Thursday, February 23, 2017

शादी-समारोहों से झांकती संवेदनशून्यता और नियम-कायदों की दुर्गत

विवाह और अन्य समारोहों में बढ़ रहे दिखावे के भोंडे चलन और बढ़ती फिजूलखर्ची पर 'विनायक' ने एकाधिक बार पहले भी लिखा है। इन पर तब तक बार-बार लिखा जाना चाहिए जब तक शादी-समारोह सादगीपूर्ण और बिना फिजूलखर्ची के होने शुरू नहीं हो जाते।
संसद के अभी के सत्र में बिहार से सांसद और पूर्व राष्ट्रीय खिलाड़ी रंजीत रंजन ने निजी विधेयक पेश कर ऐसे भोंडे दिखावे पर लगाम लगाने की आवश्यकता जताई। वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने कदम बढ़ाते हुए ऐसे आयोजनों के प्रत्येक आयाम की सीमा निर्धारित कर दी है। ऐसी अच्छी खबर उस जम्मू-कश्मीर से आई है जहां से सुखद खबरें आजकल कम ही आती हैं। इस तरह के आदेशों का न केवल स्वागत होना चाहिए बल्कि केवल अन्य प्रदेशों को ही क्यों, केन्द्र की सरकार को ही पूरे देश में इन पर रोक लगाने का कानून बना देना चाहिए।
यह दुखद है कि केन्द्र में सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं के चहेते (दक्षिण के खननमाफिया) जनार्दन रेड्डी ने हाल ही में अपनी बेटी की शादी में पांच सौ करोड़ रुपए खर्च किए। वह भी तब जब एक हजार और पांच सौ के नोट केन्द्र सरकार ने बंद ही किये थे! इस शादी को हुए तीन माह हो रहे हैं लेकिन सरकार की तरफ से उनके इस दिखावे पर कोई पूछाताछी भी शुरू हुई हो, जानकारी में नहीं।
ऐसे समारोहों में प्रतिस्पर्धा अब यह होने लगी है कि पैसों को ज्यादा से ज्यादा किस तरह खर्च किया जा सकता है। बात बरात से शुरू करें तो इसके जुलूस में जिस तरह से आतिशबाजी होने लगी है वह पर्यावरण के लिए भी खतरनाक है। इसीलिए देश की राजधानी दिल्ली में सरकार को हाल ही में आतिशबाजी पर रोक लगानी पड़ गई। जिन समारोह स्थलों पर ऐसे आयोजन होते हैं वहां सजावट में भी लाखों-करोड़ों खर्च होने लगे हैं। खान-पान में आइटम्स और स्नेक्स की स्टॉल बढ़ाने की होड़ जिस तरह चल रही है, वह कहां रुकेगी समझ से परे है। इस तरह के भोज में सामान्यत: देखा गया है कि जितना खाया जाता है, उससे ज्यादा खाना जूठन में जाता है। जम्मू-कश्मीर सरकार ने खाने के आइटमों की सीमा 7+7+2+2 = कुल अठारह बांधी है, विचारा जाय तो यह भी कम नहीं। इसके अलावा भी अन्य प्रावधानों में जम्मू-कश्मीर की सरकार ने बरातियों की संख्या, सजावट आदि-आदि में जो सीमाएं निर्धारित की हैं, वह न केवल व्यावहारिक है बल्कि मानवीय मूल्यों की ओर अग्रसर होने वाली भी कही जा सकती है।
बीकानेर के सन्दर्भ से बात करें तो स्थानीय ओसवाल समाज में कुछ लोग ऐसा अभियान कई वर्षों से चला रहे हैं कि ऐसे किसी समारोह में खान-पान के आइटम इक्कीस से ज्यादा ना हो। इस अभियान में जो सक्रिय हैं वे ध्यान भी रखते हैं और जिस भोज में इक्कीस से ज्यादा आइटम होते हैं वहां वे भोजन ग्रहण नहीं करते। लेकिन इस अभियान से अभी तक इतने कम लोग जुड़े हैं कि उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती से ज्यादा नहीं है। बल्कि इस सबके बावजूद उनके समाज में ही इस तरह का दिखाऊ भोंडापन लगातार बढ़ता रहा है।
ऐसे दिखाओं में आतिशबाजी के अलावा ध्वनि प्रदूषण का एक बड़ा वाहक डीजे भी शामिल हो चुका है। इनके वॉल्यूम इतने रखे जाने लगे हैं कि लगता है बजाने और सुनने वालों दोनों को गीत-संगीत के सुरीले और बेसुरेपन का भान ही नहीं है। इतना ही नहीं, शादी के दिन से पहले होने वाला महिला संगीत या मेंहन्दी की रात जैसे आयोजनों में भी उस कानून की धज्जियां आए दिन उड़ाई जाती हैं जबकि रात दस बजे के बाद ध्वनि विस्तारक यन्त्रों को बजाने पर रोक है। नियम कायदों की अनदेखी अन्यथा भी होती है लेकिन जो इस तरह से बजाते-बजवाते हैं उनको इस बात का भी लिहाज नहीं होता कि मुहल्ले में कोई सो भी रहा है, कोई बीमारी की बेचैनी में होगा या विद्यार्थियों के पढऩे में बाधा पहुंच रही होगी।
कानून और नियम-कायदों की जरूरत सभ्य समाज को तब होती है जब लोगों का विवेक चुक जाता है। और लगता है इस समाज के समर्थों का विवेक लगातार चुक रहा है, समर्थों में भी जो दबंग हैं, कानून और नियम कायदे उनके ठेंगे पर हो लिए हैं। भारतीय समाज इतना संवेदनहीन होता जा रहा है कि ऐसे भोंडे दिखावे के समय मन में यह कहीं नहीं आता कि इसी देश की लगभग आधी आबादी आज भी अभावों में गुजर-बसर करने को मजबूर है। अधिकांश भारतीयों को पौष्टिक तो दूर पेटभर खाना भी उपलब्ध नहीं हो पाता, सिर पर छत तो दूर की बात है।                             --दीपचन्द सांखला
                                                                       
