Thursday, May 26, 2016

सफेद हाथी साबित होता सूरसागर

     दूसरी समस्या सूरसागर की है जिसे पूर्व रूप में लाने की कोशिशें पिछले सात-आठ वर्षों से चल रही हैं। वैसा इसलिए संभव नहीं कि तब इसके रूप को प्रकृति सहेजती थी-आगौर के माध्यम से आने वाले वर्षाजल से भरा जाता था, आगौर रहे नहीं, ऐसे में कभी पांच-पांच ट्यूबवैलों और कभी नहरी पानी से इसे भरने की कवायद की जा रही है। इन कृत्रिम और अव्यावहारिक तरीकों से इस के जलस्तर को पिछले सात वर्षों में एक बार भी चार फुट तक नहीं लाया जा सका तो इसे पूरा भरना और यहां पडऩे वाली गर्मी में इसे भरे रखना कितना महंगा पड़ेगा? यह महंगा केवल धन से ही नहीं बल्कि जिस डार्कजोन को हम जिले में न्योत रहे हैं, उसमें भी यह विलासिता से कम साबित नहीं होगा। वसुन्धरा राजे चाहें तो इस खेचळ को रोककर इसे मरु उद्यान के रूप में विकसित करवा सकती हैं जिसमें मरुक्षेत्र के पेड़ व वनस्पतियां और कुछ सुकून देने वाले प्राकृतिक रूप के फव्वारें हों। इस तरह इसे घूमने-फिरने के एक आदर्श स्थान के रूप में विकसित किया जा सकता है।
—'विनायक'  संपादकीय का अंश (3 जून, 2014)
'सरकार आपके द्वार' कार्यक्रम के तहत जून, 2014 के अंतिम दस दिनों में मुख्यमंत्री को बीकानेर संभाग में रहना था। तब 'विनायक' ने इस शहर की सरकार से उम्मीदों पर लिखे सम्पादकीय के सूरसागर से संबंधित उक्त हिस्से को उद्धृत करना जरूरी लगा। वह इसलिए कि राजस्थान पत्रिका के 25 मई, 2016 के अंक में इसी सूरसागर को लेकर उम्मीदों भरी हेडिंग के साथ खबर लगाई गई जिसमें बताया गया है कि इसके सौन्दर्यीकरण पर तीन वर्ष पहले लगे डेढ़ करोड़ के मिट्टी होने के बाद फिर पचास लाख रुपये लगाए जा रहे हैं। और ये भी कि दो वर्ष पूर्व बताई सूरसागर की उक्त दशा में कोई अन्तर नहीं आया है।
2008 में भी जब सूबे में वसुंधरा की सरकार थी तब भी वसुंधरा राजे ही शासन के साथ शहर के लिए इसी सूरसागर की बदबू से मुक्ति की सौगात लेकर आईं। आने से पूर्व ही लगभग चालीस वर्षों से गन्दे पानी का तालाब बन चुकी सूरसागर झील को न केवल साफ करवाया बल्कि मरम्मत, रंग-रोगन करवा कर कृत्रिम साधनों से थोड़ा-बहुत पानी भरवा कर रस्म-अदायगी के तौर पर नावें भी चलवा दीं।
तब से लेकर अब तक इस झील पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं और लगतार किये भी जा रहे हैं। सिवाय इसके कि इस झील में अब गन्दा पानी और कीचड़ जमा नहीं होने दिया जा रहा, बावजूद इसके यह अपने पुराने वैभव में नहीं लौट पा रही है। जैसी कि 'विनायकÓ ने 2014 में ही आशंका व्यक्त कर दी थी कि इतनी बड़ी झील को कृत्रिम साधनों से भरे रखना संभव नहीं वह भी तब जब सूर्य की तपन पानी को भाप बनाकर लगातार उड़ाती रहती है। इन आठ वर्षों में वह आशंका एक बार भी निर्मूल साबित नहीं हुई।
