Thursday, March 28, 2019

कविता के एक श्रोता-पाठक की कुछ अनुभूतियां : कुछ सुनी-गुनाई

बात पिछली सदी के आठवें दशक से शुरू करते हैं, तब बीकानेर में कवि सम्मेलनों-मुशायरों के आयोजन अकसर होते थे। तब ऐसे सम्मेलनों में सभी रसों की कविताएं, गीत और गजले-नज्में सुन कर श्रोता अपने मन और वृत्ति का ना केवल रंजन करते बल्कि उसे पुष्ट भी कर लेते। उन आयोजनों में पुराने रसिक तो शिरकत करते ही थे—किशोर और नवयुवा भी पहुंचते। आयोजन जब नहीं होते तो श्रोता उन्हीं मंचीय कवियों का लिखा-छपा तलाशते और पढ़ते, जो आनन्द सुनने में मिलता, पढऩे में वह अकसर नहीं मिलता। समझ जाते कि कविता की श्रवणीय और पठनीय दो अलग रचनाधाराएं हैं। इसी तलाश में वे शैक्षिक पाठ्यक्रमों में उपलब्ध एवं पत्र-पत्रिकाओं में छपी रचनाओं से रू-बरू होते जिससे उनका पाठक मन प्रशिक्षित-दीक्षित होता। उन्हें काव्य-विधा में मंचीय और पठनीय की फांक समझ में आने लगती। पिछले लम्बे अरसे से कवि सम्मेलन-मुशायरों की यह स्कूल नदारद है, उसकी जगह साहित्यिक आयोजनों ने जरूर ले ली, लेकिन ऐसे आयोजन उस स्कूलिंग के बिल्कुल प्रतिकूल हैं जो कवि सम्मेलन-मुशायरे करते रहे थे। इधर ना वैसे कवि सम्मेलन-मुशायरे रहे ना वैसी पत्र-पत्रिकाएं, अखबारों में साहित्य का स्थान भी सिमट गया। बावजूद इन सबके साहित्य की अन्य विधाओं की तरह अच्छी कविताएं भी लिखी जा रही हैं। 

नई कविता का छंदमुक्त होना, स्थानीय अखबारों की बाढ़, वर्ग-विशेष के पास आए अतिरिक्त धन और मुद्रण की बदली तकनीक कइयों को कवि बनने को प्रेरित करने लगी है-समाज में साहित्यकार को 'प्रिविलेज्ड पर्सनल्टी' माना जाना भी एक आकर्षण रहा है। इससे हुआ यह कि कविता जो साहित्य में सबसे मुश्किल विधा है उसे सबसे आसान मान लिया गया। जबकि लय को साधना, शब्द का सही चयन और कहने का ढंग कविता को अन्य से अलग करता है। समानार्थक शब्दों की रंगत भी अलग होती है, इसलिए समान अर्थ वाले सटीक शब्द का चयन भी महत्त्वपूर्ण होता है।

साहित्य का इतिहास बहुत निर्मम होता है, बीती सदियों में कितने लेखकों का उल्लेख मिलता है और कितनों की रचनाओं को हम पढ़ते-पढ़ाते हैं? इतिहास की चलनी बहुत बारीक छानती है, अधिकांश चलनी में ही रह जाना है। ऐसा हो तो कवि या साहित्यकार होने की असफल कोशिशों का हासिल स्वांत: सुखाय के अतिरिक्त क्या होना है! धर्मवीर भारती के हवाले से कहें से इस तरह लिख-छपवा कर कागज को रद्दी करना देशद्रोह में आता है। इस तरह विचारेंगे तो कविता ही नहीं साहित्य पर आये संकट से बचायेंगे ही, खोटे सिक्कों को चलन से रोक कर खरे सिक्कों की अहमियत भी समझने लगेंगे।
अब सवाल हो सकता है कि अच्छी कविता किसे मानें, बड़ा कवि किसे? पहली कसौटी तो आप खुद हो सकते हैं। आपका अन्तर्मन पुष्ट-रिपेयर किस तरह के सृजन से होता है, आपकी भावभूमि में कौंध-स्पार्किंग रचना से उपजती है? हिन्दी के  सन्दर्भ से ही बात करें तो इसे सृजनात्मक-भाषा बने एक सदी से ज्यादा हो गया। भाषा और साहित्य-रसिकों का बड़ा समूह किन रचनाओं और किनकी रचनाओं से अपने को पुष्ट करता है, यह दूसरी कसौटी हो सकती है। 