                                                                       फरवरी, 2017

Thursday, February 16, 2017

महापड़ाव का तलपट

श्रीडूंगरगढ़ में एक पखवाड़े से चल रहे किसानों के महापड़ाव का सकारात्मक पटाक्षेप बीते शुक्रवार 10 फरवरी, 2017 को तब हुआ जब हजारों किसान अपना यह धरना जिला मुख्यालय बीकानेर ले आए। संप्रग-दो की मनमोहनसिंह सरकार ने अपने अन्तिम दो वर्षों में जिस तरह डरूं-फरूं होकर धंधेबाज रामदेव के स्वांग और भले-भोले अन्ना हजारे के आंदोलन को संभालने की कोशिश की वैसी-सी स्थिति में सूबे की वर्तमान वसुंधरा सरकार आ ली दीखती है। इसलिए बीकानेर में धरने के पहले ही दिन न केवल जिले के प्रभारी मंत्री पहुंच गए बल्कि विद्युत निगमों के अधिकांश बड़े अधिकारी पांव सिर पर रखकर आ पहुंचे। किसानों की लगभग सभी मांगें विद्युत विभाग से ही संबंधित थीं। खैर, सरकारें डर कर ही सही ऐसे जनाक्रोशों की तवज्जो करती हैं तो लोकतंत्र के लिए यह सुखद ही है। सरकार ने किसानों से जिस तत्परता से समझौता किया, उम्मीद करते हैं वैसी ही उदारता से उसे लागू भी करेगी।
लेकिन इस आन्दोलन पर चर्चा करने का मकसद कुछ दूसरा है। श्रीडूंगरगढ़ जिले के गांव-गांव, ढाणी-ढाणी इस आन्दोलन की अलख जगाने वाले वामपंथी गिरधारी महिया हैं जो एक अरसे से अपने क्षेत्र में सक्रिय हैं। किसानों का इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा करने वाले महिया 2008 के विधानसभा चुनावों में श्रीडूंगरगढ़ से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से उम्मीदवार थे। क्षेत्र की जनता ने तब उन्हें मात्र 6.28 प्रतिशत वोट ही दिए। 2008 में चुनाव आयोग को दिये महिया के सम्पत्ति शपथपत्र के अनुसार कुल जमा 15 लाख से कम संपत्ति वाले गिरधारी महिया 2013 में शायद अपना सामथ्र्य पुन: चुनाव लडऩे का नहीं जुटा पाए लेकिन क्षेत्र में उन्होंने सक्रियता बराबर बनाए रखी। उसी का नतीजा था कि इस महापड़ाव में इतने लोग साथ जुट गये कि सरकार को झुकना पड़ा।
व्यावहारिक राजनीति जिस तरह की हो गई है, उसके चलते 2018 के चुनाव में गिरधारी महिया जैसा राजनेता फिर इस उम्मीद से उम्मीदवारी करे कि क्षेत्र के किसानों ने इस महापड़ाव में जिस तरह का साथ दिया उसी तरह आगामी चुनावों में भी देंगे तो यह मुगालता ही होगा। यह ऐसा समय में जिसमे समाज के समर्थ और दबंग लोग शेष समाज को हांकने का जोर हड़पे बैठे हैं, जिनकी कोशिश यही रहती है कि किसे जिताने में उनके हित सधेंगे। ऐसे में उनका गणित या तो उस पार्टी के पक्ष में जाता है या उस उम्मीदवार के पक्ष में जिससे व्यक्तिगत लाभ ये अधिक से अधिक हासिल कर सकें। राजस्थान की सत्ता में साझेदारी भाजपा और कांग्रेस इन दो के पास ही रही है। कोई वामपंथी दो-एक जीत भी जाएं तो वे केवल अपनी बात रखने जितने ही रह जाते हैं, बात मनवाने जितने नहीं। आमजन के असल मुद्दों को उठाने वाले लगातार कमजोर होते जा रहे हैं जो देश के लिए सुखद नहीं है। ऐसों में वामपंथी भी गिने जाते रहे हैं लेकिन लगता है बाजारवाद के इस अंधड़ में ये भी अशक्त