Thursday, December 29, 2016

बदलते या बदले जा रहे राहुल गांधी की बात

उत्तरप्रदेश, गुजरात, पंजाब और राजस्थान की कुछ जनसभाओं के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर यह जुमला चलने लगा कि देश बदल रहा है या नहीं पर राहुल जरूर बदल रहे हैं।
जनसभाओं में राहुल के दिए अब तक के अधिकांश भाषण ना केवल ठस और नीरस रहे बल्कि दो-पांच-दस मिनट में ही फुसकी निकाल वे 'बैक टू पैविलियन' होते रहे हैं। ऐसे में बारां की सभा में चौवालीस मिनट के भाषण की लम्बी पारी खेलना, भाषा के साथ गिलगिली करना, भाव भंगिमाओं को तैश में लाने भर को ही क्या राहुल का बदलना माना जा सकता है? बल्कि बारां सभा के उनके भाषण को देखने-सुनने पर लगता है कि वे खुद बदल नहीं रहे, उन्हें बदला जा रहा है, यू-ट्यूब पर उनके भाषण को देखने-सुनने पर बदलने और बदले जाने का अन्तर साफ समझा जा सकता है। यूं लगता है उन्हें इस सबका प्रशिक्षण दिया जा रहा है। राजनीति भी जब प्रोफेशन हो गई है तो प्रशिक्षण लेने-देने से गुरेज कैसा। लेकिन प्रशिक्षित यदि चाबी भरने से चलने वाले उस खिलौने की ही तरह मैकेनाइण्ड एक्ट भर करे तो समझते देर नहीं लगती कि प्रशिक्षक और प्रशिक्षित दोनों अनाड़ी हैं, दक्ष नहीं।
बावजूद इस सबके राहुल का थोड़ी-थोड़ी देर में उसी ठस अंदाज में माइक को संभालना उनकी आत्मविश्वासहीनता को दर्शाता है। भाषणों के बिन्दु लिखी पर्चियों को खुद ही अव्यवस्थित करके हाउ-जूजू होना, फेंके जाने वाले जुमलों को उनकी अहमीयत के अनुसार वजन ना देना, उनमें दक्षता की कमी को दर्शाता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता हैबारां जनसभा के लिए उनके प्रशिक्षक ने एक विशेष जुमला दिया होगा- 'पेटीएम' का मतलब 'पे-टू-मोदी'। इस जुमले को बिना खोले राहुल इतना लो-प्रोफाइल में बोले कि लगता है वे खुद ही इसे समझ नहीं पाए। छियालीस पार के राहुल पिछले लगभग पंद्रह वर्षों से व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय हैं। इतनी लम्बी सक्रियता के बावजूद लगता है कि उन्होंने सीखने की अपनी उम्र में राजनीति और सार्वजनिक जीवन से औपचारिक वास्ता भी नहीं रखा। क्योंकि आधारभूत सीखने की उम्र मोटा-मोट तय है, लगता है सीखने की उस उम्र में राहुल का ना अखबारों से कोई खास वास्ता रहा ना स्थानीय लोक और भाषायी मुहावरों से। तभी बारां के अपने भाषण की शुरुआत वे बजाय तीन बातें बताने के, बात को दिखलाने से शुरू करते हैं। इसके उलट राहुल के पिता राजीव गांधी को याद करें तो वे जब राजनीति में आए तो इस क्षेत्र से बहुत कुछ वाकफियत नहीं रखते थे, सीखने की उम्र निकल चुकी थी लेकिन सब-कुछ को समझने की उनकी गति अच्छी थी, ऐसी समझ का अभाव भी राहुल में पूरी तरह दिखाई देता है।