इस दौर में कविता को लेकर एक बात और उठती है रचना में अन्तर्निहित तत्त्व की—बिम्बों की पुनरावृत्ति की। इस सम्बन्ध में कवि-आलोचकों का मानना है कि विभिन्न सृजनात्मक माध्यमों से अब तक इतना कहा जा चुका है कि कहने को नया कुछ नहीं बचा, इसीलिए कह दिए गए को नये तरीके से कहना ही बड़ी चुनौती है।
बात कवि-सम्मेलन और मुशायरों से शुरू की तो प्रश्न हो सकता है कि जिस तरह मंचीय कविता पढऩे पर सामान्यत: वह अनुभूति नहीं देती जो सुनने पर देती है, ऐसी ही सीमा क्या पठनीय कविताओं के  साथ भी है? इसे विभिन्न श्रवण-अनुभवों से समझा जा सकता है। खुद कवि द्वारा अपनी कविता अच्छे से ना पढ़ी जाय तो वैसी अनुभूति नहीं देगी जो कविता के दक्ष पाठक को उसी कविता को पढऩे से मिलती है। अच्छे पाठ को तीन कवियों के पढऩे के तरीके से समझ सकते हैं, जिन्हें सुनने के  अवसर बीकानेर में मिलते रहे हैं। नन्दकिशोर आचार्य निखालिस भाव से कविताएं सुनाते हैं, बिना झंझोड़े अन्तर्मन तक इतनी सहज पहुंचती है कि तत्काल कुछ महसूस ही नहीं होने देती।

दूसरे अर्जुनदेव चारण राजस्थानी के कवि हैं और रंगमंच से जुड़े भी—वे कविता पाठ करेंगे तो आपको होम थिएटर सी अनुभूति करवाएंगे। तीसरे मालचन्द तिवाड़ी हैं जो हिन्दी और राजस्थानी दोनों में कविताएं लिखते हैं, जब वे पाठ करते हैं तो कविता की अन्तर्वस्तु के साथ ना केवल स्वयं भावुक हो लेते हैं बल्कि अपने श्रोताओं को भी लपेट लेते हैं। इन तीनों को सुनने वाले श्रोता-रसिक के लिए अनुगूंज और अनुभूतियां अलग-अलग ही नहीं होती, श्रोता द्वारा पढ़ी हुई उन्हीं कविताओं से परिष्कृत भी होती है, इसीलिए सुनने और पढऩे के सुख भिन्न माने गये हैं।
—दीपचन्द सांखला

