वैसे तो आस्था तर्कों से परे होती है, आस्था के नाम पर आदमी वह सब करने को तैयार हो जाता है जिन्हें वो करने को अन्यथा हरगिज तैयार नहीं होता। आस्था के नाम पर दसियों चैनल तो चौबीसों घंटे चलते हैं, और हजारों नहीं तो सैकड़ों धर्म उपदेशक बहुत सुविधा से अपना सबकुछ गुजर-बसर कर रहे हैं, इन धर्मगुरुओं में पहली जो काबिलीयत देखी गई वो यह कि उनमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा होता है। अन्यथा वो अपने को इस योग्य ही क्यों पाते कि वो अन्यों को सीख देने के काबिल हैं और दूसरी बड़ी काबिलीयत यह कि उनमें धैर्य भी जबरदस्त होता है। क्योंकि इस काम में आजकल प्रतिस्पर्धा बहुत हो गई और हर ‘गुरू’ अपने गुरुडम को उच्चतम शिखर पर देखना चाहता है। मुश्किल यह कि शिखर कोई पहले से या तो तय नहीं है या फिर दिखलाई नहीं देता।
खाजूवाला से समाचार है कि इस क्षेत्र में नये-नये आये संत रामपाल अपने शुरुआती दौर में ही मैदान छोड़ भागे। संतजी को शायद कोई ढंग का ‘गुरू’ नहीं मिला होगा अन्यथा वो धैर्य और आत्मविश्वास तो घुट्टी में ही पिला देता।
-- दीपचंद सांखला
23 दिसम्बर, 2011
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