होते जा रहे हैं। राजस्थान के संदर्भ से बात करे तो अब उनकी सक्रियता वैसे प्रशिक्षण देने जैसी भी नहीं रही जब छात्रसंघ के चुनावों में वामपंथी संगठनों के समर्थित विद्यार्थी चुनाव जीत जाते और सक्रिय राजनीति करने के लिए ये छात्र नेता भाजपा या कांग्रेस में शामिल हो जाते थे। निज स्वार्थों के चलते जब से छात्र नेता सत्तान्मुखी दलों में जाने लगे तब से वामपंथियों की छात्र राजनीति की प्रासंगिकता भी समाप्त हो गयी, ऐसा होना ही लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता है।
इसी संदर्भ में किसानी की बात कर लेते हैं-इस आन्दोलन के अगुआ गिरधारी महिया और आन्दोलन को सफल होता देख सवार हुए अन्य अधिकांश नेता किसानों के उस जाट समुदाय से ही थे जिन्हें इस सूबे में सामान्यत: समर्थ माना जाता है। और अब तो यह भी देखा जाने लगा है कि इस समुदाय में से अधिकांश लोग खुद किसानी नहीं करके या तो बटाइदारों के माध्यम से खेती करते हैं या मजदूर रखकर। ऐसे में तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है कि किसान असल में मानें किसे? कृषि प्रधान माने जाने वाले इस देश के लिए कहा यह भी जाता रहा है कि इसकी आत्मा गांवों में बसती है, ऐसे देश के लिए वर्तमान का परिदृश्य भयावह है। असल किसान आए दिन यहां आत्महत्या को मजबूर होता है। आंकड़े बताते है कि प्रतिदिन इस देश के 2000 किसान खेती करना छोड़ आजीविका के लिए दूसरे साधनों की जुगत में भटकने लगे हैं।
इसी बहाने अब क्षेत्र के तथाकथित किसान नेताओं की अवसरवादिता पर एक नजर डाल लेते हैं। श्रीडूंगरगढ़ के इस आन्दोलन को सफल होता देख क्षेत्र से एकाधिक बार विधायक रहे कांग्रेस के मंगलाराम अपने समर्थकों के साथ शामिल हो लिए। जब ऐसा हुआ तो नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी को भी लगा कि क्षेत्र के जाट समुदाय की ठकराई कहीं उनके हाथ से नहीं निकल जाए तो वे भी केवल मुंह दिखाई मात्र से श्रेय लेने पहुंच गए। इतना ही नहीं, अखबारों में बड़े विज्ञापन देकर और खबरों को जुड़वा-तुड़वा कर श्रेय हड़पने से भी ये नहीं चूके। सभी जानते हैं कि एक पार्टी से होते हुए भी क्षेत्र की जाट राजनीति में मंगलाराम और रामेश्वर डूडी में छत्तीस का आंकड़ा है। यह संयोग अकारण नहीं है कि क्षेत्र के अन्य बड़े नेता और ब्राह्मण समुदाय से आने वाले डॉ. बी. डी. कल्ला की तरह ही रामेश्वर डूडी भी राजनीति तो सूबे में शीर्ष की करना चाहते है लेकिन ये दोनों ही नेता असुरक्षा भाव जनित हेकड़ी से ग्रसित इतने रहते हैं कि अपने क्षेत्र के पार्टीजनों के साथ ही कभी सामंजस्य नहीं बना पाते। डूडी और कल्ला सपने तो प्रदेश में शीर्ष राजनीति का देखते हैं, जबकि देखा यह गया है कि इन दोनों के सरोकार ना कभी अपने क्षेत्र की समस्याओं से रहा और ना ही यहां की जरूरतों से। इसका खमियाजा सूबे की शीर्ष राजनीति में तो भुगतते ही हैं, अपने क्षेत्र में भी चुनाव जब तब इसी कारण हार जाते हैं, लेकिन फितरत कहें या हेकड़ी, जाती ही नहीं। कहा भी गया है कि 'ज्यांका पडय़ा स्वभाव जासी जीव स्यूं।'