जून, 2014 के अपने उस पड़ाव में मुख्यमंत्री ने सकारात्मकता दिखाते हुए सुझाव लेने के लिए शहर के कुछ संपादकों और पत्रकारों को बुलाया था। मुख्यमंत्री को सूरसागर की इस नियति से तभी अवगत करवा दिया गया और मुख्यमंत्री को बात समझ में भी आ गई। सूरसागर को मरु उद्यान के रूप में ही विकसित करने की बात उन्हें जंच गई। उस प्रवास के बाद यहां से लौटते वसुंधरा राजे ने तत्संबंधी घोषणा भी कर दी। लेकिन अफसरशाही के पदानुक्रम में फिसलते-फिसलते यह घोषणा कहां गायब हुई, कह नहीं सकते। अब तो हो सकता है स्वयं वसुंधरा भी इसे विस्मृत कर गई हों।
इन आठ वर्षों में करोड़ों रुपये खाकर भी अपने नैसर्गिक रूप में यह सूरसागर झील नहीं लौट रही है तो इसे सफेद हाथी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ऐसे में इसे ऐसे मरु उद्यान के रूप में विकसित करना जिससे न केवल यहां आने वाले देशी-परदेशी पर्यटक आकर्षित हों बल्कि वे स्थानीय लोग भी जो अन्यथा गांव-ढाणी और रेगिस्तानी रोही में न जा पाने के चलते यहां की वनस्पतियों के ज्ञान से वंचित हैं, अवश्य लाभान्वित होंगे।
2014 के मुख्यमंत्री के प्रवास में की गई मरु उद्यान की घोषणा को अधिकारियों ने यह मान लिया कि इसके लिए कोई अलग स्थान चिह्नित कर वहां इसे विकसित किया जाना है। जबकि मुख्यमंत्री से जो चर्चा हुई उसमें इसे सूरसागर झील वाले स्थान पर ही विकसित करने की बात थी।
सूरसागर की जो सीढिय़ा हैं वह वैसी ही रहें, भ्रमण करने वाले नीचे उतर कर जाएं और थार रेगिस्तान के पेड़-पौधे यथा खेजड़ी (सांगरी), रोहिड़ा (लाल कसूमल फूल), बोरटी (बेर), कूमटो (कुमटिया), फोग (फोगलो), केटो (केर) और खींप (खींपोली) आदि से रूबरू हों। नगर विकास न्यास चाहे तो इसे विकसित करने के लिए काजरी (Cazri) का सहयोग ले सकती है। अलावा इसके इस झील का क्षेत्रफल इतना बड़ा है कि इसमें आगौर सहित एक छोटा प्राकृतिक तालाब और वन विभाग इजाजत दे तो उस तालाब की छोटी आगौर में कुछ हरिण, चिंकारा आदि भी रखे जा सकते हैं, ये जीव-जन्तु अपना अधिकांश खानपान प्राकृतिक रूप से वहीं से हासिल करें। और ठीक इसी तरह पायतान सहित एक टांका (कुंड) भी बनाया जा सकता है और आने वाले पर्यटक चाहे तो पानी भी उसी का पीएं। यह भी तय किया जाना चाहिए कि तालाब और टांके दोनों का भराव वर्षाजल से ही हो। इससे स्थानीय पर्यटकों को अपने प्राकृतिक स्रोतों की न केवल जानकारी रहेगी बल्कि इन्हें संरक्षित करने को वे प्रेरित भी होंगे।
जूनागढ़ जहां देशी-विदेशी हजारों पर्यटक रोज आते हैं, उसके ठीक सामने विकसित इस मरु उद्यान का अपना प्राकृतिक महत्त्व अलग होगा और इसके रख-रखाव के लिए नगर विकास न्यास कोई प्रवेश शुल्क भी निर्धारित कर सकता है। बोट चलाने का लोभ पब्लिक पार्क स्थित लिलिपोण्ड में पूरा हो ही रहा है। अत: मात्र बोटिंग के आकर्षण के लिए इस सफेद हाथी को पालना व्यावहारिक नहीं लगता।

