Wednesday, September 30, 2015

रेल बाइपास : गुमराह होने से नहीं बचे तो बहुत भुगतेंगे

राजस्थान उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह सूबे के मुख्य सचिव को निर्देश दिये कि बीकानेर के कोटगेट और सांखला रेलवे फाटकों की समस्या के समाधान हेतु बाइपास की संभावनाओं पर 1 जनवरी, 2016 तक रिपोर्ट पेश करें। न्यायालय की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, उसके सामने जैसे तथ्य प्रस्तुत होते हैं, वह उसी आधार पर बात करता है। शहर के कुछ समझदार, कुछ स्वार्थी, कुछ सूचनाओं के अभाव में तो कुछ उम्मीद को अच्छा मान कर परिणाम और लागत समय का अनुमान बिना किए बाइपासी समाधान को झक की तरह पकड़े हैं। बहुत थोड़े ऐसे लोगों के समूह को इसकी चिंता हरगिज नहीं है कि शहर के बाशिन्दों का कितना बड़ा हिस्सा इस समस्या से रोजाना जूझ रहा है और अभी कितने वर्षों तक इससे और जूझेगा।
मान लेते हैं सब कुछ अच्छा-अच्छा ही होगा। 1 जनवरी, 2016 को राज्य सरकार की रिपोर्ट के बाद उच्च न्यायालय बाइपास बनाने का आदेश दे देगा। राज्य सरकार भी एक शहर की एक समस्या के समाधान के लिए लगभग पन्द्रह सौ से दो हजार करोड़ रुपये की लागत के इस काम को स्वीकार लेगी और रेलवे की सभी शर्तों को मानकर अनुबंध कर लेगी। काम शुरू भी हो जायेगा, तब भी बाइपास के लिए भू-अधिग्रहण की अबाधित प्रक्रिया में ही न्यूनतम चार वर्ष का समय लगेगा। बीकानेर ईस्ट से उदयरामसर और उदयरामसर स्टेशन से नाल गांव तक की क्रमश: 1626 यानी कुल 42 किलोमीटर की इस लाइन को डालने में रेलवे के हिसाब से तीन वर्ष का समय लगना तो मानकर ही चलना चाहिए। इस तरह सभी अनुकूलताओं के होते भी रेल बाइपास बनने में न्यूनतम सात-आठ या अधिक में जितने भी वर्ष लगेंगे, तब तक बीकानेर की जनता को क्या यूं ही सब भुगतते रहना होगा। इस समस्या पर इस तरह से विचार क्यों नहीं हो रहा है कि क्यों न रेल बाइपास बनने तक के लिए किन्हीं व्यावहारिक और वैकल्पिक समाधानों को अंजाम तक पहुंचाया जाए।
बाइपासी समाधान पर इससे उलट विचारें तो कोई भी राज्य सरकार पहले तो इस बेहद खर्चीले समाधान के लिए तैयार ही नहीं होगी। उच्च न्यायालय बाइपास बनाने का आदेश दे भी देगा तो सरकार उच्चतम न्यायालय जायेगी। उच्चतम न्यायालय में गये मामलों पर कहा जाता है कि एक से लेकर पांच वर्ष लगने ही लगने हैं। फैसला बाइपास के पक्ष में आए उसकी संभावना न्यूनतम है। उच्चतम न्यायालय के फैसले चूंकि नजीर होते हैं इसलिए लगता नहीं है कि वह ऐसा कुछ फैसला देगा जिसका संबंध देश के कमोबेश सभी शहरों से है। ये रेल लाइनें लगभग सभी शहरों से होकर गुजरती हैं और समाधान इसकेरेल ओवरब्रिज, रेल अंडरब्रिज और एलिवेटेड रोड बनाना ही है जो बाइपास के मुकाबले न केवल बहुत कम खर्चीले हैं बल्कि व्यावहारिक भी हैं।