16 फरवरी, 2017

Thursday, February 9, 2017

गृहस्थ-योगी पं. बंशीधर बिस्सा

'माघ सुदी 9 सं. 1992 तद्नुसार 1 फरवरी, 1936 को अपने जन्मदिन पर बड़ों का आशीर्वाद लेने व लोगों से मिलने मरोट (अब पाकिस्तान में) जाने का विचार किया, इसी बीच मरोट पंचायत का पत्र मिला जिसमें मरोट के उत्तर दिशा में स्थापित आवड़माता (मावडिय़ोंजी) के मन्दिर में मुसलमान पुजारियों के बारे में निर्णय लेने के लिए बुलाया गया था। यह पत्र छठ की सायं मिला। सप्तमी-अष्टमी तिथि संयुक्त थी, मावडिय़ोंजी का वार्षिक मेला उसी दिन था। मरोट मैं उसी दिन दोपहर पहुंचा, मेले से वापस आकर लगभग सारी जातियों के लोग (पिता के देहावसान पर) संवेदना प्रकट करने आये।
नवमी को प्रात: मन्दिर व घर की दीवार से सटी हुई सामदरा पीर की दरगाह के दर्शन और बड़ों का आशीर्वाद लेकर काजी साहब परिवार के सरदारशाहजी के घर गया। उन्होंने मुझे गले से लगाकर जिस तरह अपना दु:ख प्रकट किया उसका वर्णन करना ही मुश्किल है। मुझे लगा कि पिताजी की मृत्यु का सबसे ज्यादा दु:ख उन्हीं को हुआ। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया। काजी साहब मेरे दादाजी से पांच दिन छोटे और अविवाहित थे। पिताजी उन्हें चाचाजी और मैं दादाजी सम्बोधन करता था। दोपहर बाद पंचायत इलाके के मुसलमानों के साथ पुजारी इब्राहिम मेरे घर के सामने स्थित चौक में आ गये। इससे पहले मैंने अपने दादाजी व चाचाजी को बता दिया था कि पुजारी हटाना सही नहीं है। मैंने दादाजी से कहा कि मेघराजजी के आप पोते हैं व मैं पांचवीं पीढ़ी में हूं। उनकी तपस्या के फलस्वरूप मरोट के मुसलमान मावडिय़ा और क्षेत्रपाल आदि देवताओं को मान रहे हैं।
पंचायत ने मुझे निर्णय देने का जिम्मा दिया और मैंने बड़ों को नमस्कार करके अपना मन्तव्य प्रकट करके कहा, पुजारी इब्राहिम ही रहेंगे। मैं अपने पूर्वज द्वारा नियुक्त किये गये को हटाने के लिए तैयार नहीं हूं, इस पर सबने मुझे धन्यवाद दिया। 80 वर्ष के पुजारी इब्राहिमजी ने खड़े होकर कहा, मेघराज बिस्सा अमर है, इस लड़के ने यह साबित कर दिया है। उसके बाद काजी सरदारशाहजी ने कहा कि वे इस दुनिया को पैदा करने वाले का शुक्रिया अदा करते हैं और दरख्वास्त करते हैं कि इस मेघराजजी खानदान की शान बनाए रखें।'
                                                     —पं. बंशीधर बिस्सा 
                   (इस घटना के समय पं. बिस्सा 19 वर्ष के थे)

