Thursday, December 27, 2018

पाती गांधीवादी अशोक गहलोत के नाम


अशोकजी!
मुख्यमंत्री के तौर पर इस तीसरे और अब तक में मुश्किल रहने वाले कार्यकाल के लिए शुभकामनाएं। आप की छवि गांधीवादी की रही है लेकिन यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मुख्यमंत्री के आपके पिछले दोनों कार्यकाल की शासन शैली में गांधीवाद की छाप कहीं दिखाई नहीं दी। गांधी ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था के हामी थे और आप शहरी विकास में लगे रहे, वह भी कुछ ही शहरों तक। वर्तमान में कृषि प्रधान कहे जाने वाले इस देश का कृषि क्षेत्र सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव को छोड़ दें तो कोई भी मुख्यमंत्री कृषि क्षेत्र के लिए गंभीर नजर नहीं आता। किसानों की ऋण माफी दो कारणों से जरूरी थी। पहला : खेतिहर किसान जिस बुरे दौर से गुजर रहे हैं, ऐसे में उन्हें फौरी राहत देने के लिए यह जरूरी हैचाहे इससे कुछ जमींदार किसान ही लाभान्वित क्यों ना हो रहे हों। दूसरा : यह कांग्रेस का चुनावी वायदा था जिसे पूरा करना जरूरी इसलिए भी हो गया कि मई तक संभावित लोकसभा चुनावों में पार्टी को वोट फिर जो लेने हैं। लेकिन क्या कोई भी सरकार ऋणमाफी जैसी राहत प्रतिवर्ष दे सकती है, कतई नहीं। तो फिर क्यों ना इस विकराल होती समस्या के ठोस समाधानों पर काम होकरना चाहें तो अमलीजामा पहनाने को पांच वर्ष कम नहीं होते हैं। किसानों की समस्याओं के स्थाई समाधान के लिए इन बिन्दुओं पर काम हो सकता है।
     न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कारगर बना कर इसे किसानों की संजीवनी बनाया जा सकता है। समग्र लागत मूल्य में पचास प्रतिशत जोड़कर बिना सीमा बांधे समस्त फसल की सरकारी खरीद ही किसानों को राहत दे सकती है। एमएसपी में जमीन की कीमत का ब्याज भी शामिल किया जाना जरूरी है।
     एमएसपी में आने वाली समस्याओं से निबटने के लिए प्रशासनिक स्तर पर बहुत कुछ करने की जरूरत है। कृषि मंत्रालय के दफ्तरों, कृषि विज्ञान केन्द्रों और कृषि विश्वविद्यालयों के बीच ऐसी कारगर प्रणाली विकसित की जाए जिसके अन्तर्गत किसानों को क्षेत्रवार ना केवल यह सलाह दी जाय कि कौन सी फसल की बुआई की जा सकती है, वरन् इसका मकसद यह भी होना चाहिए कि किसी भी जिन्स की फसल इतनी ना हो जाए कि कीमतें गिराना मजबूरी हो जाए। इसमें एक समस्या जो आ सकती है वह यह कि किसान ऐसी सलाह ना मान फसल की बुआई कर दे और फसल होने पर नजदीकी क्षेत्र के उस किसान के जिम्मे बेचने का सौदा कर ले जिसे उसी फसल की बुआई का सुझाव मिला हो! इसे रोकने के लिए बीघावर फसल खरीद की अधिकतम मात्रा तय की जा सकती है।
     फसलों का नुकसान कम से कम हो, इसके लिए संबंधित महकमों और अकादमिक संस्थानों को मुस्तैद किया जाना ज्यादा जरूरी है। इन महकमों को किसानों के संपर्क में निरन्तर रहने और हर कदम पर सलाह-निर्देश की प्रवृत्ति बनानी होगी।
     इस तरह की व्यवस्थाओं से फसलों के नुकसान की गुंजाइश जहां न्यूनतम रह जायेगी वहीं कृषि बीमा जैसी मद का भारी-भरकम बजट सरकार का बचेगा। फिर भी किसी की फसल को नुकसान पहुंचा हो तो उसके वाजिब मुआवजे की भरपाई सरकार करे। इस मुआवजे की अनुशंसा संबंधित ग्राम सभा करे तथा समुचित निरीक्षण के बाद वह मुआवजा सरकार को मान्य हो।
     ग्रामीण अर्थव्यवस्था कारगर बन सके इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में जिन सुविधाओं को विकसित और प्रतिष्ठित करना जरूरी है उसमें शिक्षा, चिकित्सा मुख्य है। यदि इन पर गंभीर नहीं होंगे तो शेष सब किया-धरा बेकार जा सकता है। ये सुविधाएं ग्रामीणजन के लिए तो जरूरी हैं ही गांवों में सेवाएं देने वाले सरकारी कारकुन गांव में सपरिवार टिके रहें, इस हेतु भी जरूरी है। इन सुविधाओं के लिए किसी को भी 50 किमी से अधिक दूर नहीं जाना पड़े।
