Thursday, May 25, 2017

तलाक.तलाक.तलाक

शुरू में ही यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ऐसा कोई सामाजिक व्यवहार, यहां तक, कोई रीति-रिवाज भी, जो किसी लिंग, जाति, धर्म और वर्ग समूह को दोयम हैसियत देता है, उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। और यह भी कि इस विषय पर चर्चा करने का यह मकसद कतई नहीं है कि मुसलिम समुदाय में विवाह विच्छेद के इस शरीअती तरीके में आ गई व्यावहारिक बुराइयों का समर्थन किया जा रहा है। लेकिन वर्तमान केन्द्र सरकार ने इसे जब बहस का मुद्दा बनाया और उच्चतम न्यायालय ने भी पांच विभिन्न समुदायों के जजों की पीठ कायम कर जिरह को न्योता तो लगा इस विषय पर चर्चा करने का यह सही अवसर है। केवल मुसलमानों की ही क्यों अन्य भारतीय समुदायों की स्त्रियां भी स्त्री-धर्म के नाम पर वैवाहिक रिश्तों को ढोती और सहन करती रही हैं। अपनी जितनी जानकारी है, उतनी चर्चा कर लेते हैं :
     अपराधों पर नियंत्रण और व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहुत से कानून-कायदे बने हैं और इनसे बच निकलने की गलियां जिस तरह निकाल ली जाती हैं वैसे ही विवाह विच्छेद की इस शरीअती व्यवस्था में भी पुरुष-वर्चस्वी अनुकूलताएं भी रूढ़ हो गई हैं।
     पुरुष प्रधान या कहें पुरुषों में भी उच्चवर्गीय पुरुषों की अनुकूलताओं के लिए बनी इस समाज व्यवस्था के अधिकांश रीति-रिवाजों और नियम कायदों तक में स्त्रियों व समाज के निम्न वर्गों के प्रति गैर बराबरी कहीं बारीकी से तो कहीं खुल्लम-खुल्ला जाहिर होती है जिससे ज्यादा प्रभावित स्त्रियां ही होती हैं। इसे इस तरह समझ सकते हैं : भारतीय समाज व्यवस्था में कोई वर्ग यदि दूसरी-तीसरी या चौथी हैसियत पाए हुए है तो उस वर्ग की स्त्री की हैसियत अपने वर्ग के सामाजिक दर्जे से एक दर्जा नीचे ही होगी। कानूनों और आरक्षण जैसी व्यवस्था के उदाहरण आजादी के सत्तर वर्षों बाद भले ही हम दें लेकिन असमानताएं इतनी बारीक काती जाने लगी है कि ये भेद अब दिखाई भी कम देते हैं।
     तलाक.तलाक.तलाक के बहाने अब इस मुद्दे के राजनैतिक उपयोग की बात कर लेते हैं। तीन तलाक जिस तरह व्यवहार में लाया जाने लगा है वह स्त्री विरोधी ही नहीं घोर अमानवीय भी है। इस शरीअती व्यवस्था का दुरुपयोग भले ही मुसलिम समुदाय के थोड़े पुरुष ही करते हों, केवल इसलिए इसकी चर्चा से इनकार नहीं किया जा सकता। इसकी चर्चा राजनैतिक लाभ के लिए की जाने लगी है, वह गलत है।
     बात अपने शहर के हवाले से ही करते हैं। इस शहर में हिन्दू-मुसलिम आबादी का अनुपात लगभग वही है जितना इस देश की आबादी में इन दोनों समुदायों का है। हर तबके के मुसलिमों से परिचय है, तीन तलाक का कोई मामला नहीं सुना। मतलब जो बुराई एक समुदाय में बहुत कम पायी जाती है उस पर चर्चा ना केवल सरकारी नुमाइंदे जोर-शोर से करने लगे हैं बल्कि लगभग पूरे मीडिया में अधिकांश चर्चा इसी विषय पर इन दिनों हो रही है। इस मुद्दे पर न्यायालय की सक्रियता पर अंगुली उठाना ठीक नहीं। लेकिन जो समय चुना गया और जिस तरह की तत्परता दिखाई गई है, उससे सन्देह तो बनता ही है। फिर भी किसी बहाने ही सही अगर समाज के किसी भी वर्ग को कोई स्थाई सुकून हासिल हो सकता है तो वह स्वीकार्य है।
                ऐसे मुद्दों का राजनीतिक लाभ उठाने की दोषी मात्र यही सरकार नहीं है। शाहबानो नाम की तलाकशुदा मुसलिम महिला ने सात वर्ष की कानूनी लड़ाई के बाद 1985 मेंं उच्चतम न्यायालय में गुजारा भत्ते का मुकदमा जीत लिया। प्रगतिशील माने जाने वाले राजीव गांधी तब आज की मोदी सरकार से भी ज्यादा बहुमत के साथ सरकार में आए थे। मौलवियों के दबाव में अपने बहुमत का उन्होंने दुरुपयोग किया और उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले को कानून बना कर उलट दिया। उनके इस तरह के लिजलिजेपन ने भी वर्तमान सरकार को सब-कुछ मन माफिक करने की अनुकूलता दी है।
ठीक इसके बरअक्स हिन्दू समुदाय की विवाह व्यवस्थाओं में स्त्रियों के साथ क्या-क्या होता है उसका कुछ जिक्र भी कर लिया जाना चाहिए।
     मुसलिम समुदाय में तीन तलाक के बाद शरीअती आधार पर स्त्री दूसरा जीवन साथी चुनने को स्वतंत्र हो लेती है। लेकिन हिन्दू समाज में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें पत्नी को बिना किसी कायदे के छोड़ दिया जाता है। सामाजिक रूढिय़ों के चलते वह स्त्री जीवनभर उसी को पति मानने पर मजबूर होती है जिसके साथ उसकी शादी हो चुकी।
     मुसलिम समाज की तरह ही हिन्दुओं के कई समाजों में भी एक से अधिक पत्नियां रखने की छूट है। ऐसी प्रथाओं में अधिकांशत: स्त्री ही पीडि़त व प्रताडि़त होती है। ऐसा पहली पत्नी की रजामंदी के बिना, यहां तक कि उसे सूचना दिए बिना ही होता है। एक प्रथा जिसमें स्त्री को रखेल जैसे अपमानजनक शब्द से संबोधित किया जाता है उसमें स्त्री को पत्नी का दर्जा दिए बिना रखने का चलन भी समाज में जारी है। एक दलित समुदाय में तो ऐसा भी है जिसमें दो पुरुष रीति-रिवाज की आड़ में अपनी पत्नियों की अदला-बदली बिना उनकी सहमति के जब इच्छा हो तब कर लेते हैं। ऐसा होना भी उतना ही निंदनीय है जितना तीन तलाक दिया जाना।
प्रश्न यह बनाता है कि घोर अपमानजनक ऐसे रीति-रिवाजों, प्रथाओं और बिना नियम-कायदों के भी स्त्रियों के साथ होने वाले ऐसे व्यवहारों पर तीन तलाक की तरह चर्चाएं क्यों नहीं हो रही हैंं। आपवादिक उदाहरण कृपया ना दें। आदर्श उदाहरण गिनती के ही मिलते हैं इसीलिए उन्हें अपवाद कहा जाता है।
यहां फिर स्पष्ट कर दूं कि व्यक्तिगत तौर पर हर उस प्रथा, रीति-रिवाज और शरीअत या धार्मिक व्यवस्था की चर्चा और आलोचना करता रहा हूं जिसमें लिंग, धर्म, जाति और आर्थिक हैसियत के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव किया जाता हो। इसीलिए यह भी मानता हूं कि स्त्री की दोयम हैसियत इस पारिवारिक व्यवस्था का ही अभिन्न अंग है, इस व्यवस्था के रहते स्त्री को पुरुषों की बराबरी का हक मिलना लगभग असंभव है।
यह सरकारें अपने को बनाने, बनाए रखने और अपनी असफलताओं को आड़ देने के लिए भी जब-तब ऐसे मुद्दों को हवा देती रहीं हंै ताकि सनसनी पैदा हो और उसकी सुर्खियों में उनका निकम्मापन छिप जाए। जनता ऐसी चतुराइयों को जब तक समझना शुरू नहीं करेगी तब तक शासकों की पोल यूं ही चलती रहेगी।
दीपचन्द सांखला