दूसरी बात, भू-अधिग्रहण की है। रेल बाइपास के लिए जो जमीनें अधिग्रहण होनी हैं उनमें वन क्षेत्र भी है, गोचर की और निजी भी है। वन विभाग शुद्ध सरकारी मामला है मान लेते हैं। थोड़ी-बहुत औपचारिकताओं के बाद वह जमीन दे देगा। गोचर के लिए किन्हीं देवीसिंह भाटी जैसों का गो-प्रेम जाग गया तो फिर क्या करेंगे? जोधपुर रोड को जैसलमेर रोड से जोडऩे वाला जरूरी सड़कीय बाइपास उलझाड़ में इसीलिए पड़ा है। देवीसिंह भाटी को मना लिया तो कोई और गो-प्रेमी जाग जाएगा। यह भी मान लेते हैं कि नहीं जागेगा तो जिन निजी जमीनों का अधिग्रहण होना है उनमें से किसी एक की जरूरत या सनक पूरी नहीं हुई तो वह स्थगन ला सकता है। ऐसे में अन्दाजा भर लगाया जा सकता है कि उस स्टे का फैसला आने और बाइपास व संबंधित स्टेशनों के निर्माण में 8 से 10 या फिर 15 वर्ष भी लग सकते हैं। तब तक क्या कोटगेट और सांखला रेल फाटकों को यूं ही भुगतते रहना होगा। उपाय यही है कि जो ऊर्जावान लोग बाइपास के लिए प्रयासरत हैं, वे पूरी निष्ठा से लगे रहें। लेकिन तब तक सांसद, शहर के दोनों विधायकों और शहर के राजनेताओं का भी दायित्व बनता है कि जो भी वैकल्पिक व व्यावहारिक समाधान हैं उसे अंजाम तक पहुंचाएं।
वैसे पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना उचित रहेगा कि राज्य सरकार ने रेल बाइपास के लिए जो एक अनुबंध का प्रस्ताव रेलवे से पूर्व में किया था, उसमें बाइपास की पूरी लागत वहन करने और जमीन उपलब्ध करवाने की सहमति के बावजूद उत्तर-पश्चिम रेलवे ने राज्य सरकार की शर्तें मानने में असमर्थता जाहिर करते हुए दिनांक 19-1-2005 के अपने पत्र क्रमांक एनडब्ल्यूआर/एसएण्डसी/डब्ल्यू/ बीकेएन बाइपास के माध्यम से रेलवे बोर्ड को लिख दिया था और राज्य सरकार ने भी इस पेटे दी गई एक करोड़ की पेशगी रकम 2006 में वापस ले ली थी। इस सबके मद्देनजर यह समझना मुश्किल नहीं है कि बाइपास के भ्रम में कितनी सचाई है। फिर भी बाइपास बने तो सोने पे सुहागा होगा। लेकिन उसके लिए 'नौ मन तेल जुटानेÓ में जितने जतन करने हैं और उसमें इतना समय भी लगना है। तब तक किसी वैकल्पिक समाधान को मूर्त नहीं करेंगे रेल फाटकों की इस समस्या को तो भुगतने की स्थिति दिन-ब-दिन बदतर ही होनी है।

