Thursday, March 29, 2018

'भथूळियों' की आड़ में कुछ यूं ही


राजस्थान की राजनीति के भथूलिये पिछले सप्ताह बीकानेर से गुजरे। जिनकी तीव्रता इतनी कम भी नहीं थी कि असर ना दिखाए। एक ओर बीते चार वर्षों में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी को इस क्षेत्र की जनता ने पहली बार सक्रिय देखा तो कुछ स्थानीय चुहलबाज ये कहने से भी नहीं चूके कि 'जांवती री बाजा' है। वहीं दूसरी ओर ऐसी सक्रियता यहां की जनता ने सचिन पायलेट की भी पहली बार देखी लेकिन परनामी से ठीक उलट। लगता है पायलेट की अध्यक्षी स्टेपनी भाव से बाहर आने को कसमसाने लगी है।
वैसे कांग्रेस के अधिकांश क्षेत्रीय नेताओं की हैसियत कभी कठपुतली से ज्यादा की नहीं रही लेकिन शाह-मोदी के बाद भाजपा भी उसी गत को हासिल हो गई है। हालांकि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चार वर्षों से अपनी हैसियत को बनाए रखने की पूरी जद्दोजहद में हैं लेकिन लगता है हाल के उपचुनावों के परिणामों ने उन्हें काफी कमजोर किया है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि राजे ने घुटने टेक दिए हों। सौदेबाजी चल रही है, लेकिन चतुर शाह राजे के आमने-सामने नहीं हो रहे। शाह को लगता है मिलने का समय ना देकर राजे को हताश कर देंगे।
राजस्थान विधानसभा चुनाव के ऊंट की करवट का तो नहीं पता लेकिन लगता यही है कि वसुंधरा अपना यह कार्यकाल पूरा करेंगी। पार्टी के पास भी वसुंधरा के जोड़ का विकल्प नहीं है। चुनाव सामने नहीं होते तो अमित शाह किसी राजस्थानी खट्टर या दास को थरपकर राज चला लेते। ऐसे में बलि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की ही होनी है।
यह आम चलन हो गया है कि प्रदेश पार्टी की कमान मजबूत मुख्यमंत्री अपने किसी 'सरकिट' को ही देते हैं, भरोसेहीनता के इस राजनीतिकाल में यह जरूरी हो गया है। प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर महज सरकिट की भूमिका निभा रहे अशोक परनामी का हश्र वही होगा जो जरूरत पडऩे पर मुन्नाभाई के सरकिटों का होता है। कहा जा रहा है कि परनामी डेमेज कन्ट्रोल की अपनी आखिरी कवायद के तहत ही बीकानेर भाजपा को सम्हालने आये थे। यहां की दोनों इकाइयों में असंतोष लम्बे समय से था, ऐसे असंतोष लाइलाज होते हैं। पता होता है पात्र ही बदल सकते हैं, असंतोष खत्म नहीं कर सकते, सो जैसा है वैसा ही चलने दिया जाता है। परनामी आए तो तीन दिन के लिए थे, बीच में अचानक जिस तरह गए उससे लगा कि विदा की घड़ी आ ली, लेकिन फिलहाल वे लौट आए। स्थानीय असंतोष की स्थितियां ऐसी हैं कि परनामी यदि न आए होते तो गुबार फट पड़ते। परनामी लौटे तो लग रहा है एक बारगी सब 'रिलीज' हो लिये हैं। लगभग तय है कि नया प्रदेश अध्यक्ष जो भी बनेगा वह मुख्यमंत्री का सरकिट नहीं होगा, अमित शाह का सरकिट होगा। इस नवनियुक्ति के साथ ही भाजपा की प्रदेश इकाई 'चुनावी मोड' में आ लेगी। ऐसे में स्थानीय इकाइयों के असन्तोष एकबारगी तो फुस्स हो ही जाने हैं।