उक्त पाठ विनायक सांध्य दैनिक में क्रमश: प्रकाशित होने वाले पं. बंशीधर बिस्सा के कॉलम 'विगत आलेखन' की उस अन्तिम और अप्रकाशित कड़ी का हिस्सा है जिसे अस्वस्थता की वजह से वे दे नहीं पाए। इसका कच्चा प्रारूप उनके निधन के बाद कागजों में मिला है। इससे पूर्व में कॉलम की जो चौदह कड़ियां प्रकाशित हुईं वे उनके निजी-पारिवारिक जीवन से संबंधित थीं। इस अप्रकाशित कड़ी तथा बाद की कडिय़ों से ही उनके सार्वजनिक जीवन की जानकारी संभवत: मिलने वाली थी।
अपने को लेकर बेहद अन्तर्मुखी और संकोची पं. बिस्सा अपने सामाजिक-सार्वजनिक अवदानों के बखान से बचते थे। जब-तब सुनाए संस्मरणों से उनके ऐसे अवदान को बरामद करना मुश्किल थाएक तो अपने बारे में कहने से वे बचते थे, दूसरा उनके अन्तिम पन्द्रह वर्षों में जब मैं संपर्क में आया तब उनका कहा कुछ अस्पष्ट पाया। उनके संस्मरणीय भण्डार से लाभान्वित होने का अवसर तब आया जब 'विनायक' का सांध्य दैनिक के तौर पर प्रकाशन शुरू किया और उनसे आग्रह किया कि वे अपने संस्मरणों को विगतवार लिख दें। इस आग्रह को उन्होंने बहुत संकोच के साथ स्वीकारा जिसकी एक वजह बाद में पता चली कि गद्य में लिखने का औपचारिक अभ्यास उनका नहीं था। फिर भी उन्होंने लिखना शुरू किया। ऐसा लगता है उन्हें कुछ आयु और मिलती और कुछ समयतक वे स्वस्थ रहते तो बीकानेर के स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित गतिविधियां और आजादी बाद की राजनीतिक घटनाओं और लोककल्याणकारी योजनाओं का छिपा तलपट काफी कुछ सामने आता।
'विगत-आलेखन' की उक्त अप्रकाशित कड़ी के अंश से आलेख की शुरुआत इसलिए जरूरी लगी कि समाज में आज जब साम्प्रदायिक सौहार्द ताक पर है तब पं. बिस्सा जैसी साख वाले व्यक्तियों की जरूरत ऐसे समय में कुछ ज्यादा ही है।
अपनी युवावस्था के उत्तराद्र्ध में मित्र बने शान्तिप्रसाद बिस्सा के पिता पं. बंशीधर बिस्सा का थोड़ा बहुत जो सान्निध्य हासिल हुआ उसमें यह लगा कि पं. बिस्सा कुछ अलग हैं और गृहस्थ जीवन में भी वे योगी सा जीवन जीते है, कभी-कभार यूं भी लगता वे हठयोगी भी हैं।
देश की आजादी के आन्दोलन में गांधी से प्रभावित पं. बिस्सा को बीकानेर के स्वतंत्रता सेनानी रघुवर दयाल गोयल का सान्निध्य मिला और इसी वजह से वे यहां के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के सम्पर्क में रहे बल्कि वक्त जरूरत उनके सहयोगी भी रहे। ऐसे ही प्रभावों से उनका पहनावा आजीवन ना केवल खादी का रहा बल्कि अपनी पोशाक की धुलाई भी वे खुद करते थे और बिना इस्तिरी की मदद के अपने धोती-कुरते की सलवटें हथेली से निकालते भी देखे गये। खान-पान के मामले में जिद की हद तक संकल्पी थे। उनके खाने के समय एक बार घर पहुंचा तो देखा कि लकड़ी की सुन्दर बनी थाली वैसी ही थी जैसी पीतल-गिल्ट की थालियां हुआ करती थीं। तभी पता चला कि खाने के समय को लेकर वे इतने आग्रही थे कि पांच-सात मिनट की देरी पर ही उद्वेलित हो जाते! एकबार उन्होंने संकल्प कर लिया कि वही खान-पान ग्रहण करेंगे जिनका अग्नि स्पर्श न हुआ हो यानि सब कुछ कच्चा और इस संकल्प को उन्होंने तीन वर्ष निभाया।
