Thursday, November 1, 2018

हड़ताल या सत्याग्रह (22दिसंबर, 2011)

अपने देश ने आजादी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। लेकिन गांधी ने जिस तरह लड़ी, उसे लड़ना नहीं कह सकते। इसलिए उन्होंने इसे बहुत अच्छा नाम दिया सत्याग्रह। आप जब सत्य की बात करते हैं तो वह व्यक्तिसापेक्ष नहीं हो सकता, समूह सापेक्ष भी नहीं। सत्य पूरेचर-अचर जगत के सापेक्ष होता है।
आजादी के बाद सत्याग्रह शब्द को शायद इसलिए भुला दिया कि जैसे वो केवल आजादी का ही औजार था। अन्ना भी जो और जिस तरह कर रहे हैं उसे सत्याग्रह कितना कहा जा सकता है? आजाद भारतीयों ने विरोध और ध्यानाकर्षण के अभियानों को हड़ताल का नाम दिया। शब्दकोश इस हड़ताल शब्द को एक नकारात्मक शब्द हटताल से बना बताते हैं। हट यानी उत्पीड़न, बलात्कार्रताल यानी दो हथेलियों को बजाने से निकलने वाली आवाज।
किसी भी समूह के साथ यदि कोई अन्याय होता है तो उसे अपने उस अन्याय के ध्यानाकर्षण का पूरा हक है। लेकिन आपके इस हक से कोई बड़ा समूह अकारण किसी बड़े संकट में घिर जाये तो इसे कैसे उचित या सत्य ठहरा सकते हैं। डॉक्टरी एक ऐसा पेशा है जिसे समाज ने लगभग तारक का दर्जा दे रखा है। तारक यानी तारने वाला, उद्धार करने वाला। शब्द-कोशों में तारक के लिए पहला अर्थ ‘उद्धार करने वाला’ है। एक-दूसरा अर्थ असुर भी है। दोनों अर्थ ठीक विपरीत हैं। शायद इसीलिए डॉक्टरों में जब तक सेवा-भाव बना रहता है तब तक वे प्रथम अर्थ के भागी हैं। जैसे ही वे इस भाव को तिलाञ्जलि देते हैं उनकी भूमिका इसी तारक के एक-दूसरे अर्थ ‘असुर’ में परिवर्तित क्यों हो जाती है?
डॉक्टरों के साथ यदि सचमुच कोई अन्याय हो रहा है तो उनके पास दूसरे तरीके भी हैं। वे बिना चिकित्सा सेवा में बाधा के ध्यानाकर्षण अपने सत्याग्रह के माध्यम से जारी रख सकते हैं। वैसे इस देश में कोई सरकारी सेवा में है तो उसे अन्याय का शिकार तो कहा ही नहीं जा सकता। वो इसलिए कि इसी देश की लगभग आधी आबादी को जीवनयापन की न्यूनतम जरूरतें जैसे रोटी, कपड़ा और छत तक उपलब्ध नहीं है। उनके साथ जो हो रहा है फिर उसे क्या कहेंगे?
केन्द्र के समान वेतन डॉक्टरों की एक बड़ी मांग है। केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो यह सुनिश्चित करे कि समान काम के लिए देश में समान दाम की नीति कायम होनी चाहिए। इसलिए केन्द्र जिस तरह केवल बाजार को रोशन करने के लिए आये दिन वेतन, भत्ते बढ़ाता है--बढ़ाने से पहले उसे राज्य की सरकारों से मशवरा करना चाहिए कि वे भी केन्द्र अनुरूप वेतन, भत्ते बढ़ा सकते हैं कि नहीं।
वैसे चिन्ता जगाने वाली दूसरी बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के चलते जिस तरह बाजार को ही माई-बाप मान लिया गया है, वह कितना मानवीय है। ऐसा पूरी तरह अमानवीय इसलिए है कि इससे गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार चौड़ी से चौड़ी होती जा रही है।
रेजीडेंट और सीनियर रेजीडेंट का भी हड़ताल पर जाना कितना जायज है? उन्हें समझना होगा कि उनकी ड्यूटी समाज के प्रति ज्यादा है या अपने वरिष्ठ समव्यवसायियों के प्रति। देश यदि सोच का नजरिया नहीं बदलेगा तो सम्भव है कि कुछ भी हो सकता है, खतरनाक भी!
-- दीपचंद सांखला
22 दिसम्बर, 2011

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