वहीं कांग्रेसियों के सामने सत्ता टिमटिमाने लगी है। कांग्रेस को इस वहम में नहीं होना चाहिए कि यह चुनावी अनुकूलता उनके द्वारा अर्जित है, राज की प्रतिकूलता (एंटी इंकम्बेंसी) और तीसरे विकल्प के अभाव में मजबूरी का विकल्प कांग्रेस है। प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलेट, जो हाल ही तक स्टेपनी मोड में थे, उससे बाहर आते दिखने लगे हैं। हालांकि उनकी इस बीकानेर यात्रा को अध्यक्षी की वैसी सक्रियता की बानगी नहीं मान सकते। सामान्य शिष्टाचार के तहत उन्हें रामेश्वर डूडी के चाचा के शोक में एक बार आना था सो रास्ते में पिछले दिनों ही दिवंगत कांग्रेस के खांटी नेता भोमराज आर्य के परिजनों से भी मिलते आए और यहां भानी भाई के परिजनों से भी मिल गए।
प्रदेश के चुनावों में अब सात माह भी शेष नहीं हैं। भाजपाई दिग्गज और क्षत्रप सांप-नेवले की लड़ाई में व्यस्त हैं वहीं माहोल की अनुकूलता के बावजूद कांग्रेस संसाधनों के अभावों में ठिठकी हुई है।
कांग्रेस में अशोक गहलोत को जब से राहुल गांधी के राजनीतिक अभिभावक की भूमिका में देखा जाने लगा तब से ही लग रहा है कि उन्हें राजस्थान में अब नहीं रहने दिया जायेगा। ऐसे में सचिन पायलेट ही बचते हैं। अन्य कोई नेता या तो अपनी पात्रता वैसी जता नहीं पाये या पात्रता वे रखते ही नहीं हैं। मुख्यमंत्री का चेहरा कोई पार्टी आगे करती दिख इसलिए नहीं रही की दिखाने लायक चेहरा जिनका है उन्हें  अभिभावक की नैष्ठिक भूमिका में जाना पड़ रहा है। वैसे यह आम चलन है कि जब राज नहीं होता तब कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं में असंतोष नहीं होता। हां, चूंकि चुनाव सामने हैं और स्थितियां कांग्रेस के अनुकूल दिख रही हैं, ऐसे में सचिन पायलेट को स्थानीय नेताओं की केवल आकांक्षाओं का ही सामना करना पड़ा। हर नेता टिकट का आकांक्षी होता है, कुछ मुखर हो लेते हैं तो कुछ हो नहीं पाते।
बीकानेर के संदर्भ में बात करें तो कांग्रेस के यहां प्रदेश स्तरीय दो नेता हैं, नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष और पूर्व नेता प्रतिपक्ष डॉ. बीडी कल्ला। कहने को दोनों ही वैसे नेता हैं जिन्हें विभिन्न अनुकूलताओं के चलते अब तक पात्रता से अधिक ही हासिल होता रहा है। डूडी फिलहाल पारिवारिक शोक में थे इसलिए उनकी भाव भंगिमाओं का जिक्र अभी ठीक नहीं। लेकिन डॉ. कल्ला अपने से बड़े कद वाले के सामने अपनी राजनीतिक हैसियत के मुखौटे को सहेज कर सामान्यत: नहीं रख पाते, सचिन पायलेट की इस बीकानेर यात्रा के दौरान भी नहीं रख पाए। राहुल की उस घोषित नीति के बाद कि लगातार दो बार हारे को पार्टी उम्मीदवार नहीं बनाएगी, डॉ. कल्ला कुछ ज्यादा ही आशंकित नजर आने लगे हैं। 38 वर्ष के अपने राजनीतिक जीवन में कल्ला को वह मुकाम हासिल है जिसमें उनकी उम्मीदवारी की दावेदारी को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। अत: उन्हें पात्रता से बड़ी अपनी हैसियत की हीनता से बाहर आकर हासिल हैसियत को भुनाना चाहिए। पार्टियां कैसे भी नियम कायदे बना लेव्यावहारिक राजनीति करने हेतु उसे बळ पड़ते जाली-झरोखे रखने पड़ते हैं।
दीपचन्द सांखला
29 मार्च, 2018

Thursday, March 22, 2018

कन्हैयाकुमार के जयपुर आयोजन के बहाने अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता की बात


सत्ता की खुमारी और दम्भ तो वैसे गांधीवादियों में भी देखा गया है लेकिन राजस्थान भाजपा के संदर्भ से बात करें तो अलोकतांत्रिक संस्कारों से पोषित दक्षिणपंथी पार्टी होते हुए भी यहां भैरोसिंह शेखावत के होते लोकतांत्रिक मूल्यों में कुछ भरोसा रखने वालों का पार्टी में बोलबाला रहा है। केन्द्रीय स्तर पर बात करें तो ऐसे ही अटलबिहारी वाजपेयी रहे, जिनके मुखौटे के चलते ही सही, पार्टी का चेहरा कुछ हद तक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष बना रहा।
