38 पार्षद जीते हैं, उन्हें कांग्रेस से वोट तो 1 प्रतिशत कम हासिल हुए लेकिन पार्षद कांग्रेस के 30 के मुकाबले 8 ज्यादा जीत गये। विरोधी कांग्रेस से 1 प्रतिशत वोट कम लेकर भी नगर निगम में भाजपा का बहुमत है, इसमें दो राय नहीं, लेकिन क्या इसे जनादेश भी मान सकते हैं, गहन विचारणीय मसला यही है।
इस कवायद का मकसद भारतीय निर्वाचन प्रणाली को खारिज करना हरगिज नहीं है। दुनिया में कोई भी प्रणाली 'फुलप्रूफ' साबित नहीं हुई है। हमारे जैसे विशाल देश की जैसी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि है उसके हिसाब से वर्तमान निर्वाचन प्रणाली अपनी कुछ कमियों के बावजूद सर्वथा व्यावहारिक मानी गई है।
इस तरह विचार करने का मकसद यही है कि हमें बहुमत और जनादेश के अन्तर को गहरे से समझना चाहिए ताकि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर हम ना केवल तार्किक होकर बल्कि व्यावहारिक होकर भी अपनी महती जिम्मेदारियों का निर्वहन हम कर सकें।
(आलेख में उल्लेखित सभी आंकड़े पूर्णांक की अनुकूलता के साथ दिये गये, इसलिए लगभग हैं।)
—दीपचन्द सांखला
28 नवम्बर, 2019

Thursday, November 21, 2019

बीकानेर : निगम चुनाव नतीजों के बहाने अर्जुन, कल्ला, भाटी की बात

स्थानीय राजनीति को समझना हो तो बजाय लोकसभा-विधानसभा चुनावों के, निकाय और पंचायत-जिला परिषद चुनावों से ज्यादा अच्छे से समझ सकते हैं। बीकानेर शहर की राजनीति को हाल ही में सम्पन्न नगर निकाय के चुनाव परिणामों से समझने की कोशिश करते हैं।
बीकानेर नगर निगम में तीन पार्षद कम होने के बावजूद भाजपा ने निर्दलीयों के सहयोग से बहुमत जुटा लिया है। इसलिए पहले पड़ताल भाजपा की ही कर लेते हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्ति लेकर मात्र 11 वर्ष पहले ही सक्रिय राजनीति में आये अर्जुनराम मेघवाल ने इन चुनावों के बाद क्षेत्र की भाजपा राजनीति में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। पूर्व विधायक गोपाल जोशी की निष्क्रियता और कभी पार्टी में क्षेत्रीय वर्चस्वी रहे देवीसिंह भाटी के पार्टी छोडऩे के बाद फिलहाल उन्हें चुनौती देने की हैसियत वाला कोई दूसरा नेता नजर नहीं आ रहा। अर्जुनराम मेघवाल की बनी इस हैसियत से दूसरी पंक्ति के किसी नेता की राजनीति को खतरा हो सकता है तो वे हैं खाजूवाला के पूर्व विधायक डॉ. विश्वनाथ मेघवाल। डॉ. विश्वनाथ से अर्जुनराम की और अर्जुनराम से डॉ. विश्वनाथ की कभी अनुकूलता नहीं रही। इस बीच अर्जुनराम के पुत्र रविशेखर ने भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है और उनकी नजर खाजूवाला सीट पर है। पिछला विधानसभा चुनाव हारना डॉ. विश्वनाथ के लिए बड़ी प्रतिकूलता साबित होगा। रविशेखर को खाजूवाला से 2023 के चुनाव में उम्मीदवारी नहीं भी मिली तो भी अर्जुनराम डॉ. विश्वनाथ की उम्मीदवारी में आड़े आयेंगे ही। दलित वर्ग से आए अर्जुनराम मेघवाल ने अपनी हैसियत के इस मुकाम को बड़ी जद्दोजहद से हासिल किया है।
