एतराज करने वाले कह सकते हैं कि मोदीजी देश के प्रधानमंत्री हैं, पद की गरिमा का खयाल रखें। इसका जवाब यह है कि
जो खुद बीते पांच वर्षों से इस पद की गरिमा को जार-जार करने में ही जुटा हो उनकी
गरिमा का कैसा लिहाज? हम संविधान
प्रदत्त लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने चुने प्रतिनिधियों की नीर-क्षीर
आलोचना करने का हमें संवैधानिक हक हासिल है, उसी का उपयोग कर रहे हैं। जिन्हें इसके उलट लगता है,
वे विरुदावलियां गाते रहें, उन्हें भी कौन रोक रहा है। कहा यह भी जा सकता
है कि पिछले प्रधानमंत्रियों के लिए तो ऐसा नहीं कहा गया। ऐसा इतिहास से अनभिज्ञ
ही कह सकते हैं। 1967 के चुनावों से
सक्रिय रहा हूंं—तब की नासमझी से
लेकर थोड़े बाद की अधकचरी समझ से और फिर 1993 तक सक्रिय राजनीति कर सत्ता-व्यवस्था की ना केवल जमकर
आलोचना करता रहा हूं बल्कि सड़कों पर उतरा हूं। इस दौरान जिन प्रधानमंत्रियों का
जमकर विरोध किया उनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी दोनों शामिल हैं। 1993 के बाद सक्रिय राजनीति छोड़ दी तब से विरोध का तरीका जरूर बदल गया लेकिन
कर्तव्यच्युत नहीं हुआ।
इस जरूरी प्रारंभिक घोषणा के बाद शीर्षक पर आ लेते हैं। प्रधानमंत्री मोदी 2013 में जब से भाजपा के नेता के तौर पर केन्द्र की
राजनीति में आए, तब से इनके
भाषणों का पुनरावलोकन कर लें, शायद ही कोई भाषण
निकलेगा कि जिसमें कोई झूठ ना बोला गया हो, गुमराह नहीं किया गया हो, किसी पर भद्दा व्यंग्य ना किया गया हो। इतना भर ही नहीं,
प्रधानमंत्री बनने के बाद कोई भी सार्वजनिक
भाषण उनका ऐसा नहीं रहा जो चुनावी भाषण ना लगे। यहां तक कि औपचारिक सरकारी आयोजन
के उद्बोधनों और विदेश में किए भाषणों में अब तक के प्रधानमंत्रियों ने जो गरिमा
और मर्यादाएं कायम की थीं, उन सभी को मोदीजी
ने ध्वस्त किया है।
2013-14 के चुनावों से पूर्व मोदीजी ने देश की जनता के साथ जो-जो
वादे किए उन्हें गिनाना अनावश्यक विस्तार से बचने के लिए जरूरी लगता है। इनमें से
किसी एक भी वादे को पूरा करने की मंशा मोदीजी ने जताई हो तो बताएं। बीते 65 वर्षों का स्यापा लेकर ना बैठें। किसी एक भी
वादे पर मोदीजी खरे नहीं उतरे हैं। अलावा इसके प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन नई
योजनाओं की घोषणा की गई, उनमें से अधिकांश
तो पुरानी योजनाओं में मामूली फेरबदल के साथ नये नामों की घोषणाएं भर हैं, बावजूद इस सब के सभी योजनाओं में या तो शिथिलता
आयी है या औंधे मुंह गिरी हैं। मोदीजी द्वारा घोषित आदर्श ग्राम योजना, स्मार्ट सिटी योजना और उज्ज्वला योजना किस हश्र
को हासिल हुई हैं, थोड़ा देख लें।
उपलब्धियां बताने के लिए योजनाओं के परिणामों के आंकड़ों के मानक बदले गये।
उदाहरण के तौर पर नये बने राष्ट्रीय राजमार्गों की लम्बाई के आंकड़े अंतरराष्ट्रीय
मानक की आड़ देकर डबल, ट्रिपल, फोर लेन, छह लेन के निर्माण के आंकड़े को दुगुना-तिगुना, चार-छह गुणा बता कर सड़कों के एकल लम्बाई के
पिछले आंकड़ों से तुलना कर अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। ऐसा ही सकल घरेलू उत्पाद
(जीडीपी) के आधार को बदल कर गुमराह किया गया। नोटबंदी लागू करने के मूर्खतापूर्ण
निर्णय और अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी प्रणाली के परिणाम न केवल पूरे देश का
व्यापार जगत बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भुगत रही है। इन दो निर्णयों से लडख़ड़ाई
अर्थव्यवस्था अभी तक संभलने का नाम नहीं ले रही। सरकार के मूर्खतापूर्ण