Wednesday, March 20, 2019

लोकसभा चुनाव : बिछती बिसात पर सरसरी

लोकसभा चुनाव पर क्रिकेट की शब्दावली में कहें तो मैच आसन्न है। लेकिन टीमें ही तय नहीं हैं। टीम बनाने में भाजपा आगे है तो विपक्षी दल अभी अपने-अपने खिलाड़ी तय करने में ही लगे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि विपक्ष गठबंधन की बनने वाली टीम में अपने अधिकतम खिलाडिय़ों को घुसाने में ही लगे हैं। भाजपा टीम को हराना सभी चाहते हैं, लेकिन अपनी-अपनी जीत के साथ। भाजपा को अच्छे से पता है कि 2014 वाली अनुकूलताएं तो रही दूर की बात, लाले सरकार बनने के भी पड़ सकते हैं। यही वजह है कि मोदी-शाह जैसे घोर हेकड़ीबाज जिन्हें भी साध सकते हैं उन छोटे-छोटे दलों को अपमानित होकर भी साधने में लगे हैं।
संघ और भाजपा ने मान लिया है कि यह चुनाव उनके लिए जीतो या मरो से कम नहीं। मोदी सरकार ने संघ के ऐजेन्डे को लागू करने के सिवाय कुछ किया होता तो यह स्थितियां नहीं होती। भाजपा को अपने बूते स्पष्ट बहुमत ना भी मिलेराष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन को तो मिल ही जाता। दुनिया का इतिहास गवाह है कि घोर अलोकतांत्रिक विचार वाली पार्टियां सत्ता बनाए रखने या सत्ता पर काबिज होने के लिए जो-जो हथकण्डे अपनाती रही हैं, संघ और भाजपाई उन सभी हथकंडों को समयानुकूल परिवर्तनों के साथ अपना रहे हैं। भाजपा सरकार ने राजद के लालूप्रसाद यादव को जिस तरह अन्दर करवा रखा है, उन्हें दिखा-दिखा कर सपा-बसपा नेताओं को भी भीगी बिल्ली बना दिया है। भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत व्यावहारिक राजनीति के भ्रष्ट नेताओं में से एक लालू का खम ठोक कर खड़े रहना और बूढ़े पिता के लिहाज से अखिलेश का और मायावती का शासन के दिखाये भय से कठपुतली बन जाना राजनीतिक इतिहास में दर्ज हो रहा है। खैर, लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सबक सभी को देती है, सबक की क्लासें लम्बी हो सकती हैं, बस।
देश में सर्वाधिक राज कांग्रेस ने किया। बहुत कुछ किया भी है, तभी देश आज अंतरराष्ट्रीय फलक पर सम्मानजनक अवस्था में है। बहुत कुछ नहीं भी किया। जो सब से जरूरी नहीं किया, वह है जनता को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करना, यह ऐसा अनकिया  है जिसका सर्वाधिक खमियाजा स्वयं कांग्रेस भोग रही है। राजनीति और शासन व्यवस्था में गड़बडिय़ों में अनुकूलता ऐसी शिक्षा के अभाव में ही बनी है। अब तक के अनकिये को किया करना तत्काल संभव नहीं होता। कांग्रेस और अन्य पार्टियों की ऐसी मंशा भी नहीं है। इसलिए सभी पार्टियां और नेता तात्कालिक मुद्दों की तलाश में रहते हैं, नहीं मिलता है तो मुद्दे खड़े कर लेते हैं। रफाल ऐसा ही मुद्दा है, इसमें सन्देह नहीं कि यह घोटाला नहीं है वरन् इस राज का इससे भी बड़ा घोटाला फसल बीमा का है। इन महती कामों को निजी हाथों में सौंपना ना केवल सार्वजनिक क्षेत्र को फेल करना है, बल्कि मंत्रिमंडलीय शासन प्रणाली को नकारना भी है। कांग्रेस बजाय अब तक रही अपनी कमियों, गलतियों को स्वीकारने और मोदी सरकार की विफलताओं को गिनाने के, वे केवल रफाल का जाप ही कर रही है। भ्रष्टाचार को आयठाण मान चुके इस देश में अब यह मुद्दा बहुत प्रभावी नहीं रह गया है।
अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस का लक्ष्य स्पष्ट बहुमत पाना है ही नहीं। वह जैसे-तैसे 100-125 सीट लाने की जुगत में है ताकि या तो विपक्षी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर सके या विपक्ष में सम्मानजनक स्थिति पा सके। वहीं मोदी-शाह स्पष्ट बहुमत की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं ताकि पार्टी और शासन में पुन: केवल उन्हीं की चल सके, जिसकी ऐसी उम्मीद फिलहाल कम ही लग रही है।
भाजपा यदि 175 के पार सीटें जीतती है तो सरकार चाहे बना ले, मोदी प्रधानमंत्री नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में वे खुद ही किनारा कर लेंगे। जैसे तैसे बन भी गए तो साल-छ: महीने में उखड़ जायेंगे, क्योंकि राज करने की जिस तरह की उनकी फितरत है वह सब तो गठबंधन सरकार में संभव नहीं होगा। भाजपा को स्पष्ट बहुमत के चलते अभी का गठबंधन रस्म अदायगी भर है। मोदी-शाह का पार्टी और शासन से बाहर होना ना केवल देशहित में होगा बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भाजपा के एक पार्टी होने के नाते खुद उसके दूरगामी हितों में भी है, ऐसा अटलबिहारी वाजपेयी ना केवल मानते-समझते रहे बल्कि वैसा ही व्यवहार भी करते थे।
वामपंथी पार्टियां विचार के बावजूद मुख्यधारा से बाहर इसलिए होती जा रही हैं कि वह राजनीति की व्यावहारिक प्रयोगशाला में प्रयोग के यूरोपियन तरीके नहीं छोडऩा चाहती, वह ना भारतीय समाज व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में व्यवहार करती हैं और ना ही यहां की तासीर से वाकिफ होना चाहती हैं।
भारत में जो भी अन्य प्रादेशिक दल हैं उनमें से अधिकांश व्यक्ति या परिवार आधारित हैं। स्थानीय मुद्दों को लेकर बने दल भी या तो किसी परिवार के अधीन हो लिए या स्थानीय चामत्कारिक व्यक्तित्व के। जिनके साथ ऐसा नहीं है, वे गौण हो रहे हैं। इनमें कश्मीर की पीडीपी, नेशनल कान्फे्रंस से लेकर पंजाब के अकाली दल, उत्तरप्रदेश में समाजवादी दल और बहुजन समाज पार्टी, बिहार का राष्ट्रीय जनता दल, बंगाल में तूणमूल कांग्रेस, असम में असम गण परिषद और अन्य प्रदेशों के अपने-अपने स्थानीय फ्रंट हो सकते हैं। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, ओडिशा में बीजू जनता दल, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति और आंध्र में तेलगुदेशम पार्टी और वाइएसआर कांग्रेस, कर्नाटक में जनता दल (सेक्यूलर), तमिलनाडु में डीएमके-एआइडीएमके के बारे में कह सकते हैं। इनमें अकाली दल, एआइडीमके, शिवसेना इन चुनावों में भी भाजपा के साथ है।
उल्लेखित प्रादेशिक दलों में अधिकांश भाजपा के वर्तमान नेतृृत्व के तौर-तरीकों से सहमत नहीं हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व की कीमत पर उस कांग्रेस के साथ भी गठबंधन नहीं करना चाहते जो खुद अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही अन्यथा मोदी-शाह के खिलाफ हैं सब। जैसा कि जिक्र किया इनमें सपा-बसपा का मामला अलग है और इन दोनों पार्टियों के नेतृत्व को ना चाहते हुए भी मोदी-शाह की रणनीति के अनुसार खेल खेलना पड़ रहा है।
कुल मिलाकर इस चुनाव में भी बिसात पिछले हर चुनाव की तरह भिन्न है। बाजी किसी के पक्ष में जाए, इस भिन्न दीखती बिसात की सरकार भी भिन्न होगी।
—दीपचन्द सांखला
20 मार्च, 2019

