Thursday, July 25, 2019

सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिदृश्य पर कुछ यूं भी विचारें

कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की सरकार गिर गई, इसमें आश्चर्य कैसा? मई, 2019 में केन्द्र में जब शाह-मोदी की सरकार पुन: काबिज हुई तब ही मान लिया गया था कि कर्नाटक, मध्यप्रदेश और संभवत: राजस्थान की भी सरकारें गिर सकती हैं। लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत के प्रति प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार 10 करोड़ के खर्च का जो अनुमान किया जाता है, सुनते हैं वहीं दक्षिण में विधायक बनने के लिए उम्मीदवार इतना ही खर्च कर देते हैं। सरकारों में रहते कांग्रेसियों ने धन बल पर जिस तरह चुनाव जीतने शुरू किए, सुविधा होने पर उसी तरीके को विपक्षी दलों ने भी अपनाना शुरू किया। 1980 के दशक के बाद विभिन्न प्रदेशों में विपक्षी और क्षेत्रीय दल सफल होते गये। पासा आज पलट चुका है। बाहुबलियों और धनबलियों का सपोर्ट पर्दे के पीछे से लेने वाली कांग्रेस ईमानदारी की बात अब तब करने लगी जब तब का मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने कॉरपोरेट की साझेदारी में बाहुबलियों और धनबलियों को ही मंच सौंप दिया।
कांग्रेस खुद फिर से खड़ी होगी या उसका कोई रक्तबीज, अभी कुछ कहना संभव नहीं। हो सकता है भारतीय लोकतंत्र अगले एक-दो चुनाव तक यूं ही हिचकोले खाता रहेगा, क्योंकि जनता ने जिस संघ स्कूल के मोदी-शाह को सत्ता सौंप दी है, लोकतांत्रिक संस्कारों से उनका लेना-देना दूर-दूर तक नहीं है। निरकुंश होने के लिए वे संवैधानिक और जवाबदेही बेरियरों को निष्प्रभावी कर रहे हैं। हाल ही में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून की स्वायत्तता खत्म करने को मोदी-शाह की नीयत की बानगी कह सकते हैं। लगता है जब तक इनसे कोई बड़ी भूल नहीं होगी और ठोकर खाई जनता इन्हें अपदस्थ करने की नहीं ठान लेगी, तब तक ये जमे रहेंगे। इनका समय ज्यादा खिंचने की आशंका इसलिए भी है कि विपक्ष के अधिकांश नेता भ्रष्ट हैं और शाह-मोदी ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सीबीआई के माध्यम से इन सभी को डराकर घिग्घी टाइट रखने की ठान रखी है ऐसे नेता या तो मोदी-शाह के साथ आ जाएं अन्यथा चुप होकर बैठ जाए।
सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के लिए शुद्ध आचरण का गांधी का आग्रह यूं ही नहीं था, इसीलिए गांधी शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधनों की बात करते थेमतलब अच्छे परिणाम हासिल करने हैं तो तौर-तरीके भी साफ-सुथरे रखने होंगे। कांग्रेस से गड़बडिय़ां नेहरू के समय ही शुरू हो गई थी लेकिन नेहरू के बाद तो केन्द्र ही क्यों, राज्यों में जहां-जहां कांग्रेसी की सरकारें रहीं, राज से जुड़े कांग्रेसी भ्रष्टाचार बेधड़की से करने लगे। राज में होने से अवैध धन आने लगा तो राज में बने रहने के लिए चुनाव जीतने भी जरूरी हो गये। फिर क्या, धन के होते चुनावों में साम-दाम दण्ड-भेद जैसे सभी तरीके आजमाए जाने लगे। इसीलिए राहुल गांधी और उनके कांग्रेसी कर्नाटक के घटनाक्रम में शुद्ध आचरण की बात करते अच्छे नहीं लगते।