बिना यह माने कि देश में भ्रष्टाचार पूर्ववर्ती कांग्रेस शासनों में ही विकराल होता गया, राहुल भ्रष्टाचार को मिटाने का आह्वान करने लगे हैंऐसा दावा कम हास्यास्पद नहीं हो जाता है। भ्रष्टाचार देश का ऐसा मुद्दा है जिस पर कांग्र्रेस यदि किसी अन्य पर एक अंगुली उठाती है तो चार अंगुलियां अपने आप उसकी ओर उठती हैं। यही वजह है कि उनके चौवालीस मिनट चले लम्बे भाषण में 17-18 मिनट बाद ही श्रोताओं में मुखर खुसुर-फुसुर शुरू हो जाती है जो अंत तक चलती है।
राहुल ही क्यों पूरी कांग्रेस वर्तमान सरकार को काउण्टर करने में पूरी तरह असफल है। कांग्रेस इसे क्यों भूल जाती है कि 2013-14 के विधानसभा-लोकसभा चुनाव मोदी-भाजपा ने कहने भर को भले ही जीते हों, असल में वे चुनाव अपनी साख खोकर कांग्रेस ने हारे थे। पिछले चुनावों में मोदी और भाजपाई-क्षत्रपों ने जिन वादों पर चुनाव लड़ाक्या उनमें से एक भी वादा इन ढाई-तीन वर्षों में वे पूरा कर पा रहे हैं? यदि उत्तर नहीं है तो कांग्रेस क्यों नहीं उन्हीं वादों के आधार पर सरकार को घेरती है। बारां में दिया राहुल का भाषण अधिकांश नोटबंदी पर था। राहुल अपने भाषण में यह समझाने में भी असफल रहे कि इस नोटबंदी से असल प्रभावित आमजन ही हुआ है, भले ही उन्होंने इसे 99 प्रतिशत जनता के खिलाफ बताया हो। उन्होंने यह तो बताया कि भारत के बैंकों में अक्टूबर माह में ही छह लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त जमा हुए हैं लेकिन वे इसे घोटाले के रूप में संप्रेषित नहीं कर पाये।
सही है कि नोटबंदी के इस गलत निर्णय की अनाड़ी क्रियान्विति ने विपक्ष को काउण्टर करने का बड़ा अवसर दिया है। लेकिन इस अवसर को केवल इसी आलाप में भुनाना फ्लॉप शो साबित होगा। आगामी छह-सात महीने में लेन-देन कुछ सामान्य होते ही जनता इसे भूलने लगेगी।
इन ढाई-तीन वर्षों में भ्रष्टाचार की दरें बढ़ी हैं, महंगाई लगातार बढ़ रही है बल्कि भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले संस्थानों को मोदी सरकार लगातार कमजोर और निष्क्रिय कर रही है। स्त्रियों पर अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई और रोजगार के अवसर बजाय बढऩे के, घट रहे हैं। चीन और पाकिस्तान से होने वाली परेशानियां बढ़ी हैं, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों और मामलों में खुद मोदीजी की भ्रमणीय फदड़ पंचाई के बावजूद देश की साख घट रही है आदि-आदि ऐसे कई मुद्दे हैं जिनके बूते मोदी और भाजपा भ्रमित कर शासन पर काबिज हुए हैं। और यह भी कि अपनी इन असफलताओं के जवाब में भाजपाई यह कह कर कांग्रेस को निरुत्तर कर देते हैं कि 60 वर्षों में यह कबाड़ा कांग्रेस ने कर छोड़ा है और कांग्रेस चुप हो लेती है। कांग्रेस को यदि प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभानी है तो उसे अपनी गलतियां स्वीकारते हुए यह बताना होगा कि हमारे किए की सजा हमसे सत्ता लेकर जनता ने दे दी। लेकिन जिन-जिन वादों से भ्रमित कर मोदी और भाजपा ने सत्ता हासिल की उनके लिए क्या वे कुछ करते भी दीख रहे हैं या नहीं, कांग्रेस ऐसे सवाल उठाने से क्यों कतराती है। और यह भी कि केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारें अपने वादों पर खरी नहीं उतरती दिख रही तो उनकी असफलताओं को कांग्रेस जनता तक क्यों संप्रेषित नहीं कर पा रही।
