राजस्थान की राजनीति के भथूलिये पिछले सप्ताह बीकानेर से गुजरे। जिनकी तीव्रता
इतनी कम भी नहीं थी कि असर ना दिखाए। एक ओर बीते चार वर्षों में प्रदेश भाजपा
अध्यक्ष अशोक परनामी को इस क्षेत्र की जनता ने पहली बार सक्रिय देखा तो कुछ
स्थानीय चुहलबाज ये कहने से भी नहीं चूके कि 'जांवती री बाजा' है। वहीं दूसरी
ओर ऐसी सक्रियता यहां की जनता ने सचिन पायलेट की भी पहली बार देखी लेकिन परनामी से
ठीक उलट। लगता है पायलेट की अध्यक्षी स्टेपनी भाव से बाहर आने को कसमसाने लगी है।
वैसे कांग्रेस के अधिकांश क्षेत्रीय नेताओं की हैसियत कभी कठपुतली से ज्यादा
की नहीं रही लेकिन शाह-मोदी के बाद भाजपा भी उसी गत को हासिल हो गई है। हालांकि
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चार वर्षों से अपनी हैसियत को बनाए रखने की पूरी
जद्दोजहद में हैं लेकिन लगता है हाल के उपचुनावों के परिणामों ने उन्हें काफी
कमजोर किया है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि राजे ने घुटने टेक दिए हों। सौदेबाजी चल
रही है, लेकिन चतुर शाह राजे के आमने-सामने नहीं हो रहे। शाह को
लगता है मिलने का समय ना देकर राजे को हताश कर देंगे।
राजस्थान विधानसभा चुनाव के ऊंट की करवट का तो नहीं पता लेकिन लगता यही है कि
वसुंधरा अपना यह कार्यकाल पूरा करेंगी। पार्टी के पास भी वसुंधरा के जोड़ का
विकल्प नहीं है। चुनाव सामने नहीं होते तो अमित शाह किसी राजस्थानी खट्टर या दास
को थरपकर राज चला लेते। ऐसे में बलि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की ही होनी है।
यह आम चलन हो गया है कि प्रदेश पार्टी की कमान मजबूत मुख्यमंत्री अपने किसी 'सरकिट' को ही देते हैं, भरोसेहीनता के इस
राजनीतिकाल में यह जरूरी हो गया है। प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर महज सरकिट की भूमिका
निभा रहे अशोक परनामी का हश्र वही होगा जो जरूरत पडऩे पर मुन्नाभाई के सरकिटों का
होता है। कहा जा रहा है कि परनामी डेमेज कन्ट्रोल की अपनी आखिरी कवायद के तहत ही
बीकानेर भाजपा को सम्हालने आये थे। यहां की दोनों इकाइयों में असंतोष लम्बे समय से
था, ऐसे असंतोष लाइलाज होते हैं। पता होता है पात्र ही बदल सकते
हैं, असंतोष खत्म नहीं कर सकते, सो जैसा है वैसा ही चलने
दिया जाता है। परनामी आए तो तीन दिन के लिए थे, बीच में अचानक जिस तरह गए
उससे लगा कि विदा की घड़ी आ ली, लेकिन फिलहाल वे लौट आए। स्थानीय असंतोष की
स्थितियां ऐसी हैं कि परनामी यदि न आए होते तो गुबार फट पड़ते। परनामी लौटे तो लग
रहा है एक बारगी सब 'रिलीज' हो लिये हैं। लगभग तय है
कि नया प्रदेश अध्यक्ष जो भी बनेगा वह मुख्यमंत्री का सरकिट नहीं होगा, अमित शाह का
सरकिट होगा। इस नवनियुक्ति के साथ ही भाजपा की प्रदेश इकाई 'चुनावी मोड' में आ लेगी। ऐसे
में स्थानीय इकाइयों के असन्तोष एकबारगी तो फुस्स हो ही जाने हैं।
वहीं कांग्रेसियों के सामने सत्ता टिमटिमाने लगी है। कांग्रेस को इस वहम में
नहीं होना चाहिए कि यह चुनावी अनुकूलता उनके द्वारा अर्जित है, राज की