26 मई, 2016

Thursday, May 19, 2016

पांच प्रदेशों के नतीजे और 'कांग्रेसमुक्त' होता भारत

लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में व्यवस्था को विशेष अन्तराल के बाद चुनावों के माध्यम से कसौटी से गुजरना होता है। हां, यह जरूर है कि इस कसौटी की कारगरता उसे परोटने वाले समूह के प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। भारतीय मतदाता के सन्दर्भ में बात करें तो ऊब के साथ वह पार्टी समूह को बदल तो देती है लेकिन अपने अनुकूल किसी नई पार्टी या गैर पार्टी समूह को खड़ा करने में वह प्रशिक्षित नहीं हुआ है। यही कारण है कि वह एक पार्टी या समूह विशेष से ऊब कर दूसरे समूह को लाता तो है पर अगली बार पुन: उन्हें ही लौटा लाता है जिन्हें पिछली बार खारिज कर दिया था। मतदाता को इसका भान ही नहीं कि शासन में आने वाला हर समूह पिछली बार से बदतर साबित होता है। अब तो चुनावी सफलता इस पर भी निर्भर करने लगी है कि कौन सा समूह मतदाता को ज्यादा बरगला या भ्रमित कर सकता है।
पांच प्रदेशों के चुनावी नतीजे आज आ रहे हैं। चुनावी सर्वे की बात करें तो पहले के मतदान पूर्व के सर्वे हों या मतदान बाद केडॉ. छगन मोहता द्वारा दी जानी वाली एक उपमा से समझें तो इनकी समय कटाई पानी मथने से ज्यादा नहीं। कभी किसी एजेन्सी के सर्वे का तुक्का लग भी गया तो उसे संभावना सिद्धान्त के अनुसार ले सकते हैं जिसमें कहा जा जाता है कि 100 सिक्के उछालोगे तो आधे चित गिरेंगे और आधे पट।
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुच्चेरी में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आज आ रहे हैं। पुडुच्चेरी को छोड़ दें तो शेष चारों विधानसभा चुनावों के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले माने जा सकते हैं।
केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में कहने को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार है और राज्य सभा में अल्पमत के चलते मन की ना कर पाने को विवश है। इन पांचों विधानसभा चुनावों के नतीजों से राज्यसभा में राजग अपनी स्थिति में कुछ सुधार तो करेगा लेकिन सुविधाजनक बहुमत इसके बाद भी हासिल नहीं कर पायेगा। असम में मतगणना का रुझान जरूर भाजपा की इज्जत बचाने वाला है लेकिन शेष चारों जगह वह सीटों के रूप में कुछ खास इजाफा करती नहीं दीख रही। हो सकता है अधिकांश सीटों पर चुनाव लडऩे के चलते वोट प्रतिशत के आंकड़ों में बढ़ोतरी कुछ तसल्लीबख्श हो।
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से गठबंधन के बाद वामपंथियों को कुछ उम्मीद बंधी थी लेकिन नतीजे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तूणमूल कांग्रेस को पिछली बार से भी कुछ ज्यादा ताकतवर दिखा रहे हैं। वहीं केरल में कांग्रेस गठबंधन की सरकार को जनता ने नकारा और वापस वामपंथी गठबंधन को शासन सौंपने का मन बना लिया है।
तमिलनाडु के कयास यही थे कि द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन अन्नाद्रमुक सुप्रिमो जयललिता को अपदस्थ कर देगा लेकिन ऐसे कयास धरे रह गये। असम में भाजपा ने जिस तरह की बढ़त बनाई है वह आश्चर्यजनक है। वहां 15 वर्ष से राज कर रही कांग्रेस को मतदाता ने ठीक-ठाक सलटा दिया।
जैसे रुझान आ रहे हैं उम्मीद है नतीजें लगभग वैसे ही रहेंगे। ऐसे में कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का कारण होने चाहिए। दिल्ली-बिहार की विधानसभाओं में हार के बाद असम के नतीजे भाजपा के लिए जी को जमाने वाले भले ही हों, चैन की बंशी वाले नहीं कहे जा सकते।
ढलान में लगातार लुढ़कती कांग्रेस कुछ संभलने का जतन तो दूर विचारती भी नहीं लग रही है। असम, केरल और पुडुच्चेरी की सरकारें चली गईं, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में वामपंथ-द्रमुक की पूंछ पकड़ चुनावी वैतरणी पार नहीं कर पायी। बंगाल के नतीजे तो यह बता रहे हैं कि वामपंथियों से ज्यादा सीटें हासिल कर कामधेनु की भूमिका में बजाय वामपंथियों के कांग्रेस आ गई है। आश्चर्यजनक ढंग से वहां कांग्रेस की सीटें ज्यादा आ रही है। लगता यही है कि कांग्रेस राहुल नेतृत्व में बिल्ली बन कर छींका टूटने का इंतजार करने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। कांग्रेस को नहीं पता ऐसे में कभी छींका टूटेगा भी तो वह इस गत को हासिल हो लेगी कि उसके लिए जीमने की बात तो दूर पास तक नहीं फटक पायेगी।
कांग्रेसमुक्त भारत का नारा भले ही नरेन्द्र मोदी ने दिया हो लेकिन भारत को मुक्त कांग्रेस अपने लखणों से खुद करती दीख रही है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन जाए तो बात अलग है अन्यथा वर्तमान कांग्रेस अपने बूते राष्ट्रीय स्तर पर कुछ कर पायेगी, कहना मुश्किल है। हां, राहुल खुद हाथ ऊंचे कर अलग हो जाएं और कांग्रेस में लोकतांत्रिक कायाकल्प के माध्यम से कोई नया नेतृत्व ऊभरे तो अभी भी गुंजाइश है कि वह कुछ हासिल कर पाये। हो सकता है ममता बनर्जी, शरद पंवार जैसे क्षत्रप, जो कांग्रेस से अलग हो लिए हैं, लौट आएं। अब भी यदि राहुल को नाकारा मानने की बात कांग्रेस में नहीं होती है तो मान लेना चाहिए कि वह कुछ क्षेत्रों की पार्टी भले ही रह जाए, राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पहचान पुन: हासिल करना उसके लिए मुश्किलतर ही है।

