Thursday, October 31, 2013

जो सुना, वही तो कहेंगे मोदी

नरेन्द्र मोदी इन दिनों अपने गैर-तथ्यात्मक बयानों को लेकर सुर्खीयों में हैं। दरअसल यह समस्या केवल नरेन्द्र मोदी की नहीं है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से शिक्षित प्रत्येक जन की है। उनके यहां आजादी का इतिहास मुखजबानी चलता है जिसे उनके यहां बहुत ही भरोसे के साथ कहा और सुना जाता रहा है। संघ की यह समस्या इसलिए है कि देश की आजादी के इतिहास में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। इसीलिए नरेन्द्र मोदी सरदार वल्लभ भाई पटेल की विरुदावली यह जानते हुए गाने लगे हैं कि पटेल संघ की असलियत ना केवल जानते-समझते थे बल्कि पटेल के कहे और लिखे का दस्तावेजीकरण भी मिलता है।
मोदी ने कहा कि पटेल यदि प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश की तसवीर दूसरी होती-यह बात संघ के लोग लम्बे समय से कहते रहे हैं। बिना यह जाने कि आजाद हुए लोकतान्त्रिक देश का पहला प्रधानमंत्री वही हो सकता था जिसकी पहचान पूरे देश में होती और आजादी के अधिकांश सेेनानियों में जिसकी स्वीकार्यता होती। पटेल के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि देशव्यापी ऐसी पहचान वाले और सर्वस्वीकार्य नेता मोहनदास गांधी के बाद नेहरू ही थे। पटेल की देशव्यापी पहचान देश के प्रथम गृहमंत्री रहते उनके द्वारा बंटवारे के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों से निबटना और पांच सौ से ज्यादा रियासतों के विलीनीकरण को कुशलता से सम्पन्न करवाने के बाद ही बनी थी। आजादी के समय पटेल से बड़े और समकक्षी व्यक्तित्वों की एक लम्बी फेहरिस्त मिलती है, यथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, के कामराज, सी राजगोपालाचारी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कई नाम गिनवाए जा सकते हैं।
संघ के लोग ना केवल नेहरू बल्कि गांधी के लिए भी ढेरों गैर-तथ्यात्मक बातों को कहने-सुनने में संकोच नहीं करते। उनकी जीवट की दाद इसलिए भी दी जा सकती है कि पिछले अस्सी वर्षों से गांधी को भारतीय मानस पटल से विस्थापित करने की सारी कोशिशों में पूरी तरह से असफल होने के बावजूद ये आज भी लगे हुए हैं। बल्कि, गांधी की प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता विश् में लगातार बढ़ती ही गई है, और स्वयंसेवक संघ को भी गांधी को प्रातःस्मरणीयों की सूची में मन-मसोस कर शामिल करना पड़ा है। मोेदी के लगातार दिए जाने वाले ऐसे बयानों पर भाजपा के केन्द्रीय नेताओं और प्रवक्ताओं की भाव-भंगिमाएं इन दिनों मीडिया के सामने देखने वाली होती है।
यही वजह है कि मोदी आमसभाओं में बड़े आत्मविश्वास से तक्षशिला को बिहार में बता देते हैं, सिकन्दर को बिहार में बहने वाली गंगा तक पहुंचा देते हैं जो सतलुज को ही पार नहीं कर सका था और मौर्यवंश के चन्द्रगुप्त को गुप्तवंश का बता देते हैंमोदी की दाद इसलिए तो दी ही जा सकती है कि उनकी पोषक विचारधारा के सबसे बड़े आलोचक सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया में सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करवाने जा रहे हैं। भारतीयता की बात करने वाले संघ और उनके विभिन्न संस्करण हमेशा की तरह पटेल के इस स्मारक को नाम देने में भी पश्चिमापेक्षी दिखे, स्टेच्यू ऑफ यूनिटी--स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की तर्ज पर। उन्हें नया कोई नाम ना भी सूझा हो पर क्या हजारों वर्षों की भारतीय और सनातन परम्परा से भी वे कोई नाम हासिल नहीं कर पाए! किसी के जैसे दिखने की, होने की और उससे बेहतर या ऊपर होने की आकांक्षा का एक कारण हीनभावना भी माना जाता है, जो ओढ़े हुए आत्मविश्वास से खत्म नहीं होती बल्कि इसी तरह उजागर होती है।