भाजपा नेताओं में भैरोसिंह शेखावत की छवि ना केवल धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक की रही बल्कि उच्च जाति वर्ग से होते हुए भी जातीय दंभ से लगभग मुक्त व्यवहार करते हुए भी उन्हें देखा गया। हाल ही के पद्मावती विवाद के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो शेखावत के राज में रूपकंवर के सती होने का मामला उल्लेखनीय उदाहरण है, उन्होंने तब स्वजातीय दबंगों की बिल्कुल परवाह नहीं की। वहीं वर्तमान मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का मिजाज सामन्ती होते हुए भी साम्प्रदायिक ना होने की अपनी साख उन्होंने हाल तक बचाए रखी है। वसुंधरा के राज में लोकतांत्रिक मूल्यों का मान भी कुछ तो रखा ही जाता है, इसे गुजरात के मोदी राज से तुलना कर बेहतर समझ सकते हैं। लेकिन शाह-मोदी जैसे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा बिल्कुल ना रखने वालों के पार्टी पर हावी होने के बाद की छाया राजस्थान में देखी जाने लगी है। इसे हाल ही की एक घटना से बयां कर सकते हैं।
देश में चर्चित छात्र नेता कन्हैयाकुमार का एक व्याख्यान 11 मार्च 2018 रविवार को जयपुर में आयोजित होना था। राजस्थान जनलोक मोर्चा के बैनर तले 'जन-मंथन' नाम से आयोज्य इस कार्यक्रम की स्वीकृति पुलिस-प्रशासन से पूर्व में ले ली गई थी। लेकिन आयोजन के दिन स्थानीय प्रशासन ने उसे उसी रूप में नहीं होने दिया।
यहां यह बताना जरूरी है कि जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैयाकुमार को इसलिए आरोपित और बदनाम किया गया कि जेएनयू के एक कार्यक्रम में उन्होंने भारत के टुकड़े होने जैसे नारे लगाए थे। लेकिन दिल्ली पुलिस ने जिस आरोप में कन्हैयाकुमार को जेल भिजवाया था, उसे वह न्यायालय में सिद्ध करना तो दूर, बल्कि जांच के बाद उसी पुलिस को न्यायालय में कहना पड़ा कि आरोपित अपराध में कन्हैयाकुमार की कैसी भी लिप्तता नहीं थी। जिन पांच नकाबपोशों ने बाहर से आकर जेएनयू के उस कार्यक्रम में राष्ट्रद्रोह के नारे लगाये थे, उनकी पहचान दिल्ली पुलिस अभी तक नहीं कर पायी है। इससे उस शक की पुष्टि होती है कि कन्हैयाकुमार और उस कार्यक्रम के आयोजकों को बदनाम करने के लिए विरोधी विचारधारा वालों की वह करतूत स्क्रिप्टेड थी। इस तरह की 'इल पॉलिटिकल प्रैक्टिसÓ के शिकार बहुधा भले लोग ही होते हैं।
यह सब बताना इसलिए जरूरी है कि जैसे ही राजस्थान के शासन पर प्रभावी भाजपाइयों के उन अलोकतांत्रिक नेताओं को यह जानकारी हुई कि 11 मार्च के इस आयोजन में कन्हैयाकुमार का भाषण होना है, वे सक्रिय हो लिए। ना केवल कार्यक्रम की स्वीकृति रद्द करवा दी गई बल्कि कार्यक्रम होने से एक दिन पूर्व पुलिस ने आयोजक युवा एक्टिविस्ट हरिदान चारण को बुलाकर हवालात में भी बन्द कर दिया। ऐसे हालात आपातकाल के अलावा तो उन इन्दिरा गांधी के शासन में भी कभी देखे नहीं गये जिन्हें यही भाजपाई अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर सर्वाधिक भुंडाते हैं। इस घटना की जानकारी जैसे-तैसे हरिदान के शुभचिन्तकों को हो गई और वे भी सक्रिय  हो लिए। यहां