कांग्रेस को यदि फिर से मुख्यधारा की राजनीति में जगह बनानी है तो ना केवल गांधी-नेहरू के राजनीतिक मूल्यों की ओर लौटना होगा बल्कि बीते पचास वर्षों में उनके नेताओं में आयी गिरावट को स्वीकार करते हुए पश्चात्ताप के साथ जनता के सामने जाना होगा। भ्रष्ट और अनैतिक तौर-तरीकों से शाह-मोदी और येदियुरप्पा जैसों से पार पा सकने वाला नेता कांग्रेस के पास एक भी नहीं है।
प्रादेशिक क्षत्रपों में बिहार के लालूप्रसाद की पारी खत्म हो चुकी है, उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती अपने और अपने पूर्ववर्तियों के किए कबाड़ों के बोझ तले दबे हैं। अन्य हिन्दी प्रदेशों के साथ कर्नाटक, ओडिशा और अब पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ना केवल जड़ें जमा ली हैं बल्कि बीते 90 वर्षों की इसकी कारस्तानियां के परिणाम भी उसको मिलने लगे हैं। संघ धर्मभीरू हिन्दुओं के मन में यह डर बिठाने में सफल हो गया कि मुसलमान उन पर हावी हो जाएंगे। इस सफेद झूठ का कोई आधार नहीं है, फिर भी संघानुगामी झूठे आंकड़ों को लगातार प्रसारित कर इस छद्म भय को और पुख्ता करने में जुटे हैं। 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल 24 प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं, जिनमें 14.25 प्रतिशत मुसलमानों के अलावा शेष में ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी आदि शामिल हैं। 
भारत का सनातनी हिन्दू चित्त सामान्यतया उदार माना जाता रहा है। यही वजह है कि तुर्कों-मुगलों के लगभग छह सौ वर्षों के राज में भी उसका बहुसंख्यक अस्तित्व बना रहा। इसमें मुगल शासकों की उदारता और बाहर से आये मुसलमानों की यहां के बाशिन्दों के साथ घुल-मिल कर रहने की प्रवृत्ति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज का संघ संक्रमित भयभीत हिन्दू मन यह तर्क करने में समर्थ क्यों नहीं है कि मुसलमानों और ईसाइयों के लगभग आठ सौ वर्षों के शासन में जो हिन्दू समाज बहुसंख्यक बना रहा उस पर इस संघ पोषित शाह-मोदी की सरकार में भला संकट कैसा।
कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के तुष्टीकरण जैसे आरोपों की पुष्टि भी कोई आर्थिक-सामाजिक सर्वे नहीं करता है। अधिकांश भारतीय मुसलमान की आर्थिक सामाजिक-स्थितियां भारत के दलितों से बेहतर नहीं है। इसलिए जरूरत भारत के आम सनातनी मन वाले हिन्दू को भय के अपने भूत को निकाल फेंकने के साथ गांधी जिस उदार हिन्दू चित्त की बात करते रहेउस ओर लौटने की है।
—दीपचन्द सांखला
25 जुलाई, 2019

Thursday, July 18, 2019

केंद्र व राज्य के बजट और बीकानेर