अर्जुनराम के लिए पार्टी में बड़ी चुनौती रहे देवीसिंह भाटी अपनी राजनीतिक असफलताओं की परिणति के तौर पार्टी से बाहर हैं। यह नौबत खुद उनके कारण से कम और उनके सलाहकारों और नजदीकी लोगों की वजह से ज्यादा आयी है। संजीदगी और समझदारी की राजनीति करने वाले भाटी के पुत्र पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह के देहान्त बाद से ही देवीसिंह भाटी की ना केवल राजनीतिक निर्णयों में बल्कि क्षेत्र पर भी पकड़ ढीली होती गयी। भाटी जिन सलाहकारों और तथाकथित अपनों से घिरे रहते हैं उनमें कोई एक भी शुभचिन्तक होते तो भाटी इस हश्र को हासिल नहीं होते। ये सबके-सब बजाय भाटी की साख को साधने के, अपने स्वार्थों को साधते रहे हैं। यही वजह है कभी मगरे के शेर के नाम से पहचाने जाने वाले देवीसिंह भाटी बूढ़े शेर की उस नियति को ही हासिल हो गये जिसमें उसको उसके जंगल से ही खदेड़ दिया जाता है। भाटी के लिए अब भी समय है, वे चाहें तो अपनी राजनीतिक विरासत को पल्लवित होता देख सकते हैं। लेकिन उन्हें इसके लिए समझना यह होगा कि वे जिन पर अब तक भरोसा करते आए हैं, वे भरोसे लायक नहीं हैं। होते तो लगातार तीन चुनावों में भाटी की भद ऐसी नहीं पिटती जैसी विधानसभा चुनावों के बाद फिर लोकसभा के चुनावों में पिटी और स्थानीय निकाय चुनावों में उसका कुछ अब बचा ही नहीं! 
कांग्रेस की बात करें तो अपनी अपरिपक्वता के चलते क्षेत्रीय क्षत्रप बनने की असफल कोशिश में लगे एक रामेश्वर डूडी फिलहाल हाशिये पर हैं और उतर भीखा म्हारी बारी की तर्ज पर दूसरे डॉ. बीडी कल्ला हाशिये से मुख्यधारा की राजनीति में लौट आए हैं। वैसे डॉ. कल्ला के बारे में यह माना जाता है कि वे प्रतिद्वंद्वियों की जरूरत नहीं रखते, राजनीति करने के उनके तौर तरीके खुद ही उनके प्रतिद्वंद्वी हो लेते हैं। 2018 का विधानसभा चुनाव जीत कर सूबे की सत्ता में नम्बर तीन भले ही वे हो लिए हों, पर राजनीति और शासन करने के उनके तरीके पहले से बदतर हुए हैं। इसकी बानगी के तौर पर बीकानेर नगर निगम के चुनाव परिणामों को देख सकते हैं। चुनाव की घोषणा के साथ ही यह माना जाता रहा कि बीकानेर नगर निगम में कांग्रेस अपना बहुमत जैसे-तैसे भी बना लेगी। लेकिन मिले परिणामों से महापौरी दूर की कोड़ी हो गई। 80 पार्षदों के निगम में कांग्रेस अपने मात्र 30 पार्षद ही जिता पायी जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा अपने 38 पार्षद जितवा कर बेहतर स्थितियों में आ गयी। परिणामों के फौरी विश्लेषण से लगता है कि देवीसिंह भाटी बाधा नहीं बनते तो भाजपा बहुमत का आंकड़ा आसानी से पा लेती।
कांग्रेस के पिछडऩे की बड़ी वजह चुनाव संचालन कार्य डॉ. बीडी कल्ला और कन्हैयालाल झवंर को देना रहाझंवर ने रुचि नहीं दिखायी, अपने कुछ हितों की पैरवी कर बाकी सब-कुछ उन्होंने डॉ. बीडी कल्ला पर छोड़ दिया। डॉ. कल्ला राजनीति को जिस तरह साधते रहे हैं उसमें उनके निजी स्वार्थ, व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द पार्टी हित पर हावी रहते हैं। बीते चालीस वर्षों में शहर कांग्रेस की राजनीति में दूसरी पंक्ति तक पहुंचे कितने ही कार्यकर्ताओं को इन्होंने इस कदर निराश किया कि वे कहीं के नहीं रहे। वहीं डॉ. कल्ला के अधिकांश कार्यकर्ता आरएसएस के प्रकल्प हिन्दू जागरण मंच द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित जागरण यात्रा में मुखर भूमिका में देखे जा सकते हैं। ऐसे में एक पार्टी के तौर पर स्थानीय कांग्रेस के अस्तित्व को बचाकर कैसे रखा जा सकेगा, यह विचारणीय है। यही वजह है कि कई उम्मीदवार तो कांग्रेस ने ऐसे दिये जिनका और जिनके परिवार का कांग्रेस से कभी नाता तक नहीं रहा। कांग्रेस के टिकट बंटवारे में कई कर्मठ कार्यकर्ता तो इतना निराश हुए कि उन्हें बगावत करनी पड़ी और वे जीते भी गए। कांग्रेस के वर्तमान हश्र की बड़ी वजह संगठन पर भरोसा ना करके सत्तासीनों पर आश्रित रहना भी रहा। जिसका खमियाजा यह भुगत रही है।