आजादी बाद के एक दौर में जब स्वतंत्रता सेनानी का तमगा अंधिकाशत: सरकारी साधनों को भोगने का माध्यम बन गया और किसी असल सेनानी को कभी छूने भर से स्वतंत्रता सेनानी हो लेने की एषणाएं जोर मार रही थी तब पं. बिस्सा ने स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र हासिल करने का आवेदन तक नहीं किया। ऐसा शायद इसलिए कि देश के लिए कुछ भी किए को उन्होंने कर्तव्य माना होगा और वहीं उनके खास मित्र और गंगासिंह शासन में तीव्र यातना भोग चुके स्वतंत्रता आन्दोलन में बीकानेर के सिपाही दाऊदयाल आचार्य भी प्रेरक रहे होंगे जिन्होंने भी स्वतंत्रता सेनानी के तमगे की इच्छा कभी नहीं पाली। आजादी बाद पं. बिस्सा पंचायतीराज संघ में कार्यालय मंत्री रहे, खादी के लिए काम किया और राजस्थान में सहकारिता के आधारभूत ढांचे के निर्माण के वे नियंताओं में भी रहे और जब लगा कि यह सब काम रस्म अदायगी भर को हो रहे हैं तो परिवार पालक आजीविका के लिए पिता की प्रेरणा से जो ज्योतिष उन्होंने सीखी उसे ही पुरुषार्थ के तौर पर अपना लिया और जीवन के अन्तिम दिनों तक यानी 96 की वय तक परिजनों पर निर्भर नहीं रहे। इतना ही नहीं, परिजनों और परार्थ हेतु वे कुछ छोड़कर ही गये हैं। कृतज्ञता का बोध इतना था कि अंत तक अपने ज्योतिष गुरु शिवरतन छंगाणी (सीनजी) का बिना फोटो देखे अपने दिन की शुरुआत नहीं करते थे।
पं. बिस्सा के समय-संकल्प के सकारात्मक पक्ष की बानगी भी देखी है। आपके कॉलम विगत-आलेखन की हस्तलिखित प्रतियां सामान्यत: उनके पुत्र और मेरे मित्र शान्तिप्रसाद बिस्सा पहुंचाया करते थे। एक बार ऐसी व्यवस्था बैठ नहीं पाई तो वे अपनी नब्बे पार की उम्र में ऑटोरिक्शा से कॉलम पहुंचाने स्वयं प्रेस पहुंच गये। जब उनसे कहा कि फोन कर देते तो मंगवा लेता, जवाब में वे बस मुसकरा दिए।
पं. बिस्सा की छवि धीर-गंभीर व हठी-संकल्पी की ही नहीं थी। अवसर मिलने पर मजाक करने से भी नहीं चूकते थे। एक बार प्रेस के एक सहयोगी जो उनका घर नहीं जानते थे, किसी साहित्यिक आयोजन का उनके पुत्र के नाम का निमंत्रण देने उनके घर पहुंचा। पंडितजी घर के बाहर ही खड़े थे। पत्रवाहक ने उनसे पूछाशान्तिप्रसादजी का घर यही है क्या? एकबार तो उन्होंने हुंकारा भर कार्ड थाम लिया लेकिन ज्योंही अपने वाहन को स्टार्ट कर वह रवाना होने को हुआ पंडितजी ने आवाज दे वापस बुलाया और मुसकराते हुए कह दिया—'यह घर अभी तक मेरा ही है।' उनके इस कथ्य को कोरा मजाक मानना भी उचित नहीं होगा। उनका मकसद मजाक में तथ्य को दुरुस्त करना भी था क्योंकि वह घर तब तक उन्हीं के नाम था। ऐसी फितरत हर खरे आदमी में होती ही है।
थोड़ी अस्वस्थता के बाद 12 जनवरी, 2012 को पं. बिस्सा का निधन यदि नहीं होता तो देर से मिल पाए उनके सान्निध्य की व्यक्तिगत भरपाई तो मेरे लिए कुछ होती ही, 'विनायक' के पाठक भी उनके लिखे कॉलम से लाभान्वित होकर आजादी पूर्व और आजादी बाद के उनके सार्वजनिक व निजी अनुभवों से वाकिफ होते, इतना ही नहीं 12 फरवरी 1916 को जन्मे पं. बिस्सा 12 फरवरी, 2017 को शतायु भी हो जाते। उनकी स्मृति और उनसे मिले स्नेह को प्रणाम।

