Thursday, December 17, 2020

बीकानेर जिले की ग्रामीण राजनीति पर एक नजर

 बीकानेर जिले में पंचायत और जिला परिषद के चुनाव हो चुके हैं। कौन किस तरह जिला प्रमुख बना और कौन प्रधान, इसकी चर्चा हो चुकी है। यों तो गांधी-नेहरू के आदर्श ग्रामीण राज को यह वर्तमान पंचायत व्यवस्था धता कब की बता चुकी है लेकिन जैसी भी वह है, लगातार गर्त में जा रही है। गावों की राजनीति शहरों से कुछ अलग चाहे हो लेकिन चरित्र उसका कमोबेश एक ही है। बजाय जाति से ऊपर उठने के चुनाव जातियों में धंसते जा रहे हैं। गांवों की राजनीति भी जाति से इतनी ही ऊपर उठती है कि वह धड़ों में बंध जाए। इसकी वजह है उच्च जातियों का जाति मोह नहीं छोडऩा, उन्हें भ्रम है कि उनकी हैसियत बिना जाति के बनी नहीं रह पायेगी। उच्च जातियां इसके लिए दोषी दलित जातियों की जातीय चेतना और प्रकारान्तर से आरक्षण को मानते हैं। जबकि वे मानने को तैयार नहीं हैं कि दलितों के पास खोने को क्या है। खैर, यह विचार का अलग मुद्दा है। फिलहाल हम बीकानेर की ग्रामीण राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं।

जाति है और यह आसानी से तो क्या, कभी भी जाने वाली नहीं है। राजनीति से लाभ की समझ गांवों में जब से आयी, तब से वहां भी उसने रंग दिखाना शुरू कर दिया। बीकानेर जिले की राजनीति के सन्दर्भ में आजादी के तुरन्त बाद की ग्रामीण राजनीति पर नजर डालें तो ठिकानेदार राजपूतों की उम्मीदवारी के अलावा वणिक समुदाय के रामरतन कोचर लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र से तो मानिकचन्द सुराना कोलायात विधानसभा क्षेत्र से जीत गये थे। जबकि दोनों के समुदायों के मतदाता वहां बहुत कम है। इसी तरह इसी समुदाय के मोतीचन्द खंजाची बीकानेर विधानसभा क्षेत्र से जीत गये थे। हालांकि खजांची की जीत में उनके चुनाव चिह्न (तीर-कमान) को वजह ज्यादा माना जाता है, क्योंकि वही चुनाव चिह्न रियासती वारिस डॉ. करणीसिंह का था। कोलायत से सुराना के बाद लगातार दो बार (1967, 1972) सिंधी समुदाय की कान्ता खथूरिया बिना जातीय आधार की जीतीं। नोखा (1960 उपचुनाव) से पारीक समुदाय से आने वाले रावतमल पारीक की जीत भी जातिवाद से ऊपर की जीत मान सकते हैं। उल्लेखित सभी उम्मीदवार वे शहरी थे जिन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में जाकर उम्मीदवारी की। लेकिन उक्त सभी उल्लेखों को केवल जाति से जोड़ देखना-समझना इसलिए उचित नहीं लगता कि तब तक ग्रामीण लोगों में राजनीतिक या कहें चुनावी चेतना नहीं जगी थी। जैसे ही जगने लगी शहरी नेताओं की घुसपैठ कम होती गयी, इसके आपवादिक उदाहरण के तौर मानिकचन्द सुराना का उल्लेख कर सकते हैं जो पिछली विधानसभा तक लूनकरणसर जैसे जाट प्रभावी ग्रामीण क्षेत्र से नुमाइंदगी कर रहे थे।

पिछले परिप्रेक्ष्य के बाद वर्तमान ग्रामीण राजनीति पर नजर डालें तो जिले में जो बड़े नाम हैं उनमें देवीसिंह भाटी और रामेश्वर डूडी प्रमुख हैं। भाजपा में कई बार अन्दर-बाहर के आवागमन बावजूद जिले में देवीसिंह कांग्रेस विरोधी राजनेता के तौर पर स्थापित हैं। वहीं बाल-सुलभ रूठने-मनाये जाने वाले रामेश्वर डूडी जिले की ग्रामीण राजनीति में कांग्रेस के शीर्ष नेता माने जाते हैं। दोनों ही प्रदेश की राजनीति में उंचे पदों पर रहे हैं। लेकिन दोनों की अति महत्वाकांक्षाएं उन्हें बार-बार उतारती-चढ़ाती रहीं हैं। कोलायत से लगभग अजेय बने रहे देवीसिंह भाटी पिछले दो चुनावों में लगातार पटखनी खा चुके हैं। उन्हें उन्हीं के समुदाय के युवा भंवरसिंह भाटी ने अपने पहले ही चुनाव में हरा दिया। भाटी उन्हीं रघुनाथसिंह भाटी के बेटे हैं जो देवीसिंह भाटी से हारते रहे। वहीं नोखा को बपोती मानने वाले रामेश्वर डूडी 2008 में सामान्य सीट होने के बाद का पहला चुनाव और 2018 का तीसरा चुनाव हार चुके हैं। 2013 का एक चुनाव वे जरूर जीते जिसके चलते वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे। डूडी का ऐंठीला स्वभाव उनके लिए नकारात्मक है, जो इस वय में भी जाता दिख नहीं रहा। इसी के चलते वे अपनों को कब नाराज कर लेते हैं, उन्हें पता नहीं चलता।