हालांकि टिकट बंटवारे पर असंतोष भाजपा में भी रहा लेकिन इसे बड़ी चतुराई से मैनेज कर लिया गया। सूबे में सरकार के न होते भी इसके सुखद परिणाम इन्हें मिले। बिना उम्मीद नगर निगम में उसने बहुमत हासिल कर लिया है। डॉ. कल्ला अपनी राजनीति की शैली से उलट के उलटकर सक्रियता दिखाते तो कांग्रेस को बहुमत हासिल होना टेढ़ी खीर नहीं थी। बावजूद बुरे परिणामों के, डॉ. कल्ला राजनीति के अपने तौर-तरीकों को बदल पायेंगे, लगता नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
21 नवम्बर, 2019

Thursday, November 7, 2019

नगर निगम चुनावों के बहाने स्थानीय दिग्गजों और राजनीति की पड़ताल

प्रदेश में राजधानी जयपुर, जोधपुर व कोटा को छोड़ स्थानीय निकायों के चुनाव इसी माह हैं। बीकानेर में भी हैं। चुनाव पूर्व माहौल जो कांग्रेस के पक्ष में लग रहा था, वह देवीसिंह भाटी के ताल ठोकने के बावजूद और टिकटों के वितरण के बाद से भाजपा के पक्ष में जाता लग रहा है।
क्षेत्रीय राजनीति के चार दिग्गजों में दो भाजपा से तो दो कांग्रेस के गिने जाते रहे हैं। एक कांग्रेसी दिग्गज रामेश्वर डूडी रूठ कर रणछोड़दास हो लिए तो भाजपाई दिग्गज रहे देवीसिंह भाटी ने अपने को रिटायर्ड मानने का मन अभी नहीं बनाया है, जबकि जनता ने 2013 में ही उन्हें विदाई दे दी थी। अन्य बचे दिग्गजों में एक कांग्रेसी डॉ. बीडी कल्ला हैं, स्वामी भक्ति के चलते अशोक गहलोत के 'पट्टों में' अभी सिरमौर हैं लेकिन राजनीति करने का इनका तौर-तरीका वही चार दशक पुराना है। डॉ. कल्ला के लिए वही कांग्रेसी है जो बजाय पार्टी के उनमें निष्ठा रखता हो। भाजपाई दिग्गज और अब तो क्षेत्र में एकमात्र भी कह सकते हैंसांसद और केन्द्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवालअपनी राजनीति को ब्यूरोक्रैटिक हेकड़ी और परम्परागत सामाजिक हैसियतनुसार ठकुरसुहाती की जुगलबंदी से साधते हैं। सफल होते-होते ना केवल दिग्गज हो लिए बल्कि क्षेत्र के दूसरे दिग्गज देवीसिंह भाटी को पार्टी राजनीति से बाहर होने को मजबूर कर दिया।
दोनों पार्टियों के इन चारों ही दिग्गजों की राजनीति करने के तौर-तरीकों की गर पड़ताल करें तो साफ झलकता है कि इनके सलाहकार कोई खास होशियार नहीं हैं। इन दिग्गजों को जो कुछ भी हासिल होता रहा, वह खुद की वजह से कम और परिस्थितिजन्य अनुकूल मौकों से ज्यादा हासिल हुआ है।
देवीसिंह भाटी ने 1980 से 2008 तक कोलायत से लगातार सात चुनाव जीते। वह इसलिए भी कि उन्हें चुनौती देने वाला कोई खास सामने नहीं था, ना कि अपनी या सलाहकारों की कूव्वत से। ज्यों ही 2013 में सलीके की चुनौती देने वाला सामने आया उस चुनाव में वे धड़ाम हो गये, जबकि भाजपा की उस बम्पर लहर में हर कोई जीत गया था। भाटी को अपनी पारी समाप्ति की घोषणा उस हार के साथ ही कर देनी थी, शायद ऐसा ही वे चाहते भी थे, तभी नीम-हकीमी में लग गये। लेकिन लगता है सलाहकार और तथाकथित नजदीकी नहीं चाहते होंगे कि ऐसा हो, क्योंकि अब तक उनके स्वार्थों की