Thursday, March 30, 2017

भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर क्या बीडी कल्ला लिखेंगे?

राज के ठाठ की मंशा से राजनीति में आने वालों में डॉ. बीडी कल्ला भी एक हैं। 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के प्रयोग की असफलता के बाद 1980 के विधानसभा चुनावों से कल्ला ने राजनीति में पदार्पण किया। 1977 के कांग्रेस-प्रतिकूल चुनावों में मोर्चे पर डटने से मुकरे गोपाल जोशी की साख 1980 तक नहीं लौटी थी। अत: कांग्रेस का टिकट हासिल करने में इस अनुकूलता के साथ ही डॉ. कल्ला की दूसरी बड़ी अनुकूलता यह कि वे जिस रामपुरिया कॉलेज में पढ़ाते थे, उसके प्राचार्य रवि तिक्कू का कश्मीरी होना और इस नाते इन्दिरा गांधी तक पहुंच होना भी रही। टिकट मिल गया और जीत भी गये। बिना प्रोफेसरी ग्रेड के तब अपने को प्रोफेसर लिखने से तीसरी अनुकूलता यह बनी कि सूबे की सत्ता में भागीदारी भी उन्हें जल्द ही मिल गई। ऐसी अनुकूलताओं के बाद जैसा सामान्यत: होता है वही डॉ. कल्ला के साथ भी हुआ, भौंहें हमेशा चढ़ी ही रहने लगी। 1980 की पहली जीत के साथ ही घर-बार जयपुर ले गये, ऐसी गलती अधिकांश नेता करते और फिर भुगतते भी हैं। आप जिन बाशिन्दों के प्रतिनिधि हैं, प्रवासी तौर पर वैसा जीवंत सम्पर्क उनसे नहीं रख पाते, जनप्रतिनिधि होने के नाते जैसे सम्पर्क की जरूरत होती है। डॉ. कल्ला तो शासन में आए ही इसलिए कि अपने अफसराना अन्दाज की तुष्टि पा सकें, जमकर उस अफसराना अन्दाज को तुष्ट किया भी। स्थानीय लोक में सर्वथा अगंभीर और बिना सीधे मतलब वाली एक टिप्पणी जब-तब सुनने को मिलती है—'उड़ती उड़ती देखी है, फंसती नहीं देखी।' 1980 के बाद के 1985 और 90 के विधानसभा चुनाव लगो-लग क्या जीते कि 'उड़ती-उड़ती देखने' की डॉ. कल्ला की अवस्था पुख्ता होती गई। इसी खुमारी में 1993 का चुनाव डॉ. कल्ला ने जैसे ही हारा, लोग कहने से नहीं चूके कि कल्ला ने फंसती अब के ही देखी है।
यद्यपि 1998 और 2003 के चुनाव वे फिर जीत गये लेकिन 1980 और 1985 वाला उनका इकबाल फिर नहीं लौटा। लेकिन उनका वह वहम जरूर लौट आया जो पिछली सदी के नौवें दशक में था।
इसके बाद डॉ. कल्ला के रिश्ते में बहनोई और राजनीति के पारिवारिक प्रेरक डॉ. गोपाल जोशी भाजपा में पहुंच गये और अपनी पचहत्तर पार की वय में भी 2008 और 2013, दोनों चुनावों में साले बीडी कल्ला को पटखनी दे डाली।