Thursday, March 14, 2019

मीडिया की साख और अस्तित्व पर संकट

बात राजद नेता के उस पत्र से शुरू करते हैं जिसके माध्यम से तेजस्वी यादव ने विभिन्न विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं से अपील की है कि वे उन टीवी चैनलों का बहिष्कार करें जो एक एजेण्डे के तहत पार्टी-विशेष को चुनावी लाभ दिलाने के लिए विपक्षी दलों की छवि खराब कर रहे हैं। तेजस्वी बदनाम-मसखरे लालूप्रसाद यादव जैसे नेता के राजनीतिक वारिस चाहें हों, लेकिन वे अपनी बात संजीदगी से कहते हैं। वर्तमान हैसियत उन्हें वंशवाद के चलते चाहे मिली हो लेकिन अपने समकक्ष वारिसों से ज्यादा परिपक्वता से वे पेश आते हैं।
जातिवाद, वंशवाद, धर्मांधता जैसी बुराइयां फिलहाल भारतीय समाज की वह बुराइयां हैं जिनसे छूट पाने का ना तात्कालिक उपाय कोई है और ना ही भगीरथ प्रयास कोई करता दीख रहा। इसमें कुतर्क यह आ सकता है कि फिर राजाओं-नवाबों का राज ही क्या बुरा था। बुरा था, उसमें वारिस व्यक्ति, दम्पती या परिवार तय करता था जिसे मानना प्रजा की मजबूरी थी। आज के वंशवाद को चला चाहे राजनेता रहे हों, उसे स्वीकारना-दुत्कारना जनता के हाथ है। कई नेताओं के वारिसों का हाशिए पर होना इसकी पुष्टि करता है। अब तो संघ पोषित भाजपा भी इससे मुक्त नहीं है। वामपंथी पार्टियां अपवादों में गिनायी जा सकती हैं वहां यह संभव इसलिए है कि उनकी बणत भारतीय नहीं है, इसी वजह से इनका सर्व स्वीकार्य होना संदिग्ध है। भारत जैसे देश को सुधारा और चलाया इसकी तासीर के अनुरूप ही जा सकता है। यह बात ना वामपंथियों की समझ में आई है और ना राष्ट्रवाद जैसे पश्चिमी अवधारणा से चलने वाले संघ और इसकी अनुगामी भाजपा के।
बात मीडिया के हवाले से शुरू की, वहीं लौटते हैं। भारतीय मीडिया चाहे इस वहम में जी रहा है कि उसे लोकतंत्र का चौथा पाया माना जाता है, लेकिन यह केवल धारणा है, संविधान सम्मत नहीं। संविधान सम्मत लोकतंत्र के तीन ही पाए हैंव्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। चढ़ाने की गरज भर से लोकतंत्र का चौथा पाया बता-बता कर मीडिया के वहम के गुब्बारे को इतना फुला दिया गया कि वह नियति के उस कगार पर पहुंचने को है जहां उसे फटना ही है।
भारतीय, खासकर हिन्दी मीडिया के संदर्भ से बात करें तो प्रिन्ट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के ये दोनों आयाम फिलहाल अंधेरे को हासिल हो गये हैं। व्यवसाय ही नहीं, धंधा बन चुके मीडिया के लिए पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्श की बात करना 'भैंस के आगे बीन बजाना' जैसा है। मीडिया समूहों के मालिकों का तो क्या कहेंजो तथाकथित पत्रकार, संपादक, स्टींगर, न्यूज एंकर हैं, उन्होंने तो व्यवस्था के आगे समर्पण ही कर दिया है। अधिकांश तो अधजल गगरी छलकत जाय के साक्षात उदाहरण हैं। अधिकांश पत्रकार हेकड़ी और आत्मसम्मान तथा अधिकारों और लालच में अन्तर ही नहीं समझते। समाज के किसी प्रभावी व्यक्तित्व या राजनेता के दिए अतिरिक्त मान और तवज्जो की मंशा को समझने और ना समझने वाले-दोनों ही तरह के मीडियाकर्मी ऐसे मान-तवज्जो पर मुग्ध होने से नहीं बच पाते हैं।
बीते पांच-छह वर्षों में कर्तव्यच्युत हुए मीडिया समूह देश-धर्म की भी परवा नहीं कर रहे हैं। वजह साफ है कि मीडिया समूहों को चलाने वालों का अपनी कमाई लगातार बढ़ाने के सिवाय अन्य कोई मकसद होता ही नहीं है। वहीं पत्रकार अपनी आजीविका को बनाए और बचाए रखने की जुगत में पेशेवर मूल्यों को या तो त्याग चुका है या ऐसी उसकी समझ विकसित ही नहीं हो पाई है। आजादी के आन्दोलन के समय जो भारतीय पत्रकारिता सभी तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद कर्तव्यच्युत नहीं हुई, उसी का वारिस आज का मीडिया आजादी बाद की अनेक अनुकूलताओं के होते हुए भी यदि अपनी साख बनाए-बचाए नहीं रख रहा है तो अपने महत्त्व और जरूरत को वह खुद ही खत्म कर लेगा।
आजादी बाद जिस महती जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया गया, वह हैजनता को एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने के तौर पर प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी। यह जिम्मेदारी तीन संवैधानिक आधार स्तम्भों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका की तो थी ही। चौथे मानद स्तम्भ मीडिया की भी कम नहीं थी। इस जिम्मेदारी के प्रति इन चारों स्तम्भों के उदासीन रवैये के चलते हुआ यह कि उक्त तीनों संवैधानिक संस्थाओं तक पहुंचने वाले लोगों में से अधिकांश में संवैधानिक नागरिक होने का अभाव नजर आता है। इसका प्रत्यक्ष खमियाजा अब तक अधिकतम शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस ने तो भुगता ही है पर असल में नुकसान देश का हो रहा है। गैर-संवैधानिक विचार वाले समूहों का बोलबाला बढ़ गया। मीडिया इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार इसलिए है कि उसने कभी भी ऐसी अपनी जिम्मेदारी की ओर ध्यान नहीं दिया जबकि तीनों संवैधानिक स्तम्भों को इस जिम्मेदारी का लगातार अहसास करवाने का काम मीडिया का ही था। खुद मीडिया भी इसी कारण से संवैधानिक मूल्यों के साथ काम करने वालों की कमी से जूझ रहा है। बाकी के तीन स्तम्भों को तो सम्भालने की जिम्मेदारी संविधान की है। लोकतंत्र का मान लिया गया चौथा स्तम्भ मीडिया यह भूल गया कि उसे अपनी हैसियत तो खुद बचाये रखनी है। इस घोर प्रतिकूल समय में अपनी साख और हैसियत दोनों को मीडिया के लिए जैसे-तैसे भी बचाना जरूरी है। इस ओर सक्रिय होने का समय यही है, अन्यथा इतिहास मीडिया को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकेगा।
—दीपचन्द सांखला
14 मार्च, 2019