पूर्ति जिस नाम से होती रही, उसकी 'कली' वे बनाये रखना चाहते होंगे। लेकिन भाटी के हाल ही के हर फैसले के बाद उनकी 'कली' उतरती गयी, फिर वह चाहे 2018 का चुनाव हो, भाजपा छोडऩे का निर्णय हो या लोकसभा चुनाव में रही उनकी नकारात्मक सक्रियता। देवीसिंह भाटी को ठिठककर सोचना चाहिए थाये जो उनके शुभचिंतक उन्हें घेरे रहते हैं, वे अपने हितों के लिए उनकी साख तो कहीं दावं पर नहीं लगा रहे हैं, ठिठक कर सोचते तो सामाजिक न्याय मंच को पुनरुज्जीवित कर नगर निगम के चुनावों में कूदने की मंशा नहीं बनाते। नहीं लगता कि इन चुनावों में वे कुछ खास हासिल कर पाएंगे। हां, वे भाजपा का खेल बिगाड़ जरूर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने जिस तरह से टिकटों का बंटवारा किया है उससे लगता है कि वे इस चुनाव में भाजपा का कुछ खास नहीं बिगाड़ सकेंगे बावजूद इसके कि मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। बीकानेर में बोर्ड जैसे-तैसे भी यदि भाजपा का बनता है तो उसका श्रेय केवल और केवल भाटी की रड़कन रहे अर्जुनराम मेघवाल को ही जायेगा।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया, पिछले लोकसभा चुनाव के बाद मोदी और शाह का जादू लगातार कम हो रहा है। लेकिन ना कांग्रेसी हाइकमान और ना ही सूबाई नेतृत्व इसका लाभ उठाने की कोई कोशिश में हैं। दोनों जगह असमंजस की स्थिति है, तभी स्थानीय संगठनों को दरकिनार कर विधायकों और विधानसभा चुनाव के हारे नेताओं को इन स्थानीय निकायों के चुनावी निर्णयों के सभी अधिकार देने जैसा प्रतिकूल निर्णय हुआ है। बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो टिकट बंटवारे का और चुनाव संचालन का अधिकार बीकानेर पूर्व से चुनाव हारे कन्हैयालाल झंवर और पश्चिम से विधायक और मंत्री डॉ. बीडी कल्ला को दिये गये हैं। सुनते हैं झंवर ने कोई खास रुचि नहीं ली। इस तरह सब कुछ तय कल्ला परिवार ने ही किया है, उस कल्ला परिवार ने, जिसे पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं से ऊपर हमेशा अपना कार्यकर्ता ही प्रिय लगता रहा है। उम्मीदवारों की सूची और विद्रोह को देखें तो यह सब साफ लगता है। जबकि पार्टी जिस दौर से गुजर रही है और विपरीत परिस्थितियों में भी पार्टी के लिए जो कार्यकर्ता जूझते रहे हैं, तवज्जुह उन्हें मिलनी चाहिए थी ना कि परिवारविशेष के निजी लोगों को।
खैर, टिकट बंटवारे को लेकर कुछ असंतोष भाजपा में भी है। लेकिन फिर भी यहां जिन्हें टिकट दिया गया, उससे लगता है कि अधिकांश सक्रिय कार्यकर्ताओं को संतुष्ट किया गया।
हमें इसे नजर अन्दाज नहीं करना चाहिए कि इन चुनावों से पूर्व सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या पर निर्णय आने वाला है। यह ऐसा निर्णय है जो संघ के पक्ष में जाए तब भी संघ-भाजपा को लाभ होगा और विरोध में जाए तब भी। पक्ष में गया तो हिन्दुत्वी ऐजेन्डे का या कहें बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण होगा और विपरीत में गया तो बहुसंख्यकों का धुव्रीकरण, यानी संघ के दोनों हाथों में लड्डू हैं। तब पूरे विपक्ष के लिए ठगा सा खड़े रहने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति के लिए विपक्ष खुद भी जिम्मेदार कम नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
07 नवम्बर, 2019