अधिनायकत्वी निर्णयों से किनारा कर महती जिम्मेदारियां संभालने वाले पद छोडऩे लगे
हैं। इनमें रिजर्व बैंक के दो गवर्नर और देश के वित्तीय सलाहकार के अलावा नीति
आयोग के सदस्य तक शामिल हैं।
भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाकर सत्ता में आए मोदीजी ने जहां अंबानी-अडानी
जैसों को निहाल कर उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के तरीके बदल दिए हैं वहीं इन्हें
चौड़े लाने वाली संवैधानिक इकाइयों को पंगु बना दिया। सूचना के अधिकार कानून को
खुद प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं मानता, वहीं सीबीआई और सीएजी जैसी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग जिस तरह किया जा रहा है,
वह
किसी से छिपा नहीं। कांग्रेस इनका उपयोग दिखाऊ संकोच के साथ एक सीमा में ही
करती आई वहीं मोदी सरकार ने सीएजी और सीबीआई का दुरुपयोग जिस निर्लज्जता के साथ
किया वह मिसाल बन रहा है। निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर कमी कहीं नहीं दिख रही
बल्कि लोकतंत्र के जिस सबसे कलंकित आपातकाल में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश दिखने लगा
था, वह शेखी बघारू मोदीजी के
कार्यकाल में विकराल हुआ है। रोजमर्रा के कामों की रिश्वत की दरें पिछले पांच
वर्षों में कितने गुना हो गई, जिनका वास्ता
सरकारी कार्यालयों से पड़ता है—उन अपने
निकटस्थों से इसकी पुख्ता जानकारी कर लें।
बढ़ते बलात्कार, कानून व्यवस्था
की बदहाली, आतंकवाद की बढ़ी वारदातें
और उनसे बढ़ी कैजुअल्टीज में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी मोदीजी के कानून के राज की पोल
खोलती है। विदेशनीति को मोदीजी द्वारा भायलेपने जैसे अनाड़ीपने से साधने के परिणाम
सामने आने लगे हैं। जब मालदीव, नेपाल जैसे छोटे
पड़ोसी देश ही मोदी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो बड़े देशों से उम्मीद कैसी?
वाट्सएप पर आइटी सेल की देश-विदेश संबंधी
अधिकांश खबरें प्रामाणिक नहीं होती, इन पर भरोसा ना करें। विदेशों में मोदीजी की साख विदेशी मीडिया को पढ़-देख कर
समझी जा सकती है। अधिकांश विदेशी मीडिया की निष्पक्षता पर सन्देह नहीं किया जा
सकता। बानगी के तौर पर हाल की भारत-पाकिस्तान के बीच हवाई लड़ाई का न्यूयार्क
टाइम्स ने निचोड़ दिया है कि इसमें भारत की हेटी हुई है।
किसी मंत्रालय को स्वतंत्रता ना देना और विदेश, रक्षा, गृह जैसे
महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों को संभालने वाले सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण या राजनाथसिंह की हैसियत खेत में खड़े
बिजूका सी बना दी गई। अपने मंत्रालय से संबंधित कामकाज तक की जानकारी इन्हें नहीं
होती। ताजा घटनाक्रम को लें तो बालाकोट पर वायुसेना की कार्रवाई की वाररूम की
बैठकों में रक्षामंत्री को बुलाना तो दूर, बताया तक नहीं गया। ऐसी नियति ही विदेश मामलों में सुषमा स्वराज की है और ऐसा
ही हाल राजनाथसिंह का, इन्हें अपने
विभागों के कई महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों की जानकारी मीडिया से मिलती है। इन
दिग्गजों का जब यह हाल है तो छुटभैया मंत्रियों की औकात क्या समझ लें। सभी
मंत्रालय सचिवों के माध्यम से या तो खुद मोदीजी हैण्डिल कर रहे हैं या पार्टी
अध्यक्ष अमित शाह। संसदीय प्रणाली का ऐसा हश्र इससे पूर्व नहीं देखा गया। दिन के
प्रत्येक आयोजन में नये कोरे कपड़े पहनना, उसके लिए ड्रेस डिजाइनर से डिस्कशन, ब्यूटीशियन को प्रतिदिन सिटिंग देना, डायटिशियन और हेल्थ एडवाइजर को समय देने आदि-आदि के अलावा अपने को सजाए रख या
