Thursday, May 21, 2020

कोरोना वायरस की बाट जोहते हम भारतीय

मार्च 2020 के अन्त में हम भारतीय ताली-थाली पीट रहे थे और 'गो कोरोना गो' गाते हुए सड़कों पर निकलकर पटाखे फोड़ रहे थे, कोरोना वायरस की कोविड-19 महामारी को लेकर हम ना तब और ना अब कोई खास गंभीर हैं। स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी सावचेतियों का आधा भी निर्वहन नहीं कर रहे हैं। नाक और मुंह ढके  रखने की बहुत सामान्य सी हिदायत के प्रति भी हम गंभीर नहीं हैं। शायद इसलिए कि नाक-मुंह को कपड़े या मास्क से ढकना खुद से ज्यादा दूसरे को बचाने के लिए है। एक-दूसरे से एक-डेढ़ मीटर की दूरी रखने की कोशिश करने वाले को लोग अजीब नजरों से देखने लगते हैं। जातीय छूआछूत से हमें चाहे आज भी परहेज ना हो लेकिन कोरोना से बचने के लिए छूने-छुआने में जो वर्जनाएं हैं, उनसे परहेज जरूर है। शासक ही जब गंभीर ना हो तो नागरिकों से उम्मीद बेमानी है। 
खैर। कल्पनातीत इस संकट पर बिन्दुवार कुछ चर्चा कर लेते हैं।
अभी तक जब वैज्ञानिक एकमत नहीं हो पाये हैं कि यह महामारी किस तरह फैली, लेकिन यह लगभग तय है कि दिसम्बर 2019 शुरुआत में चीन के वुहान शहर में इसके लक्षण पहली बार देखे गये और जब तक इसके लिए सावधानियां बरतीं जाती, तब तक यह वायरस हवाई जहाजों में सवार होकर पूरी दुनिया में फैल चुका था।
चीन के बाद यूरोप के इटली और मध्य-पूर्व के ईरान को इसने सबसे पहले लपेटे में लिया लेकिन ये तीनों ही जान-माल का भारी नुकसान उठाने के बावजूद काफी-कुछ संभल चुके हैं। जहां के शासक डेढ़ होशियार थे, वहां यह वायरस अपना और ज्यादा असर दिखा रहा है, इनमें अमेरिका, फ्रांस, ब्राजील, रूस, इंग्लैण्ड और भारत जैसे देश शामिल हैं। इंग्लैण्ड, फ्रांस और ब्राजील संभलने की कोशिश में हैं। रूस अपने को संभाल लेगा ऐसा लगता है। भारत और अमेरिका के शासक शुरू से ही इस महामारी को मसखरी में ले रहे हैं। ऐसे देशों को ईश्वर पर भरोसा रखना होगा। 13 मार्च, 2020 की अपनी बात के शीर्षक 'दुआ करें : कोरोना के कहर से बचा रहे देश' में इसका संकेत दे दिया था। हमारा देश भारत प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमताओं के बावजूद अब जब कोरोना पीडि़त टॉप 10 देशों की सूची में शामिल होने को है, ऐसे में आने वाला समय ज्यादा चुनौतीपूर्ण इसलिए है कि केन्द्र की हमारी सरकार इसे लेकर ना पहले गंभीर थी ना आज होती दिखाई दे रही है।
—30 जनवरी, 2020 को केरल में कोराना संक्रमित का जब पहला मामला सामने आया, केरल राज्य की सरकार इससे बचाव में लग गई थी। केरल की ही तरह केन्द्र सरकार को तभी मुस्तैद हो लेना चाहिए था। केरल हो लिया तो आज वह इस महामारी से निपटने में सक्षम है। लेकिन प्रधानीमंत्री 'नमस्ते ट्रम्प' नाम से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अहमदाबाद में 24 फरवरी को चुनावी रैली की हां कर चुके थे। दोस्ती का लिहाज इतना कि मोदी ने इस दोस्ती को देश से ऊपर माना। भारत की ही तरह उधर अमेरिका में भी ट्रंप के लिए अमेरिकी जनता को कोरोना त्रासदी से बचाने से ज्यादा इस वर्ष होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को जीतने का जुगाड़ ज्यादा जरूरी है। नतीजा सामने है, अमेरिकी जनता भारी संक्रमण और मौतों से जूझ रही है तो भारत की जनता पर ऐसा ही खतरा मंडरा रहा है। 
ट्रंप अपनी भारत यात्रा में अहमदाबाद, आगरा और दिल्ली गये, तीनों ही शहर इस आपदा से बुरी तरह प्रभावित हैं। एक लाख गुजरातियों से भरे अहमदाबाद स्टेडियम में चार हजार अमेरिकी भी शामिल थे। ज्ञात रहे कि इस रैली से पूर्व अमेरिका में कोरोना संक्रमण फैल चुका था।