हां, यह बात अलग है कि कांग्रेस भी इसी उम्मीद में हो कि जिस तरह खुद उनकी साख के चुक जाने और उसे मोदी-भाजपा के भुना लेने पर जनता ने शासन पलट दिया, उसी तरह इन भाजपा सरकारों के निकम्मेपन से उफत कर जनता पुन: उन्हें शासन सौंप देगी। लेकिन इस निकम्मे और अनाड़ीपने के शासन को भी विपक्ष को भुनाना होगा और उसके लिए भले ही मोदी जैसे शातिरपने की तरतीब ना अपनाए लेकिन  कांग्रेस और अन्य विपक्ष को चतुराई तो दिखानी होगी। ऐसी चतुराई की समझ भी इस वय में राहुल गांधी में आती नहीं दिखती। मोदी इतने शातिर तो हैं ही कि उनके निकम्मे और अनाड़ीपने को यदि विपक्ष नहीं भुना पाया तो वह अपना शासन अगले चुनावों में भी जाने नहीं देंगे, क्योंकि पैंतरेबाज मोदी हर बार नया पैंतरा लाने की कूवत तो रखते ही हैं।
और अंत में : बारां की ही तरह राजनीतिक पार्टियों की जनसभाओं की सफलता-असफलता आजकल आयोजकों पर निर्भर करती है। आयोजक जितने संसाधन झोंकते हैं, उतनी भीड़ तो इक_ा की जा सकती है लेकिन क्या ऐसे ही भीड़ का समर्थन भी हासिल किया जा सकता है? दूसरी बात है मीडिया से : कि भीड़ का अनुमान भी स्थान की लम्बाई-चौड़ाई से लगाया जाना चाहिए। सटकर खड़े होने पर भी व्यक्ति कम से कम तीन वर्ग फीट और बैठने पर चार वर्गफीट जगह घेरता है। अगर बारां की सभा में 70 हजार लोग शामिल हुए तो आयोजन स्थल क्या तीन लाख वर्गफीट का था, और अगर था भी तो वह पूरा भरा हुआ था? यह इसलिए कि मीडिया पर जनता का कुछ भरोसा अभी शेष है और उसे कायम रखना लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा भी है।

29 दिसम्बर, 2016

Thursday, December 15, 2016

मुख्यमंत्री के यूं लौटने पर ठगा सा महसूस क्यों नहीं करते हम?

वसुंधरा सरकार की तीसरी वर्षगांठ की रस्म अदायगी 13 दिसम्बर को बीकानेर में हो गई। मुखिया तीन वर्ष से सूबे की सरकार जिस तरह ठेल रही हैं उसके चलते यहां के बाशिन्दों ने इस आयोजन के बहाने अपने लिए कुछ ज्यादा उम्मीदें तो नहीं बांधी। बावजूद इसके मुख्यमंत्री के गुजरने के संभावित रास्तों की सफाई और इन सड़कों की आनन-फानन में की गई मरम्मत ही कुल जमा हासिल का तलपट है। वैसे इन छिट-पुट कामों की कीमत शहरवासियों ने कल चुका भी दी। आयोजन स्थलों के आसपास के रास्तों को सुबह 8 बजे से ही बंद कर दिया गया और जिन रास्तों से मुखियाजी को गुजरना था उन पर आवागमन भी कई दफा काफी-काफी देर तक बन्द रखा गया। इस यातायात व्यवस्था से यहां के बाशिन्दे परेशान ज्यादा ही दिखे। इतना ही नहीं, कुछेक ने तो व्यवस्था में लगे पुलिस के जवानों से उलझ-उलझ कर अपनी खीज निकाली। ज्यादा परेशानी लोगों को इसलिए हुई कि बड़े आयोजनों के दोनों स्थान ही पीबीएम अस्पताल के दोनों ओर थे और कई जरूरतमंदों को अस्पताल तक पहुंचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। प्रशासन चाहता तो सुबह आठ बजे से इन रास्तों को बन्द न कर केवल नफरी बढ़ाकर सुचारु रख लेता और आयोजन से आधा घंटा पहले बंद करवाना तो काम चल जाता। लेकिन जब सभी प्रशासनिक अधिकारी अपनी खाल बचाने की जुगत में हों तो आमजन की खाल खिंचना लाजिमी हो जाता है।
