आधुनिक मीडिया नयी-नयी उक्तियां, नये-नये शब्द व्यवहारता तो है, लेकिन क्या उन्हें भाषाई आधार पर सटीक और तथ्यों के आधार पर प्रमाणित किया जा सकता हैं? जनादेश जैसा शब्द मीडिया लम्बे समय से उस 'पार्टी' या 'नेता' के लिए प्रयोग करता रहा है, जिसे सदन का बहुमत हासिल होता है। क्या प्राप्त हर बहुमत को जनादेश कहा जा सकता है?
बीते एक वर्ष में हुए तीन चुनावों के माध्यम से इस तथ्य पर विचार करते हैं। 2018 के राजस्थान विधानसभा के चुनाव परिणामों की पड़ताल करें तो कुल 4.77 करोड़ मतदाताओं में से 3.57 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस आंकड़े के आधार पर सूबे में कांग्रेस की सरकार को कुल मतदाताओं में से मात्र 29.35 प्रतिशत का ही विश्वास हासिल है। शेष ने या तो अन्य किसी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिया या किसी को भी अपने वोट के योग्य नहीं (NOTA) माना या फिर किसी को भी वोट देना तक जरूरी नहीं समझा। इसे हम सदन में कांग्रेस का बहुमत तो कह सकते हैं लेकिन कांग्रेस को यह जनादेश मिला है, नहीं माना जा सकता।
इसी तरह मई, 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को वर्तमान शासक ना केवल जनादेश बताते रहे हैं बल्कि इसे ऐतिहासिक कहने से भी नहीं चूकते। अब जरा उस चुनाव के गणित की भी पड़ताल कर लेते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारत के कुल 90 करोड़ मतदाता थे जिनमें से 60.3 करोड़ (67 प्रतिशत) मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। जिन्होंने मतदान किया उनमें से मात्र 22.5 करोड़ मतदाताओं ने ही वर्तमान शासकों—भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया यानी कि केन्द्र के वर्तमान राज को कुल मतदाताओं के मात्र 25 प्रतिशत का विश्वास हासिल है, जबकि केन्द्र की ये सरकार कड़े फैसले इस हेकड़ी के साथ ले रही है कि इन्हें जनता ने चुना ही इसीलिए है।
बीकानेर में हाल ही में सम्पन्न नगर निगम चुनाव के परिणामों पर भी हम एक नजर डालते हैं। 4.41 लाख कुल मतदाताओं में से 2.95 लाख ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इनमें से कांग्रेस को 1.06 लाख (36 प्रतिशत) और भाजपा को 1.03 लाख (35 प्रतिशत) मतदाताओं ने वोट दिया। यानी कुल 80 पार्षदों में जो भाजपा के 38 पार्षद जीते हैं, उन्हें कांग्रेस से वोट तो 1 प्रतिशत कम हासिल हुए लेकिन पार्षद कांग्रेस के 30 के मुकाबले 8 ज्यादा जीत गये। विरोधी कांग्रेस से 1 प्रतिशत वोट कम लेकर भी नगर निगम में भाजपा का बहुमत है, इसमें दो राय नहीं, लेकिन क्या इसे जनादेश भी मान सकते हैं, गहन विचारणीय मसला यही है।
इस कवायद का मकसद भारतीय निर्वाचन प्रणाली को खारिज करना हरगिज नहीं है। दुनिया में कोई भी प्रणाली 'फुलप्रूफÓ साबित नहीं हुई है। हमारे जैसे विशाल देश की जैसी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि है उसके हिसाब से वर्तमान निर्वाचन प्रणाली अपनी कुछ कमियों के बावजूद सर्वथा व्यावहारिक मानी गई है।
इस तरह विचार करने का मकसद यही है कि हमें बहुमत और जनादेश के अन्तर को गहरे से समझना चाहिए ताकि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर हम ना केवल तार्किक होकर बल्कि व्यावहारिक होकर भी अपनी महती जिम्मेदारियों का निर्वहन हम कर सकें।
(आलेख में उल्लेखित सभी आंकड़े पूर्णांक की अनुकूलता के साथ दिये गये, इसलिए लगभग हैं।)
—दीपचन्द सांखला
28 नवम्बर, 2019