Thursday, January 19, 2017

पुस्तक मेलों और लिटरेचर फेस्टिवलों के बहाने पुस्तकों-पाठकों की बात

पुस्तकों से संबंधित भारत के सबसे बड़े आयोजन दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में 1986 से जाता रहा हूं। अधिकांश मेलों के दौरान सभी दिनों वहीं रहा। दूसरी ओर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल राजस्थान का बड़ा साहित्यिक आयोजन माना जाने लगा है। इसी के सहआयोजन प्रकाशक मंच 'जयपुर बुकमार्क' के आमंत्रण पर पहले ही दिन होकर आ गया। इसकी शुरुआत फेस्टिवल से एक दिन पहले 18 जनवरी 2016 को कर दी गई जो आयोजन के दौरान सभी दिन लगातार चलने वाली संगोष्ठियों के साथ 22 जनवरी तक चलेगा। अब जब सभी आयोजन व्यापार-उद्योग का हिस्सा हो चले हैं तो साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन भी इससे अछूते क्यों रहते।
पुस्तक मेलों और साहित्यिक आयोजनों पर विचार करने पर ना पाठकों को छोड़ा जा सकता है, ना साहित्य-संस्कृति से लगाव रखने वालों को। पटना, रांची, रायपुर, जयपुर, भोपाल, शिमला और कोलकाता में लगे मेलों में भी कई बार गया हूं। अंग्रेजी के पाठकों और पुस्तक प्रेमियों की जमात तथा अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों (जिनमें हिन्दी भाषियों की बड़ी संख्या शामिल है), पुस्तक प्रेमियों के बीच फांक साफ देखी जा सकती है। आपवादिक उदाहरणों की स्वीकृति के साथ यह बताने में कोई संकोच नहीं है कि अंग्रेजी के पाठक और प्रेमी, हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रेमियों से सामान्यत: समृद्ध देखे जाते हैं। यह भी अकारण नहीं कि भारतीय भाषाओं की पुस्तकों की कीमतों से अंग्रेजी पुस्तकों की कीमतें ना केवल दो से तीन गुना रखी जाती है बल्कि इनके अन्तरराष्ट्रीय बाजार के चलते डॉलर-यूरो में रखी जानी वाली इन पुस्तकों की कीमतें प्रकाशकों-पुस्तक विक्रेताओं को भारतीय भाषाओं की पुस्तकों की कीमत से पांच से दस गुना तक मिलती रही है। यही वजह है कि भारत में अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशक और  पुस्तक विक्रेता अन्य भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं से खासे संपन्न होते हैं। इसी अनुकूलता के चलते पिछले एक अर्से से देश की विभिन्न राजधानियों में आयोजित होने वाले लिटरेचर फेस्टिवल बेहद खर्चीले होते हैं, इनमें शामिल होने वाले दर्शक-श्रोता सामान्यत: खाते-पीते घरानों से  आते हैं। जैसाकि शुरू में कहा कि इस तरह के आयोजन भी जब व्यापार-उद्योग का हिस्सा हो चले हैं, ऐसे में इनके सफलता से संपन्न होने की एक कसौटी यह भी है कि ये निर्बाध और निर्विवाद सम्पन्न हों। इसलिए सावचेती और दस्तूर के तौर पर ऐसे आयोजनों में हिन्दी को पहले ही शामिल कर लिया गया, बाद में विवाद होता देख जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में राजस्थानी को भी जगह दी गई।
भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों में, खासकर हिन्दी के प्रकाशनों में अब यह साफ दीखने लगा है कि समृद्ध प्रकाशक अंग्रेजी प्रकाशकों की देखा-देखी ना केवल पुस्तकों की कीमतें अनाप-शनाप रखने लगे बल्कि अपने-विक्रय केंद्रों और मेले में लगने वाली स्टालों को चकाचौंधी बनाने के लिए भी पैसा खूब खर्चने लगे हैं। ऐसा इस वजह से संभव हो पा रहा है कि प्रकाशन का अधिकांश धंधा अब अपने पाठकों पर आश्रित ना होकर सरकारी खरीदों पर जा टिका है, सरकारी थोक खरीद की स्थिति में उन्हें ऐसी गुंजाइश रखनी होती है कि पुस्तक की कीमत की आधे से ज्यादा राशि उन्हें रिश्वत में देनी पड़े तब भी मुनाफा अच्छा-खासा बचा रहे।
