चुनावी झनझन यूं तो एक वर्ष पूर्व ही से शुरू हो जाती है लेकिन छह माह पहले से
ना केवल गोटियों को सम्हाला जाने लगता है बल्कि चौसर भी मांड ली जाती है। राजस्थान
विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर एक माह पहले का कांग्रेस:भाजपा का 115:65 का आंकड़ा आज दिन तक 100:80 के लगभग आ गया है। इसी आधार पर बीकानेर संभाग
की बात करें तो वर्ष 2013 में कुल 23 में से कांग्रेस 3 भाजपा 17 और अन्य पर 4 थे-एक माह पहले का अनुमान जो 12:8:4 पर था अब 10:10:4 पर आया लगता है। कांग्रेस व भाजपा के उस अनुमानित अन्तर को
पाटने में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की कारस्तानियों के चलते बीकानेर जिले का
योगदान ज्यादा है। वैसे यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि इस तरह के अनुमान तत्समय
के होते हैं-हो सकता है अगले दिन बदल भी
जायें। ऐसे क्षणभंगुर अनुमानों में मतदान तक कितना बदलाव होगा कहना मुश्किल
है-बड़ा कुछ घटित ना हो तो मोटामोट इसके इर्द-गिर्द ही रहता लगता है-10 से 15' तक जोड़-घटाव के
साथ।
बीकानेर जिले की बात करें और रामेश्वर डूडी का जिक्र ना हो संभव नहीं है।
एक-दो माह पहले बीकानेर जिले की 7 सीटों में
कांग्रेस:भाजपा का आंकड़ा 6:1 का था लेकिन इस
शर्त के साथ कि डूडी अपने स्वभाव से बचे रहें लेकिन उन्हें जो करना था किया ही।
उनके किए धरे से सबसे कम प्रभावित रहने वाली कोलायत सीट से बात शुरू करते हैं।
मगरे के शेर देवीसिंह भाटी अपनी आसन्न हार के चलते दड़बे में चले जाने के निर्णय पर कायम रहे। बहुतों का मानना था कि
देवीसिंह अंत-पंत चुनाव में खुद उतरेंगे—यह बात कभी हजम नहीं हुई, हुआ भी वही।
भाजपा के पास कोलायत में कोई विकल्प था नहीं और राजनीति को पुश्तैनी पेशा बना चुके
देवीसिंह को भी लगा होगा कि इसे जारी रखना जरूरी है। पौत्र अंशुमान सिंह की उम्र
चुनाव लड़ सकने की नहीं हुई सो उनकी मां, महेन्द्रसिंह की पत्नी पूनमकंवर को मैदान में उतारा गया, कोलायत में भाजपा भी यही चाहती थी। पूनमकंवर के
नाम की घोषणा के साथ एक बारगी तो लगा भी कि महेन्द्रसिंह की शालीनता-सदाशयता और
अचानक उनके चले जाने का भावनात्मक लाभ पूनमकंवर को हासिल होगा—कुछ हुआ भी हो, लेकिन उतना नहीं जितना राजनीतिक फासला बीते पांच वर्षों में
हदां और बरसलपुर के बीच कांग्रेस विधायक भंवरसिंह भाटी ने बना लिया है। देवीसिंह
भाटी के प्रति 33 वर्षों की ऊब और
कुछ नाराजगियां जो भीतर की भीतर कसमसा-सिसक रही थीं, वही इस चुनाव में पूनमकंवर के आड़े आती दिख रही हैं। इस ऊब
और कसमसाहट को भंवरसिंह भाटी ने बहुत अच्छे से सहलाया है, भंवरसिंह की शालीनता और सदाशयता महेन्द्रसिंह के जोड़ की ही
मानी जा रही है, ऐसे में देखना
यही है कि देवीसिंह भाटी अपने राजनैतिक पेशे को इस चुनाव से अगली पीढिय़ों के लिए
सहेज कर रख पाते हैं कि नहीं।