खैर। यह तो हो ली बात। ऐसे विवाहों के गीत तब तक ऐसे ही गाए जाने हैं जब तक आमजन अपनी सामंती गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं निकलेगा। बात अब शहर की उम्मीदों की कर लेते हैं जिन पर पानी बार-बार फेर दिया जाता है।
'विनायक' ने अपने पिछले अंक के संपादकीय में केवल उन्हीं पांच वादों का जिक्र किया जो वसुंधरा राजे ने अपनी जून, 2013 में सुराज संकल्प यात्रा के बीकानेरी पड़ाव के दौरान मुख्यमंत्री बनने पर पूर्ण करने का भरोसा दिया था। इतना ही नहीं, 'विनायक' के गुरुवार 8 दिसम्बर, 2016 के अपने इस संपादकीय को 9 दिसम्बर को मुख्यमंत्री तक पहुंचा भी दिया था।
कोटगेट और सांखला रेलफाटकों की उपज यातायात समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड के निर्माण का शिलान्यास, कोलायत के कपिल सरोवर की आगोर का संरक्षण, शहर की सिवरेज व्यवस्था, कृषि विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलवाना और सूरसागर को व्यावहारिक योजना के साथ विकसित करना जैसे पांच वादे वसुंधरा राजे ने तब किये थे। भले ही इसे 'विनायक' की आत्ममुग्धता मान लें लेकिन पांच में से जिले की इन तीन जरूरतों पर मुख्यमंत्री को फिर भरोसा दिलाना पड़ा और शेष दो को वे गप्प कर गईं।
मुख्यमंत्री के 13 दिसम्बर को यहां दिये गये भाषण के अनुसार एलिवेटेड रोड का निर्माण आगामी मार्च में शुरू हो जाना है। सिवरेज पुनर्योजना की पूरे शहर की बात न कर उन्होंने गंगाशहर क्षेत्र में इसका काम शीघ्र शुरू करवाने की बात की है। कपिल सरोवर की आगोर का मुद्दा नई खनन नीति से कितना साधा जाना है, समय बताएगा। सूरसागर पर मुख्यमंत्री ने जिस तरह बात की उससे लगता है इसे अभी सफेद हाथी ही बने रहना है। तब के पांचवें वादे कृषि विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलवाने की बात 'विनायक' ने इसलिए की थी कि इसके एवज में ही सही तकनीकी विश्वविद्यालय का छीना निवाला मुख्यमंत्री वापस लौटा दें। लोक में कैबत के अनुसार बात करें तो कुशल रसोइया भी रसोई बातों से नहीं बना सकता पर हमारी मुख्यमंत्री हैं कि जब भी आती हैं केवल बातें कर लौट जाती हैं। कहने का भाव यही है कि मुख्यमंत्री बिना कुछ दिए इस बार भी यूं ही लौट गईं और हम हैं कि अपने को ठगा-सा महसूस भी नहीं कर रहे है।