9 फरवरी, 2017

Thursday, February 2, 2017

केन्द्रीय बजट पर कुछ यूं ही

साहित्यकार मालचंद तिवाड़ी एक किस्सा सुनाया करते हैं : रतनगढ़ रेलवे स्टेशन के बाहर दो-तीन बासे (भोजनालय) हैं जहां पूर्ण खुराक की दर पर स्वादिष्ट देसी खाना अच्छी-खासी मनुहार के साथ खिलाया जाता है। पहनावे से ठीक-ठाक व्यापारी दिखने वाले एक सज्जन वहां सुबह खाने को पहुंचे। परोसने वाले ने थाली लगाई और चामक से भिन्न तरह की साक-दाल परसने लगा, उन सज्जन की नजर चामक पर थीपरोसगार जैसे ही छोंकी हरी मिर्च परसने को हुआ, सज्जन ने हाथ के इशारे से बरज दिया। फिर फुलके-भात परसने के बाद घूम फिर कर चामक के साथ वह फिर लौटा और मनुहार की 'सेठां मिर्च लेल्यो।' सज्जन ने इस बार फिर मना किया तो मिर्ची ना लेना परोसगार को अखर गया, क्योंकि उनसे पूर्व आज जिसने भी खाना खाया, उसने मिर्च की विशेष तारीफ की थी। उसने जैसे ही तीसरी-चौथी बार मिर्च की वैसे ही मनुहार की तो सज्जन तमातमाए और थाली छोड़ खड़े हो गये, परोसगार पर चढ़ाई करते बोल पड़े 'पैलां किसी मिच्र्यां ली कोनीं और फेर किसी लेस्यां कोनीकणा स्यूं लगा राख्यो है'क सेठां मिच्र्यां लेल्यो-सेठा मिच्र्यां लेल्यो, से खाणे रौ नास कर दियो।'
अब बेचारे परोसगार को क्या पता कि उन सज्जन के लाल मिर्चों का व्यापार है और हाल ही में उन्हें इसमें भारी नुकसान हुआ है।
यह किस्सा इसी 1 फरवरी की शाम तब याद आ गया जब एक खबरिया चैनल पर केन्द्र सरकार के वर्ष 2017-18 के आम बजट पर चर्चा हो रही थी। एंकरिंग कर रही दो महिलाओं में से एक ने चर्चा में शामिल केन्द्रीय वित्त राज्यमंत्री, बीकानेर सांसद अर्जुनराम से पूछ लिया कि नोटबंदी से परेशान उस निम्न आम वर्ग की राहत के लिए बजट में क्या है। फिर क्या था? मेघवाल ठीक वैसे ही तमतमा कर भड़क गये जैसे खाना खाने को बासे गये उक्त सज्जन मिर्च की मनुहार पर उस बेचारे परोसगार पर भड़क गए थे। मेघवाल का बड़ा अजीब कुतर्क था कि बजट की ही बात करें-इसका नोटबंदी से क्या संबंध। अर्जुनराम मेघवाल उस चैनल पर कोई दस-बारह मिनट के लिए आए होंगे और वे अंत तक सहज नहीं हो पाए। जब उनके सामने से कैमरा हटा तब तक बड़बड़ाते रहे।