बजट केन्द्र के हों या राज्य के, रस्म अदायगी भर हो कर रह गये हैं। एक समय था जब केन्द्र सरकार के मुख्य और रेल बजट; दोनों की ना केवल उत्सुकता रहती थी बल्कि बजट पूर्व और उसके बाद जागरूक समाज में चर्चा का हेतु बना रहता। 2014 में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने, रेल बजट को खत्म ही कर दिया। अरुण जेटली के वित्तमंत्री रहने तक केन्द्रीय बजट का महत्त्व कुछ बना रहा, जनता ने जैसे ही मोदी-शाह को राज दुबारा दिया, लगने लगा केन्द्रीय बजट को भी खत्म करने की ठान ली गई है। बहुत कुछ गोल-मोल करना और बहुत कुछ छिपाना इस नयी सरकार के पहले बजट से शुरू कर दिया गया। मानों, राज की मंशा यही हो कि गुड़ कोथली में फोड़ लिया जाए। कुछ दिखेगा, पता चलेगा तब जनता उम्मीदें करेंगी, उम्मीदें होंगी तो राज कठघरे में और कसौटी पर रहेगा।
मोदी के पिछले राज के बजट में बीकानेर जिले में क्रूड ऑयल रिजर्व का बड़ा एलान किया गया। लूनकरणसर क्षेत्र को चिह्नित भी कर लिया गया। हमारे सांसद, केन्द्र में राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल उस घोषणा को लेकर कुछ दिन तो फूले नहीं समाये। लेकिन थोड़े दिनों बाद अचानक जैसे उन्हें सांप सूंघ गया। बाद में पता लगा कि सांप सच में सूंघ गया था। उस क्रूड ऑयल रिजर्व की योजना को गुजरात भिजवा दिया गया। बहाना बनाया गया आयोजन क्षेत्र का अन्तरराष्ट्रीय सीमा से पर्याप्त दूर ना होना। ऐसा था भी तो लूनकरणसर के अलावा बीकानेर जिले में ही श्रीडूंगरगढ़ तहसील क्षेत्र ऐसा है जो सीमा से पर्याप्त दूर है। चलो, बीकानेर जिला छोड़ देते है राज्य के किसी दूसरे जिले को चुन लेते। लेकिन मुहावरा है ना 'धणी का धणी कौन'। मोदी-शाह के सामने होना और सांप की बांबी में हाथ डालना, एक समान है। इसीलिए ऊपर कहा गया कि अर्जुनराम मेघवाल को सांप सूंघ गया।
बीते पांच वर्षों से बीकानेर की एक और महती जरूरत का भान श्री मेघवाल को है, मेड़ता सिटी-पुष्कर की मात्र 60 किमी की नई रेललाइन डाले जाने से बीकानेर संभाग को ही सर्वाधिक लाभ होना है। पंजाब, जम्मू-कश्मीर से अजमेर, उदयपुर, मध्यप्रदेश-मालवा के उज्जैन, इन्दौर, रतलाम और इससे आगे दक्षिण की ओर जाने वाली संभावित गाडिय़ों का मार्ग खुल जायेगा। ये सभी गाडिय़ा बीकानेर होकर गुजरेंगी। संप्रग-दो सरकार के समय इस मार्ग का सर्वे हो चुका है अब तो केवल लाइन ही डलनी है। अर्जुन मेघवाल कोशिश भी करते होंगे, लेकिन दाल गलती नहीं दीख रही। क्योंकि जिस वर्ग से वे आते हैं उन्हें गंभीरता से लिया जाना आजादी के 70 वर्षों बाद भी जरूरी नहीं बना। यह बात अब पुख्तगी से व ताजा नजीर के हवाले से इसलिए कह सकते हैं कि पूर्व राजघराने की दीयाकुमारी पहली बार सांसद चुनी गईं, मंत्री भी नहीं है। अपने चुनाव क्षेत्र नाथद्वारा को रेललाइन से जुड़वाने के लिए बजट से पूर्व रेलमंत्री से पहली बार मिलीं और उस पहली ही मुलाकात में मावाली-नाथद्वारा की लगभग 30 किमी की रेललाइन के लिए 166 करोड़ रुपये का प्रावधान करवाकर घोषणा भी करवा ली। और अपने राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल बीते पांच वर्षों से या तो हमें बेवकूफ बना रहे हैं या खुद भी बन रहे हैं! ऐसे में बीकानेर उनसे क्या उम्मीदें करे।