19 मई, 2016

Thursday, May 5, 2016

अवाम को कैसे निहाल करें ये प्रवासी जनप्रतिनिधि-चार

जातिगत आरक्षण के जो खिलाफ हैं उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि चुनावों में आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार को आरक्षित सीट से ही क्यों खड़ा होना पड़ता है? कोई इसके विपरीत उदाहरण हैं तो अपवाद ही माना जाएगा। बीकानेर जिले का नोखा विधानसभा क्षेत्र जब सुरक्षित नहीं रहा तो वहां से विधायक रहे गोविन्द चौहान को जिले की नयी बनी खाजूवाला सुरक्षित सीट से अपनी उम्मीदवारी करनी पड़ी और यह भी, अब जब कांग्रेस और भाजपा में नेताओं की आवाजाही सामान्य बात हो गई तब यह चर्चा का विषय ही नहीं रहा कि कौन नेता कब किस पार्टी में होता है।
अधीर-अक्खड़ और भाजपा को छोड़ चुके गोविन्द चौहान ने 2013 का चुनाव कांग्रेसी उम्मीदवार के रूप में खाजूवाला से लड़ा। 2008 के चुनाव में नई बनी इस सीट पर कांग्रेस से सुषमा बारूपाल उम्मीदवार थीं। आजादी बाद कांग्रेस से सांसद रहे पन्नालाल बारूपाल की तीसरी पीढ़ी की सुषमा दूसरी पीढ़ी की राज्यसभा से सांसद रही जमना बारूपाल की ही तरह राजनीति को विरासती भोग मानती रही हैं, जनजुड़ाव इनका कभी देखा नहीं गया। यही वजह थी कि कांग्रेस ने 2013 में कुछ जनजुड़ाव वाले गोविन्द चौहान को आजमाया। देश मोदी-भ्रम में नहीं होता तो संभवत: गोविन्द चौहान जीत भी जाते। गोविन्द बीकानेर शहर में रहकर चुनावी जरूरत अनुसार क्षेत्र के सम्पर्क में रहते हैं और लोगों के बळ पड़ते काम भी आते हैं। खाजूवाला से लगातार दूसरी बार विधायक हैं डॉ. विश्वनाथ। उन्होंने पहला चुनाव देवीसिंह भाटी की सरपरस्ती में जीत लिया तो दूसरा चुनाव मोदी-भ्रम के चलते जीता। डॉ. विश्वनाथ फिलहाल संसदीय सचिव हैं। आगामी चुनाव से पूर्व हो सकता है वे मंत्री भी बन जाएं। बीकानेर शहर में रहकर अपने क्षेत्र और राजधानी को साधने वाले डॉ. विश्वनाथ को गोविन्द चौहान की तरह भले ही प्रवासी जनप्रतिनिधि न कहें लेकिन अपने क्षेत्र में लोकप्रिय होने के जतन करते वे नहीं दीखते।
दूसरे नये बने बीकानेर (पूर्व) विधानसभा क्षेत्र से यहां के रियासती शासक परिवार की सिद्धिकुमारी लगातार दूसरी बार विधायक बनी हैं। पहली बार का चुनाव वह दो कारणों से जीतीं। एक तो यह कि यहां का अवाम अभी तक 'खमा-घणी' मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया। इसीलिए सिद्धिकुमारी को पूर्व शासक परिवार से होने का पूरा लाभ मिला और दूसरा कारण यह कि 2008 के चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार रहे उभयधर्मी माने जाने वाले तनवीर मालावात को मुसलिम मतदाताओं ने उस तरह स्वीकार नहीं किया जैसी