भारतीय भाषाओं के अधिकांश पाठक मध्यम, निम्न मध्यम और निम्न वर्ग से आते हैं, कीमत निर्धारण की यह 'अनीति' पुस्तकों से उन्हें लगातार दूर कर रही हैं। पटना, रांची और रायपुर में आयोजित पुस्तक मेलों में ऐसे पाठकों का दिख जाना सामान्य है जिनके पांव में कारी लगी प्लास्टिक की चप्पल हो या पैबन्द लगी पौशाक भले ही पहने हो,  पढऩे को हजार-पांच सौ रुपये की किताब खरीदने मेले में पहुंचते हैं। ऐसा वे अपना और अपने परिवार का बिना पेट काटे शायद ही संभव कर पाते होंगे। पटना, रांची में गांव से आए ऐसे पाठक भी दिख जाते हैं जो खाने के वास्ते कपड़े की थैली में सत्तु और जेब में प्याज और पतली छोटी-तीखी वाली हरी मिर्च ले आते हैं। ऐसे पाठक साथ लाई गिलास के पानी में सत्तु को घोलते हैं और प्याज कच्ची हरी मिर्च के साथ पेट भर लेते हैं। किताब खरीदने आए ऐसे पाठक अंटी में कहीं छिपाए पांच-सात सौ रुपये निकालते हैं। ऐसे पाठकों को भारतीय भाषाओं के प्रकाशक लगातार नजरअंदाज कर रहे हैं। दिखावा यह किया जा रहा है कि लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजन और पुस्तक मेले समाज में साहित्य-संस्कृति को बढ़ावा देने और पुस्तक प्रेमियों को प्रेरित करने के वास्ते किए जाते हैं। बाजार की गिरफ्त में आए समाज के लिए असल उपभोक्ता मध्यम, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग को ही माना जाने लगा और ऐसे सभी आयोजन केवल ऐसे वर्गों को आकर्षित करने के मकसद से ही डिजाइन किए जाते हैं, ऐसे वर्गों से आने वाले   इस देश की आबादी का बीस से तीस प्रतिशत बमुश्किल होंगे। शेष भारतीय समाज को वंचित समाज मानकर उन्हें उनके हाल पर छोडऩा भयावह तो है ही, अमानवीय भी है।
आयोजक, प्रकाशक और विक्रेताओं के अलावा सरकार के तौर तरीके भी लगातार ऐसे समृद्ध लोगों की अनुकूलताओं में बदले जाने लगे हैं। दिल्ली में आयोजित होने वाले विश्व पुस्तक मेले के आयोजन में पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से वह भाव भी लगातार गायब होता जा रहा है जो शुरू के ऐसे ही आयोजनों में आमजन के अनुकूल देखा जाता था। स्टालों की कीमतें लगातार बढ़ाई जाती है, सुविधाएं कम की जा रही हैं  और अब तो पुस्तक मेले में आने वालों से प्रवेश शुल्क भी वसूला जाने लगा है, जो पहले नि:शुल्क हुआ करता था। यही वजह है कि विश्व पुस्तक मेले में संभागीयों की तादाद लगातार घट रही है, 1200-1300 प्रतिभागियों तक पहुंची यह संख्या इस मेले में आठ सौ तक उतर आई है। आठ सौ के इस आंकड़े में भी एक तिहाई हिस्सा उन धार्मिक संस्थाओं का है जिनका उद्देश्य पठन-प्रवृत्ति को बढ़ावा देना नहीं बल्कि अपने धर्म या सम्प्रदाय का प्रचार करना भर होता है। शेष स्टालों में भी अधिकांश या तो स्टेशनरी से संबंधित होते हैं या अंग्रेजी के प्रकाशक व बुकसेलर। इस पूरे परिदृश्य पर मनन करें तो लगता है भारतीय भाषाओं के पाठक लगातार घट रहे हैं, जो चिन्ताजनक है, हमारे सरोकार यदि साहित्यिक-सांस्कृतिक हैं तो।