प्रतिकूलता (एंटी इंकम्बेंसी) और तीसरे विकल्प के अभाव में मजबूरी का विकल्प
कांग्रेस है। प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलेट, जो हाल ही तक स्टेपनी मोड
में थे, उससे बाहर आते दिखने लगे हैं। हालांकि उनकी इस बीकानेर
यात्रा को अध्यक्षी की वैसी सक्रियता की बानगी नहीं मान सकते। सामान्य शिष्टाचार
के तहत उन्हें रामेश्वर डूडी के चाचा के शोक में एक बार आना था सो रास्ते में
पिछले दिनों ही दिवंगत कांग्रेस के खांटी नेता भोमराज आर्य के परिजनों से भी मिलते
आए और यहां भानी भाई के परिजनों से भी मिल गए।
प्रदेश के चुनावों में अब सात माह भी शेष नहीं हैं। भाजपाई दिग्गज और क्षत्रप
सांप-नेवले की लड़ाई में व्यस्त हैं वहीं माहोल की अनुकूलता के बावजूद कांग्रेस
संसाधनों के अभावों में ठिठकी हुई है।
कांग्रेस में अशोक गहलोत को जब से राहुल गांधी के राजनीतिक अभिभावक की भूमिका
में देखा जाने लगा तब से ही लग रहा है कि उन्हें राजस्थान में अब नहीं रहने दिया
जायेगा। ऐसे में सचिन पायलेट ही बचते हैं। अन्य कोई नेता या तो अपनी पात्रता वैसी
जता नहीं पाये या पात्रता वे रखते ही नहीं हैं। मुख्यमंत्री का चेहरा कोई पार्टी
आगे करती दिख इसलिए नहीं रही की दिखाने लायक चेहरा जिनका है उन्हें अभिभावक की नैष्ठिक भूमिका में जाना पड़ रहा
है। वैसे यह आम चलन है कि जब राज नहीं होता तब कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं में
असंतोष नहीं होता। हां, चूंकि चुनाव सामने हैं और स्थितियां कांग्रेस
के अनुकूल दिख रही हैं, ऐसे में सचिन पायलेट को स्थानीय नेताओं की केवल
आकांक्षाओं का ही सामना करना पड़ा। हर नेता टिकट का आकांक्षी होता है, कुछ मुखर हो लेते
हैं तो कुछ हो नहीं पाते।
बीकानेर के संदर्भ में बात करें तो कांग्रेस के यहां प्रदेश स्तरीय दो नेता
हैं, नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष और
पूर्व नेता प्रतिपक्ष डॉ. बीडी कल्ला। कहने को दोनों ही वैसे नेता हैं जिन्हें
विभिन्न अनुकूलताओं के चलते अब तक पात्रता से अधिक ही हासिल होता रहा है। डूडी
फिलहाल पारिवारिक शोक में थे इसलिए उनकी भाव भंगिमाओं का जिक्र अभी ठीक नहीं।
लेकिन डॉ. कल्ला अपने से बड़े कद वाले के सामने अपनी राजनीतिक हैसियत के मुखौटे को
सहेज कर सामान्यत: नहीं रख पाते, सचिन पायलेट की इस बीकानेर यात्रा के दौरान भी
नहीं रख पाए। राहुल की उस घोषित नीति के बाद कि लगातार दो बार हारे को पार्टी
उम्मीदवार नहीं बनाएगी, डॉ. कल्ला कुछ ज्यादा ही आशंकित नजर आने लगे
हैं। 38 वर्ष के अपने राजनीतिक जीवन में कल्ला को वह मुकाम हासिल है जिसमें उनकी
उम्मीदवारी की दावेदारी को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। अत: उन्हें पात्रता
से बड़ी अपनी हैसियत की हीनता से बाहर आकर हासिल हैसियत को भुनाना चाहिए।
पार्टियां कैसे भी नियम कायदे बना ले—व्यावहारिक राजनीति करने हेतु उसे बळ पड़ते
जाली-झरोखे रखने पड़ते हैं।
—दीपचन्द सांखला
29 मार्च, 2018