Thursday, March 7, 2019

मोदीजी! देश ने आपको प्रधानमंत्री चुना है


एतराज करने वाले कह सकते हैं कि मोदीजी देश के प्रधानमंत्री हैं, पद की गरिमा का खयाल रखें। इसका जवाब यह है कि जो खुद बीते पांच वर्षों से इस पद की गरिमा को जार-जार करने में ही जुटा हो उनकी गरिमा का कैसा लिहाज? हम संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने चुने प्रतिनिधियों की नीर-क्षीर आलोचना करने का हमें संवैधानिक हक हासिल है, उसी का उपयोग कर रहे हैं। जिन्हें इसके उलट लगता है, वे विरुदावलियां गाते रहें, उन्हें भी कौन रोक रहा है। कहा यह भी जा सकता है कि पिछले प्रधानमंत्रियों के लिए तो ऐसा नहीं कहा गया। ऐसा इतिहास से अनभिज्ञ ही कह सकते हैं। 1967 के चुनावों से सक्रिय रहा हूंंतब की नासमझी से लेकर थोड़े बाद की अधकचरी समझ से और फिर 1993 तक सक्रिय राजनीति कर सत्ता-व्यवस्था की ना केवल जमकर आलोचना करता रहा हूं बल्कि सड़कों पर उतरा हूं। इस दौरान जिन प्रधानमंत्रियों का जमकर विरोध किया उनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी दोनों शामिल हैं। 1993 के बाद सक्रिय राजनीति छोड़ दी तब से विरोध का तरीका जरूर बदल गया लेकिन कर्तव्यच्युत नहीं हुआ।
इस जरूरी प्रारंभिक घोषणा के बाद शीर्षक पर आ लेते हैं। प्रधानमंत्री मोदी 2013 में जब से भाजपा के नेता के तौर पर केन्द्र की राजनीति में आए, तब से इनके भाषणों का पुनरावलोकन कर लें, शायद ही कोई भाषण निकलेगा कि जिसमें कोई झूठ ना बोला गया हो, गुमराह नहीं किया गया हो, किसी पर भद्दा व्यंग्य ना किया गया हो। इतना भर ही नहीं, प्रधानमंत्री बनने के बाद कोई भी सार्वजनिक भाषण उनका ऐसा नहीं रहा जो चुनावी भाषण ना लगे। यहां तक कि औपचारिक सरकारी आयोजन के उद्बोधनों और विदेश में किए भाषणों में अब तक के प्रधानमंत्रियों ने जो गरिमा और मर्यादाएं कायम की थीं, उन सभी को मोदीजी ने ध्वस्त किया है।
2013-14 के चुनावों से पूर्व मोदीजी ने देश की जनता के साथ जो-जो वादे किए उन्हें गिनाना अनावश्यक विस्तार से बचने के लिए जरूरी लगता है। इनमें से किसी एक भी वादे को पूरा करने की मंशा मोदीजी ने जताई हो तो बताएं। बीते 65 वर्षों का स्यापा लेकर ना बैठें। किसी एक भी वादे पर मोदीजी खरे नहीं उतरे हैं। अलावा इसके प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन नई योजनाओं की घोषणा की गई, उनमें से अधिकांश तो पुरानी योजनाओं में मामूली फेरबदल के साथ नये नामों की घोषणाएं भर हैं, बावजूद इस सब के सभी योजनाओं में या तो शिथिलता आयी है या औंधे मुंह गिरी हैं। मोदीजी द्वारा घोषित आदर्श ग्राम योजना, स्मार्ट सिटी योजना और उज्ज्वला योजना किस हश्र को हासिल हुई हैं, थोड़ा देख लें।
उपलब्धियां बताने के लिए योजनाओं के परिणामों के आंकड़ों के मानक बदले गये। उदाहरण के तौर पर नये बने राष्ट्रीय राजमार्गों की लम्बाई के आंकड़े अंतरराष्ट्रीय मानक की आड़ देकर डबल, ट्रिपल, फोर लेन, छह लेन के निर्माण के आंकड़े को दुगुना-तिगुना, चार-छह गुणा बता कर सड़कों के एकल लम्बाई के पिछले आंकड़ों से तुलना कर अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। ऐसा ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार को बदल कर गुमराह किया गया। नोटबंदी लागू करने के मूर्खतापूर्ण निर्णय और अनाड़ीपने से लागू की गई जीएसटी प्रणाली के परिणाम न केवल पूरे देश का व्यापार जगत बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भुगत रही है। इन दो निर्णयों से लडख़ड़ाई अर्थव्यवस्था अभी तक संभलने का नाम नहीं ले रही। सरकार के मूर्खतापूर्ण अधिनायकत्वी निर्णयों से किनारा कर महती जिम्मेदारियां संभालने वाले पद छोडऩे लगे हैं। इनमें रिजर्व बैंक के दो गवर्नर और देश के वित्तीय सलाहकार के अलावा नीति आयोग के सदस्य तक शामिल हैं।
भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाकर सत्ता में आए मोदीजी ने जहां अंबानी-अडानी जैसों को निहाल कर उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के तरीके बदल दिए हैं वहीं इन्हें चौड़े लाने वाली संवैधानिक इकाइयों को पंगु बना दिया। सूचना के अधिकार कानून को खुद प्रधानमंत्री कार्यालय नहीं मानता, वहीं सीबीआई और सीएजी जैसी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग जिस तरह किया जा रहा है, वह  किसी से छिपा नहीं। कांग्रेस इनका उपयोग दिखाऊ संकोच के साथ एक सीमा में ही करती आई वहीं मोदी सरकार ने सीएजी और सीबीआई का दुरुपयोग जिस निर्लज्जता के साथ किया वह मिसाल बन रहा है। निचले स्तर के भ्रष्टाचार पर कमी कहीं नहीं दिख रही बल्कि लोकतंत्र के जिस सबसे कलंकित आपातकाल में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश दिखने लगा था, वह शेखी बघारू मोदीजी के कार्यकाल में विकराल हुआ है। रोजमर्रा के कामों की रिश्वत की दरें पिछले पांच वर्षों में कितने गुना हो गई, जिनका वास्ता सरकारी कार्यालयों से पड़ता हैउन अपने निकटस्थों से इसकी पुख्ता जानकारी कर लें।
बढ़ते बलात्कार, कानून व्यवस्था की बदहाली, आतंकवाद की बढ़ी वारदातें और उनसे बढ़ी कैजुअल्टीज में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी मोदीजी के कानून के राज की पोल खोलती है। विदेशनीति को मोदीजी द्वारा भायलेपने जैसे अनाड़ीपने से साधने के परिणाम सामने आने लगे हैं। जब मालदीव, नेपाल जैसे छोटे पड़ोसी देश ही मोदी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं तो बड़े देशों से उम्मीद कैसी? वाट्सएप पर आइटी सेल की देश-विदेश संबंधी अधिकांश खबरें प्रामाणिक नहीं होती, इन पर भरोसा ना करें। विदेशों में मोदीजी की साख विदेशी मीडिया को पढ़-देख कर समझी जा सकती है। अधिकांश विदेशी मीडिया की निष्पक्षता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। बानगी के तौर पर हाल की भारत-पाकिस्तान के बीच हवाई लड़ाई का न्यूयार्क टाइम्स ने निचोड़ दिया है कि इसमें भारत की हेटी हुई है।
किसी मंत्रालय को स्वतंत्रता ना देना और विदेश, रक्षा, गृह जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों को संभालने वाले सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण या राजनाथसिंह की हैसियत खेत में खड़े बिजूका सी बना दी गई। अपने मंत्रालय से संबंधित कामकाज तक की जानकारी इन्हें नहीं होती। ताजा घटनाक्रम को लें तो बालाकोट पर वायुसेना की कार्रवाई की वाररूम की बैठकों में रक्षामंत्री को बुलाना तो दूर, बताया तक नहीं गया। ऐसी नियति ही विदेश मामलों में सुषमा स्वराज की है और ऐसा ही हाल राजनाथसिंह का, इन्हें अपने विभागों के कई महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों की जानकारी मीडिया से मिलती है। इन दिग्गजों का जब यह हाल है तो छुटभैया मंत्रियों की औकात क्या समझ लें। सभी मंत्रालय सचिवों के माध्यम से या तो खुद मोदीजी हैण्डिल कर रहे हैं या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह। संसदीय प्रणाली का ऐसा हश्र इससे पूर्व नहीं देखा गया। दिन के प्रत्येक आयोजन में नये कोरे कपड़े पहनना, उसके लिए ड्रेस डिजाइनर से डिस्कशन, ब्यूटीशियन को प्रतिदिन सिटिंग देना, डायटिशियन और हेल्थ एडवाइजर को समय देने आदि-आदि के अलावा अपने को सजाए रख या तो चुनावी भाषण देना या अम्बानी अडानी जैसों के लिए देश-विदेशों में काम दिलवाने के लिए यात्रा करने के अलावा मोदीजी काम के 18 घण्टों में और क्या करते हैं, आरटीआई बता दे तो पूछ लें। ये भी पता कीजिए प्रधानमंत्री के तौर पर मोदीजी अपने कार्यालय में कितने घंटे बैठते हैं।