शिक्षा : सूबे के प्राथमिक, सेकण्डरी और सीनियर सेकण्डरी सरकारी स्कूलों को दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की कार्यप्रणाली की तर्ज पर पुनप्र्रतिष्ठ करना जरूरी है। अलावा इसके उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्र के किसी भी विद्यार्थी को 50 से 70 किमी से ज्यादा दूर नहीं जाना पड़े, इस हेतु पर्याप्त दूरी पर ना केवल सरकारी कॉलेजों की व्यवस्था हो बल्कि उन्हें व्यवस्थित बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास किए जाने होंगे।
चिकित्सा : गांवों के प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में सुविधाओं हेतु स्टाफ को लगाना जहां जरूरी है वहीं यह भी जरूरी है कि ग्रामीणों और गांवों में सेवाएं देने वाले लोगों को जरूरत पडऩे पर सेटेलाइट अस्पताल जैसी सुविधा तक पहुंचने के लिए 50 से 70 किमी से ज्यादा दूर नहीं जाना पड़े।
 ग्रामीणों की खेती व पशुपालन की सभी जरूरतें गांवों में पूरी हों और शिक्षा और चिकित्सा की ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था यदि गांवों में विकसित कर दी जाए तो गांवों के लोग शहरों की ओर पलायन करने को ना मजबूर होंगे और ना ही गांवों में सेवाएं देने वाले सभी तरह के सरकारी कारकुन शहरों में रहने को लालायित रहेंगे। शिक्षा-चिकित्सा की जरूरी सुविधाएं यदि गांवों में ही मिलने लगें तो सरकारी अधिकारी-कर्मचारी ना तो फरलो करेंगे और ना अपडाउन ही होगा।
पर्यावरण के मद्देनजर जो एक काम बहुत जरूरी है वह यह है कि भूमिगत पानी की कमी को देखते हुए बारानी खेती और कम पानी की खेती पर काम होना बहुत जरूरी है। अलावा इसके ब्लैक जोन वाले क्षेत्रों के कुओं के उपयोग पर किसी तरह संयम या नियन्त्रण लागू करना भी जरूरी है।
     ग्रामीण आधारित ऐसी अर्थव्यवस्था विकसित होने पर शहरों पर दबाव कम होगा। सरकार भी चाहे तो सीमित अवधि तक शहरी विकास पर खर्च होने वाले धन को गांवों में लगा सकती है। सीमित अर्से तक शहरों में उतना ही खर्च करें जितना कि जरूरी है।
     एमएसपी खरीदी की जिन्सें राज्यविशेष पर बोझ नहीं बने, इसके लिए केन्द्रीय स्तर पर समन्वयक आयोग विकसित किया जानी जरूरी है। यह ना केवल क्षेत्रवार फसल बुआई की सलाह देगा बल्कि जरूरत होने पर फसलों को एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजने में सहयोग भी करेगा। अलावा इसके यह आयोग जरूरत होने पर फसलों के निर्यात की सलाह भी केन्द्र सरकार को दे सकेगा।
     यह सभी योजनाएं बिना धन के पूरी नहीं होनी है इसलिए धन का कारगर नियोजन भी जरूरी होगा। राज्य सरकार को अपने स्तर पर इसकी जहां व्यवस्था करनी होगी वहीं शिक्षा, चिकित्सा एवं कृषि क्षेत्र में सरकारी बेड़े को बढ़ाने का जो अतिरिक्त भार राज्य पर पड़ेगा उससे निबटने के लिए कोई रास्ता भी निकालना होगा। इसके लिए एक उपाय यह हो सकता है कि ऐसी तजवीज भी निकाली जाए जिसमें वेतन आयोग की आगामी सिफारिशों को मानने के लिए राज्य को बाध्य ना होना पड़े। वेतन आयोगों की ऐसी सिफारिशों से केवल और केवल बाजार को ही लाभ होता रहा है। इसके एवज में समाज को जो बड़ा नुकसान हो रहा है, वह यह कि सरकारें नये सरकारी रोजगार देने से कतराने और सहमने लगी हैं। सुझाई गई ग्रामीण आधारित अर्थव्यवस्था में रोजगार की विकराल होती समस्या से भी कुछ राहत मिलेगी क्योंकि जहां उक्त सभी सुझाव बिना सरकारी बेड़े को बढ़ाए पूरे नहीं हो सकेंगे वहीं गांवों में नये रोजगार स्वत: ही विकसित होने लगेंगे।
अशोकजी! गांधीवादी छवि पर गांधीवादी छाप गांव आधारित अर्थव्यवस्था विकसित किए बिना संभव नहीं है। यदि आप ऐसा कुछ नहीं कर पाते हैं तो इतिहास में गैर गांधीवादी छाप वाले शासकों में और आप में कुछ ही डिग्री का अन्तर दर्ज होगा। जाहिर है वह विशेष उल्लेखनीय तो नहीं होगा।
दीपचन्द सांखला
27 दिसम्बर, 2018