बात अब इस वर्ष के राजस्थान के पूरक बजट की कर लेते हैं। राज्य में कभी 5 संभागीय मुख्यालय हुआ करते थे अब सात हैं। लेकिन उपेक्षा के मामले में हमेशा से हमारा संभाग पीछे से फस्र्ट आता रहा है। मामला नहर का हो या उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों का या फिर शहरी क्षेत्र की बड़ी समस्याएंं क्यूं ना हो, सूबे की सरकारें निष्ठुर ही पेश आती रहीं, वे अपने इस बच्चे को रोने पर भी दूध नहीं पिलाती। इन्दिरा गांधी नहर की ऐसी जर्जर स्थिति है कि कभी भी इसमें पर्याप्त क्षमता में पानी नहीं छोड़ पाते। छोड़ें तो इलाका जलमग्न होते देर नहीं लगे, जबकि इसकी मरम्मत और रखरखाव पर अरबों रुपये सालाना खर्च होते हैं। लगता यही है कि ऊपर से नीचे तक के सरकारी कारकुनों के लिए झोलियां भरने का यह बड़ा साधन है।
बीस वर्षों से 'उतर भीखा म्हारी बारी' की तर्ज पर भाजपा-कांग्रेस की सरकारें बारी-बारी से बनती हैं। एक बार अशोक गहलोत तो एक बार वसुंधरा राजे। ढोंग ही दोनों ऐसा कुछ करते हैं कि बीकानेर से इन्हें बहुत लगाव है, करते-करवाते कुछ नहीं। श्रीगंगानगर की बात करें तो बीते सात वर्षों से वहां का मेडिकल कॉलेज कागजों में पड़ा है, तिलम संघ की फैक्ट्री बंद हो गई, सरकारें गलियांनिकालती रहती हैं। हनुमानगढ़ में तो व्यवस्थित चिकित्सालय तक नहीं है। चूरू में जरूर राजेन्द्र राठौड़ के प्रयास से मेडिकल कॉलेज खुल गया। 
बीकानेर की बात करें तो यहां की सबसे बड़ी समस्या है कोटगेट क्षेत्र से गुजरने वाली रेललाइनों के चलते यातायात की। इस परेशानी का जनता को भान हुए तीस वर्ष हो गये हैं, इसका भान करवाने का श्रेय बेशक पूर्व विधायक रामकृष्णदास गुप्ता को है। लेकिन कहने में संकोच नहीं कि समाधान की एक बाधा अब वे खुद भी हैं, खैर बींद के मुंह लार पड़े तो जानी बेचारो क्या करें, हमारे वे जनप्रतिनिधि, जिन्हें हम चुनकर भेजते हैं, वे ही नाकारा हैं। फिर वे चाहे भाजपा के गोपाल जोशी और सिद्धिकुमारी रहे हों या कांग्रेस के डॉ. बीडी कल्ला। गत विधानसभा चुनावों में डॉ. कल्ला ने शहर की एक चुनावी सभा में अशोक गहलोत को प्रॉम्ट करके कोटगेट क्षेत्र की उक्त समस्या के रेल बायपासी समाधान की घोषणा करवायी थी। अब सरकार बन गई तो गाजे-बाजे कुछ तो सुनाई देने चाहिए थे, लेकिन पूरक बजट में बीकानेर कोटगेट क्षेत्र की इस समस्या का ही नामोनिशान नहीं, समाधान तो दूर की बात है। मुख्यमंत्री गहलोत ने 16 जुलाई को फिर कुछ घोषणाएं की, उसमें भी इसका उल्लेख नहीं। जबकि भाजपा सरकारें 2004 के बाद जब भी आयी है, ना केवल योजना बनवाती है, बल्कि इस समस्या के समाधान के गाजे-बाजे भी लगातार बजवाती है। कांग्रेसराज में तो वैसा श्रवण सुख भी कभी सुनाई नहीं दिया। बीकानेरियों को इसलिए भी अशोक गहलोत से हमेशा शिकायत रही है। 
वर्ष 2005-06 में कोटगेट क्षेत्र की इस यातायात समस्या के समाधान के लिए 60 करोड़ रुपयों की घोषणा करवाई, यह अलग बात है कि उस राशि को बाद में वसुंधरा राजे अपने चुनाव क्षेत्र झालावाड़ ले गईं। वसुंधरा राजे मारे चाहे ना ही, कम से कम मारो-मारो तो करती हैं। खैर स्थानीय लोक में कहावत है, 'सुतोड़ां री भैंस पाडा जणे' हम बीकानेरी सोये हुए हैं या संतोषीभैंस हमारी पाडे ही जणेगी, और पाडों की नियती है बूचडख़ाने।
—दीपचन्द सांखला
18 जुलाई, 2019

Thursday, July 4, 2019