2013 के चुनावों से पूर्व पार्टियों में टिकटों के बंटवारे के समय भी यह बात उड़ती-उड़ती आयी जरूर थी कि डॉ. बीडी कल्ला ऐसी अनुकूलताओं को टटोल रहे हैं कि बीकानेर पश्चिम से उन्हें भाजपा का टिकट हासिल हो जाए। लेकिन फिर सुना यह गया कि कुछ तो तब कल्ला पूरे साहस के साथ मांग नहीं कर पाए क्योंकि कांग्रेस में जैसी-तैसी भी थी प्रदेश स्तरीय नेता की वे साख बना चुके थे। दूसरा, यहीं से विधायक और बहनोई गोपाल जोशी भी मोर्चे पर डटे रहे और सत्ता हासिल करने की फिराक में भाजपा भी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती थी। ऐसे सब कारणों के चलते 2013 में डॉ. कल्ला का पलटी मारना संभव नहीं हो सका।
लगो-लग दो बार और कुल जमा हार के तीन झफीड़ खा चुके कल्ला का आत्मविश्वास सुनते हैं 2013 से डगमगाया हुआ है। इसलिए वे उन सभी प्रयासों और विकल्पों पर लगातार मंथन में लगे हैं कि 2018 का चुनाव उन्हें हर हालत में जीतना है, इस हेतु कोई कोर-कसर वे रखना नहीं चाहते। इसी कवायद में सुनते हैं कि 35 वर्ष बाद ही सही डॉ. कल्ला अपना घर-बार बीकानेर लौटा लाने की मंशा बना चुके हैं। उम्र के चलते बहनोई गोपाल जोशी को भाजपा से इस बार उम्मीदवारी ना मिलने के कयासों के बीच डॉ. कल्ला भाजपा में अपने प्रभावी संपर्क न केवल अभी भी सहेजे हुए हैं बल्कि कहा जा रहा है कि वे ऐसे नेता के संपर्क में हैं जिन्हें सूबे का संभावित मुख्यमंत्री भी कहा जाने लगा है। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों के बाद अब 2018 का विधानसभा चुनावी परिदृश्य भी लगभग तय माना जाने लगा है, ऐसे में डॉ. कल्ला डगमगाने को पूरी तरह तैयार हैं। डॉ. कल्ला के अंतरंग ठठेबाजी (मजाक) में कहते ही रहे हैं कि कल्ला बायचांस ही कांग्रेस में हैं अन्यथा मानसिकता उनकी संघी की ही है। यह मजाक यदि सही है तो कल्ला के इस तरफ पलटने में किसी वैचारिक या कहें नैतिक संकट की ऊहापोह से भी उन्हें गुजरना नहीं होगा।
2018 के राज्य विधानसभा चुनावों की बिसात जिस तरह बिछती नजर आने लगी है, उसमें कल्ला को भाजपा उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर लेने में चुनाव जीतने के मोदी-शाह के तौर-तरीकों को देखते हुए, इंकार की गुंजाइश कम ही दीखती है। अर्थात् इसे यूं कह सकते हैं कि कल्ला की कुर्सी की कुलबुलाहट खत्म होने के आसार दिखने लगे हैं, जबकि कांग्रेस के सिम्बल पर फिर हारने का संशय लगातार बढ़ ही रहा है। कल्ला यदि भाजपा टिकट से चुनाव जीतते हैं और सूबे में सरकार भी भाजपा की बनती है, ऐसा फिलहाल लग भी रहा है, यदि ऐसा होता है तो कल्ला को नजदीकी तौर पर जानने वालों के हिसाब से कल्ला अपने आजमाए तरीकों से कैबिनेटी भी ले पड़ेंगे। ऐसे में बीकानेर का भला कुछ हो या ना होजो बीकानेरियों की नियति भी लगती है। इतना जरूर है कि भाजपा के युवा नेताओं यथा अविनाश जोशी, विजयमोहन जोशी, विजय आचार्य और कर्मचारी नेता भंवर पुरोहित जैसों की उम्मीदों पर तो पानी फिर ही जाना है। क्योंकि मोदी-शाह की प्राथमिकता बजाय वैचारिक निष्ठा केसत्ता हासिल करना ही है। मोदी और शाह दोनों ही यह अच्छी तरह जानते हैं कि सत्ता है तो सब कुछ हासिल किया जा सकता है। ऐसा वे पहले गुजरात में और फिर केन्द्र में करके दिखा चुके हैं।