वैसे देखा यही गया है कि वसुंधरा राजे सांताक्लॉज तभी होती हैं जब मुख्यमंत्री नहीं होतीं। बाकी तो 'सरकार आपके द्वार' के बीकानेरी पड़ाव के समय का उनका रूप हो या मंत्रिमंडलीय बैठक के समय कावे बहलाने भर को सावचेती से नपी-तुली बातें ही करती हैं। वैसे उम्मीद अब यही की जाती है कि पूरे राजस्थान में बनी अपनी अकर्मण्यता की छवि को सुधारने के लिए सही मुख्यमंत्री इन दो वर्षों में कुछ तो करेंगी नहीं तो केन्द्र की सरकार में जिस तरह प्रधानमंत्री का करिश्मा चुकने लगा है उसे देखते हुए अगले चुनावों में पिछली बार की तरह वसुंधरा राजे के वे शायद ही काम आए।
राजस्थान में मुख्य विपक्ष कांग्रेस से कुछ उम्मीद करना इसलिए निराशाजनक होगा कि इस पार्टी में केन्द्रीय आलाकमान से लेकर जिला स्तर तक की इकाइयों में केन्द्र और प्रदेश की दोनों भाजपा सरकारों के निकम्मेपन और करतूतों को काउण्टर करने की इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। सनसनी भर को शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत और उनके कुछ सहयोगियों ने काले झण्डे दिखा अपनी ड्यूटी भले ही पूरी कर ली हो लेकिन केन्द्र और प्रदेश में जिन असफलताओं के साथ ये सरकारें चल रही हैं उनको काउण्टर करने के लिए मिलने वाले नित नये मौकों को जनता के सामने रखने में ऊपर से लेकर नीचे तक की कांग्रेस पूरी तरह विफल है। लगता यही है कि कांग्रेस ने व्यावहारिक राजनीति का 'होमवर्क' करना पूरी तरह त्याग दिया है। वह उसी उम्मीद में लगती है कि इन सरकारों से जनता खुद ही निराश हो और बिल्ली के भाग की तरह छींका टूटकर राज के रूप में उनके सामने आ गिरे।
बीकानेर के बाशिन्दों को भी अब अपने मुद्दों में सावचेत हो जाना होगा। हमेशा की तरह लॉलीपॉप मुख में रख उसे चूसने में मगन रहने की आदत छोडऩी होगी। अपनी जरूरतों के लिए बीकानेर के बाशिन्दों को गालिब के इस शे'र से प्रेरणा लेकर चेतन हो लेना चाहिए
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है।

15 दिसम्बर, 2016

Thursday, December 8, 2016

मुख्यमंत्रीजी ! सुराज संकल्प यात्रा में बीकानेर से किये ये पांच वादे आज भी अधूरे हैं

राजस्थान में भाजपा की सरकार को इस माह तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस वर्षगांठ को मनाने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अगले सप्ताह बीकानेर में हो सकती हैं। आत्मुग्घता में ही सही हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं कि वसुंधरा राजे का बीकानेर से कोई छिपा मोह है, जिसे जाहिर करने के ऐसे अवसर वे जब-तब बीकानेर में जुटाती हैं। लेकिन किसी अदृश्य लिहाज में उनके त्वरित क्रियान्वयन करवाने में झिझक जाती हैं।
बीकानेर वाले 2008 के उस उत्तरार्द्ध समय को भूल नहीं पाते जब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पहले कार्यकाल के अंतिम स्वतंत्रता दिवस का राज्य स्तरीय समारोह यहां आयोजित हुआ और उसके बहाने बीकानेर को ना केवल सजाया-संवारा गया बल्कि पुष्ट भी किया। जिले की जनता कृतघ्न नहीं निकली और सूबे में राज कांग्रेस का बनने के बावजूद बीकानेर की सात में से चार विधानसभा सीटें भाजपा को दीं।