25 मई, 2017

Thursday, May 18, 2017

मोदीराज के उपलब्धिविहीन तीन वर्ष : पस्त विपक्ष, बेधड़क संघ और धर्मच्युत मीडिया व बौद्धिक

पूर्ण बहुमत के साथ केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को तीन वर्ष हो लिए हैं। 2013 के चुनावों में राज्य की अधिकांश विधानसभाई सीटों और 2014 में लोकसभा की 282 सीटों पर काबिज हुई भाजपा को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों ने झटका जरूर दिया, लेकिन बाद में कुछ राज्यों में हुए चुनावों में भाजपा न केवल अपना प्रभाव बढ़ाने में सफल रही बल्कि कुछ उन क्षेत्रों में काबिज होने में सफल हुई जहां काबिज होने की उम्मीद 2012-13 में कोई भाजपाई भी नहीं रखता था। यह करिश्मा अकेले नरेन्द्र मोदी का और बाद के चुनावों में उनके प्रमुख या कहें एकमात्र विश्वसनीय सहयोगी अमित शाह का ही है। मूल्यों की राजनीति में विश्वास ना कभी नरेन्द्र मोदी का रहा है और ना ही अमित शाह का। अंगुली इन्हीं पर क्यों उठाएं ये दोनों जिस संघ के स्कूल से दीक्षित हैं वहां भी मूल्यों की राजनीति को कोई स्थान नहीं है। इनकी सोच और क्रियान्विति का आधार एक संकीर्ण विचारविशेष ही रहा जो कहने भर को भारतीय है लेकिन व्यवहार में ना भारतीय है और ना व्यावहारिक ही। बहस और चर्चा का यह अलग मुद्दा हो सकता है, फिलहाल मोदीराज के तीन वर्षों पर सरसरी निगाह डाल लेते हैं।
नरेन्द्र मोदी जिन-जिन वादों के साथ सत्ता में आए उनमें से किसी एक भी वादे पर वे खरे उतरे हों, नहीं लगता। अब तो इनके राज को भी तीन वर्ष हो लिए हैं, कांग्रेस राज की आड़ भी लेने लायक वे अब नहीं है। कांग्रेस नीत संप्रग का राज नाकारा साबित हुआ तभी भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ राज मिला! इस तरह का बहु     मत लोकसभा में किसी एक पार्टी को पिछले तीस वर्षों में नहीं मिला है। भरोसा इससे ज्यादा तो जनता और क्या करती। जिन मुद्दों पर कांग्रेस के शासन को कठघरे में खड़ा कर मोदी शासन में आए, अब उन पर एक नजर डाल लेते हैं
भ्रष्टाचार ज्यों-का-त्यों जारी है बल्कि रिश्वत की दरों में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हुई है। जो काम पहले बिना दिए लिए नहीं होते थे वे आज भी अधिक धन पर ही होते हैं। 2012-13 में अन्ना हजारे के बनाए ज्वार पर सवार हो सत्ता की ओर अग्रसर हुई भाजपा उस आन्दोलन की मुख्य मांग लोकायुक्त नियुक्ति को ही भूल गए आज तीन वर्ष बाद भी लोकायुक्त की नियुक्ति बाट जोह रही है। अलावा इसके कांग्रेस जिस आरटीआई और सीएजी की शिकार हुई उसका हश्र देखने लायक हैं। बावजूद इसके अन्ना हजारे चुप है जिससे लगता है कि भाजपा ने अन्ना का उपयोग मात्र 'टूल' की तरह ही किया और भ्रष्टाचार पकडऩे की उन सब व्यवस्थाओं को निष्क्रिय कर भाजपा निश्ंिचतता से राज भोग रही है। वे इतमिनान में इसलिए भी है कि कांग्रेस को काटने वाले सांप के दांत इन्होंने निस्तेज कर दिये। कानून व्यवस्था के मामलों के आंकड़ें देखेंगे तो पाएंगे कि बलात्कार, रंगदारी, गुंडागर्दी आदि-आदि के मामलों में कोई कमी नहीं आई है। बल्कि धर्म, उच्च जाति, गाय और युवक-युवती की मित्रता को लेकर नई सोच के नये तरीके के ऐसे गिरोह सक्रिय हो गए हैं जिन पर हाथ डालते पुलिस भी सकुचाती है।
किसानों की समस्याएं ज्यों-की-त्यों हैं। कर्जदार किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ों में कोई कमी नहीं आई। भू-अधिग्रहण के भाजपाई प्रावधानों पर आमजन और विपक्ष का संगठित विरोध दर्ज नहीं होता तो किसानों के हालात और बदतर होते।