जिले की शेष छह सीटों की मोटा-मोट बात पिछले आलेख में की गई। लेकिन जब तवा
चूल्हे पर हो तो रोटी को उलट-पुलट कर देखते रहने में हर्ज क्या है। यह कहने में
कोई संकोच नहीं है कि डेढ़-दो माह पहले के कांग्रेस:भाजपा के 6:1 के आंकड़े को ग्रहण खुद कांग्रेस के सूरज
रामेश्वर डूडी के हस्तक्षेप से लगा है—खाजूवाला, लूनकरणसर और
श्रीडूंगरगढ़ के टिकट बंटवारे में डूडी की चली भले ही ना हो लेकिन उनकी कुचमादी
आशंकाओं के चलते श्रीडूंगरगढ़ में तय जीत
वाले कांग्रेस प्रत्याशी मंगलाराम गोदारा फिलहाल तीसरे नम्बर पर पिछड़ते नजर आ रहे
हैं। श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र की 10 पंचायतों पर सीधे प्रभाव रखने वाले रामेश्वर डूडी हालांकि इसके लिए अकेले
जिम्मेदार नहीं हैं। माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गिरधारी महिया का
पुरुषार्थ उनकी जीत की संभावनाएं बना रहा है—डूडी की संभावित भीतरघात क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहने
वाले महिया के लिए मात्र सहारा बना है। माना यह भी जा रहा कि जाट प्रभावी इस
विधानसभा क्षेत्र में जैसे ही यह लगेगा कि गिरधारी महिया भाजपा के ताराचन्द
सारस्वत से पिछड़ सकते हैैं वैसे ही जाट समुदाय मंगलाराम के साथ आ लेंगे। बीकानेर
की सात में से यही एक सीट है जिसमें आखिरी क्षण तक बड़े उलट-फेर की सम्भावना हो गई
है।
लूनकरणसर में स्थिति अभी भी स्पष्ट नहीं है, इसके दो कारण हैं। एक यह कि गैर-जातीय आधार पर क्षेत्र में
राजनीति करने वाले प्रदेश के आदर्श जनप्रतिनिधि मानिकचन्द सुराना मौन हैं। उम्र और
स्वास्थ्य कारणों के चलते ना वे खुद चुनाव में उतरे और ना ही किसी को समर्थन की
घोषणा की है—सुराना का कहना
है कि वे क्षेत्र की जनता के वास्ते हमेशा की तरह खड़े रहेंगे। दूसरा, भाजपा के बागी प्रभुदयाल सारस्वत का पूरे दम-खम
के साथ ताल ठोकना, कहने को नुकसान वे कांग्रेस और भाजपा दोनों को पहुंचाने
वाले हैं, यदि ऐसा है तो भी
कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल भारी पड़ सकते हैं—बशर्ते स्थानीय समीकरणों के चलते रामेश्वर डूडी उनके पलड़े
का वजन कम करने में सफल ना हों। डूडी यहां भी शांत रहें तो बेनीवाल अपना वजन बढ़ा
सकते हैं।
खाजूवाला का मामला बावजूद इस सब के पेचीदा होता नहीं लगता है कि वर्तमान
विधायक और भाजपा उम्मीदवार डा. विश्वनाथ भले हैं। सूबे की एंटी इंकम्बेसी और
कांग्रेसी उम्मीदवार गोविन्द मेघवाल की क्षेत्र में लगातार सक्रियता विश्वनाथ की
तीसरी जीत को रोकती लग रही है। श्रीडूंगरगढ़, लूनकरणसर की ही तरह अपने ही पार्टी उम्मीदवारों पर डूडी की
छाया पडऩे के कयास भी यहां लगाये जा रहे हैं, लेकिन छाया कितनी लम्बी होगी कह नहीं सकते, क्योंकि ज्यों-ज्यों मतदान का दिन नजदीक आता
जायेगा त्यों-त्यों हो सकता है डूडी कहीं अपनी ही बचाने में लगे ना रह जाएं!