1 अक्टूबर, 2015

Thursday, September 24, 2015

रसहीन होता सृजनात्मक माहौल

प्रदेश के और कौन-कौन से शहर और कस्बे वाले अपनी बसावट को छोटी काशी कह कर संतुष्ट हो लेते हैं। जोधाणा की तर्ज पर बीकानेर को बीकाणा कहकर प्रफुलित होने वाले भी हैं, जबकि शहर का नाम उसकी स्थापना से ही बीकानेर है। तखल्लुस का चलन उर्दू शायरों में आम है, गजल के मकते में अपनी पहचान देने के लिए इसकी जरूरत मान ली गई है। शहरों के भी अपने उपनाम प्रचलन में आ गये हैं लेकिन उनका उपयोग रच-बसने के बाद ही होने लगाजैसे गुलाबीनगरी, सूर्यनगरी, स्वर्णनगरी आदि-आदि।
चर्चा का मुद्दा यह है भी नहीं। चर्चा तो औसतन हर दूसरे दिन बीकानेर में होने वाले साहित्यिक आयोजनों की करनी है। इससे इनकार नहीं कि पिछली सदी के छठे-सातवें और आठवें दशक की साहित्यिक-वैचारिक सभा-गोष्ठियों की परम्परा आज की तरह संख्याबल से भले ही याद न की जाती हों, तब यहां विकसित हुए लेखन-पठन के माहौल की खुशबू देशपर्यन्त थी, और है।
अब रोज-हमेस के साहित्यिक आयोजनों का कुल जमा हासिल इतना ही देखने में आता है कि इनमें या तो वे दीखते हैं जो अपने को लेखक मान चुके हैं या लेखक मनवाने को पंक्तिबद्ध हैं, अलावा इसके कार्यक्रमों में कोई आते भी हैं तो मकसद उनका साहित्यिक रुचि तो हरगिज नहीं होता। किसी अन्य-कार्य-व्यापार वालों में ऐसे आयोजनों से अपवादस्वरूप कुछ जागता है भी तो पाठक नहीं लेखक ही जाग पड़ता है। इतने सब के बावजूद शहर में पाठक नाम के जीव लुप्तप्राय हो गये हैं तो विचारना जरूरी है कि ये आयोजन केवल लेखक ही क्यों सृजित कर रहें हैं। यह बात अलग है कि इन लेखकों के भीतर ही पाठकवृत्ति कुछ विकसित जरूर हो लेती है।
हाल ही में 'कथारंगपर आयोजित कार्यक्रम पर साख और सीख के हवाले से बात करें तो पचहत्तर कहानियों के इस संग्रह के एक-चौथाई कहानीकार भी इस महती गोष्ठी में शामिल नहीं हुए। कहानी के पाठकों की शिरकत की बात ही क्या करें। लगभग ठकुरसुहाती कहने-सुनने की गरज साजने वाली इस तरह की गोष्ठियों में सचमुच में कुछ सीखने-सिखाने की गुंजाइश लगभग समाप्त होती जा रही है।
'कथारंग' की इस गोष्ठी की अध्यक्षता मालचन्द तिवाड़ी ने की। तिवाड़ी भलीभांति जानते हैं कि कहानी लेखन के क्या-क्या प्रतिमान रहे हैं और क्या कुछ संभावित हैं। होना तो यह चाहिए था कि संग्रह के स्थापित तथा पहचान बना चुके कहानीकारों को छोड़कर शेष संभावनाशील कहानीकारों की पड़ताल होती तो गोष्ठी सार्थक हो जाती। जिस तरह के साहित्यिक आयोजन शहर में होने लगे हैं उसके चलते तिवाड़ी जैसे काबिल या तो ऐसी सभा गोष्ठियों में संभवत: अपने को असहज पाते हैं और आते भी हैं तो औपचारिकता निभाने भर को ही।
शहर की साहित्यिक सभा-गोष्ठियों में यह भी देखने में आया है कि अपने लिखे पर मीन-मेख की थोड़ी बहुत गुंजाइश मजबूरी में दी जाती है, किसी बड़ी चीर-फाड़ की छूट लेने की हिम्मत कोई काबिल शायद ही कर पाए। 'म्है थनै चाटूं, तू म्हैने चाट' चलता है या फिर किसी ने कुछ कह दिया तो इसे गिरोह के किसी सदस्य पर हमले की तरह लिया जाता है। अब तो यह भी सुना जाता है कि जिस तरह मैंने लिख दिया है वह ही उस विधा का प्रतिमान हैसृजनात्मक विनम्रता जब सिरे पर ही नहीं दीखती तो तर्क और तथ्य की बात ही कहां।
याद नहीं पड़ता कि पिछले लम्बे अरसे से शहर में कोई वैचारिक गोष्ठी हुई हो और सृजन और विचार से एक दूसरे को पुष्ट किया गया हो। विचार से मतलब किसी विशेष विचारधारा से कतई नहीं। किसी मुद्दे या विचार को किसी तार्किक या तथ्यात्मक गंतव्य तक ले जाना गोष्ठी का मकसद हो सकता है। यही वजह है कि अन्य सृजनात्मक विधाओं में भी अनुशासन की बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। आध-पौन या घण्टे तक कार्यक्रमों को देरी से शुरू करना और भाषण-श्रोता वाले आयोजनों को तीन-तीन, चार-चार घण्टे तक खींचना क्या रसिकों को इन सब से दरकिनार करना ही नहीं है?