मोदीजी के इस राज में नक्सल समस्या और विकराल हुई है। इसे नक्सल या माओवादी समस्या कहें भले ही, दरअसल यह समस्या खड़ी ही आदिवासियों के नैसर्गिक हकों (जल, जंगल, जमीन) पर सरकार के सहयोग से कोरपोरेट घरानों के अतिक्रमणों से हुई है। कांग्रेस या अन्य गठबंधन शासनों में भी नीतियां कॉरपोरेटों की लूट को खुली छूट देने की रही। भाजपा तो विचार से भी कॉरपोरेट की पक्षधर रही है। यह भी एक कारण है कि नक्सल या माओवादी आदिवासियों का समर्थन पाने में इस राज में ज्यादा सफल हो रहे हैं। सभी तरह की सरकारें सनक में कभी यह स्वीकार नहीं करेंगी कि जिन्हें वे माओवादी या नक्सली हिंसा कहती हैं वह दरअसल आदिवासियों के नैसर्गिक हकों की लड़ाई है, हां लड़ाई का तरीका उन्होंने जो हिंसक अपना लिया उसे गलत कह सकते हैं। उन्हें यही तरीका शायद बताया जा रहा हो। अहिंसक लड़ाई ज्यादा कारगर हो सकती है, पता नहीं हम भारतीय अपनी आजादी की सफल अहिंसक लड़ाई को इतना जल्दी क्यों विस्मृत कर गये। इन तीन वर्षों में मोदी इस मोर्चे पर भी पूरी तरह विफल रहे हैं।
पड़ोसी देशों के मामले में भी मोदीजी के खाते में विशेष तो क्या कोई छोटी-मोटी उपलब्धि भी नहीं गिनाई जा सकती। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में बुलाया, फिर अचानक उनके जन्मदिन पर लाहौर पहुंच गए। बावजूद इसके ना केवल सीमा पर तनाव बढ़ा है बल्कि कश्मीर में घुसपैठ भी लगातार जारी है। इतना ही नहीं, डेढ़ पसली के पिछले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के राज में जो कभी नहीं हुआ वह हमारे इन छप्पन इंची वाले प्रधानमंत्री मोदीजी के शासन में हो गया। आतंकवादी पठानकोट के वायु सैन्य हवाई अड्डे के भीतर तक पहुंच गये।
देश की सबसे संवेदनशील समस्या कश्मीर के हालात इस शासन में इतने खराब हो गये जितने पिछले बीस वर्षों में कभी नहीं रहे। कश्मीरियों का जनजीवन जैसे तैसे भी पटरी पर आने लगा था जो पिछले दो-तीन वर्षों में और भी नाउम्मीदी को हासिल हो गया है। नये तरीके का जो असंतोष कश्मीर में शुरू हुआ है वह ज्यादा चिन्ताजनक है। अब तक जो भी हिंसा होती थी वह या तो आतंकवादियों की तरफ से होती या पाकिस्तानी सुरक्षा बलों की तरफ से या फिर प्रतिरक्षा या प्रतिहिंसा के तौर पर भारतीय पुलिस या सुरक्षा बलों की ओर से। अब जो जन असंतोष पनप रहा है वह ज्यादा खतरनाक है। युवक और युवतियां पत्थरों के साथ सड़कों पर ज्यादा उतरने लगे हैं। इस सरकार ने उन पर काबू पाने के वास्ते जिस पैलेट गन का प्रयोग करना शुरू किया उसने भी आग में घी देने का काम किया है। यह जवाबी कार्यवाही घोर अमानवीय भी है। कानून व्यवस्था को सम्हालने का यह तरीका हमारे उस सामूहिक दावे को खारिज भी करता है कि शेष देशवासी कश्मीरियों को भी भारतीय मानते हैं।
चीन को भी प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की ही तरह उस सामान्य घरेलू पड़ोसी की तरह साधना चाहा है, जिस तरह से कोई नया पड़ोसी आता है और आस-पास के बाशिन्दों से मेल-मुलाकात का स्वांग रचता है। मोदीजी ने चीनी राजप्रमुख को साबरमती के किनारे बुलाया और उन्हें झूले-झुलाए। इसी तरह मोदी ने अपने शुरू के डेढ़ वर्ष दुनिया के कई देशों की यात्रा पर जाया किए। जाया करना इसलिए कहा कि वे कहीं से विशेष कुछ हासिल नहीं कर पाए। झूला झुलाने के बावजूद चीन ना केवल सुरक्षा परिषद में भारत के विरोध में अड़ा रहा बल्कि वह चीन जो हमारे अपने अरुणाचल प्रदेश में रेल लाइन का विरोध करता और धमकाता है, वही चीन, पाक अधिकृत कश्मीरजिसे हम अपना अभिन्न अंग मानते हैं, उसी पीओके में से चीन 'वन बेल्ट वन रोड' योजना को पाकिस्तान को साथ लेकर शुरू कर रहा है। ना मोदी से उसने सलाह की जरूरत समझी और ना ही मोदीजी की सरकार ने पाकिस्तान को कोई विरोध दर्ज कराने की रस्म अदायगी निभाई। जो पार्टी अब तक नारा लगाती थी कि 'दूध मांगोगे खीर देंगे, कश्मीर मांगेगे तो चीर देंगे' उसी पार्टी के शासन में चीन उसी कश्मीर को चीरते हुए अरब सागर तक इस योजना को अंजाम दे रहा है।
'बराक-बराक' संबोधन के साथ अमेरिका में मित्रताई घुसपैठ की कोशिश मोदीजी ने बहुत की, लेकिन कहा जा रहा है कि कुल छह में से एक अमरीकी यात्रा ही अधिकृत थी। और उस यात्रा के दौरान भी हवाई अड्डे पर मोदीजी की अगवानी हेतु कोई सम्मान्य आधिकारिक नहीं पहुंचा। अब तो हो यह रहा है कि उसी अमेरिका में भारतीय और भारतीय मूल के लोगों को हिकारत से देखा जाने लगा है, यहां तक कि कई भारतीयों को वहां जब-तब मारा भी जाने लगा है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की ऐसी दयनीय स्थिति तब है जब इस देश में उन्हीं प्रधानमंत्री का शासन है जिनका सीना छप्पन इंची माना जाता है। मोदीजी इन सब मसलों पर चुप शायद इसलिए हो लिए हैं कि उन्हें यह समझ आने लग गया है कि अन्तरराष्ट्रीय मसलों को संभालने के वास्ते व्यावहारिक कूटनीति की जरूरत होती है, छप्पन इंच के सीने की नहीं।