रही बात कांग्रेस मुक्त बीकानेर की तो कांग्रेस की बीकानेर शहर इकाई पर जिस तरह 'कल्ला कांग्रेसÓ और 'डागा चौक कांग्रेसÓ की छाप कल्ला-बंधु पुख्ता करवा चुके हैं, ऐसे में शहर कांग्रेस के दफ्तर का बोर्ड ही पलटना है। हाशिए पर लुढका दिए गए अन्य शहर कांग्रेसियों में ऐसी कूवत दिख नहीं रही कि वे शहर कांग्रेस का साइनबोर्ड और झंडा पकड़े खड़े भी रहे सकें। ऐसे में इस आलेख के शीर्षक की सार्थकता पुख्ता ही लग रही है कि भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर क्या कल्ला बंधु लिखेंगे?
रही बात भाईजी जनार्दन कल्ला कि तो वे इस घोर राजनीतिक कलियुग में भी एक आदर्श बड़े भाई की भूमिका में जिस तरह लगे हैं उसमें रावण-कुंभकरण का रामलीलाई संवाद सहज ही स्मरण हो आता है। इसमें राम के लंका पर आक्रमण की सूचना जब रावण कुंभकरण को जगाकर देते हैं तब कुंभकरण ने आक्रमण का कारण जानना चाहा तो रावण ने सीता अपहरण की बात बता दी। कुंभकरण रावण से कहते हैं कि भाई! आपने यह गलत किया है। रावण पलटकर प्रतिप्रश्न करते हुए बताते हैं कि मैं तुमसे ज्ञान लेने नहीं, यह पूछने आया हूं कि तुम युद्ध करने जाओगे कि नहीं। बेबस कुंभकरण का जवाब होता हैइसमें पूछना क्या हैमुझे तो मरना है।
अन्तर्निहित एक संभावना यह भी : पाठक इस आख्यान के मानी समझ ही गये होंगे कि जनार्दन कल्ला भले ही बीडी कल्ला से बड़े हों, रहेंगे वे बीडी कल्ला के साथ ही। इसमें संशय की गुंजाइश कम ही है। हां यह बात अलग है कि कांग्रेस जनार्दन के किसी बेटे पर दावं लगाने को तैयार हो जाती है तो दीखती हार के बावजूद जनार्दन कल्ला डिग सकते हैं, यदि ऐसा होता है तो भले पाठक इसे कलियुग की पुष्टि मानें और भले ही शहर में कांग्रेस के अस्तित्व को बचाने की जनार्दन की कवायद ना मानें। जनार्दन कल्ला राजनीति में अपने किसी पुत्र को लांच करने के ऐसे अवसर का लोभ शायद ही छोड़ पाएं। रही बात राजनीतिक पार्टियों के अस्तित्व की तो जनार्दन कल्ला इसे भलीभांति जानते हैं कि राजनीति में अवसर तो 'उतर भीखा म्हारी बारी' की मानिंद ही है। आज भाजपा तो कल कांग्रेस या कोई अन्य विकल्प, और ऐसे में फिर भले ही बुला काका चुनाव जीत जाएं और भतीजा चाहे हार जाए, डॉ. कल्ला तब 'कांग्रेस मुक्त भारत' का बीकानेर चैप्टर नहीं लिख पाएंगे।
30 मार्च, 2017