यह बताना भी जरूरी है कि भाजपा में अब भी कुछ युवा नेता ऐसे हैं जिनका ना केवल सोच और व्यवहार धर्मनिरपेक्ष है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों में भी उनकी निष्ठा है। ऐसे भाजपाइयों को ना केवल पुलिस-प्रशासन से भिडऩा पड़ा बल्कि अपने नेताओं से भी संवाद करना पड़ा। इस कवायद के बाद हरिदान को तो छोड़ दिया लेकिन कार्यक्रम रद्द करने के आदेश को वापस फिर भी नहीं लिया। स्वीकृति को बहाल फिर भी नहीं किया गया। प्रशासन से बड़ी जद्दोजेहद के बाद तय समय पर जयपुर के ही कुमारानन्द भवन में सीमित कार्यक्रम कर आयोजकों को सन्तोष करना पड़ा।
कन्हैयाकुमार पर लगाए आरोपों को जब दिल्ली पुलिस खुद वापस ले चुकी है, जयपुर में उनके आयोजन से सत्ता का भयभीत होना वर्तमान सरकार के चरित्र को संदिग्ध बनाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे अधिकार की यह अवहेलना संवैधानिक भावना के खिलाफ है। इस तरह की कार्यवाहियों से लगता है कि शासन में उन लोगों का दबदबा बढ़ रहा है जिनका विश्वास ना लोकतांत्रिक मूल्यों में है और ना ही धर्मनिरपेक्षता में। ऐसे में, यह जरूरी हो जाता है कि ना केवल हरिदान जैसे एक्टिविस्टों की हौसला अफजाई हो बल्कि भाजपा में ऐसे नेताओं की ताकत भी बढ़े जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल्यों और वैचारिक-धार्मिक सहिष्णुता में भरोसा रखते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की श्वसन क्रिया और वैचारिक-धार्मिक सहिष्णुता उसकी प्राणवायु है।
दीपचन्द सांखला
22 मार्च, 2018

Thursday, March 15, 2018

कटारिया कुटाई का वीडियो तथा उसके तीर और तुक्के


पिछले सप्ताह सोशल साइट्स पर 2003 में फिल्माया एक वीडियो वायरल हुआ। सनसनी और मारकाट से भरपूर लगभग साढ़े पांच मिनट के इस वीडियो के ना केवल स्क्रिप्ट राइटर बीकानेर के हैं बल्कि मुख्य किरदार भी बीकानेर से ही हैं। राजस्थान सरकार के वर्तमान गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया तो मेहमान कलाकार के तौर पर धक्के धिंगाणिया चढ़ गये। वीडियो फिल्मांकन की लोकेशन बीकानेर की कोलायत तहसील का प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र परिसर है। कोलायत दबंग राजनेता देवीसिंह भाटी का 'एरियाÓ माना जाता है। लगभग चालीस वर्षों से क्षेत्र में देवीसिंह के दबदबे का जिक्र इस तरह किया जाता है कि बगैर उनकी इच्छा के कोई परिन्दा वहां पर भी नहीं मार सकता। यद्यपि उनकी उम्र के तकाजे और दुर्घटनाओं में दोनों पुत्रों को खो देने के बाद पिछले कुछ वर्षों में उनके इस दबदबे में कुछ कमी आ गई। उसी का परिणाम था कि क्षेत्र में अजेय माने जाने वाले देवीसिंह भाटी 2013 का विधानसभा चुनाव भाजपा उम्मीदवार के तौर पर 'मोदी-मोदीÓ माहौल के बावजूद हार गये।
देवीसिंह क्षेत्र की राजनीति में सुर्खियों में 1977 के लोकसभा चुनाव के दौरान आए। तब वे जनता पार्टी उम्मीदवार चौधरी हरीराम मक्कासर के साथ मानिकचन्द सुराना के कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय हुए। बाद में भाटी जनता दल से होते हुए भारतीय जनता पार्टी में पहुंच गए। बीच में तुनककर सामाजिक न्याय मंच नाम से क्षेत्रीय पार्टी भी बनाईलेकिन फिर भाजपा में लौट गए। उक्त वीडियो का समय देवीसिंह के उसी तुनककाल का है जब वे सामाजिक न्याय मंच से भाजपा के खिलाफ ताल ठोक चुके थे। सामाजिक न्याय मंच की स्थापना देवीसिंह ने भाजपा में रहते सामाजिक संगठन के तौर पर की और पार्टी में रहते हुए वे कोलायत के कपिल सरोवर में उग आयी जलखुंभी की आड़ में कमल को उखाड़ फेंकने की बात सार्वजनिक मंचों से करने लगे थे। 