उन्हें उम्मीद थी। बिना कुछ करे और बिना अपने मतदाताओं से सम्पर्क में रहे पहली विधायकी गुजारने वाली सिद्धिकुमारी दूसरा चुनाव नहीं जीततीं यदि मोदी-भ्रम न होता। विधायकी को विरासती हक मानने वाली सिद्धिकुमारी के बारे में उनके क्षेत्र के मतदाताओं को सूचना के अधिकार के तहत यह जानना ही चाहिए कि 2008 का चुनाव जीतने के बाद उनकी विधायक कितने दिन बीकानेर में रही, कितने दिन राजस्थान में, कितने दिन भारत के अन्य शहरों-कस्बों में और कितने दिन विदेशों में बिताए। कहने को घर-बार यहां होने के बावजूद सिद्धिकुमारी लगभग प्रवासी जनप्रतिनिधि हैं। यहां होती भी हैं तो उनसे मिलना कैसी भी हैसियत पा चुके मतदाता के लिए आसान नहीं है। ऐसे में बेचारे आम मतदाता की तो बिसात ही क्या है।
2008 में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे तनवीर मालावत रहते अपने क्षेत्र में ही हैं और यहीं अपने धंधे सम्हालते हैं। इसलिए उम्मीद करते हैं कि वे चुनाव यदि जीत जाते तो प्रवासी जनप्रतिनिधि का तकमा तो नहीं ही लगवाते। इसी तरह की उम्मीद 2013 में सिद्धिकुमारी के प्रतिद्वन्द्वी रहे कांग्रेस के गोपाल गहलोत से भी की जा सकती थी क्योंकि गहलोत इसी शहर में रहते हैं और अपने धंधे भी यहीं सम्हालते हैं। गहलोत को यदि भविष्य में भी चुनावी राजनीति करनी है तो जनता में बन चुकी अपनी नकारात्मक छवि को तोडऩा होगा, यद्यपि वे इस जुगत में दीखते नहीं हैं। हो सकता है बीकानेर (पूर्व) से लगातार दो बार हार चुकी कांग्रेस तीसरी बार उम्मीदवार बदलने की आजमाइश करे और अगली बार राजपूत समुदाय के किसी नेता को उम्मीदवार बनाए। क्योंकि 2018 का चुनाव कांग्रेस के लिए अस्तित्व का चुनाव कुछ उस तरह होगा जिस तरह का आजादी बाद का कोई चुनाव नहीं हुआ।
रस्म अदायगी के तौर पर ही सही, बीकानेर संसदीय क्षेत्र में अब तक रहे सांसद और प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवारों की पड़ताल कर ही लेते हैं। 1952, 1957, 1962, 1967 और 1971 के इन पांच लोकसभा चुनावों में बीकानेर के पूर्व शासक परिवार के डॉ. करणीसिंह लगातार चुनाव जीतते रहे। पहले के चार चुनावों में तो उन्हें किसी उम्मीदवार की चुनौती ही नहीं मिली थी क्योंकि कांग्रेस डॉ. करणीसिंह के सामने अपना उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करती थी।