देवीसिंह भाटी और रामेश्वर डूडीइन दोनों नेताओं की राजनीति में हैसियत ऐसी है कि जिले में विधानसभा की सातों सीटों के चुनावी समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं, करते हैं। अलावा इसके पंचायत और जिला परिषद् के चुनावों में ये दोनों अपनी पैठ पुख्ता करने की कोशिश करते रहे हैं या यों कहें कि इनकी पैठ की कसौटी ये पंचायत चुनाव हैं। हाल ही में सम्पन्न पंचायत चुनावों में दोनों ने अपनी-अपनी पैठ की पुख्तगी साबित की है। देवीसिंह भाटी तो बीकानेर नगर निगम चुनावों में भी अपनी पैठ का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते।

आजादी के 50 वर्ष बाद जिले में अनुसूचित जाति के दो नेताओं ने भी अपनी पैठ बनानी शुरू की। अर्जुनराम मेघवाल और गोविन्दराम मेघवालये दोनों नेता मेघवाल समाज से आते हैं। इससे दो बातें स्पष्ट होती है, पहली ये कि आरक्षण के बावजूद अनुसूचित जाति के किसी नेता को ऐसी पैठ बनाने में 60 वर्ष लगे जिसमें वे जिले की राजनीति को प्रभावित कर सके। दूसरी यह कि अनुसूचित जातियों में मेघवाल के अलावा अन्य तमाम जातियां राजनीतिक तौर पर आज भी पिछड़ी हैं। हाल ही के पंचायत चुनावों में अन्य बड़े नेताओं के साथ गोविन्द मेघवाल और अर्जुनराम मेघवाल ने जिले की ग्रामीण राजनीति पर अपना असर अच्छा खासा साबित करने की कोशिश की। जहां अर्जुनराम मेघवाल अपने पुत्र रविशेखर को जिला पार्षद का चुनाव जितवा नहीं पाएं, वहीं अपने परिवार के दो जिला पार्षद जितवाने के बावजूद गोविन्द मेघवाल जिला प्रमुख के चुनाव में अपने पुराने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी रामेश्वर डूडी से फिर मात खा गये। फिर भी 2024 में होने वाले आगामी लोकसभा चुनाव में गोविन्द मेघवाल बीकानेर से अपने लिए कांग्रेस की उम्मीदवारी जुटा पाते हैं कि नहीं, देखने वाली बात होगी। रामेश्वर डूडी कांग्रेस में रहे तो गोविन्द मेघवाल के लिए सबसे बड़ी चुनौती वे तब भी होंगे। 

जिले में कांग्रेस से दो और जाट नेता मंगलाराम गोदारा और वीरेन्द्र बेनीवाल हैं लेकिन वे इतने महत्वाकांक्षी नहीं कि अपने विधानसभा क्षेत्र से बाहर ज्यादा टांग अड़ाएं, लेकिन इतने बेअसर भी नहीं कि अपने-अपने क्षेत्र में अपना चुनाव हारने के अलावा भी मात खा जाएं। इन दोनों नेताओं ने अपने बूते इतना असर अपने-अपने क्षेत्रों की पंचायतों में दिखाया ही है।

भाजपा के ग्रामीण नेता श्रीडूँगरगढ़ के किसनाराम लगभग रिटायर हो चुके हैं तो विश्वनाथ मेघवाल को उनकी लो-प्रोफाइल राजनीति कितना कुछ देगी, समझ से परे है। वहीं सुमित गोदारा और बिहारी बिश्नोई भाजपा की ग्रामीण राजनीति में पैठ बनाने में लगे हैं। जिसमें बिहारी बिश्नोई हर कहीं ना उलझते हुए और अपनी साख चुपचाप बढ़ाने में लगे हैं, हो सकता है आने वाले समय में वे भाजपा की ग्रामीण राजनीति में अपनी हैसियत प्रभावी बना लें।

श्रीडूँगरगढ़ से गिरधारी महिया जीते जरूर सीपीआईएम के सिम्बल से हैं लेकिन उनकी यह जीत व्यक्तिगत ज्यादा है। और ऐसी पैठ को लंबे समय बनाये रखना आसान नहीं है, इसके लिए उन्हें या तो हमेशा गिरधारी महिया बने रहना होगा या फिर मानिकचन्द सुराना बनना होगा।

राजनीति के नये ढर्रे में स्थापित नेता अपने साथ के किसी भी युवा नेता को आगे बढ़ाने से परहेज करते रहे हैं। ऐसे में नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं का आकर्षण लगातार कम होता जा रहा है जिसके चलते केवल अपने लाभ की सोच रखने वाले लोग ही राजनीति में आने लगे हैं। इसी ढर्रे की वजह से नेताओं की जो नई खेप सामने आने लगी है उनका राजनीतिक मूल्यों से कोई वास्ता नहीं होता। इसका खमियाजा शासन और प्रशान के तौर-तरीकों में बुरे परिणामों के साथ सामने आने लगा है। यह ढर्रा जब तक नहीं बदलेगा तब तक समर्पित कार्यकर्ता राजनीति में आने से झिझकते रहेंगे। पता है इस पर विचार नहीं होगा, फिर भी आगाह करने में क्या जाता है।

दीपचन्द सांखला

17 दिसम्बर, 2020