विदेशों में जमा कालाधन लाना और प्रत्येक भारतीय के हिस्से में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये आने की बात को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने ना केवल जुमला करार दे दिया बल्कि आम उम्मीदों पर यह स्थापित भी कर दिया है कि कालेधन को लौटा लाना तो दूर जिन-जिन का जमा है उनका नाम उजागर करने की जरूरत भी भाजपा शासक ठीक वैसे नहीं समझते हैं जिस तरह कांग्रेस नहीं समझती रही! कालेधन को निकलवाने के नाम पर हजार-पांच सौ के नोट बन्द किए लेकिन आज तक यह नहीं बता पाए कि नोटबन्दी से कालाधन कितना बरामद हुआ है। आंकड़ें या तो दिए ही नहीं जाते, दिए जाते हैं तो गुमराह करने वाले। जैसे हाल ही में एक आंकड़ा आया कि नोटबन्दी के बाद लाखों नये आयकरदाता जुड़े हैं। ऐसे हवाई आंकड़ों से क्या असल हासिल किया है, वह बताने का नहीं है।
इन तीन वर्षों में महंगाई लगातार बढ़ी है। स्रंप्रग के निर्मल भारत अभियान को स्वच्छ भारत करके चलाया, नतीजा यह आया कि स्वच्छ शहरों की जो रंेकिंग हुई उसमें लगभग सभी शहर अपनी पिछली रैकिंग से पिछड़े दिखाई दे रहे हैं।
सेज को 'मेक इन इंडिया' नाम दिया। नाम बदलकर स्टार्टअप योजना को लांच किया, बावजूद इनके देश में स्थापित रोजगार कम हो रहे हैं। कारखाने इसलिए बन्द हो रहे हैं कि चाइना से सस्ता माल आयात हो रहा है। यहां तक कि जो स्थापित ब्राण्ड हैं उनमें से भी कई अपनी स्थानीय इकाइयों को बन्द कर रहे हैं और चाइना से अपने ब्रांड बनवा रहे हैं। वीआईपी लगेज इसका एक उदाहरण है। तीन करोड़ नये रोजगार सालाना देने का मोदी सरकार का वादा था, वह आंकड़ा तीन लाख सालाना को भी नहीं छू पा रहा है।
ऐसी सभी असफलताओं को ढकने को नए-नए शिगूफे छोड़े जाते हैं ताकि जनता बहली रहे। आश्चर्य है कि जनता बहल भी रही है कि नोटबंदी से धनपति परेशान हैं, भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया है, एक साथ कई-कई रॉकेट छोड़े जा रहे हैं, पाकिस्तान को चिढ़ाने के लिए ऐसा उपग्रह छोड़ा है जो पाकिस्तान के अलावा अन्य सभी सार्क देशों को सूचनाएं मुहैया करवायेगा। भारत का अंतरिक्षीय ढांचा आज जो भी है पिछले सत्तर वर्षों की नीतियों और ऐसी परियोजनाओं को राजनीति से पूरी तरह मुक्त रखने की वजह से है, ना कि केवल मोदीजी की तीन वर्षों की अपनाई नीतियां से।
इन शिगूफों से काम ना चले तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कार्ड बेधड़क चलाए जाने लगे हैं। गायों और गो-पशुधन को वैतरणी की गाय बना दिया गया। इसमें इसे बिल्कुल नजरअन्दाज किया जा रहा है कि देश के अधिकांश दलित जिन्हें हिन्दू माना जाता है, सस्ता होने की वजह से उनके खाने में बैलों, भैंसों, पाडों का मांस शामिल है। मुस्लिम समाज का बड़ा तबका दूध का व्यापार करके परिवार पालता है। उन्हें परेशान करना, यहां तक कि प्रताडि़त और जब-तब मारा-पीटा भी जाने लगा है। पाठकों को जानकारी होगी कि चौपायों के ऐसे मांस जिसे बीफ कहा जाता है, भारत इसके बड़े निर्यातकों में से है और अधिकांश निर्यातक भी गैर मुस्लिम ही नहीं हैं वरन् उच्च जाति के हिन्दू और जैन धर्मावलम्बी हैं जिसे छुपाया जाता है।
जैसा कि भाजपा के वैचारिक स्रोत संघ की मंशा है देश उसी जातिय वर्ण व्यवस्था की ओर लौटे जिसमें उच्च जातियों का समाज में वर्चस्व हो, ऐसी कोशिशें भी इस राज में मुंह उठाने लगी हैं। दलितों की उच्च हिन्दू जाति वर्गियों से तनातनी होने लगी हैं। हालांकि भाजपा को लगता है कि वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली को बिना बदले उच्च जाति वर्गों की सामाजिक सत्ता कायम नहीं होगी, वैसी सत्ता हासिल करने के लिए फिलहाल दलितों के वोटों की जरूरत है। इसलिए कम से कम दलित-हिन्दू संघर्ष फिलहाल बचना चाहिए। लेकिन जैसी इनकी विचारधारा है, बिना रोक-टोक का शासन मिलने के बाद उसमें ऐसा होने की गुंजाइश बढ़ जानी है और वैसा ही हो रहा है।