दीपचन्द सांखला

Thursday, March 23, 2017

एलिवेटेड रोड की कप'ट' छांण

कोटगेट क्षेत्र में यातायात समस्या बीकानेर के शहरवासियों के लिए सबसे बड़ा संकट है, इसका भान हुए तीस से ज्यादा वर्ष हो रहे हैं। इस दौरान सूबे की सरकार में कई-कई बार और अब तो केन्द्र की सरकार में भी यहां की नुमाइंदगी के बावजूद स्थानीय बाशिन्दे इस आफत को भुगतने को मजबूर हैं।
जैसे-तैसे ही सही, वर्ष 2016-17 के बजट में इस समस्या के सर्वाधिक व्यावहारिक समाधान एलिवेटेड रोड का प्रावधान कर दिया और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की चतुराई कहें या सम्पर्क, बजट के तुरन्त बाद केन्द्र की सरकार ने इस 135 करोड़ रुपये इस के समाधान हेतु देने मंजूर भी कर दिए। सरकार के काम हैं, वह भी वैसी लोकतांत्रिक सरकार के जिसके कामकाजी तरीके उस राजस्थानी कहावत को चरितार्थ करते जब-तब देखे जा सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि 'किणरी भैंस कुण नीरे' यानी परायी भैंस को चारा कौन डालेगा? अर्थात सरकारी कामकाज में कोशिश यही रहती है कि धन सरकारी है तो उसका कचूमर किस तरह निकाला जाय।
कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की बाधा के चलते इससे प्रभावित क्षेत्रों की यातायात समस्या के व्यावहारिक समाधान पर लगभग दस वर्ष पूर्व अच्छी कवायद हो चुकी है। तब आरयूआईडीपी में कार्यरत और भारत सरकार के परिवहन मंत्रालय के सेवानिवृत्त व काफी सुलझे इंजीनियर सरदार अजीतसिंह ने बीकानेर के अभियन्ताओं की टीम के साथ इस समस्या का सर्वाधिक व्यावहारिक समाधान दिया। इसमें बीकानेर के ही अशोक खन्ना, हेमन्त नारंग के साथ-साथ रेलवे के एन के शर्मा जैसे अभियन्ताओं का भी सहयोग लिया गया था। तब एलिवेटेड रोड की योजना बनाते समय यह ध्यान तो रखा ही गया था कि किसी की भी निजी संपत्ति का अधिग्रहण ना करना पड़े और ध्यान यह भी रखा गया था कि इसके निर्माण के बाद प्रभावित केन्द्र के इर्द-गिर्द भविष्य में बढऩे वाले यातायात हेतु आवागमन की जरूरतें भी पूरी होंपरिवहन यान्त्रिकी में यह माना जाता है कि घनी बसावट वाले शहरी आबादी क्षेत्र में एक समय-सीमा के बाद यातायात में गुणात्मक बढ़ोतरी नहीं होती। कोटगेट क्षेत्र का यातायात तब की योजना बनने तक उस समय-सीमा को लांघ चुका था। अत: यही माना गया कि एलिवेटेड रोड की चौड़ाई डबल लेन की ही पर्याप्त है। विदित ही है कि एलिवेटेड रोड पर पार्किंग जैसी कोई बाधा कभी आती नहीं इसलिए उस पर से गुजरने वाला यातायात निर्बाध चलता रहता है। दूसरी बात यह कि नीचे की सड़कें भी जब सुचारु हैं तो फाटकों के खुले रहने पर यातायात नीचे से भी गुजरते ही रहना है। ऐसे में एलिवेटेड रोड के मात्र डबल लेन होने और नीचे के मार्ग के रेलवे फाटक खुले रहने पर यातायात हेतु कम से कम चार लेन की सुविधा तो मिलती ही रहेगी।