2003 के विधानसभा चुनावों से पहले अपने सामाजिक संगठन को राजनीतिक पार्टी में परिवर्तित कर लिया और कोलायत की राजनीतिक बिसात से कमल को एकबारी तो सचमुच उखाड़ दिया।
'कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना' वाले अपने उस आह्वान के चौदह वर्ष बाद उन्होंने पिछले वर्ष ही सरोवर से असल कमल बेलों को उखाडऩे की सुध ली। हालांकि पानी आते ही वह जलखुंभी लौट आई है, भाटी चाहे तो उसे उखाडऩे का द्विअर्थी आह्वान फिर से कर सकते हैं। लेकिन राज्यसभा में जाने की हाल की उनकी खेचळ ने जाहिर कर दिया है कि मगरे का शेर अपने को बूढ़ा और असहाय मानने लगा है। मगरा, कोलायत क्षेत्र की भौगोलिक पहचान है।
देवीसिंह के इस व्यक्तित्व बखान का मकसद यही है कि लोक में इस धारणा की पुष्टि कर सकते हैं कि उस वीडियो की स्क्रिप्ट और निर्देशन देवीसिंह भाटी कैम्प का ही था। वीडियो में जो चार नामनरेन्द्र पाण्डे, सुरेन्द्रसिंह, विष्णु जोशी और जेठूसिंह के चश्मदीदों द्वारा लिए जा रहे हैं, ये चारों युवा तब देवीसिंह कैम्प में ही थे। नरेन्द्र पाण्डे तो उसी दुर्घटना में दिवंगत हुए जिसमें देवीसिंह भाटी के बड़े बेटे पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह हुए। विष्णु जोशी और जेठूसिंह वहीं रहे हैं जहां देवीसिंह भाटी रहे। एबीवीपी के सुरेन्द्रसिंह शेखावत हैं जो 2003 में एक ही वर्ष भाटी के साथ सामाजिक न्याय मंच में रहे और भाजपा में लौट आए। शेखावत आज उन बिरले संजीदा भाजपाई नेताओं में से हैं जो पढऩे-लिखने में विश्वास करते हैं। वीडियो देख जब एक पत्रकार मित्र से पुष्टि करनी चाही कि ये सुरेन्द्रसिंह कौन से हैं तो उन्होंने इस क्रेडिट लाइन के साथ पुष्टि की कि यह 'वाल्मीकि' सुरेन्द्रसिंह शेखावत ही हैं। मतलब दबंगई से राजनीति शुरू करने वाला कोई युवक संजीदा हो ले तो उन्हें यूं वाल्मीकि भी कहा जा सकता है।
किसी न्यूज चैनल के स्टिंगर द्वारा वीडियो कैमरे से फिल्माए इस वीडियो को अब पन्द्रह वर्ष बाद वायरल करने का मकसद तो करने वाला ही वही जानेलेकिन इसकी टाइमिंग के अपने निहितार्थ हैं। हर तरह से मन से लगभग हार चुके देवीसिंह भाटी के बारे में जो सुनते हैं कि वे पार्टी उच्च पदस्थों में अपने एक मात्र खैरख्वाह राजनाथसिंह के माध्यम से हाल ही में हुए राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवारी पाकर अपने को सम्मानजनक स्थिति में पुन: पा लेना चाहते थे। हो सकता है वीडियो वायरल करने वाले का मकसद इसके माध्यम से देवीसिंह भाटी के लिए बाधा पैदा करना ही हो।
एक बार हार जाने और अजेय की छाप हटने से भाटी को शायद लगता हो कि 2018 के चुनाव में वे फिर हार गये तो दाग इतिहास का हिस्सा बन जायेगा। पोते अंशुमानसिंह की उम्र चुनाव लडऩे की अभी हुई नहीं सो खुद ना लडऩे का पुख्ता बहाना भी नहीं है। बीकानेर पूर्व से उनकी दावेदारी सिद्धिकुमारी के होते पार्टी शायद ही स्वीकारे।