19 जनवरी, 2017

Thursday, January 12, 2017

इस तरह की सुर्खियों से क्या हासिल करेंगे यशपाल गहलोत

विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ से बात करें तो यह माना जाता है कि बीकानेर शहर की राजनीति को तीन वर्ग समूह प्रभावित कर सकते हैं, यदि वे व्यवस्थित रणनीति के तहत मतदान करें। ये तीन वर्ग समूह हैंपुष्करणा ब्राह्मण, माली और मुसलिम। शहर में मतदान की जो प्रवृत्ति रही है उसमें देखा यही गया है कि आजादी बाद पुष्करणा ब्राह्मणों में सामूहिक हित चेतना धीरे-धीरे विकसित होती गई। 1967 के चुनावों के बाद इसका प्रभाव भी लगातार देखने में आया बावजूद इसके तब भी जब विरोधी उम्मीदवार एक ही वर्ग से होते हैं।
2003 के विधानसभा चुनावों तक शहर की एक ही सीट थी, शेष शहरी हिस्सा जिसकी बसावट फसील के बाहर की थीकोलायत विधानसभा क्षेत्र के साथ नत्थी था। पुनर्सीमांकन के बाद बने बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में भी प्रभावी तीन वर्ग ही माने जाते हैंअन्तर इतना ही आया कि मुस्लिम व माली तो प्रभावी इस क्षेत्र में भी हैं, तीसरा वर्ग पुष्करणा ब्राह्मणों के स्थान पर राजपूतों का इसलिए है कि यह वर्ग कम होते हुए भी इसके प्रति पीढिय़ों से समर्पित कई वर्ग समूह इसी क्षेत्र में रहते हैं।
1952 के चुनाव का जिक्र जरूरी नहीं लगता। रियासती विलय के तुरन्त बाद हुए ये चुनाव हाउ-झूझूई चुनाव थे। इसी तरह आपातकाल बाद के 1977 के चुनावों को भी छोड़ा जा सकता है। 1957 से 2003 तक के चुनावों पर नजर डालें तो पुष्करणा समाज की व्यवस्थित चुनावी चेतना को समझा जा सकता है। लेकिन मुस्लिम और माली जैसे अन्य दो वर्ग प्रभावी संख्याबल के बावजूद अपनी कोई स्थाई चेतना विकसित नहीं कर सके। मुसलमानों में चेतना का ऐसा अस्थाई हबीड़ा 1972 में जरूर देखने को मिला जब निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मोहम्मद हुसैन कोहरी घोड़ा चुनाव चिह्न के साथ चुनावी मैदान में उतरे। हुसैन का घोड़ा तब मुस्लिम समुदाय के ऐसा चित्त चढ़ा कि सोशलिस्ट और जनसंघी उम्मीदवार भी पीछे रह गए। कांग्रेस के गोपाल जोशी 18,005 वोट लेकर विजयी रहे और जबकि मुहम्मद हुसैन कोहरी 9,877 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे। यूं 1977 के चुनावों में इसी शहरी सीट से जनता पार्टी उम्मीदवार के तौर पर महबूब अली विजयी भले ही रहे लेकिन इसे वर्गीय चेतना की मत-प्रवृत्ति से हुई जीत नहीं कहा जा सकता।
पिछले कुछ चुनावों से बढ़ते साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद किसी अल्पसंख्यक उम्मीदवार का जीतना लगभग असंभव होता जा रहा है। यही कारण है कि असल अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व लोकसभा और विधानसभाओं में लगातार घट रहा है। यह लोकतांत्रित मूल्यों के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।