पांच वर्ष गुजर गयेदिसम्बर, 2013 को विधानसभा के चुनाव फिर होने थे। इसी सिलसिले में वसुंधरा राजे सुराज संकल्प यात्रा के बहाने प्रदेश में निकली और जून, 2013 में बीकानेर भी आयीं। जिले की जनता ने भव्य अगवानी की। राजे ने भी अपने इस सत्कार को हाथों-हाथ लिया। यात्रा के इसी पड़ाव में वसुंधरा ने बीकानेर से कुछ वादे किए। इस आलेख का मकसद राजे को स्मरण कराना ही है कि राजे-राज के इन तीन वर्षों बाद भी सुराज संकल्प यात्रा के वे पांच वादे पूरे होने की बाट आज भी जोह रहे हैं। यहां हम उन उम्मीदों को भी नजरअंदाज कर देते हैं जो जून 2014 में 'सरकार आपके द्वारकार्यक्रम के दौरान उन्होंने बीकानेरी पड़ाव पर दीं।
राजे सरकार की इस पारी के तीन वर्ष गुजर चुके हैं, दो वर्ष अभी भी शेष हैं। वे चाहें तो 2013 में सुराज देने के बहाने किए उन पांच वादों को इन दो वर्षों में बखूबी पूरा कर सकती हैं। इस उल्लेखनीय कवायद का मकसद उन वादों का स्मरण पुन: करवाना ही है।
राजे की दी उम्मीदें हरी होंगी या सूखेंगी, बिना इसकी परवाह किए उन्हें सिलसिलेवार यहां गिनवाकर अपनी उम्मीदों पर तो जल के छींटे डाल ही लेते हैं।
     बीच शहर से गुजरती रेललाइन और जिसके चलते चौबीसों घंटे कष्ट भुगतते यहां के बाशिन्दे आज भी त्रस्त हैं। राजे ने इसके समाधान का वादा न केवल 2013 की सुराज संकल्प यात्रा में किया बल्कि 2014 में 'सरकार आपके द्वार' में भी उम्मीदें बढ़ाईं। इतना ही नहीं, बीकानेर में आयोजित पिछली मंत्रिमंडलीय बैठक में यह तय ही हो गया कि कोटगेट और सांखला रेल फाटकों से उपजी यातायात समस्या के समाधान के तौर पर वसुंधरा राजे के ही राज में 2006-07 में स्वीकृत एलिवेटेड रोड का निर्माण तुरन्त शुरू करवा दिया जाएगा। इसके लिए धन भी जब केन्द्र सरकार ने देना तय कर लिया, बावजूद इसके यह योजना छह-सात महीने से कहां धूड़ फांक रही है। पहले सुना कि सितम्बर, 2016 में राजे इसके शिलान्यास के लिए बीकानेर आ रही हैं। वह बात तो जाने कहां आई-गई हो गयी। तकलीफ तो यह है कि राजे की आगामी यात्रा में भी एलिवेटेड रोड के शिलान्यास की कोई सुगबुगाहट नहीं है। मुख्यमंत्रीजी! इसका निर्माण यदि तत्परता और दक्षता से होगा तब भी दो वर्ष लग जाने हैं और दो वर्ष से भी कम समय में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी। क्या यहां के बाशिन्दों की नियति भुगतते रहना ही है?
     शहर के आधे से भी कम हिस्से में सीवर लाइन है और जो है उनमें भी अधिकांश जर्जर हो चुकी हैं। पूरे शहर के लिए सीवर लाइन की इकजाही योजना बनाकर काम करवाने की जरूरत है। यह वादा भी सुराज संकल्प यात्रा का ही है। इस पर कभी कुछ आश्वासन सुनते हैं और फिर उन आश्वस्तियों का विलोपन हो जाता है। क्या इस पर कोई ठोस घोषणा की उम्मीद आपकी आगामी यात्रा से रखें या इस ओर से भी निराशा ओढ़ कर दुबक जाएं?