खैर, वीडियो वायरल करने वाले का मकसद भले ही कुछ भी हो, इस वीडियो को देखने और गत पन्द्रह वर्षों की स्थानीय राजनीति पर नजर डालने पर यह तो समझ आ ही रहा है कि ये नेता लोग पार्टियों के नाम पर जनता को सिर्फ मूर्ख बनाते हैं और अपने स्वार्थ साधते हैं।
देवीसिंह भाटी खुद 2008 में चुनावों से पहले भाजपा में लौट आए और उक्त घटना के सभी आरोपियों पर से मुकदमें हटवा लिए। वीडियो में कटारिया की ढाल बने गोपाल गहलोत ने अपनी दबंगई देवीसिंह की छत्रछाया में शुरू की। संघ के द्वारिकाप्रसाद तिवाड़ी की रहनुमाई में भाजपा में नन्दू महाराज के साथ राजनीति शुरू की। हित टकराए तो देवीसिंह भाटी से दो-दो हाथ करने से नहीं चूके और 2013 के पिछले विधानसभा चुनावों से पूर्व तक 'स्वयंसेवक' रहे गोपाल गहलोत कांग्रेस में आकर बीकानेर पूर्व की उम्मीदवारी पा गए। उस वीडियो के दूसरे नायक दीपक अरोड़ा ने गोपाल गहलोत की रहनुमाई से दबंगई शुरू की और राजनीति करते हुए गहलोत के साथ ही कांग्रेस में आ लिए। अरोड़ा अब गोपाल गहलोत के समानांतर बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र से ही पंजाबी कोटे से कांग्रेस के टिकट की उम्मीद पाले हुए हैं। वहीं संजीदा हो लिए 'वाल्मीकि' सुरेन्द्रसिंह शेखावत भाजपा में सिद्धिकुमारी के विरुद्ध उम्मीदवारी की मंशा रखते हैं। वैसे देवीसिंह भाटी चाहें तो सिद्धिकुमारी से अपना कोई हिसाब चुकता करने के लिए पार्टी में सुरेन्द्रसिंह शेखावत की पैरवी कर सकते हैं।
जनता को अपनी मासूमियत को भुगतना है सो भुगतती रहे। ये नेतालोग उसे मूर्ख मानकर अपने-अपने स्वार्थ साधते रहेंगे।
दीपचन्द सांखला
15 मार्च, 2018

Thursday, March 1, 2018

होली पर फिर वही, कुछ नई भी


'प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख 'वसंत महोत्सव' या 'काम महोत्सव' के रूप में मिलता है। यह प्राचीन काल से ही सब वर्णों की निकटता का भी त्योहार रहा है। इस दिन सभी वर्णों के लोगों का परस्पर गले मिलने का विधान है। इसे होलिका द्वारा प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठने की कथा से भी जोड़ा जाता है। यह समझकर कि हरि भक्त प्रह्लाद जलकर मर जाएगा, राक्षस नाचने-गाने, कूदने, शोर मचाने और मद्यपान करके अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने लगे थे। आज भी उसी घटना की स्मृति में होलिका दहन होता है। यह देश का सबसे लोकप्रिय और मस्ती का त्योहार है।'
'भारतीय संस्कृति कोश' का उक्त गद्यांश 'होली' के बारे में है। स्थानीय बोली और मानस के हिसाब से आज होली है और कल छालुड़ी (धुलण्डी)। मुहूत्र्त के अनुसार आज रात होली मंगलाई जायेगी। मंगलाना यानी दहन करना यानी लोकचित्त होलिका के दहन को मांगलिक घटना मानता है क्योंकि होलिका न केवल आततायी हिरनाकसप (हिरण्यकशिपु) की बहिन थी बल्कि उसके बुरे कामों में सहयोगी भी थी।
जैसा कि उपरोक्त गद्यांश में बताया गया है, होलिका दहन के समय हिरनाकसप के सहयोगी यह मान कर चल रहे थे कि आग के हवाले होते ही प्रह्लाद तो जल कर राख हो जायेगा। बिना परिणाम का इन्तजार किये वे मद्यपान सेवन और नाचने-कूदने, शोर मचाने में मशगूल हो गये। तो क्या आजकल भी बहुत से लोग इसी मन:स्थिति में नहीं देखे जाते! जिस तरह से होली खेली जाने लगी है, उससे पता ही नहीं चलता कि इस उत्सव में मशगूल कौन तो हिरनाकसप के सहयोगियों की तरह मुगालते में खुशियां मना रहा है और कौन