पिछली सदी के सातवें दशक के अंत में जब इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी और उन्होंने प्रगतिशील निर्णय लेते हुए जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और पूर्व शासकों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए तो डॉ. करणीसिंह और कांग्रेस के बीच संबंध पूर्ववत नहीं रहे। कांग्रेस ने 1971 के चुनाव को बीकानेर में पहली बार गंभीरता से लिया और सूबे के पूर्व मंत्री रहे भीमसेन चौधरी को इस जाट प्रभावी क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया। ऐसा होते ही डॉ. करणीसिंह को लगा कि हार गये तो साख को बट्टा लग जाएगा। कहा जाता है जाट वोटों में फंटवाड़े  के लिए ही डॉ. करणीसिंह ने भारतीय क्रान्ति दल के उम्मीदवार के रूप में दौलतराम सारण को अपने खर्चे पर अपना ही प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार बनवाया जबकि इस दल का राजस्थान में तब कोई अस्तित्व ही नहीं था। जैसे-तैसे जीते इस चुनाव के बाद डॉ. करणीसिंह ने चुनावी-चौसर से हमेशा के लिए किनारा कर लिया। डॉ. करणीसिंह की सांसदी के पचीस वर्षों की कोई उपलब्धि नहीं गिनवाई जा सकती। करणीसिंह यहां रहते भी तो अपने किले में ही और आम मतदाता के लिए उन तक पहुंचना उतना ही मुश्किल था जितना उनकी विधायक पौत्री सिद्धिकुमारी से अब है।
इस संसदीय क्षेत्र की प्रतिकूलता ही कहेंगे कि बीकानेर संसद में अपना आदर्श जनप्रतिनिधि आज तक नहीं भेज पाया। बाद में सांसद रहेचौधरी हरिराम (मक्कासर), मनफूलसिंह भादू, श्योपतसिंह (मक्कासर), महेन्द्रसिंह भाटी, बलराम जाखड़, रामेश्वर डूडी, अभिनेता धर्मेन्द्र और अब अर्जुनराम मेघवाल। इनमें से कोई भी अवाम के बीच रहा ही नहीं। महेन्द्रसिंह भाटी और रामेश्वर डूडी जैसे यहां कोई रहे भी तो इन्होंने इस क्षेत्र के लिए कुछ उल्लेखनीय नहीं किया। डॉ. करणीसिंह से लेकर वर्तमान सांसद अर्जुनराम मेघवाल तक सब बीकानेर के लिए लगभग प्रवासी जनप्रतिनिधि ही रहे हैं। लगातार दूसरी बार चुनाव जीते अर्जुनराम मेघवाल केवल दिखावा करके श्रेय हड़पने में लगे रहते हैं। दिल्ली में तो वे संसद भवन भी साइकिल पर जाएंगे और जब अपने क्षेत्र से गुजरेंगे तो वातानुकूलित वाहन से बाहर झांकना तक जरूरी नहीं समझते।
बीकानेर से लोकसभा चुनाव जीतने की जुगत में कांग्रेस बार-बार उम्मीदवार भले ही बदले। रेवंतराम जैसे बीकानेर में रहते हुए भी कब भाजपा में होते हैं और कब कांग्रेस में पता ही नहीं चलता, पंवार ने विधायकी रहते भी तो कोई जनजुड़ाव नहीं रखा। पिछले चुनाव में जिन शंकर पन्नू को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया उनके प्रवासी होने का प्रमाण इससे ज्यादा क्या होगा कि वे जब कभी बीकानेर आते हैं तो उनके लिए स्वागत समारोह आयोजित होने लगे हैं।
तो कह सकते हैं कि बीकानेर अपने जनप्रतिनिधि ऐसे ही चुनता रहा है, जो या तो प्रवासी ही होते हैं या चुनकर जाने के बाद प्रवासी हो जाते हैं। ऐसे में क्षेत्र का मतदाता उलाहना भी दे तो किसे दे।
समाप्त

5 मई, 2016