Monday, August 31, 2015

जितने मन उतनी बातें

भक्त कवि सूरदास की कही सुनते हैं, मन भए दस बीस। मन की इस बात में वे बतला गए कि उनके पास एक ही मन था जो श्याम संग चला गया। सूरदास के अपने जमाने पन्द्रहवी शताब्दी में मन एक ही होता होगा। हाल के इन राजनेताओं के हवाले से बात करें तो लगता है उनका काम सूरदास की बताई दस-बीस की संभावनाओं से भी नहीं चलता। वे जितनों से भी मिलते हैं एक अलग मन से मिलते हैं। अब यह मन क्या बला है इसे समझना भी कम पेचीदा नहीं है। शब्दकोश तो इसे संकल्प-विकल्प करने वाली वृत्ति बतलाता है। ऐसे में राजनीति करने वालों का काम एक संकल्प से तो चलता नहीं, क्योंकि उनके श्याम केवल बदलते रहते हैं बल्कि पार्टी में ही वे अपने से ऊपर के प्रत्येक को श्याम मान कर ही चलते-चलाते हैं और यदि चुनाव जाए तो हर मतदाता में श्याम देखने की मजबूरी हो जाती है। इस तरह बहुविकल्पीय वृत्ति यदि मन की मजबूरी है तो श्याम को टाइममशीन पर सवार कर द्वापर में भेजना पड़ता है।
देश के प्रधानमंत्री जब से मोदी हुए हैं वे आकाशवाणी के माध्यम से जब-तब मन की बात जनता से साझा करते हैं। अन्य मीडिया माध्यमों यथा टीवी और अखबारों को वे संभवत: भरोसेमंद नहीं मानते। यह अलग बात है कि मोदी आकाशवाणी पर अपने मन की कहते हैं तब सभी खबरिया चैनल उसे प्रसारित करने से नहीं चूकते और अखबार भी पूरी तवज्जो देते हैं। यह पड़ताल का हेतु हो सकता है कि मोदी मन की कह तो लेते हैं पर वे मन की करते कब हैं। हो सकता है इतनी विदेश यात्राएं उनके मन की ही करनी हो। समझने की बात यह भी है कि जब विदेशों में मोदी-मोदी कीर्तन के बीच वे जो कुछ कहते हैं वह बेमन की बाते हैं या देश में चुनावी सभाओं में जो कुछ कहते हैं वह बेमन की है।
इन राजनेताओं की करनी देख के और कथनी सुन के ही सूरदास की कही उक्त बात को खारिज करने का 'मन' हुआ। मन के मामले में सूरदास भले ही दरिद्र होंहमारे नेताओं के पास बेहिसाब मन हैं, इसलिए वे मन की कहते हिसाब भी नहीं रखते।
अब कल ही मोदी को अपने मन की बात में वही भू-अधिग्रहण कानून ठीक लग गया जिसे उनकी पार्टी की सहमति से कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने लागू किया था, जबकि इससे पहले की मन बात में उन्होंने अपनी सरकार द्वारा बनाए भू-अधिग्रहण कानून को ज्यादा किसान हितैषी बताया। कल अपने उस मन के कहे को पिछवाड़े डालकर बेकफुट होते तर्क दिया कि उनके लिए किसान हित सर्वोपरि है। देख लें जितने मन, उतने ही किसानों के हित।
स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं से लेकर स्थानीय होते भी बड़भैय्ये की घसकाई लगाने वाले नेताओं और उनकी अनेक मन-मशांओं से सभी स्थानीय जन वाकिफ होंगे। इनके आका-काका भी इन मामलों में कम नहीं है। पिछली सदी के आठवें दशक बाद से ये सभी निस्संकोच हो हम्माम में कूद पड़े हैं। कह नहीं सकते, कौन कब किसके साथ हो ले और कौन कब किस में घुस जाए। ऐसों पर अब तो अचम्भा होना ही बन्द हो गया। भाजपा के दो सौ बयासी सांसदों में ही एक सौ बीस ऐसे हैं जो कांग्रेस में थे। और जो कांग्रेस को कभी बिना पानी पीए कोसते थे वे कब कांग्रेस के गलबहियां डाल लेते हैं, कह यह भी नहीं सकते। ऐसे भी हैं जो भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक और नरेन्द्र मोदी को उसका रोल मॉडल बताते नहीं थकते थे, वे मोदी स्तुति में लीन हो जाते हैं। इस पर विचारने की जरूरत जनता भी अब कहां महसूसती है। इसलिए मन की ऐसी की तैसी, उसे तो उसी रूप में प्रकट होते रहना होगा जिस रूप से स्वार्थ सधते हों। वैसे भी सूरदास छह सौ वर्ष पहले हुए। तब उनका काम एक मन से चल गया होगा। अब तो नेताओं की जितनी सांसें हैं उतने ही इनके मन हैं। जहां यह जुगलबंदी टूटी, वहीं राजनेताओं की सांस भी रुकते देर नहीं लगती। अवाम ने भी चकबंब तमाशबीन होकर देखते रहने में ही अनुकूलता मान ली है। अनुकूलता की इस अवस्था से जब तक अवाम नहीं निकलेगी तब तक इन नेताओं की पौ बारह है ही।

31 अगस्त, 2015