Wednesday, October 31, 2018

जरूरी-गैरजरूरी--रंग-बेरंग खबरें (17 दिसंबर, 2011)

अकसर देखा गया है कि जो खबरें बननी चाहिए वो नहीं बनती, वहीं यह भी कि कुछ खबरें जबरिया बन जाती हैं। ठीक इसी तरह कुछ जो असल मुद्दे होते हैं, वे गौण रह जाते हैं, कुछ मुद्दे ऐसे भी होते हैं जिन्हें उठाना किसी और समूह को चाहिए, उठा कोई और समूह लेता है। ऐसा ज्यादातर होता इसलिए है कि कोई मुद्दा किसी का लिहाज में नहीं उठाया जाता तो कोई किसी समूह का उपयोग आंदोलन द्वारा अपने हित साधने में कर लेता है।
जब-जब भी कोई विशिष्ट व्यक्ति या राजनेता आता है तो आनन-फानन में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर दिये जाते हैं। बिना टेण्डर शाया किये या बिना कागजी खानापूर्ति किये ही। यह सब औपचारिकताएं बाद में पूरी होती है। ऐसे कामों में व्यवस्था और प्रशासन दबाव में होता है। हिसाब और औपचारिकताएं जब बाद में होती है तो ज्यादा वसूलने वाले का लिहाज भी करना पड़ता है। क्योंकि वो ऐसे मौकों पर काम जो आया था। इस तरह के औचक आयोजनों के खर्चों के बारे में आवाज न तो कभी मीडिया उठाता है और ना ही कोई नागरिक इस तरह के खर्चों की सूचना ‘सूचना के अधिकार’ कानून के तहत मांगता है।
अभी पिछले दिनों राष्ट्रपति बीकानेर आईं। ताबड़तोड़ इतना काम हुआ कि उस खर्चे को जोड़ा जाय तो करोड़ों में बैठेगा। अभी हाल ही में मुख्यमंत्री की 6 घंटे की संक्षिप्त यात्रा अचानक बन गई। इसमें भी लाखों से कम का खर्च नहीं हुआ होगा। हो सकता है इस तरह की यात्राओं के खर्चों को अलग-अलग कई मदों में बांट दिया जाता हो। उन्हें इस तरह भी दिखा दिया जाता है जैसे उस खर्चे का उस यात्रा से कोई लेना-देना ही नहीं था, जिस यात्रा पर असल में वो खर्च होता है।
आज ही खबर है कि शहर की ट्रैफिक पुलिस मुस्तैद होगी। देखेंगे कि समय के साथ यही ट्रैफिक पुलिस शिथिल हो जायेगी और खुद पुलिस वाले ही कायदे तोड़ने लगेंगे। इसकी खबर हम किस मुस्तैदी से बनाते हैं? नहीं बनाते।
पशु-विज्ञान और पशुचिकित्सा विश्वविद्यालय के छात्र पिछले कुछ दिनों से आन्दोलन पर हैं। उनकी मांग है कि निजी क्षेत्र के वेटेनरी कॉलेजों को मान्यता ना दी जाय। देखा जाय तो उनकी पढ़ाई से इसका कोई संबंध नहीं है। हां, उनके भविष्य से हो सकता है। लेकिन किन्हीं दूसरों के भविष्य को दावं पर लगा कर अपने भविष्य को सुरक्षित करना कितना जायज है? अगर निजी कॉलेजों की मान्यता में कुछ गलत भी है तो समाज के कई अन्य समूह भी इसे उठा सकते हैं। वैसे भी यह मुद्दा राज्य सरकार के स्तर का है। इसका विश्वविद्यालय प्रशासन से कोई लेना-देना नहीं है।
संभाग का सबसे बड़ा डूंगर कॉलेज तो अब खबरों में इसलिए नहीं होता कि वहां कक्षाएं लगना लगभग बंद है। कहा तो यहां तक जाता है कि वहां प्राध्यापक ही इस जुगत में लगे रहते हैं कि शैक्षिक माहौल बने ही नहीं। इसी कॉलेज के प्राचार्य का घेराव गैर-शैक्षणिक मुद्दों को लेकर हर दूसरे दिन होता है। इसकी सचित्र खबरें हम रोज देख सकते हैं।
--दीपचंद सांखला
17 दिसम्बर, 2011

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