देश मेें भविष्य की परिस्थितियां ना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए और ना ही सामाजिक समरसता के लिए अनुकूल दीख रही हैं। लगता है कि आने वाला दौर 1971 के दौर के बाद वाले दौर से भी भयावह आने वाला है, भारी बहुमत से जीतकर आई इन्दिरा गांधी ने जब 1975 में देश पर आपातकाल थोप दिया था। तब केवल लोकतांत्रिक मूल्य ताक पर थे, लेकिन अब तो लग रहा है कि साम्प्रदायिक-सामाजिक दोनों तरह की समरसता ही ताक पर है। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की चाट ऐसी है जिसे चटाने पर अधिकांश सोच मानवीय तो दूर की बात, लोकतांत्रिक भी नहीं रह पाती। दूसरी बात इन्दिरा गांधी के संस्कार चूंकि लोकतांत्रिक थे इसलिए उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था में लौटाना पड़ा। अटलबिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तब तक हुए पचास वर्षों के अपने राजनैतिक जीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों का लिहाज करने और साम्प्रदायिक सामाजिक समरसता की जरूरत समझने लग गए थे, इसलिए उनके शासन में देश की तासीर बदलने की कोशिशें नहीं देखी गई। यही वजह थी कि खांटी संघनिष्ठ उन्हें कुसंस्कारी कहने लगे थे। आज के जो शासक हैं उनके संस्कार ना तो कभी लोकतांत्रिक रहे हैं और ना ही सर्वधर्म समभाव और सामाजिक समरसता के। ये अपने को श्रेष्ठ मानते रहे हैं और चाहते रहे हैं कि देश के अन्य नागरिक उनके द्वारा निर्धारित मानकों के हिसाब से चलते रहें।
लोकतंत्र का चौथा पाया मीडिया (अखबार या खबरिया चैनल) लगभग धर्मच्युत हो गया है। आपातकाल के इर्द-गिर्द दीखने वाले अखबारों के तेवर नदारद हैं। यूं कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि खबरियां चैनलों की तरह अखबार भी मीडिया में मर्ज होकर ना केवल शेर से बिल्ली हो लिये बल्कि कांग्रेसनीत शासन ने उनके जिन मसूड़ों को प्रलोभनों से धीरे-धीरे सुन्न कर दिया था, मोदी के इस राज में लगता है, इसके दांतों को ही निकाल लिया गया है। पूरा मीडिया इस शासन के आगे लगभग दण्डवत दिखाई देने लगा है।
यह दौर पिछली सदी के आठवें दशक के पूर्वाद्र्ध यानी आपातकाल पूर्व से भयावह इसलिए भी  लग रहा है क्योंकि तब पूरा बौद्धिक समाज तानाशाही ताकतों के खिलाफ खड़ा था। लेकिन इस दौर में ऐसी खास सक्रियता नजर नहीं आती। बौद्धिकों को जैसे सांप सूंघ गया है। वैसे ही तथाकथित भारतीय बौद्धिक समाज का विरोध भी केवल कांग्रेस पार्टी का विरोध था, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति पक्षधरता नहीं थी, लगता है सामाजिक और साम्प्रदायिक समसरता को यहां के बौद्धिक केवल युक्ति के तौर पर काम में लेते रहे हैं।
कांग्रेस अपनी करतूतों और बचकाने नेतृत्व के चलते समाप्त हो गई, वामपंथी अपनी गैर-देशज विचारधाराओं के चलते। समाजवादियों की वर्तमान पीढिय़ां विचार को तिलांजलि दे वंशानुगत हो गई। देश में लोकतंत्र और सामाजिक-साम्प्रदायिक समरसता फिलहाल चांके पर आती दिख रही है। आजादी बाद के इन सत्तर वर्षों में अधिकांश जिस कांग्रेस पार्टी का शासन रहा उसने तो यह कभी चाहा ही नहीं कि देश के मतदाता को इस तरह शिक्षित किया जाए कि उसे वोट असल में क्यों देना होता है। अन्य राजनीतिक पार्टियों ने भी मौके-बेमौके वोटरों का उपयोग भेड़ों की तरह किया है। अखबार जिसे अब मीडिया कहा जाने लगा है और बौद्धिक समाज ने भी इस तरह की जरूरत नहीं समझी। कांग्रेस को शायद भान नहीं था कि वोटर की भेड़ संस्कृति का शिकार एक दिन वह खुद हो जायेगी। यही भान यदि मीडिया और बौद्धिक समाज को भी नहीं है तो उनकी नियति भी अन्तत: अपनी सार्थकता खो देना ही है। यहां रामधारीसिंह दिनकर की उन पंक्तियों का केवल स्मरण ही किया जा सकता है, जो 1974-75 के उस दौर में गूंजती थी-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध (शिकारी)
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।।
दीपचन्द सांखला

