विवाह और अन्य समारोहों में बढ़ रहे दिखावे के भोंडे चलन और बढ़ती फिजूलखर्ची
पर 'विनायक' ने एकाधिक बार पहले भी लिखा है। इन पर तब तक
बार-बार लिखा जाना चाहिए जब तक शादी-समारोह सादगीपूर्ण और बिना फिजूलखर्ची के होने
शुरू नहीं हो जाते।
संसद के अभी के सत्र में बिहार से सांसद और पूर्व राष्ट्रीय खिलाड़ी रंजीत
रंजन ने निजी विधेयक पेश कर ऐसे भोंडे दिखावे पर लगाम लगाने की आवश्यकता जताई।
वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने कदम बढ़ाते हुए ऐसे आयोजनों के प्रत्येक आयाम की सीमा
निर्धारित कर दी है। ऐसी अच्छी खबर उस जम्मू-कश्मीर से आई है जहां से सुखद खबरें
आजकल कम ही आती हैं। इस तरह के आदेशों का न केवल स्वागत होना चाहिए बल्कि केवल
अन्य प्रदेशों को ही क्यों, केन्द्र की सरकार
को ही पूरे देश में इन पर रोक लगाने का कानून बना देना चाहिए।
यह दुखद है कि केन्द्र में सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष
नेताओं के चहेते (दक्षिण के खननमाफिया) जनार्दन रेड्डी ने हाल ही में अपनी बेटी की
शादी में पांच सौ करोड़ रुपए खर्च किए। वह भी तब जब एक हजार और पांच सौ के नोट
केन्द्र सरकार ने बंद ही किये थे! इस शादी को हुए तीन माह हो रहे हैं लेकिन सरकार
की तरफ से उनके इस दिखावे पर कोई पूछाताछी भी शुरू हुई हो, जानकारी में नहीं।
ऐसे समारोहों में प्रतिस्पर्धा अब यह होने लगी है कि पैसों को ज्यादा से
ज्यादा किस तरह खर्च किया जा सकता है। बात बरात से शुरू करें तो इसके जुलूस में
जिस तरह से आतिशबाजी होने लगी है वह पर्यावरण के लिए भी खतरनाक है। इसीलिए देश की
राजधानी दिल्ली में सरकार को हाल ही में आतिशबाजी पर रोक लगानी पड़ गई। जिन समारोह
स्थलों पर ऐसे आयोजन होते हैं वहां सजावट में भी लाखों-करोड़ों खर्च होने लगे हैं।
खान-पान में आइटम्स और स्नेक्स की स्टॉल बढ़ाने की होड़ जिस तरह चल रही है,
वह कहां रुकेगी समझ से परे है। इस तरह के भोज
में सामान्यत: देखा गया है कि जितना खाया जाता है, उससे ज्यादा खाना जूठन में जाता है। जम्मू-कश्मीर सरकार ने
खाने के आइटमों की सीमा 7+7+2+2 = कुल अठारह बांधी
है, विचारा जाय तो यह भी कम
नहीं। इसके अलावा भी अन्य प्रावधानों में जम्मू-कश्मीर की सरकार ने बरातियों की
संख्या, सजावट आदि-आदि में जो
सीमाएं निर्धारित की हैं, वह न केवल
व्यावहारिक है बल्कि मानवीय मूल्यों की ओर अग्रसर होने वाली भी कही जा सकती है।
बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो स्थानीय ओसवाल समाज में कुछ लोग ऐसा अभियान
कई वर्षों से चला रहे हैं कि ऐसे किसी समारोह में खान-पान के आइटम इक्कीस से
ज्यादा ना हो। इस अभियान में जो सक्रिय हैं वे ध्यान भी रखते हैं और जिस भोज में
इक्कीस से ज्यादा आइटम होते हैं वहां वे भोजन ग्रहण नहीं करते। लेकिन इस अभियान से
अभी तक इतने कम लोग जुड़े हैं कि उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती से ज्यादा नहीं
है। बल्कि इस सबके बावजूद उनके समाज में ही इस तरह का दिखाऊ भोंडापन लगातार बढ़ता
रहा है।
ऐसे दिखाओं में आतिशबाजी के अलावा ध्वनि प्रदूषण का एक बड़ा वाहक डीजे भी
शामिल हो चुका है। इनके वॉल्यूम इतने रखे जाने लगे हैं कि लगता है बजाने और सुनने
वालों दोनों को गीत-संगीत के सुरीले और बेसुरेपन का भान ही नहीं है। इतना ही नहीं,
शादी के दिन से पहले होने वाला महिला संगीत या
मेंहन्दी की रात जैसे आयोजनों में भी उस कानून की धज्जियां आए दिन उड़ाई जाती हैं
जबकि रात दस बजे के बाद ध्वनि विस्तारक यन्त्रों को बजाने पर रोक है। नियम कायदों
की अनदेखी अन्यथा भी होती है लेकिन जो इस तरह से बजाते-बजवाते हैं उनको इस बात का
भी लिहाज नहीं होता कि मुहल्ले में कोई सो भी रहा है, कोई बीमारी की बेचैनी में होगा या विद्यार्थियों के पढऩे
में बाधा पहुंच रही होगी।
कानून और नियम-कायदों की जरूरत सभ्य समाज को तब होती है जब लोगों का विवेक चुक
जाता है। और लगता है इस समाज के समर्थों का विवेक लगातार चुक रहा है, समर्थों में भी जो दबंग हैं, कानून और नियम कायदे उनके ठेंगे पर हो लिए हैं।
भारतीय समाज इतना संवेदनहीन होता जा रहा है कि ऐसे भोंडे दिखावे के समय मन में यह
कहीं नहीं आता कि इसी देश की लगभग आधी आबादी आज भी अभावों में गुजर-बसर करने को
मजबूर है। अधिकांश भारतीयों को पौष्टिक तो दूर पेटभर खाना भी उपलब्ध नहीं हो पाता,
सिर पर छत तो दूर की बात है। --दीपचन्द सांखला
फरवरी, 2017
फरवरी, 2017