ट्रंप की दिल्ली यात्रा के दिन ही शुरू हुई हिंसा मानों पूर्व नियोजित थी। केन्द्र सरकार के अधीन दिल्ली पुलिस इस दौरान किंकर्तव्यविमूढ बनी रही।
ट्रंप के अपने देश लौटने के बाद देश के दोनों शीर्ष शासक नरेन्द्र मोदी और अमित शाह बजाय कोरोना से निपटने के, मध्यप्रदेश की सरकार को गिराने और अपनी पार्टी की सरकार बनाने में जुट गये।
बीच में यह उल्लेख जरूरी है कि 30 जनवरी को सामने आए पहले मरीज के बाद 31 जनवरी को ही कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने सरकार को इस कोविड-19 महामारी से सरकार को सावचेत कर दिया था। 12 फरवरी को फिर उन्होंने चेताया कि कोरोना वायरस हमारे देश के लोगों और हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी अत्यंत गंभीर खतरा है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है हमारी सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। समय रहते इस पर सक्रियता जरूरी है। इसके बाद मीडिया-सोशल मीडिया से लेकर संसद तक राहुल गांधी को जिस तरह से 'ट्रोल' किया गया, वह एक भद्दा उदाहरण है। बावजूद इसके राहुल गांधी बहुत ही सकारात्मकता से बार-बार अपने कर्तव्य का निर्वहन करते रहे हैं। लगातार उनकी खिल्ली उड़ाई जाती रही, क्या इस तरह हम कोरोना महामहारी से बच गये। कोरोना वायरस यहां अपना दायरा लगातार बढ़ा रहा है। इसी बीच कोरोना संक्रमित मरीज लगातार सामने आते रहे। लेकिन शाह और मोदी मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार गिराने और भाजपा की सरकार बनाने में लगे रहे। 
इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 22 मार्च से 31 मार्च तक राज्यव्यापी सीमित लॉकडाउन की घोषणा कर दी, तब जाकर मोदीजी की आंखे खुलीं और 24 मार्च को दिन में शिवराजसिंह को मुख्यमंत्री बनवा कर उसी रात 8 बजे आनन-फानन में मात्र साढ़े तीन घंटे के नोटिस पर रात 12 बजे से 21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषण कर दी। देश जहां था वहीं ठहर भी गया। मोदी का यह निर्णय सर्वथा अव्यावहारिक था।
दूरदर्शिता यह होती कि एक सप्ताह का समय दिया जाता, सेना की मदद से प्रवासी कामगारों-मजदूरों और उन अन्य लोगों को जो किसी किसी काम से घर से दूर थे, उन्हें घर-गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाती। सेना इसे बहुत अच्छे से अंजाम दे सकती थी। सेना का रुतबा जहां लोगों में ना केवल अनुशासन बनाये रखता, वहीं सेना रेलवे, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और स्थानीय सेवाओं की मदद से यात्रा करने वालों को पंजीकृत करती, उनकी जरूरी स्वास्थ्य जांच करवाती और आगे से आगे लोगों को घर तक पहुंचाने की व्यवस्था करती। 
हुआ यह कि जैसे ही लॉकडाउन के दूसरे चरण की घोषणा हुई, मजदूर-कामगारों को परेशानियां सामने दिखने लगी, रोटी-रोजी का संकट और कोरोना की भयावहता भी समझ आने लगी। ऐसे चौफेरी संकट में सामान्य खाता-पीता आदमी भी अपने घर की ओर दौड़ता है, ये तो मजदूर हैं। सरकार ने कोई उम्मीद नहीं दिखाई। थोड़ा बहुत उनके लिए कुछ किया तो संवेदनशील लोगों ने ही अपने स्तर पर किया मरता क्या नहीं करता वाली तर्ज पर ये मजदूर 2-2 हजार किलोमीटर दूर तक के अपने-अपने घर-गांव की ओर पैदल निकल पड़े। भूख-प्यास और दुर्घटनाओं के बावजूद वह चलने को मजबूर हुआ।