आतंकवादी घटनाओं के बीते दस वर्षों के सरकारी आंकड़े ही देखें जो कम होने की बजाय बढ़े हैं। 2014 के बाद की 12 बड़ी आतंक की घटनाएं जो मोदी राज में ही हुई हैंउड़ी-मोहरा हमला : दिसम्बर 2014, मणिपुर में सेना पर हमला : जून 2015, गुरदासपुर का हमला : जुलाई 2015, पठानकोट हमला : जनवरी 2016, अनंतनाग हमला : जून 2016, पंपोर हमला : जून 2016, खाना बाग हमला : अगस्त 2016, पुंछ हमला : सितम्बर 2016, उड़ी हमला : सितम्बर 2016, अमरनाथ यात्रियों पर हमला : जुलाई 2017, पुलवामा सीआरपीएफ कैम्प पर हमला : दिसम्बर 2017 और अभी 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमला। यह सभी हमले इंटैलिजेंस फैल्योर के नतीजे हैं जिसकी जिम्मेदारी कहने भर को गृहमंत्री राजनाथसिंह की है लेकिन बिजूका गृहमंत्री पर कुछ भी वार करो कुछ नहीं होना।
पुलवामा सीआरपीएफ काफिले पर हमले की अपनी खुफिया कमी को आड़ देने के लिए प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी कि हमने सेना को खुली छूट दे दी कि समय और स्थान खुद तय कर कार्रवाई करें। इससे पहले भी सेना सर्जिकल स्ट्राइक करती रही है और जरूरत होने पर एलओसी पार हवाई हमले भी। लेकिन उसकी पूर्व मुनादी कभी नहीं होती थी। डपोरशंखी मोदीजी से रहा नहीं गयाऐसी घोषणा के बाद कोई आतंकवादी समूह अपने ठिकाने बार-बार नहीं बदलेंगे, ऐसा मानना मासूमियत है। शायद इसीलिए बालाकोट में चाही गई सफलता सेना को नहीं मिली हो। लेकिन मोदीजी और इनके अनुगामी उसे नहीं मानते। विंग कमांडर अभिनंदन की गुमशुदगी पर भी सरकार मुंह छुपाती रही, वह तो मूर्खता कर पाकिस्तान ने वीडियो जारी कर दिया अन्यथा सरकार शायद मिग-21 के नुकसान को गिट जाती। अब मोदी सरकार इस पूरे प्रकरण में अपनी शर्मिन्दगी से बचने के लिए सेना और सेनाध्यक्षों को आगे कर रही है। ऐसा आजादी बाद कभी नहीं हुआ। बल्कि वायुसेना अध्यक्ष के इस  जवाब से उलटे सरकार की किरकिरी हुई है कि मृतकों की संख्या बताना हमारा काम नहीं है। तो फिर बालाकोट कार्रवाई में मीडिया में जो 300 से 600 आतंकी मरने की खबरें फ्लैश हुई किसने की? इसके लिए संवेदनशील मीडिया की भी जवाबदेही बनती है। तब और भी ज्यादा जब दुनिया का मीडिया कह रहा है कि एक भी नहीं मरा। मतलब मोदीजी की मुनादी के बाद आतंकवादियों ने स्थान बदल लिया!
दो ही उदाहरण काफी हैं, दोनों के वीडियो यू-ट्यूब पर मिल जाएंगे। पहला, नोटबंदी के तुरंत बाद जापान में उनका उद्बोधन जिसमें मोदीजी ताली बजाकर और अंगूठा दिखाकर इतराते हुए विदेश में बताते हैं कि 'घर में शादी है और पास में पैसा नहीं है।' यह सीन निकृष्टता की पराकाष्ठा इसलिए है कि शादियों के उस मौसम में कितने सामान्य लोगों को परेशान होना पड़ा, उसका आंकड़ा नहीं। दूसरा, अभी हाल में आइआइटी के छात्रों को संबोधित करते हुए मोदीजी डिस्लेक्शिया जैसी मानसिक व्याधि की खिल्ली केवल इसलिए उड़ाते हैं कि उन्हें एक विपक्षी नेता को नीचा दिखाना था। इससे ज्यादा बेशर्मी की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है कि हमने देश का प्रधानमंत्री ऐसा चुना है, जिन्हें मानवीय गरिमा की तो छोडि़ए सामान्यजन की तकलीफों से भी कोई वास्ता नहीं है।
दीपचन्द सांखला
07 मार्च, 2019