जातीय धु्रवीकरण के परिप्रेक्ष्य में बीकानेर शहर सीट का एक उदाहरण 1990 के चुनावों में भी देखा गया। जनता दल उम्मीदवार के तौर पर प्रदेश के असल राजनेता मानिकचन्द सुराना अपनी जन्मस्थली बीकानेर विधानसभा क्षेत्र से पहली बार उम्मीदवार बने। सामने कांग्रेस के डॉ. बुलाकीदास कल्ला थे। तब कल्ला की साख उतार पर थी, चुनाव अभियान के दौरान उनकी हार निश्चित-सी लग रही थी। इस चुनाव में सुराना के विपरीत जो बात गई वह थी ओसवाल समाज का चुनाव में हाव खोलना। बस फिर क्या! यही संजीवनी कल्ला के काम आयी, आखिरी दो दिनों में हुए जातीय धु्रवीकरण ने बाजी हार चुके कल्ला को जितवा दिया। जबकि ओसवाल समाज की इस विधानसभा क्षेत्र में वोटों की हिस्सेदारी भले थोड़ी सी हो, इससे पूर्व के सभी चुनावों में इस समाज का बड़ा हिस्सा अपने हित कल्ला के साथ देखता रहा था। तब कल्ला के बारे में कहा जाने लगा था कि चुनाव जीतने की अटकल कल्ला ने हासिल कर ली है। बस जीत का अंतर ही कम-ज्यादा हो सकता है। इस जीत के बावजूद कल्ला की साख का गिरना बराबर जारी रहा। नतीजतन, 1993 में हुए मध्यावधि चुनाव में वे जमीन से जुड़े अपने ही समुदाय के नन्दलाल व्यास से पहली बार हारे।
वर्गीय धु्रवीकरण का सन्दर्भ आज इसलिए ध्यान आया कि अपनी छवि को जुझारू तौर पर स्थापित करने में लगे शहर कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत से संबंधित वह खबर पढऩे को मिली जिसमें उनके पुलिस निरीक्षक से उलझने की बात है। इससे पहले भी हाल ही की मुख्यमंत्री की बीकानेर यात्रा के दौरान वे तब ऐसे ही सनसनीखेज रूप में नजर आए जब वे काले झण्डे दिखाने को मुख्यमंत्री के काफिले के सामने अचानक प्रकट हो लिए। ये दोनों ही घटनाएं यूं लगती है जैसे यशपाल अपने ही समुदाय और अपनी पार्टी के गोपाल गहलोत की कॉपी कर रहे हैं। गोपाल गहलोत भी शहर भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं और सुर्खियां पाने के लिए तब वे ऐसे ही हथकण्डे अपनाते थे।
शहर राजनीति में यशपाल गहलोत कल्ला खेमे से माने जाते हैं। और ऐसा माना जाता है कि वे बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में चुनावी राजनीति करने की सोच ही नहीं सकेंगे। राजनीति में जब यशपाल आ ही लिए हैं, तब शहर अध्यक्षी चुनावी राजनीति की महत्वाकांक्षा जगाए बिना क्या मानेंगी? ऐसे में उनके लिए बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र ही चुनाव लडऩे को बच रहता है। 2013 के चुनावों से कुछ पहले ही कांग्रेस में आए गोपाल गहलोत इस क्षेत्र से चुनाव हार चुके हैं, सुन रहे हैं वे इसी क्षेत्र से 2018 का चुनाव लडऩे की तैयारी में अभी से जुट गये हैं। उनका यह जुटना किस प्रकार का है, नहीं पता लेकिन यशपाल गहलोत के लिए भी दावेदारी जताने का यही क्षेत्र है। ऐसे में कांग्रेस उम्मीदवारी हासिल करने में उनकी भिड़ंत गोपाल गहलोत से होनी है। प्रदेश शीर्ष पर चुनावी कमान किनके पास होगी, बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करेगा। हो सकता है कांग्रेस से राजपूत समुदाय का भी कोई अपनी दावेदारी करे।
गोपाल गहलोत और यशपाल गहलोत दोनों भिन्न साख और छवियों के राजनेता हैं। ऐसे में यशपाल के सुर्खियां पाने के तौर तरीकों की तुलना गोपाल गहलोत से की जाने लगे तो इसे कॉपी करना ही कहा जायेगा। बेहतर यही है कि यशपाल गहलोत को एक ठोस व तार्किक विपक्षी प्रवक्ता की भूमिका निभानी चाहिए। और यह भी कि वे आमजन में अपनी पैठ बढ़ाएं और जमीन से जुड़ें। केन्द्र और प्रदेश दोनों की भाजपा सरकारें अपने आधे कार्यकाल के बावजूद किसी भी वादे पर खरा उतरना तो दूर सचेष्ट भी नहीं दिख रही हैं। ऐसे में ज्यादा जरूरी है आमजन तक इस अकर्मण्यता को पहुंचाया जाए। केवल काले झण्डे दिखाना और सरकारी कारकुनों से उलझना जैसे सांकेतिक प्रदर्शन सुर्खियां तो भले ही दे, अवाम में पैठ नहीं बनाते।

12 जनवरी, 2017