दस वर्ष पूर्व यह योजना कुल जमा 24 करोड़ की थी। अब जब एकाएक ही इसके लिए 135 करोड़ रुपये मंजूर हो गए तो राजस्थानी की एक दूसरी कहावत चरितार्थ होती दीखने लगी! सेर की हांडी में सवा सेर ऊर देने की। जब इस समाधान के लिए सर्वे जैसी पर्याप्त प्रक्रियाओं के बाद पारंगत अभियंताओं की टीम ने योजना बना ही छोड़ी है और इसके पक्ष में शहर के नब्बे प्रतिशत बाशिन्दों की सकारात्मक राय भी आ चुकी हो तब मात्र दस वर्ष के अंतराल पर इस पूरी प्रक्रिया को पुन: दोहराना फिजूलखर्ची ही माना जायेगा।
खैर। जब फिजूल की यह कवायद हो ही रही है तो जिस एजेन्सी को यह ठेका दिया जाता है, उसकी मंशा होती है कि योजना को जितना बड़ा बनाएगी, उसका मानदेय उतना ही बढ़ के मिलेगा। इसीलिए इस पूरी कवायद को कपड़छाण नहीं बल्कि कप'' छांण कहा है। इस नये सर्वे में एलिवेटेड रोड को चार लेन में प्रस्तावित करने की योजना बनाई जा रही है। दस वर्ष पूर्व की 24 करोड़ की योजना के लिए जब 135 करोड़ के बजट का प्रावधान आ गया तब इसे 250 करोड़ तक ले जाना और वह भी ऐसी योजना जिसमें कइयों के घर-व्यापार बिना जरूरत के उजाड़े जाने की बात की जा रही है, सर्वथा अनुचित है। ऐसे में बीकानेर के जनप्रतिनिधियों से उम्मीद तो ये की जाती कि वे एलिवेटेड रोड के निर्माण के लिए दुबारा सर्वे की जरूरत को ही खारिज करवाते। इससे ना केवल सर्वे और योजना बनाने में लगने वाले सार्वजनिक धन की बचत होती बल्कि इस योजना के बहाने जो मेन स्ट्रीम मीडिया गैर जिम्मेदाराना तरीके से सनसनीखेज खबरें लगाकर होते काम में बाधक बन रहे हैं, उससे बचाव भी होता।
वर्ष 2006-07 की उस योजना में मात्र इतने ही बदलाव की जरूरत है कि अभी जो इसका रेलवे स्टेशन वाला सिरा मोहता रसायनशाला तक जाना बताया गया है, उसे डीलक्स-ग्रीन होटल तक ही इसलिए उतारने की जरूरत है कि गंगाशहर की तरफ से जो इक तरफा यातायात बिस्किट गली से आता है, उसे इस एलिवेटेड रोड का लाभ सीधे मिल जाए।
महात्मा गांधी रोड और स्टेशन रोड के व्यापारियों को भी अब यह समझने की जरूरत है कि अभी जो लगभग 70 प्रतिशत यातायात इन मार्गों का उपयोग केवल गुजरने के लिए करता है, वह एलिवेटेड रोड से गुजरेगा जिससे उनके ग्राहक तसल्ली से खरीददारी कर सकेंगे और अगर वर्तमान यातायात का यह 30 प्रतिशत इस बाजार से तस्सली से खरीद कर सकेगा तो यहां के ग्राहकों के प्रतिशत में बढ़ोतरी ही होगी। जो ग्राहक भीड़-भड़ाके से बचने को इन मार्गों पर खरीददारी करने अब नहीं आते, सुविधा मिलने पर वे खरीददारी करने इन बाजारों में आने लगेंगे।
शहर की इस सबसे बड़ी समस्या का एलिवेटेड रोड के अलावा कोई अन्य समाधान व्यावहारिक नहीं है। अब विरोध करने वालों पर है कि क्या वे इस समाधान को जल्दी हासिल करना चाहते हैं या विरोध करके इस सुविधा को और देरी से हासिल करेंगे। बाइपास की लॉलीपोप चूसते उन्हें पचीस वर्ष तो हो लिए हैं 'ना नौ मन तेल होना है और ना ही राधा को नाचना है।'
23 मार्च, 2017