24 सितम्बर, 2015

Thursday, September 17, 2015

भ्रष्टाचार की पड़ताल

नगर परिषद, बीकानेर में 1980 में एक प्रशासक लगे थे, फूलशंकर शर्मा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शर्मा रिश्ते में पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी के दामाद होते थे, जिन्हें इस पोस्टिंग के नौ महीनों बाद ही सेवानिवृत्त होना था। सरकारी सेवाओं का सामान्य कायदा है कि सेवानिवृत्ति के समय होमटाउन या आस-पास या सम्बन्धित की सुविधा की पोस्टिंग दी जाती है, इस सब को ताक पर रखकर तब राज्यपाल के शासनकाल में उन्हें बीकानेर भेज दिया गया। केन्द्र में जनताराज के बाद कांग्रेस लौट चुकी थी लेकिन राज्यपाल जनताराज के रघुकुल तिलक ही थे।
फूलशंकर शर्मा को आज इसलिए याद किया कि सूबे के एक प्रमुख सचिव अशोक सिंघवी घूस के एक मामले में कल गिरफ्तार हुए हैं। वैसे तो उच्च अधिकारियों की भ्रष्टाचार की गाथाएं आए दिन सुनते हैं और यह भी मानते हैं कि भ्रष्टाचार करना शासक-प्रशासकों का अभयदानी विशेषाधिकार-सा हो गया है। इन वर्षों में अजमेर और कोटा के पुलिस अधीक्षक ऐसे ही आरोपों में धरे गये हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा के मोहन्ती दुष्कर्म के मामले में फरार जरूर हैं लेकिन भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते अधिकांश उच्च अधिकारी निर्भय हैं। ऐसे में उच्चवर्गीय और समर्थ अशोक सिंघवी का धरा जाना कम अचम्भे की बात नहीं है।
बात फूलशंकर शर्मा की बताते हुए आगे चलते हैं। नगर परिषद, बीकानेर में ऐसे तो ईमानदार अफसर और भी आए होंगे लेकिन इस स्थानीय निकाय के कर्मचारी बताते हैं कि शर्मा जैसा ईमानदार अधिकारी आज तक तो नहीं आया, आगे भी आएगा, कह नहीं सकते। कहते हैं वे दफ्तर का पेन भी दफ्तर में ही छोड़कर जाते थे। घरेलू सामान मंगवाना तो दूर की बात, घर में या किसी तरह का व्यक्तिगत काम करवाने के लिए किसी सरकारी कर्मचारी को कहते तक नहीं थे। इस भ्रष्टतम माने जाने वाले दफ्तर का ढंगढाला उनके कार्यकाल में काफी कुछ अपने आप सुधर गयाबिना किसी प्रशासनिक चेतावनी या नोटिस के। फूलशंकर शर्मा सेवानिवृत्त होकर जब अपने मुकाम को लौट रहे थे तब नगर परिषद के अधिकांश कर्मचारी-अधिकारी रेलवे स्टेशन पर थे। बैंडबाजे के साथ जब रेलगाड़ी को रवाना किया गया तो शायद ही ऐसा कोई सम्बन्धित-जन वहां रहा होगा जिसकी आंखें नम नहीं हुई हो। नगर परिषद/निगम में इससे पूर्व और बाद में भी ऐसी कोई विदाई नहीं हुई। कहने को कह सकते हैं इस महकमे में अधिकांशजन भ्रष्ट हैं लेकिन ऐसों के अंतरतम में भी ईमानदारी और कार्यनिष्ठा के प्रति सम्मान कहीं पैठा हुआ था जिसे फूलशंकर शर्मा ने मुखर भर किया।
इसके मानी यह कतई नहीं कि फूलशंकर शर्मा जैसे अधिकारी और नहीं हुए हैंहोते ही होंगे लेकिन वैसी निर्मल छाप किसी ने नहीं छोड़ी।
भ्रष्टाचार को धन के लेन-देन तक सीमित मान लेना भी भ्रष्ट मन की अभिव्यक्ति ही है। कई अधिकारी इस तरह ईमानदार तो कहलाते हैं लेकिन 'काइंड' के उपभोग से परहेज नहीं करते। गिफ्ट लेना, सरकारी सुविधाओं को निज कामों में उपयोग लेना, अपने परिजनों और परिचितों को कृतार्थ करवाना, घूमने-फिरने ठहरने की व्यवस्थाओं का उपभोग करना आदि-आदि। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि बाकी कोई दाग नहीं भी है लेकिन व्यभिचार की लत का अपने प्रभावी पद से पोषण करना भ्रष्टाचार में ही माना जायेगा।
शासन या प्रशासन द्वारा यह सब करते हुए भी आम प्रतिष्ठा में अब कोई खास आंच नहीं आती, इसे सामाजिक स्वीकार्यता में माना जाने लगा है। लेकिन ऐसे प्रतिष्ठ नेताओं या उच्च अधिकारियों का धरे जाना धीरे-धीरे कहीं कानून व्यवस्था को चुनौती इसलिए बनने लगे कि भ्रष्टाचार की सामाजिक प्रतिष्ठा तो अब है ही।
अलावा इसके उच्च प्रशासनिक सेवाओं में जो वर्गीय द्वेष पनपने लगा है वह भविष्य की शासन-प्रशासन व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। जातीय वर्ग के आधार पर दूसरे को फंसाना या अपने फंसे हुए को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर निकलवाने की बातें सुनी जाने लगी हैं। प्रमाण रूप में देखें तो अधिकांश उच्चाधिकारी लम्बी जांच या न्यायिक प्रक्रिया के बाद या तो बच जाते हैं या आरोपों की पुष्टि इतनी हलकी होती है कि दण्ड देने जैसा कुछ बचता ही नहीं।
इस सब में शासकों या कहें राजनेताओं की बात करना उन्हें बरी करना होगा जबकि असल जड़ वही हैं। उन्हें नियमित उगाही चाहिए होती है, खोटे-खरे करवाने होते हैं। ये सब इन उच्च अधिकारियों की हिस्सा-पांती या एवजी खोटे खरे करने की छूट से संभव होता है। भ्रष्ट ऐसे कम ही होते हैं जो अकेले जीमते होंनालों-नदियों से होता हुआ यह भ्रष्टाचारी-पानी इन नेता रूपी समुद्रों तक पहुंचता ही है।

17 सितम्बर, 2015