होलिका के दहन की खुशियां मना रहा है। खेलने के ढंग में आई तबदीलियां कुछ इसी तरह का आभास जो देने लगी हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में इस उत्सव का उल्लेख ईसा पूर्व से भी कई सौ साल पहले का मिलता है। उसके नाम, खेलने के ढंग और कथाओं में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। मनुष्य की यथास्थितियों और एकरसता से ऊब और कुछ समय के लिए ही सही तनावों से बाहर आने की उत्कंठा और कुण्ठाओं से छुटकारे की इच्छाओं के चलते ही इस तरह के त्योहारों को मनाया जाने लगा। विभिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न समय पर वर्ष में एक से अधिक बार व्यापक पैमाने पर इन त्योहारों का आना मनुष्य की मानसिक जरूरत को अभिव्यक्त करता है। यह त्योहार केवल हमारे यहां ही मनाया जाता हो, ऐसा नहीं है। सदियों से दुनिया के सभी हिस्सों में समय और मनाने के तरीके में थोड़े परिवर्तनों के साथ ये त्योहार भिन्न-भिन्न नामों से मनाये जाते हैं। ये त्योहार इस बात के प्रमाण भी हैं कि मनुष्य का मन एकरसता में छटपटाता रहता है।
हमारे क्षेत्र को ही लें, कभी यहां पानी को घी से ज्यादा कीमती माना जाता था, तब होली सूखी खेली जाती थी। नलों से पानी गवाड़-घरों में आने लगा तो गीली खेली जाने लगी। अब जब से पानी के विशेषज्ञ यह बताने लगे हैं कि जमीन से पानी समाप्त हो रहा है तो लोक में इसे लेकर दिखावटी चिन्ताएं होने लगी हैं। दिखावटी इसलिए कहा क्यूंकि हमने जीवनशैली ही ऐसी बना ली कि उसमें पानी की बरबादी कई गुुणा बढ़ी है, 365 दिन जिस पानी को अंधाधुंध बरतने और बरबाद करने में लगे रहते हैं उस ओर किसी की सावचेती नहीं देखी जाती। होना तो यह चाहिए कि छालुड़ी के दिन ही क्यों बाकी के 364 दिन भी हम पानी के साथ अपने बरताव को ठीक कर लें। इस तरह की रस्म अदायगियों से अपनी करतूतों को कहीं आड़ तो नहीं दे रहे हैं हम?
'विनायक', सम्पादकीय 26 मार्च, 2013
पांच वर्ष पूर्व के उक्त सम्पादकीय को ज्यों का त्यों फिर देने में कोई संकोच इसलिए नहीं हो रहा किइस त्योहार को मनाने के तौर-तरीके न सुधरे हैं और ना ही बदले हैं। बल्कि होली ही नहीं अन्य त्योहारों की सकारात्मक तौर-तरीकों को जहां हम छोड़ते जा रहे हैं वहीं नए-नए नकारात्मक तौर-तरीके अपनाते जा रहे हैं।
लगातार लोकप्रिय होते जा रहे सोशल मीडिया पर इन त्योहारों से संबंधित साझा की जाने वाली कई विचार मनन को मजबूर करते लगे। मुख्य बात तो यही कि जो लोग मृत्युदंड को अनुचित मानते हैं या वे, जो अहिंसा के समर्थक हैं, उन्हें इस त्योहार को होलिका के मारे जाने का दिन रूढ़ कर दिए जाने पर एतराज है। उनका मानना है किसी की भी मृत्यु कोफिर चाहे वह अपराधी की ही क्यों न होउत्सव के तौर पर मनाना सर्वथा अनुचित है। होलिका को जला कर मार देना, वह भी चमत्कार की आड़ में, और इस घटना को उत्सव के तौर पर प्रतिवर्ष मनाया जाना इस युग के मानवीय मूल्यों के तरफदारों के गले नहीं उतर रहा। इनमें से कुछ तो यह तक कहने से नहीं चुकते कि आज के दिन को 'होलिका शहादत' दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। इस तरह के एतराजों को खारिज न कर हमें विचारना चाहिए। इस तरह के मंथन हमारी सनातन संस्कृति में बाधक नहीं, पुष्ट करने वाले माने जाते रहे हैं।
दीपचन्द सांखला
1 मार्च , 2018