दीपचन्द सांखला

Thursday, March 16, 2017

'जिसे डूबना हो डूब जाते हैं सफीनों में' (एक पुराने आलेख का पुनर्पाठ)

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व और दिसम्बर, 2013 में राजस्थान सहित पांच विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद डूबती कांग्रेस के कारणों पर चर्चा करते हुए सांध्य दैनिक 'विनायक' ने 18 जनवरी, 2014 के अपने अंक में 'जिसे डूबना हो डूब जाते हैं सफीनों में' शीर्षक जो सम्पादकीय लिखा था, उसी आलेख को उत्तरप्रदेश सहित हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद पुन: पढ़ा जा सकता है। बल्कि 2014 में हुए लोकसभा चुनावों और बाद में आए छिटपुट चुनाव परिणामों में कांग्रेस की लगातार होती दुर्गति तब के 'विनायक' के इस सम्पादकीय की पुष्टि ही करती दीखती है। हाल ही के चुनाव परिणामों के बाद भी कांग्रेस अपने को नहीं संभालती है तो मोदी एण्ड शाह एसोसिएट के 'कांग्रेस मुक्त भारतÓ के नारे को वह पुष्ट ही कर रही होगी। व्यावहारिक भारतीय राजनीति को कांग्रेस अब तक किसी न किसी चामत्कारिक व्यक्तित्व के भरोसे जिस तरह हांकती रही है, उसमें राहुल गांधी कहीं फिट नहीं होते दिख रहे हैं। राजनीतिक विकल्पहीनता के चलते देश का लोकतंत्र जैसी भी दुर्गति को हासिल होगा उसकी बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस को भी माना जाएगा। वही कांग्रेस जिसकी संगठनात्मक क्षमता के भरोसे ही देश को आजादी हासिल हुई थी। खैर! 'विनायक' तीन वर्ष से भी ज्यादा पुराने इस सम्पादकीय को उसी पुराने शीर्षक के साथ पाठकों के लिए पुन: प्रकाशित करना प्रासंगिक मान रहा है।
'चूहों की बेचारगी की एक कथा प्रचलित है जिसमें बिल्ली के उन पर झपटने और खाए जाने से बचने की युक्ति तो उन्हें सूझ गई पर ये नहीं सूझा कि युक्ति के अनुसार बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौने? ऐसी-सी बेचारगी इन दिनों तमाम कांग्रेसियों में देखी जा सकती है, बल्कि इनकी स्थिति तो और भी बदतर है। अपने तईं ये सभी जानते हैं कि 2014 के चुनाव का बेड़ा राहुल गांधी के चलते पार नहीं लगने वाला, बावजूद इसके इस बात की हिम्मत कोई नहीं कर रहाजो कहे कि नेतृत्व के अन्य किसी विकल्प पर विचार तो कर लें। लगता है सभी कांग्रेसी प्रणव मुखर्जी के 1984 के सबक को हिये से लगाए बैठे हैं, सभी जानते है कि नेतृत्व की आकांक्षा करने भर से ही मुखर्जी को पार्टी से बाहर का रास्ता देखना पड़ा गया था।
राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित ना करने की रणनीति चाहे किसी कारण हो पर सभी जानते हैं कि बिल्ली के भाग का छींका यदि टूट गया तो दही पर लपकने का विशेषाधिकार किसे होगा? पांच में से चार विधानसभाई चुनावों के बाद और आगामी लोकसभा चुनावों से पहले कल दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हुई जिसमें राहुल गांधी लगभग 'जंजीरी' अमिताभ के रूप में प्रकट हुए। चूंकि राहुल अपने अमित अंकल की तरह अभिनय में पारंगत नहीं हैं सो कल भी और इससे पहले की विभिन्न आम सभाओं में इस रूप के पूर्वाभ्यासों में भी वे बनावटी लगते रहे हैं। राहुल को अभी तक यह समझ नहीं आया है कि कांग्रेस इस गत में पहुंची कैसे और यह भी कि जिन अधिकांश कांग्रेसियों को इसकी समझ है वे या तो चूहों की सी सहमी और भयभीत स्थिति में हैं या जो चतुर हैं वे सभी उस कथा के दरबारी की तरह हैं जिसमें राजा को एक चतुर द्वारा सुझाई गई 'अदृश्य पोशाक' पहन कर दरबार में आने पर उन्हें नंगा कहने की हिमाकत कोई दरबारी इसलिए नहीं करता कि रहना इसी रियासत में है सो राजा को नाराज कौन करे।
राहुल की मां और सप्रंग चेयरपर्सन सोनिया गांधी भली महिला लगती हैं। उन्हें भी असल स्थिति का भान नहीं है, जितना उन तक पहुंचाया जा रहा, वह उसे ही सच मान रही हैं। कांग्रेसी इमारत को दरकने से बचाने की जिन टगों का जिक्र कल राहुल ने उक्त बैठक में किया, लगता नहीं है उनमें से कोई उसे बचाने में कारगर होगी। महंगाई-भ्रष्टाचार कम करने का भरोसा, महिलाओं को पुरुषों के समान भागीदारी, 'आपÓ पार्टी की तर्ज पर लोगों से पूछ कर उम्मीदवार तय करना और चुनावी घोषणापत्र बनाना, अनुदानित एलपीजी सिलेंडरों को बढ़ाने जैसे उपायों से ही कुछ होना जाना था तो कम से कम राजस्थान में कांग्रेस इक्कीस विधायकों के आंकड़े में नहीं सिमटती। कांग्रेस नेतृत्व में पिछले दस साल से केन्द्र में चल रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की साख दरअसल इस कदर खराब हो चुकी है कि बड़े-बड़े निष्पक्ष विशेषज्ञों को भी इस खराबे से उबरने के उपाय नहीं सूझ रहे हैं। राहुल के सलाहकार प्रतिभाहीन-प्रतिभाशाली जैसे भी हों वे सब सिर्फ और सिर्फ ठकुर-सुहाती कहने में लगे हैं और राहुल उस विवेकहीन निर्वस्त्र राजा की मुद्रा में। विडम्बना देखें कि राहुल की ऐसी मुद्रा पर कांग्रेसियों के चेहरों पर हंसी तो दूर मुसकराहट की सहज प्रतिक्रिया भी नहीं देखी जा रही है। ऐसे में 'विनायक' असदुल्लाह खां साहब 'गालिब' का स्मरण भर ही कर सकता है।'
मुझे रोकेगा तू ऐ नाखुदा गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो डूब जाते हैं सफीनों में
दीपचन्द सांखला