कोराना वायरस के कहर से बचने की कोई सूरत नजर नहीं रही है। केन्द्र की सरकार केवल बातें करके ना केवल जिम्मेदारी से मुंह चुरा रही है, बल्कि पहले जो तब्लिगी मरकज की आड़ में एक समुदाय विशेष पर इसकी जिम्मेदारी डालने की कोशिश की वह भी फिस्स हो गई। खुद भारत सरकार का आंकड़ा है कि 24 मार्च को लॉकडाउन की औपचारिक घोषणा से पहले के सवा दो महीनों में 15 लाख लोग विदेश से भारत आये और पूरे देश में फैल गये, ये वो समय था जिसमें कोरोना का संक्रमण विश्वव्यापी हो चुका था। भारत आए उन पन्द्रह लाख में लगभग 200 वे मुस्लिम भी थे जो 13 से 15 मार्च को दिल्ली में आयोजित धार्मिक आयोजन तब्लिगी मरकज में शामिल हुए। इस आयोजन में देशभर से तीन से चार हजार लोग भी शामिल हुए, जो विभिन्न जगह लौट गये। विदेश से आने वालों में कुछ संक्रमित थे, उनसे संक्रमण फैला, इसमें दो राय नहीं है लेकिन केन्द्र की सरकार और उनकी पार्टी के अधिकृत-अनाधिकृत आई-टी सेल के माध्यम से संक्रमण फैलाने का ठीकरा तब्लिगियों पर फोड़ा गया। देश भर में अभियान के तहत उनकी धरपकड़ की गई और प्रचारित किया गया कि ये लोग संक्रमण फैलाने में लगे हैं। जब केवल लक्ष्य करके तब्लिगियों और उनके सम्पर्क में आये लोगों की जांच हुई तब भी देश में कुल संक्रमितों में से वे 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थे। यहां उल्लेखनीय ये भी है कि मरकज के दौरान और उसके बाद भी हाल ही तक अनेक धर्म स्थानों और धार्मिक आयोजनों में हजारों की संख्या में लोग इक_ होते रहे हैं, जिन पर मीडिया और शासन दोनों मौन धारण किये रहते हैं। सरकार से किसी ने पूछा कि 30 प्रतिशत संक्रमण के तो तब्लिगी जिम्मेदार थे लेकिन बाकी 70 प्रतिशत लोग कहां से संक्रमित हुए किसी ने यह भी नहीं पूछा कि 200 तब्लिगियों के अलावा जो 14 लाख 99 हजार 800 लोग देश आकर भारत भर में फैल गये, उनकी जांच हवाई अड्डों पर क्यों नहीं की गई, और क्यों उन्हें क्वारंटीन नहीं किया गया। अब जब संक्रमित तब्लिगी स्वस्थ होकर गौण हो गये, तब भी धारणा ऐसी बना दी गई कि देश में संक्रमण मुसलमानों के कारण फैला। उनके विरुद्ध अनगिनत अनर्गल सूचनाएं और वीडियो जारी हुए, जो झूठे साबित हुए। केवल राजनीतिक लाभ के लिए देश भर के बहुसंख्यक समुदाय में मुसलमानों के प्रति फैलाये गये जहर को इस संकट काल में किसी भी तरह उचित और नैतिक नहीं कहा जा सकता।
नोटबन्दी जैसे मूर्खतापूर्ण निर्णय, बाद इसके हड़बड़ी में लागू जीएसटी कर प्रणाली के चलते देश की अर्थव्यवस्था पहले से ही संकट में थी, कोरोनाकाल में सरकार की लापरवाहियों ने उसे लगभग ध्वस्त कर दिया है। अब इस देश को ईश्वर ही बचा जा सकता है।
अन्त में यही कहना है कि हमें इस कोरोना को हल्के में नहीं लेना है, टीका बने, नहीं बने, क्योंकि एड्स जैसी बीमारी का टीका अभी नहीं बन पाया है। चूंकि इसे हमें लम्बे समय तक झेलना है, इसलिए स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी सावधानियों को अपनाने की शत-प्रतिशत कोशिश करें, इसके अलावा बचाव का कोई उपाय नहीं है। रेलवे के स्लोगन को मन में बिठा लें 'सावधानी हटी दुर्घटना घटीÓ, जो इसलिए भी जरूरी कि कोरोना वायरस चालाक वायरस साबित हो रहा है, जैसे ही कोई उपाय किया जाता है, वह अपनी प्रकृति बदल दूसरे तरीके से धमकता है। शायद इसी आशंका में कोरोना से फैलने वाली 2019 में आई इस बीमारी का नाम जीव विज्ञानियों ने कोविड-19 दिया है, यानी इस वायरस की प्रकृति के देखते हुए हो सकता है इसके कोविड-20 या कोविड 21-22 जैसे वर्जन सामने आएं।
अलावा इसके श्रमिकों का गांवों तक पहुंचना और लॉकडाउन के चौथे चरण में देशव्यापी आवागमन जिस तरह से शुरू हुआ उसमें कोविड-19 के तीसरे चरण कम्युनिटी स्प्रेड की आशंकाएं बढ़ गईं है। ऐसे में कोरोना के साथ जीने की जो सलाहें दी जा रही हैं, उसी तरह कोरोना की वजह से मरने का मन भी हमें बना लेना होगा।
दीपचन्द सांखला
21 मई, 2020