Tuesday, March 31, 2015

रेल फाटकों के समाधान का कच्चा-पक्का चिट्ठा--दो

कोटगेट और सांखला रेल फाटकों से उपजी यातायात समस्या का रेल बाइपास से समाधान का चिट्ठा आपके सामने कल खोल दिया था, जिसे इसका राग अलापने वाले हमेशा छुपाए रखते हैं। यदि रेल बाइपास बनने के चलते होने वाली अन्य समस्याओं को शहरवासी स्वीकार करने को तैयार हैं तो भले ही इस पर अड़े रहें अन्यथा किसी ज्यादा व्यावहारिक विकल्प पर एकराय होने की जरूरत है।
दूसरा विकल्प अण्डरपास या रेल अण्डरब्रिज बनाने का है जिसे नगर विकास न्यास ने दो साल पहले दिया था। यह आरयूबी सांखला फाटक पर तो इसलिए नहीं बन सकता कि एक तरफ सट्टा बाजार चौराहा है तो दूसरी ओर कोयला गली, ऊपर से स्टेशन की ओर जाने वाले मार्ग पर चढ़ाई भी ज्यादा है। इसीलिए गुंजाइश कोटगेट रेल फाटक पर निकाली गई। हालांकि सांखला फाटक जितनी समस्या तो यहां नहीं है लेकिन कम भी नहीं है। जहां एक ओर मिर्च गली है तो दूसरी ओर कैंची गली, वहीं कोटगेट की कुछ चढ़ाई भी है। बीच बाजार में होने के चलते लगभग पचास दुकानें जहां सीधे प्रभावित होंगी वहीं इतने ही अंदरूनी गलियों वाले व्यापारी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। यदि यह आदर्श समाधान हो तो इन प्रभावितों का त्याग हथियाया जा सकता है लेकिन जो सबसे बड़ी समस्या है वह बारिश के दिनों में आधे अन्दरूनी शहर का पानी कोटगेट से होते हुए इसी रेल फाटक से गुजरने की है। इस बेशुमार पानी के निकास की व्यवस्था असंभव नहीं है, चार-पांच फीट के पाइप से रानी बाजार पुलिया तक इसे ले जाया जा सकता है लेकिन इसका रखरखाव नगर निगम या नगर विकास न्यास दोनों में से जिसे भी करना हो, मुस्तैदी उनकी किसी से छुपी नहीं है। ऊपर से हम शहर वाले सीवर लाइन को जिस कचरा पात्र के रूप में बापरने के आदी हैं वह भी कोढ़ में खाज से कम नहीं है। कुल तीन उदाहरणों से अण्डरब्रिज की भयावहता का अन्दाजा लगा सकते हैं--यहां यह भी जानकारी रखना जरूरी है कि आरयूबी यदि दस फीट भी गहरा कर देते हैं तो 2 फीट रेल लाइन के गर्डर जोड़कर बारह फीट हो जायेगा। ट्रांसपोर्ट प्लानरों के हिसाब से इसके लिए सड़क की एक तरफ की आदर्श लंबाई कम से कम 240 फीट होनी चाहिए। क्योंकि कम सड़कीय ढलान का अनुपात हलके वाहनों के लिए बीस फीट पर एक फीट का होना माना गया है।
अखबारी पाठकों को याद होगा कि बीसे' साल पहले राजस्थान पत्रिका में फोटो सहित प्रकाशित समाचार में सिवरेज की मुख्य लाइन का डाट खोलने के लिए रेल मंडल प्रबंधक कार्यालय के आगे खोदा गया तो उसमें अन्य बहुत से सामान के साथ एक साबुत माची निकाली थी। शहर के हम लोग इन पाइपों को कैसे बरतते हैं इसका यह नायाब उदाहरण था। दूसरा उदाहरण अभी पांच-सात साल पहले महात्मा गांधी रोड का है जहां आकाश बिलकुल साफ था लेकिन अचानक बारिश के मौसम की तरह  कोटगेट होते हुए भीतरी शहर से पानी का रेला गया। बाद में पता चला कि कोई छितराई बदली अन्दरूनी शहर पर अच्छे से बरस ली है। इसीलिए कहा गया है  कि प्रकृति आपको संभलने का अवसर ही नहीं देती। पानी अचानक ऐसे जाए और आरयूबी का पाइप कहीं पर डटा हो तो उसे भरने में इतनी देर भी नहीं लगेगी कि सघन यातायात को रोककर अन्दर वालों को बाहर भी किया जा सके। चलो किया भी जा सके तो ऐसा करेगा कौन? राजधानियों की व्यवस्थाओं से तुलना करना ज्यादती होगी। वहां शासक बैठते हैं। यहां तो जिनके जिम्मे हैं वे जरूरत पर दफ्तर में ही नहीं मिलते।
यहीं के उदाहरण से समझ लें। सूरसागर की समस्या के हल में शहर से आने वाले पानी को रोकना भी है। कोटगेट होते हुए आने वाले पानी का गंतव्य सूरसागर ही है। सूरसागर की सफाई के साथ इसके दो तरफ चौड़ा पाइप डाल कर पानी निकासी के लिए जगह-जगह जालियां लगाई हुई हैं। पहले तो यह कि जालियां इन सात वर्षों में कभी सही नहीं रही-वहां से गुजरने वाले अतिरिक्त सावधानी नहीं बरतें तो दुर्घटनाएं होती ही हैं। दूसरा यह कि जिस जरूरत के लिए इस डायवर्जन पाइप लाइन को डाला गया कोई बताए तो सही इन सात वर्षों में जरूरत पर कितनी बार दुरुस्त मिली कि बारिश का पानी सर्राटे से इनमें से होकर गुजर गया। जब तक पाइप के जाम को निकाला जाता है तब तक बरसाती पानी या तो सूरसागर में गिरता है या फिर जूनागढ़ की खाई में रास्ता बनाकर डालना पड़ता है। समाधान कुछ वैसा ही तो होगा जैसा हमारा स्वभाव है या जिस तरह की आदतें यहां के सरकारी कारकूनों के काम करने की हो लीं है। हां, अपना स्वभाव और सरकारी कारकूनों के काम के तौर तरीके हम बदल सकते हों तब तो, कोई भी समाधान माकूल हो सकता है। फिर तो बाइपास पर ही क्या दिक्कत है, केवल शहर से बाहर रेल लाइन डलवा लो और बीकानेर होकर गुजरने वाली लम्बी दूरी की गाडिय़ों के लिए उदयरामसर, गाढ़वाला, नाल, और कानासर जाकर गाडिय़ों में सवार हो लो। स्टेशन दोनों यही रह जायेंगे और जो गाडिय़ां यहीं से रवाना होती है वे इन्हीं स्टेशनों से रवाना हो लेंगी। राजधानी की बात करें तो दिल्ली वाले रेल पर चढऩे के लिए इससे ज्यादा दूरी तय करते ही हैं। रेलवे तो तैयार है बस राज्य सरकार को दाम खरचने को तैयार कर लें।
एक समाधान और भी है एलिवेटेड रोड बनाने का, इस पर भी विस्तार से बात कल कर लेंगे।
-जारी

31 मार्च, 2015