चूक गहलोत से ही नहीं, पायलेट से भी हुई है

लोकसभा चुनावों के बाद देश के मुख्य राजनीतिक दलों में से एक कांग्रेस उबर नहीं पा रही है। 2014 के परिणामों से कुछ सुधार के बावजूद कांग्रेस का नेतृत्व इस बार ज्यादा विचलित नजर आ रहा है। 2014 में देश पर 10 वर्ष शासन कर चुकी कांग्रेस की हार तो संभावित थी लेकिन जिस हश्र को तब हासिल हुई, वैसी उम्मीद उस समय भी नहीं थी। इसी तरह इस बार भी ऐसी हार की उम्मीद नहीं थी लेकिन जिस तरह दिसम्बर, 2018 में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों से उम्मीद जगी थी, उस सब पर पानी फिर जाना पार्टी को उबार नहीं पा रहा।
राहुल गांधी और विभिन्न राज्यों के कांग्रेसी क्षत्रप पता नहीं किस मुगालते में रहे कि मोदी-शाह की रणनीति को भांप तक नहीं पाए। जब कोई प्रतिस्पर्धी की रणनीति से ही अनभिज्ञ रहे तो विरोधी का मुकाबला भला कैसे करेगा। अमित शाह का चुनाव अभियान जितना व्यवस्थित था उतना ही धूर्तता और चालाकियों से भरा भी। ऐसे विरोधियों से मुकाबला आरामतलबी में या बिना मुस्तैदी के नहीं किया जा सकता। नतीजा, सब के सामने है, देश की आजादी के आन्दोलन को नेतृत्व देने वाली और देश व प्रदेशों में सर्वाधिक समय तक शासन करने वाली पार्टी निढाल पड़ी है।
मोदी-शाह ने जिस तरह से हिन्दुत्वी साम्प्रदायिकता और भ्रामक राष्ट्रवाद का सहारा लिया और जनता को बरगलाया उसके चलते काठ की इस हांडी को पूरी तरह जलाना तो नामुमकिन था। लेकिन पार्टी नेतृत्व के पास अच्छे सलाहकार के तौर पर रणनीतिकार होते, सूबाई क्षत्रप अपनी अनुकूलताओं से ऊपर उठकर पार्टी की अनुकूलता देखते और अमित शाह की तरह एक-एक सीट को जीतने के लिए उम्मीदवार के चयन से लेकर हर स्तर पर सूक्षतम प्रयास करते तो कांग्रेस 100 से अधिक अपने उम्मीदवारों को जिता सकती थी। इस तरह की कवायद हुई नहीं।
राजस्थान के सन्दर्भ से बात करें तो प्रदेश कांग्रेस के पास सबसे कुशल रणनीतिकार अशोक गहलोत जैसे नेता हैं। संगठन क्षमता के मामले में इन जैसा कोई नेता राष्ट्रीय स्तर पर नहीं है। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों से पूर्व गहलोत को वहां का प्रभारी बनाया गया। जब उन्हें यह जिम्मेदारी दी तब वहां कांग्रेस लगभग समाप्तप्राय थी, कोई उम्मीद नहीं थी। गहलोत ने लगभग डेढ़ वर्ष मेहनत करके तहसील-गांव स्तर तक पार्टी को ना केवल फिर से खड़ा किया बल्कि गुजरात के चुनाव में कांग्रेस को मोदी-शाह वाली भाजपा के बराबर ला खड़ा किया। गहलोत की इसी क्षमता से प्रभावित होकर राहुल गांधी ने गहलोत को राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) की महती जिम्मेदारी दी।
मेरा मानना है कि गहलोत विगत आम चुनाव तक उसी जिम्मेदारी को निभाते होते तो कांग्रेस वर्तमान हश्र को हासिल नहीं होती। गांधी में आस्था रखने वाले गहलोत को इसका भान अच्छे से होगा कि मोदी-शाह के चुनौतीविहीन राज में गांधीवादी मूल्यों का हश्र क्या होने वाला है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और उसमें संजीदगी वाले नेता अशोक गहलोत से उम्मीदें करना और यह उलाहना देना भी गलत नहीं कि गहलोत केन्द्र की राजनीति में ही रहते तो आज नाउम्मीदगी की सूरत इतनी डरावनी नहीं होती।