     बीकानेर का कृषि विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने की तकनीकी और भौगोलिक दोनों तरह की अर्हताएं पूरी करता है और इसी बिना पर इसके स्वरूप को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिए जाने की जरूरत समझी जाती रही। इस हेतु बार-बार आश्वासन भी मिलते रहे। स्वयं राजे ने सुराज-संकल्प में इसके लिए वादा किया था। केन्द्र में भाजपा की सरकार को भी ढाई वर्ष हो लिए हैं। विपक्ष की सरकार होती तो फिर भी एक राजनीतिक बहाना था। केन्द्र और राज्य की जुगलबंदी के इस राज में ही बीकानेर को एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय राजे दिलवा दें तो साढ़े तीन वर्ष पूर्व किए अपने वादे को ही वे पूरा करेंगी।
     भारतीय संस्कृति की धरोहर मानी जाने वाली कपिल मुनि की तप-स्थली का सरोवर अपनी दुरवस्था को हासिल हो समाप्त होने को है। कमल की एक नस्ल ने तो उसका स्वरूप बहुत कुछ नष्ट कर दिया है। कमल उखाड़ फेंकने का एक समय दावा करने वाले कोलायत क्षेत्र के समर्थ इन दिनों कमल के पोषण में लगे हैं या उखाड़ने में, नहीं पता लेकिन उनकी दबंगई के बावजूद कपिल सरोवर का आगोर अवैध खनन का शिकार होता जा रहा है। राजे ने सुराज संकल्प में इस आगोर को संरक्षण देने की बात की थी। पता नहीं मुख्यमंत्रीजी को यह वादा अब याद भी है कि नहीं।
     अन्त में सुराज संकल्प के दौरान किए गए जो पांच वादे पूरे नहीं हुए उनमें से आखिरी सूरसागर को लेकर किए वादे को कुछ संशोधन के साथ वसुंधराजी को याद दिलाना जरूरी है। 'सरकार आपके द्वार' के बीकानेरी पड़ाव के दौरान राजे ने गजनेर पैलेस में बीकानेर से संबंधित सुझावों के लिए कुछ संपादकों-पत्रकारों को आमंत्रित किया था। उस दौरान हुई अन्य बातों में सूरसागर को लेकर मेरे द्वारा दिए इस सुझाव पर मुख्यमंत्री सहमत हुईं कि सूरसागर को कृत्रिम साधनों से भरे रखना बेहद मुश्किल है और पिछले आठ वर्षों में नहरी और नलकूपों से इसे भरे रखने का प्रयास सफल नहीं हुए हैं। तब जो सुझाव दिया गया था वह सूरसागर के तले को मरुउद्यान (डेजर्ट पार्क) के रूप में विकसित करने का था जिसमें थार रेगिस्तान के पेड़-पौधे और अन्य स्थानीय वनस्पतियों के साथ इस क्षेत्र के उन जीव-जन्तुओं को भी रखा जाए जिनकी इजाजत वन विभाग दे सकता है। उस समय मुख्यमंत्री इस सुझाव पर ना केवल सकारात्मक हुईं बल्कि जाते-जाते जो उन्होंने घोषणाएं की उनमें डेजर्ट पार्क की घोषणा भी थी। लेकिन लगता है इसमें गड़बड़ यह हुई कि मुख्यमंत्रीजी से अधिकारियों तक पहुंचते-पहुंचते इस सुझाव में से इसका स्थान सूरसागर ही छिटक गया और केवल घोषणा भर रह गई। वह घोषणा आज भी कहीं धूड़ फांक रही है। मुख्यमंत्रीजी! सूरसागर को यदि मरुउद्यान के तौर पर विकसित कर प्रवेश शुल्क रखा जाए तो जूनागढ़ के सामने होने से ना केवल इसे पर्यटक मिलेंगे बल्कि पानी भरने के खर्चे से बने इस सफेद हाथी से नगर विकास न्यास को छुटकारा भी मिलेगा। डार्क जोन में जा रहे इस क्षेत्र में पानी की बर्बादी रुकेगी वह अलग।
अन्त में मुख्यमंत्रीजी से यही उम्मीद की जाती है कि तीन वर्ष पूरे होने के इस जश्न पर ही सही, सुराज संकल्प के उक्त पांच वादों के पूरे होने का हक यहां के बाशिंदे रखते हैं और यह भी उम्मीद करते हैं कि मुख्यमंत्री इस अवसर पर इन वादों को समयबद्ध सीमा में पूरा करने का आदेश देकर अपने बीकानेरी मोह को अनावृत करेंगी।

8 दिसम्बर, 2016