18 मई, 2017

Thursday, May 4, 2017

पत्र मुख्यमंत्री सुश्री वसुन्धरा राजे के नाम : बीकानेरियों की उम्मीद की टकटकी आप पर ही टिकी है, वसुंधराजी!

मान्या वसुंधराजी!
अभिवादन! शुरुआत में आपके पूर्व मुख्यमंत्रित्व काल का स्मरण जरूरी है। 2008 में आपने राज्यस्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह बीकानेर में आयोजित किया। इस अवसरी बहाने से तब शहर में विकास के कामों को एक अभियान के तौर पर अंजाम दिया गया था। इस शहर में उस तरह से काम ना तो आजादी बाद पहले कभी हुए थे और ना ही वर्तमान तक। विकास कार्यों के आपके उस अभियान का ही प्रभाव था कि ना केवल 2008 के विधानसभा चुनावों में शहर की दोनों सीटें वरन् 2009 में लोकसभा की सीट भी भारतीय जनता पार्टी ने आसानी से जीत ली। स्थानीय बाशिन्दों में उस प्रभाव की खुमारी 2014 तक ही नहीं उतरी, नतीजतन मतदाताओं ने 2013 के पिछले विधानसभा चुनावों में फिर से शहर की दोनों सीटों पर भाजपाई विधायक तथा 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपाई सांसद को ही जितवाया।
इस पत्र का मकसद यह बताना भी है कि इस शहर के बाशिदे घोर संतोषी तो हैं ही, भोले भी इतने हैं कि इन्हें अपने हित-अहित का ही भान नहीं होता। प्रमाण इससे ज्यादा क्या कि प्रदेश के बड़े माने जाने वाले सभी छह शहरोंजयपुर, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, कोटा और बीकानेर में से शहरी विकास के मामले में यह बीकानेर ही सर्वाधिक पिछड़ रहा है। प्रतिकूलता इस शहर की यह भी रही कि अब तक चुने जाते रहे जनप्रतिनिधियों में भी इस शहर के विकास को लेकर ना स्पष्ट व्यावहारिक दृष्टि देखी गई और ना ही भगीरथी प्रयास का संकल्प ले वे कुछ करवा पाए।
मुख्यमंत्री को पूरे प्रदेश को देखना होता है, उसके चलते किसी एक क्षेत्र को वह कितना देख पाता है? लेकिन 2008 में आपने उससे ज्यादा ही बीकानेर को देखा। स्थानीय चुने जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के बावजूद आपने जो किया उसे यहां की जनता जब-तब आज भी याद करती है।
बीकानेर शहर की फिलहाल बड़ी समस्या कोटगेट क्षेत्र के आस-पास दो रेल फाटकों का होना और इनके बार-बार बन्द होने से लगभग पूरे दिन यहां यातायात का जाम होते रहना है। इसे यहां से गुजरने वाले शहरी तो प्रतिदिन भुगतते ही हैं, चूंकि सबसे बड़ा व्यापारिक क्षेत्र भी यही है इसलिए लगभग पूरे दिन रहने वाले इस जाम का खमियाजा यहां के व्यापारी भी भुगतते हैं।
मुख्यमंत्री के तौर पर आपके पहले कार्यकाल की यह उपलब्धि रही कि वर्ष 2006-07 में इस समस्या के सर्वाधिक व्यावहारिक समाधान हेतु आरयूआईडीपी के माध्यम से एलिवेटेड रोड की योजना बनी। चंद अविवेकी व्यापारियों के विरोध और उस विरोध में कुछ राजनेताओं ने सुर इसलिए मिला दिया कि इस समाधान का श्रेय सत्ता पक्ष को ना मिल जाए! ऐसे तुच्छ विरोध के चलते तब बनी वह योजना कम्प्यूटरों-बस्तों में बन्द होकर ऐसी गुम हुई कि अब जब इसके क्रियान्वयन का समय आया तब ना स्थानीय प्रशासन के पास और ना ही नगर विकास न्यास के पास उस योजना की कोई सॉफ्ट या हार्ड कॉपी है। और तो और एलिवेटेड रोड योजना का तब बना वह मॉडल भी गुम हो गया जिसे तब शहर में प्रदर्शित किया गया था और जिस पर अधिकांश जनता ने सहमति जताई थी।
आपके इस दूसरे कार्यकाल में जब भी मौका मिला है, जागरूक बीकानेरियों ने अपनी इस बड़ी समस्या की गुहार आपके सामने लगाई है। आपने भी इस पर गौर किया और ना केवल 2015-16 के बजट में इस हेतु 135 करोड़ रुपये का प्रावधान किया बल्कि अपनी चतुराई से इस मद को केन्द्र से हासिल करने की स्वीकृति भी ले ली।
इस स्वीकृति के बाद वर्ष 2006-07 में बनी एलिवेटेड रोड योजना का पुनर्मूल्यांकन कर अमलीजामा पहनाने की बजाय इस पर नये सिरे से कवायद होने लगी। सुना जाता है कि आपने शहर के भविष्यगत फायदे के हिसाब से कह दिया कि इस एलिवेटेड रोड योजना को आगामी पचास वर्ष के हिसाब से बनाया जाए! जैसा कि अधीनस्थ सामान्यत: ऊपर वालों को खुश करने में ज्यादा ही उत्साही होते हैं सो इस योजना के सर्वे कार्य में भी यही सब हो रहा है। एनएचएआई ने इस सर्वे को फोरलेन के हिसाब से करना शुरू किया जिसके चलते क्षेत्र के लोगों में रोष बढऩे लगा और जिनका एजेण्डा ही विरोध है, वे सक्रिय हो लिए। ऐसा इसलिए कि इस सर्वे में क्षेत्र के व्यापारियों को कहा गया कि फोरलेन एलिवेटेड रोड बनाने के लिए लगभग 450 व्यावसायिक और रिहाइशी भवनों को आंशिक तौर पर हटाया जाएगा। जबकि यहां बनने वाले एलिवेटेड रोड का कई कारणों से फोरलेन होना जरूरी नहीं है। इसे निम्न बिन्दुओं से स्पष्टत: समझा जा सकता है
     प्रस्तावित एलिवेटेड रोड मुख्यत: बीकानेर के पूर्वी सीमित क्षेत्र को पश्चिम स्थित पुराने शहर यानी भीतरी हिस्से को जोडऩे का काम करेगी।