31 मई, 2018 के अपने आलेख में मैंने इस धारणा को विस्तार से समझाने की कोशिश की। लेकिन नहीं पता क्यों गहलोत राजस्थान की क्षत्रपई छोड़ नहीं पाये। गहलोत जैसे-तैसे मुख्यमंत्री बन तो गये लेकिन जनता में इसका सकारात्मक प्रभाव नहीं गया। फिर लोकसभा चुनावों में टिकटों की बंदरबांट में जिस तरह की खींचातानी हुई उसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। गहलोत जो राजस्थान की जनता को सर्वाधिक प्रभावित कर सकते थेजोधपुर की सीट पर इसलिए सिमट कर रह गये क्योंकि वहां से उनके पुत्र वैभव चुनाव लड़ रहे थे। वैभव का चुनावी राजनीतिक में प्रवेश पैराशूटी ही था। वैभव को जहां कहीं से भी चुनाव लड़ना था तो कम से कम पिछले विधानसभा चुनावों में वहां की सभी विधानसभा सीटों पर उन्हें धूनी रमानी थीउस क्षेत्र के जमीनी नेता के तौर पर अपने को स्थापित करना था। अलावा इसके बजाय जयपुर के उन्हें अपना परिवार जोधपुर शिफ्ट कर कम से कम इन चुनावों तक तो ना केवल वहीं रहना था बल्कि राजकुमार की सी छवि से बाहर आकर हर कांग्रेसी झुकाव वाले मतदाता से व्यक्तिगत रिश्ता बनाने की कोशिश करनी थी।
जब कांग्रेस सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी तब खुद अशोक गहलोत ने 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपने को यूं ही झोंका, तभी 1980 के चुनावों में अप्रभावी जाति से होते हुए भी जीते। 1977 में अपनी हार के डर से अशोक गहलोत चुनाव नहीं लड़ते और लगातार सक्रिय नहीं रहते तो अशोक गहलोत को वर्तमान हैसियत हासिल नहीं होती। वैभव अपने पिता के जननेता बनने की प्रक्रिया का ही अनुसरण कर लेते तो हो सकता है कांग्रेस के इस घोर विपरीत समय में खुद की सीट निकालने में कामयाब होते।
खैर! राजस्थानी कहावत है 'गई बात ने घोड़ा ई कोनी नावड़े' ऐसा अवसर वैभव को फिर से हासिल शायद ही हो।
इसे छोड़ें, लेकिन अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा को जो आघात लगा है उसकी भरपाई मुश्किल है। हां, लोकसभा चुनावों में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को तत्पर हो जाते तो मुख्यमंत्री रहते या नहीं, कद उनका बढ़ता ही। वहां चूक गये तो कम से कम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस्तीफा दिया तब दे देते। परमार्थ के सन्दर्भ में एक कहावत लोक में प्रचलित है 'चूक्या चौरासी'। ऐसी चूक केवल गहलोत से ही नहीं हुई, प्रदेश में पार्टी में उनके मुख्य प्रतिस्पर्धी सचिन पायलट से भी हुई है। उन्हें प्रदेश की सारी सीटें हारने की जिम्मेदारी लेकर ना केवल प्रदेश अध्यक्ष पद से बल्कि उप मुख्यमंत्री के पद से भी इस्तीफा दे देना चाहिए था। यहां चूक हुई तो राहुल के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने पर तो वे भी ऐसा कुछ कर सकते थे। यदि ऐसा करते तो ना केवल पार्टी में उनका कद बढ़ता बल्कि अपने मुख्य प्रतिस्पर्धी अशोक गहलोत से कुछ इंच ही, सही अपना कद भी ऊंचा कर लेते।
—दीपचन्द सांखला
04 जुलाई, 2019