तो चुनावी भाषण देना या अम्बानी अडानी जैसों के लिए देश-विदेशों में काम दिलवाने
के लिए यात्रा करने के अलावा मोदीजी काम के 18 घण्टों में और क्या करते हैं, आरटीआई बता दे तो पूछ लें। ये भी पता कीजिए प्रधानमंत्री के
तौर पर मोदीजी अपने कार्यालय में कितने घंटे बैठते हैं।
आतंकवादी घटनाओं के बीते दस वर्षों के सरकारी आंकड़े ही देखें जो कम होने की
बजाय बढ़े हैं। 2014 के बाद की 12 बड़ी आतंक की घटनाएं जो मोदी राज में ही हुई
हैं—उड़ी-मोहरा हमला :
दिसम्बर 2014, मणिपुर में सेना
पर हमला : जून 2015, गुरदासपुर का
हमला : जुलाई 2015, पठानकोट हमला :
जनवरी 2016, अनंतनाग हमला :
जून 2016, पंपोर हमला : जून 2016,
खाना बाग हमला : अगस्त 2016, पुंछ हमला : सितम्बर 2016, उड़ी हमला : सितम्बर 2016, अमरनाथ यात्रियों पर हमला : जुलाई 2017,
पुलवामा सीआरपीएफ कैम्प पर हमला : दिसम्बर 2017 और अभी 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में
सीआरपीएफ के काफिले पर हमला। यह सभी हमले इंटैलिजेंस फैल्योर के नतीजे हैं जिसकी
जिम्मेदारी कहने भर को गृहमंत्री राजनाथसिंह की है लेकिन बिजूका गृहमंत्री पर कुछ
भी वार करो कुछ नहीं होना।
पुलवामा सीआरपीएफ काफिले पर हमले की अपनी खुफिया कमी को आड़ देने के लिए
प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी कि हमने सेना को खुली छूट दे दी कि समय और स्थान खुद
तय कर कार्रवाई करें। इससे पहले भी सेना सर्जिकल स्ट्राइक करती रही है और जरूरत
होने पर एलओसी पार हवाई हमले भी। लेकिन उसकी पूर्व मुनादी कभी नहीं होती थी।
डपोरशंखी मोदीजी से रहा नहीं गया—ऐसी घोषणा के बाद
कोई आतंकवादी समूह अपने ठिकाने बार-बार नहीं बदलेंगे, ऐसा मानना मासूमियत है। शायद इसीलिए बालाकोट में चाही गई
सफलता सेना को नहीं मिली हो। लेकिन मोदीजी और इनके अनुगामी उसे नहीं मानते। विंग
कमांडर अभिनंदन की गुमशुदगी पर भी सरकार मुंह छुपाती रही, वह तो मूर्खता कर पाकिस्तान ने वीडियो जारी कर दिया अन्यथा
सरकार शायद मिग-21 के नुकसान को
गिट जाती। अब मोदी सरकार इस पूरे प्रकरण में अपनी शर्मिन्दगी से बचने के लिए सेना
और सेनाध्यक्षों को आगे कर रही है। ऐसा आजादी बाद कभी नहीं हुआ। बल्कि वायुसेना
अध्यक्ष के इस जवाब से उलटे सरकार की
किरकिरी हुई है कि मृतकों की संख्या बताना हमारा काम नहीं है। तो फिर बालाकोट
कार्रवाई में मीडिया में जो 300 से 600 आतंकी मरने की खबरें फ्लैश हुई किसने की?
इसके लिए संवेदनशील मीडिया की भी जवाबदेही बनती
है। तब और भी ज्यादा जब दुनिया का मीडिया कह रहा है कि एक भी नहीं मरा। मतलब
मोदीजी की मुनादी के बाद आतंकवादियों ने स्थान बदल लिया!
दो ही उदाहरण काफी हैं, दोनों के वीडियो
यू-ट्यूब पर मिल जाएंगे। पहला, नोटबंदी के तुरंत
बाद जापान में उनका उद्बोधन जिसमें मोदीजी ताली बजाकर और अंगूठा दिखाकर इतराते हुए
विदेश में बताते हैं कि 'घर में शादी है
और पास में पैसा नहीं है।' यह सीन निकृष्टता
की पराकाष्ठा इसलिए है कि शादियों के उस मौसम में कितने सामान्य लोगों को परेशान
होना पड़ा, उसका आंकड़ा नहीं। दूसरा,
अभी हाल में आइआइटी के छात्रों को संबोधित करते
हुए मोदीजी डिस्लेक्शिया जैसी मानसिक व्याधि की खिल्ली केवल इसलिए उड़ाते हैं कि
उन्हें एक विपक्षी नेता को नीचा दिखाना था। इससे ज्यादा बेशर्मी की बात हमारे लिए
और क्या हो सकती है कि हमने देश का प्रधानमंत्री ऐसा चुना है, जिन्हें मानवीय गरिमा की तो छोडि़ए सामान्यजन
की तकलीफों से भी कोई वास्ता नहीं है।
—दीपचन्द सांखला
07 मार्च, 2019