     शहर की भीतरी बसावट बेहद घनी है और मकान सामान्यत: छोटे-छोटे क्षेत्रफलों में बने हैं। इतना ही नहीं, इस पुराने शहर में रहने वाले बाशिन्दों ने शहरी फसील के बाहर अपने-अपने औपनिवेशिक मुहल्लों का विस्तार कर लिया है। मुरलीधर व्यास कॉलोनी, जवाहर नगर, मोहतासराय क्षेत्र, गोपेश्वर बस्ती, कोठारी हॉस्पिटल क्षेत्र, सर्वोदय बस्ती, बंगला नगर आदि कॉलोनियों में वही लोग बसे हैं जिनके पुश्तैनी घर शहर के भीतरी मुहल्लों में हैं और जगह के अभाव में मन मार कर ही सही उन्हें विस्थापन झेलना पड़ा। अलावा इसके शहर के भीतरी क्षेत्र में लम्बा चौड़ा कोई स्थान भी खाली नहीं है, जहां कोई नई बसावट भविष्य में हो सके, इसलिए भीतरी क्षेत्र की जनसंख्या में कोई गुणात्मक बढ़ोतरी नहीं होनी है। इस तरह समझने पर नहीं लगता कि प्रस्तावित इस टू-लेन एलिवेटेड रोड के यातायात में भविष्य में गुणात्मक दबाव आयेगा।
     इस एलिवेटेड रोड का उपयोग पुरानी व नयी गजनेर रोड के इर्द-गिर्द और पब्लिक पार्क क्षेत्र के वे लोग कर सकते हैं जिन्हें बीकानेर रेलवे स्टेशन के एक नम्बर गेट से एन्ट्री करनी है। इसकी जरूरत भी इसलिए नहीं बढ़ेगी क्योंकि स्टेशन की सैकण्ड एन्ट्री से इस तरफ के लोगों की पहुंच ज्यादा सहज हो गई है। ऐसे में इस बसावट के लोग स्टेशन की सुविधाजनक सैकण्ड एन्ट्री छोड़ एलिवेटेड रोड का उपयोग कर फस्र्ट एन्ट्री की तरफ जायेंगे, ऐसा नहीं लगता। क्योंकि एलिवेटेड का उपयोग करने पर उन्हें समय भी ज्यादा खर्च करना होगा और फस्र्ट एन्ट्री पर पार्किंग की समस्या का सामना भी करना होगा।
     अलावा इसके बीकानेर रेलवे स्टेशन पर दोनों तरफ की एन्ट्री हेतु शहर के सभी हिस्सों को जोडऩे वाले छह बड़े मार्ग वर्तमान में सुचारु हैं। इन मार्गों के चलते कुछ-थोड़ा सा ही यातायात ऐसा हो सकता है जो रेलवे स्टेशन जाने के लिए एलिवेटेड रोड का उपयोग करेगा।
     यह सब बताने की जरूरत इसलिए समझी कि प्रस्तावित एलिवेटेड रोड भविष्य को देखते हुए भी टू लेन की ही पर्याप्त है। वैसे भी एलिवेटेड रोड पर ना तो कोई पार्किंग होती है कि लोग बेतरतीब वाहन पार्क करके यातायात में बाधा पैदा करेंगे और ना स्ट्रीट वेन्डर ही बाधक बनते हैंइसीलिए एलिवेटेड रोड पर यातायात निर्बाध चलता है। हां, बिना कोई भवन तोड़े संभव हो तो इस एलिवेटेड योजना की चौड़ाई थोड़ी बढ़ाई जा सकती है।
मान्या वसुंधराजी! आपको संबोधित इस पत्र का मकसद यही है कि पूर्व के आपके कार्यकाल के समय 2006-07 में बनी एलिवेटेड रोड योजना ना केवल व्यावहारिक है बल्कि उस योजना की बड़ी खासीयत यह है कि उसके निर्माण में ना ही कोई एक इंच निजी भूमि अधिगृहीत होनी है और ना ही कोई निजी या सार्वजनिक भवन एक इंच भी टूटना है। टू-लेन एलिवेटेड रोड की थोड़ी चौड़ाई बढ़ाने के अलावा उसमें परिवर्तन इतना ही करने की जरूरत है कि उस योजना में स्टेशन की ओर का हिस्सा कोटगेट थाने तक बनना दर्शाया गया है, उसे स्टेशन रोड स्थित ग्रीन-डीलक्स होटल तक ही बनाना ज्यादा लाभदायक रहेगा। वह इसलिए कि वर्तमान में गंगाशहर रोड से स्टेशन की ओर आने वाले यातायात को इकतरफा करके बिस्किट गली से निकाला जाने लगा है। इस परिवर्तन से गंगाशहर की तरफ से आने वाले यातायात को बिना कहीं घूमे सीधे इस एलिवेटेड रोड की सुविधा मिल जायेगी। क्योंकि बिस्किट गली का मुहाना स्टेशन रोड के ग्रीन-डीलक्स होटलों के बाद ही आता है।
मुख्यमंत्रीजी! कोई काम ना होने के चलते आरयूआईडीपी के बीकानेर कार्यालय को यहां से हटा दिया गया और उसके दस्तावेज और कम्प्यूटर जयपुर स्थित मुख्यालय में चले गये हैं। वर्ष 2006-07 में उनके द्वारा बनाई एलिवेटेड रोड योजना के सभी नक्शे और दस्तावेज आरयूआईडीपी के जयपुर स्थित मुख्यालय में सुरक्षित हंै, ऐसी जानकारी मिली है। आपसे अनुरोध है उन नक्शों और दस्तावेजों को कृपया निकलवाएं और सुझाए गए थोड़े परिवर्तनों के बाद उसी पर काम यदि होगा तो महीने-बीस दिन में ही इसका शिलान्यास भी संभव हो सकेगा।
इसे जल्दबाजी नहीं तत्परता की जरूरत मानें। 2019 में चुनाव होना है, उसमें अब ज्यादा समय नहीं है। यह शहर कृतघ्न नहीं है, इसका प्रमाण 2008 के स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर आप द्वारा करवाए वे काम और उसके बाद 2008 के विधानसभा, 2009 के लोकसभा व 2013 के विधानसभा तथा 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणाम हैं जिनमें इस शहर ने भारतीय जनता पार्टी को ही सर्वाधिक वोट दिये हैं। एलिवेटेड रोड जैसी सुविधा इस शहर के बाशिन्दों को मिलती दिखेगी तो कोई कारण नहीं कि यह शहर कृतघ्न हो जायेगा। इसका सीधे-सीधे लाभ आपके नेतृत्व में होने वाले चुनावों में भाजपा को हासिल होगा। बीकानेर का शहरी जो तीन दशकों से भी ज्यादा समय से इस समस्या से जूझ रहा है, एलिवेटेड रोड बन जाने से वह तो सुकून महसूस करेगा ही।