बीकानेर पूर्व की बात जरूरी इसलिए नहीं है कि जिले में कांग्रेस:भाजपा का 6:1 का जो अनुमानित आंकड़ा था उसमें सिद्धिकुमारी
की बीकानेर पूर्व की सीट ही भाजपा के लिए निश्चित मानी जा रही थी और आज भी स्थिति
कुछ वैसी ही है। अन्तर कन्हैयालाल झंवर की कांग्रेस उम्मीदवारी के बाद इतना ही आया
कि जिन सिद्धिकुमारी का मन इस बार का चुनाव घर बैठे ही जीतने का था, अब वह गली-मुहल्लों में भी प्रतिदिन नजर आने
लगी हैं।
डूडी ग्रहण के सूतक से कांग्रेस के लिए जिले की सर्वाधिक प्रभावित बीकानेर
पश्चिम की सीट हुई—डॉ. कल्ला की तय
उम्मीदवारी के चलते कांग्रेस की जो जीत इस बार यहां निश्चित मानी गई-उसमें बड़ा
पंगा आ गया है। पहले कल्ला को उम्मीदवारी ना मिल यशपाल गहलोत को मिलना और फिर
बीकानेर पूर्व से घोषित कन्हैयालाल झंवर को उम्मीदवारी से हटा कर यशपाल को पूर्व
में सिफ्ट करना। सिलसिला यहीं नहीं रुका—फिर यशपाल को पूर्व से भी खदेड़कर झंवर को पुन: उम्मीदवारी देना, यह चकरघिन्नी कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकती
है। वहीं कांग्रेस से बागी होकर बीकानेर पूर्व और पश्चिमी दोनों जगह से ताल ठोकने
वाले गोपाल गहलोत अपनी साख भी बचा पाएंगे लगता नहीं है, बावजूद इस सबके माली समाज की कांग्रेस से नाराजगी कल्ला के
लिए भारी साबित हो तो आश्चर्य नहीं।
रही बात नोखा की तो जिस अपनी सीट को सुरक्षित करने के लिए डूडी ने पूरे जिले
को हिला दिया, उसी नोखा में
डूडी पर दबाव लगातार बढ़ता लग रहा है। भाजपा उम्मीदवार बिहारी बिश्नोई के लिए यह
चुनाव जहां राजनीतिक अस्तित्व का है वहीं रामेश्वर डूडी के लिए राजनीतिक हैसियत
बचाए रखने का। डूडी यह चुनाव हार जाते हैं तो अपनी हैसियत हासिल करने में उन्हें
लम्बी जद्दोजहद करनी पड़ेगी, जरूरी नहीं कि
वर्तमान हैसियत फिर से हासिल भी हो। बिहारी बिश्नोई के प्रति क्षेत्र में
सहानुभूति जहां डूडी के लिए भारी पड़ती
दीख रही है वहीं डूडी की सगी भानजी और हनुमान बेनीवाल के आरएलपी की उम्मीदवार
इन्दू तर्ड हुड़ा अलग लगाये हुए है। इतना ही नहीं कन्हैयालाल झंवर को जैसे ही लगेगा
कि डूडी ने उन्हें बीकानेर पूर्व में फंसा दिया तो नोखा में उनका इतना प्रभाव तो
है कि वे डूडी को परेशानी में डाल सकते हैं। इस सबसे ऊपर खुद डूडी का अपना स्वभाव
उनसे दुश्मनी कम नहीं साधता। आज बात इतनी ही अगले सप्ताह बदले अनुमानों के
साथ-बदले तो।
—दीपचन्द सांखला
29 नवम्बर, 2018
2 comments:
प्रणाम!बेहतरीन विश्लेषण
बहुत सटीक विशलेषण है। दीप जी
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