31 अक्टूबर, 2013

Tuesday, October 29, 2013

पटना की घटना के बहाने

गांधी मैदान, पटना में नरेन्द्र मोदी की सभा की शुरुआत में सात बम धमाके हुए। पूरे बिहार और आसपास से आए और जुटाए गये लोगों में से छह की मौत और सौ से ज्यादा घायल हो गये। मोदी की सभाओं और आयोजनों में इस तरह की आशंकाएं बनी रहती हैं। कहते हैं इंटेलीजेंसी ब्यूरो ने समय रहते चेता दिया था पर बिहार सरकार इससे इनकार करती है। ऐसे आपसी विवाद तब जल्दी सुर्खी पा लेते हैं जब केन्द्र और प्रभावित राज्य में अलग-अलग दल की सरकार हो। मरने वाले चले गये और घायल अपनी प्रतिकूलताओं को कोस रहे होंगे। सरकार कुछ मुआवजा देकर अपने कर्तव्य का निर्वहन मान लेगी। प्रभावित परिजन अनुकूलताएं ना बनने तक अपने दुर्भाग्य की दुहाई देते जैसे-तैसे जिन्दगी गुजारने के जतन में लग जाएंगे।
आगामी लोकसभा चुनावों में राजग ने आंकड़ा हासिल किया तो नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हो जाएंगे और सप्रंग ने हासिल कर लिया तो राहुल या किसी मनमोहनसिंह को थरप दिया जाएगा। दोनों ही कुछ खास हासिल ना कर पाएं तो कोई चन्द्रशेखर, इन्द्रकुमार गुजराल या एचडी देवगौड़ा जैसे इतिहास में दर्ज होने भर को लगेंगे।
पटना जैसी घटनाएं और नहीं होगी इसकी कोई गारंटी देश इन परिस्थितियों में नहीं दे सकता। कुल जमा कुर्सी हासिल करने की मंशाओं के चलते इस तरह की घटनाओं की गुंजाइश बनी रहती है। जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें होने भर को लोकतंत्र माने तो लोकतंत्र है अन्यथा वोट जिस तरह से लिए और दिए जाते हैं उसको जानते-समझते लोकतंत्र नहीं कह सकते। अधिकांश मतदाता अपने लिए सरकार चुनने की बजाय, किसी की बात रखने, किसी को राजी करने, अपने किसी उल्लू के सीधे होने की उम्मीद और तत्कालिक लाभ हासिल होने की हवस में वोट देते हैं।विनायककई बार कह चुका है और फिर कहने से भी नहीं चूक रहा है कि देश के नागरिकों में एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने की समझ का पैदा होना जरूरी है। उनमें उनके वोट की ताकत पहचानने और वोट को सर्वजन हित साधने का साधन समझने के विवेक की जरूरत है। तकलीफ के साथ लिखना पड़ रहा है कि इस तरह के व्यापक स्तरीय शिक्षण के काम में लगा ना कोई समूह नजर रहा है और ना ही कोई संगठन।
देश को इस अराजक उजाड़ से सचमुच उबारने की इच्छा रखने वालों को किसी पार्टी या उम्मीदवार में लिप्तता की बजाय गहन विचार और कार्ययोजना के साथ संलग्न होने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक 1984, 2002, संसद पर हमला, 26/11 और पटना जैसी घटनाएं होती रहेंगी और घोर स्वार्थी लोग सीधे-सादे लोगों का इस तरह दुरुपयोग करने से नहीं चूकेंगे।

29 अक्टूबर, 2013