5 मई, 2017                                                                                                                  --दीपचन्द सांखला

Tuesday, May 2, 2017

बीकानेर-दिल्ली रेलमार्ग (31 अक्टूबर, 2011)

खबर है कि बीकानेर-दिल्ली वाया रतनगढ़ रेलमार्ग के आमान परिवर्तन के बाद मिली दोनों गाड़ियां संभवतः कल से संचालित नहीं होगी। रानीखेत एक्सप्रेस के बारे में रेल अधिकारी पहले ही कह चुके हैं कि पर्याप्त यात्री नहीं मिल रहे हैं। मिले भी कैसे, अधिकतर यात्रियों के लिए इसका समय प्रतिकूल जो है। यह गाड़ी रात 10 बजे के बाद दिल्ली पहुंचती है।
कहा जाता है कि भारतीय रेल में यह एक परंपरा रही है कि आमान परिवर्तन के बाद वह सब ट्रेनें बहाल कर दी जाती हैं जो आमान परिवर्तन से पहले उस रास्ते चला करती थी। यदि सचमुच यह परंपरा रही है तो बीकानेर से रतनगढ़ के रास्ते रिवाड़ी-दिल्ली के लिए प्रतिदिन चार ट्रेने थीं। रात्रि में मेल और लिंक एक्सप्रेस तथा दिन में एक्सप्रेस और रिवाड़ी पैसेंजर। यह चारों ही ट्रेनें बहाल होती हैं तो इस मार्ग पर चलने वाले यात्रियों की समस्याओं का लगभग समाधान हो जाता है। वैसे इस ट्रेन के आमान परिवर्तन में सामान्य से चार गुना लगा समय एक रिकार्ड है।
रेल सुविधाओं के मामले में दबे और खुले मुंह अशोक गहलोत को कोसने वाले सभी पार्टियों के नेता यह बताने का साहस दिखाएंगे कि पहले आमान परिवर्तन की देरी पर और अब इस मार्ग पर नियमित ट्रेनें शुरू करवाने के लिए छिट-पुट पत्राचार की रस्म अदायगी के अलावा लॉबिंग के स्तर पर उन्होंने क्या किया है। व्यापार उद्योग मंडल, चेम्बर ऑफ कॉमर्स और रेल सलाहकारों की मांगों और सुझाओं पर रेलबोर्ड ने कभी कोई बड़ी तवज्जमे दी हो, ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं।
 डॉ. बी.डी. कल्ला, अर्जुन मेघवाल, गोपाल जोशी, देवीसिंह भाटी, सिद्धीकुमारी, माणकचंद सुराणा, गोपाल गहलोत और तनवीर मालावत आदि नेता यदि रेल मामलों में सक्रिय नहीं होते हैं तो होगा यह कि हावड़ा-जैसलमेर की साप्ताहिक ट्रेन वाया रतनगढ़, बीकानेर की बजाय जयपुर, जोधपुर से चलने लगेगी और इन सबको अशोक गहलोत को भुंडाने का एक और मौका मिल जायेगा।
माणकचंद सुराणा को छोड़ दें तो ये नेता वैसे भी ट्रेनों में यात्राएं कम ही करने लगे हैं। माणकचंद सुराणा की लगभग सभी यात्राएं बीकानेर-जयपुर के बीच की होती है। इसलिए दिल्ली यात्रियों की तकलीफ वे शायद ही समझें। बी.डी. कल्ला की भी कमोबेश यही स्थिति है। बाकि नेता तो अपनी तेज दौड़ने वाली गाड़ियों से काम चला लेते हैं। शायद इनमें से किसी को भी अपने उस गरीब वोटर की चिंता नहीं है जिसके लिए उसके जीवन की गिनी-चुनी पैसेंजर ट्रेन की यात्राएं बहुत मायने रखती हैं। मेल, एक्सप्रेस और सुपरफास्ट की यात्राओं की हिम्मत तो वे शायद ही जुटा पाते होंगे।

वर्ष 1 अंक 60, सोमवार, 31 अक्टूबर, 2011