16 मार्च, 2017

Thursday, March 9, 2017

देवीसिंह भाटी अपने को बूढ़ा शेर क्या मानने भी लगे हैं

पढ़ा-सुना तो था ही, टीवी चैनलों के एनिमल प्लानेट सरीखे कार्यक्रमों में देख भी लिया कि जंगल का शासक कहलाने वाला शेर जब अपने को बूढ़ा मान लेता है तो उसे पलायन ही करना होता है। 2013 का विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद से ही देवीसिंह भाटी जब-तब 'उखडिय़ा' बयान देते रहे हैं। 1980 के साल से चुनावों में लगातार कोलायत क्षेत्र से जीतते रहे देवीसिंह के लिए 2013 की चुनावी हार अपच बन गई। पार्टियों को डांग पर रख सात चुनाव जीतने की खुमारी में देवीसिंह और उनसे लाभ उठाने वाले तथाकथित समर्थकों को यह भान ही नहीं था कि लोकतंत्र में अजेय कोई होता नहीं।
प्रदेश की सरकार में वर्षों प्रभावशाली प्रतिनिधित्व कर भी उनका चुनाव क्षेत्र कोलायत आज भी सर्वाधिक पिछड़े विधानसभा क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। इस क्षेत्र को लोक की क्षेत्रीय शब्दावली में मगरा भी कहा जाता है और इसी बिना पर देवीसिंह के हाजरिये उन्हें मगरे का शेर भी कहने लगे। और बात जब जंगलराज के रूपक में हो तो 2013 की देवीसिंह की हार को इस तरह भी कह सकते हैं कि भंवरसिंह भाटी जैसे युवा शेर ने देवीसिंह जैसे बूढ़े शेर को इलाके से खदेड़ दिया।
गई 24 फरवरी को जोधपुर में राजनीति से देवीसिंह की संन्यास की घोषणा को जंगलराज रूपक में देखें तो लगता है इस तरह के बयान देने को देवीसिंह तभी मजबूर होते हैं जब वे अपने को बूढ़ा मान लेते हैंऐसा मानना भर ही जंगलराज में आयु पूरी कर रहे होते शेर को इलाका छोडऩे को मजबूर करता है। इस तरह की मंशाएं जाहिर करने और उससे पलटने के कई कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण तो वे समर्थक ही हैं जो देवीसिंह की 'हाऊड़ाÓ छवि से केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करते रहे है। ऐसों को लगता है कि देवीसिंह यदि राजनीति से संन्यास ले लेंगे तो उनका 'होकड़ा' (मुखौटा) दिखाकर अब तक जिस तरह वे अपने हित साधते रहे हैं, वे बन्द हो जाएंगे। ऐसा लगता है कि ऐसे ही हाजरिये किस्म के लोग संन्यास की मंशा जाहिर करते ही देवीसिंह की बिरुदावली गाकर पुन: उन्हें राजनीति में खदेड़ देते हैं और ये भ्रम करवा देते हैं कि शेर अभी बूढ़ा नहीं हुआ है।