परेशान सामान्य आमजन में से कई भिन्न कारणों से भले ही नोटबंदी की परेशानी जाहिर न कर रहे हों, इसके मानी ये नहीं कि नोटबंदी से उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। दोनों ही महिला एंकर बहुत विनम्र रहीं, मेघवाल के शुरुआती तेवरों से शायद दबाव में आ गई अन्यथा वे पूछ सकती थीं कि आपने नोटबंदी के तुरंत बाद इसी चैनल पर दावा किया था नोटबंदी के सकारात्मक परिणाम के तौर पर देश के सकल घेरलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर दस प्रतिशत पहुंच जायेगी जबकि पेश बजट में जीडीपी की यह दर गिरावट के साथ 6.75 प्रतिशत बताई गई है। खैर, मेघवाल जिस गरिमामय पद पर हैं उन्हें इस तरह आपा नहीं देना चाहिए था।
इस सबके बावजूद मेघवाल के लिए बधाई यह बनती है कि उन्होंने अपने क्षेत्र बीकानेर में देश के अब तक के सबसे बड़े ऑयल रिजर्व सेंटर निर्माण के लिए इस बजट में रुपये 4200 करोड़ का प्रावधान करवा दिया है। देखना यही है कि यह योजना जमीन पर कब आती है अन्यथा तो बीकानेर के अनुभव अच्छे नहीं हैं, यहां के लिए बनी योजनाएं फूटने से पहले ही झर जाती हैं। इसी तरह इस बजट से यह उम्मीद भी करते हैं कि 3500 किमी घोषित नई रेललाइनों में मेड़तासिटी-पुष्कर का मात्र 59 किमी. का वह टुकड़ा भी शामिल होगा।
वहीं दूसरी ओर अपने बीकानेर के बड़े नेता और विधानसभा में भी कई बार शहर की नुमाइंदगी कर चुके डॉ. बीडी कल्ला अब भी रेल बाइपास पर अटके हुए हैं। पेश बजट पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि बजट में बीकानेर रेल बाइपास का कोई जिक्र नहीं है। अब डॉ. कल्ला से कोई पूछे कि देश में कोई अन्य ऐसा उदाहरण है जहां शहरी यातायात समस्या के समाधान हेतु रेल बाइपास बना हो। चलो मान लेते है कि यह नवाचार बीकानेर में क्यों नहीं हो सकता। बीकानेर में रेल फाटकों की यह समस्या पिछली सदी के नवें-दसवें दशक से चर्चा में है और तब से ही इसके समाधान की मांग चल रही है। समाधान के तौर पर रेल बाइपास भी उपाय माना जाता रहा है, कल्ला ना केवल तभी से प्रदेश सत्ता के शीर्षस्थों में रहे बल्कि कई अवसर ऐसे भी आए जब केन्द्र में भी उन्हीं की पार्टी की सरकार रही। ऐसे में कल्ला यह बताएं कि उन्होंने तब रेल बाइपास को अमलीजामा क्यों नहीं पहनवाया। जनता डॉ. कल्ला को तीन बार शायद इसीलिए नकार चुकी है कि इन्हें ना तो बीकानेर की असल जरूरतों का भान है और ना ही यहां की समस्याओं के व्यावहारिक समाधानों की सूझ। आगामी चुनाव में कल्ला को अपनी जीत को पुख्ता करना है तो अपनी व्यावहारिक राजनीति के छत्तीस वर्ष बाद ही सही उन्हें अब तो यहां की जमीन से जुडऩे की जरूरत समझनी चाहिए अन्यथा आगामी चुनाव में पार्टी ने प्रत्याश्ी बना भी दिया, बावजूद इसमें वे फिर हार गये तो लौटना मुश्किल होगा।

2 फरवरी, 2017