बार-बार की ऐसी घोषणाओं और फिर उससे पलटने का दूसरा कारण उनकी नियति को भी मान सकते हैं। उनके परिवार में जिस तरह लगातार हादसे हुए और स्थितियां ऐसी बनी कि पुरुष प्रधान समाज के हिसाब से उनके वारिस एकमात्र पौत्र की उम्र लोकतांत्रिक व्यवस्था के हिसाब से 2018 के चुनाव तक 25 की नहीं होगी। इसलिए अगला विधानसभा चुनाव लडऩे की पात्रता ही वे हासिल नहीं कर सकेंगे। अन्यथा हो सकता था कि सामन्ती घराने से आए देवीसिंह को अपने पौत्र के लिए राजनीति में अपनी सक्रियता बनाए रखने का हेतु मिल जाता। ये परिस्थिति भी शायद देवीसिंह में जब-तब वैराग जगाती है।
तीसरे कारण की तह में कोलायत से वर्तमान विधायक भंवरसिंह भाटी हो सकते हैं। अपने क्षेत्र और विधानसभा दोनों स्थानों में जिनकी सक्रियता देवीसिंह का आत्मविश्वास डिगा देती होगी, हो सकता है देवीसिंह ऐसा सोचते हों कि इस जवान ने 2018 में यदि पटखनी फिर दे दी तो उम्र के इस मुकाम पर वे कहीं के नहीं रहेंगे। धीर और हंसमुख भंवरसिंह भले ही मगरे के शेर की अपनी छवि ना बना रहे हों पर वे अपने क्षेत्र के मतदाताओं में अपनेपन की छवि बनाने की जुगत में जरूर लगे हुए हैं। जबकि देवीसिंह भाटी यह अब तक भूले हुए ही हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में शेर की छवि से अपनेपन की छवि ज्यादा कारगर होती है।
लगे हाथ पिछले कुछ वर्षों से देवीसिंह भाटी के उस नये आयाम के संबंध में बात कर लेते हैं जिसमें वे देशी नुसखों के आधार पर इलाज करने और ऐसे नुस्खों से संबंधित पुस्तकें अपने नाम से छपवाकर विक्रय करवाने में लगे हैं। 24 फरवरी को देवीसिंह ऐसी अपनी पुस्तक के विमोचन के सिलसिले में जोधपुर गये थे और पत्रकारों के समक्ष राजनीति से संन्यास की घोषणा कर बैठे।
देवीसिंह भाटी शासन का हिस्सा रहे चुके हैं। अत: यह मानकर चला जा सकता है कि सामान्य नियम-कायदों की जानकारी उन्हें होगी ही। ऐसे में न्यूनतम आरएमपी जैसे सर्टिफिकेट के बिना उनके द्वारा इलाज करना और तत्संबंधी पुस्तकें छपवाकर विक्रय करना क्या स्वास्थ्य संबंधी नियम-कायदों का उल्लंघन नहीं हैï? क्या ऐसी प्रेक्टिस नीम-हकीमी में नहीं आती है। समर्थक कह सकते हैं कि ऐसा बहुत लोग करते हैं, और कुछ हेकड़-समर्थक यह कहने से भी शायद ही चूकें कि किस अधिकारी में दम है कि वह देवीसिंह पर हाथ बढ़ाए। लेकिन तब भी ऐसे सब-कुछ किये को गैर कानूनी के साथ-साथ क्या अनैतिक भी नहीं कहा जायेगा? कानून और नियम-कायदों को अपने प्रभावों से डांग पर भले ही कोई रख ले मगर अनैतिक कृत्य तो खुद के भीतर झांकने पर कचोटते ही होंगे! देवीसिंह भाटी को उनके समर्थक भले कहें शेर ही, वे अन्तत: हैं तो मनुष्य ही और मनुष्य कितना ही कठोर क्यों न हो, संवेदनाएं कहीं भीतर दुबकी होती ही हैं और वह कचोटे बिना नहीं रहती।
दीपचन्द सांखला

9 मार्च, 2017