Wednesday, December 26, 2018

फिर फिर शहर कांग्रेस अध्यक्षी (5 मार्च, 2012)

पतंगों का त्यौहार अपने यहां आखातीज होता है। नई लटाई और नई पतंगों के बावजूद लूट की पतंग और लूट के मंजे के अपने मजे होते हैं। इस लूट की तनातनी में कोई पतंग फट जाती है और मंजे उलझ जाते हैं। फिर चेप-चाप कर पतंगें और सुलझा कर मंजे को लपेटने के भी अपने सुख होते हैं। देखा गया है कि कभी-कभार झुंझलाकर उलझे मंजे को किशोर फेंक भी देते हैं।
लेकिन अपने प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चन्द्रभान अब किशोर छोड़ युवा भी नहीं रहे हैं ऊपर से छवि भी धीरज वाले और परिपक्व होने की है, सो बुरी तरह उलझे कुछ देहात-शहर अध्यक्षों के मामलों को सुलझाने की अपनी पुरजोर कोशिशों के बाद भी सुलझा नहीं पा रहे हैं। उनकी विडम्बना यही है कि उस किशोर जैसा विकल्प उनके पास नहीं है जो झुंझलाकर उलझे मंजे को फेंक देता है।
अपने शहर और देहात दोनों ही कांग्रेस अध्यक्षों के मामले भी ऐसे उलझे हैं कि सुलझने का नाम ही नहीं लेते हैं। उक्त दोनों ही अध्यक्ष पद अपने यहां के कुछ बड़े नेताओं की नाक का सवाल बन गये हैं। तभी तो एक से अधिक बार तारीखें देने के बावजूद वे इन पदों पर नियुक्ति की घोषणा नहीं कर पाते हैं। वैसे इन सब पदों पर मतदान द्वारा ही निर्णय होने चाहिए--लेकिन अब दोनों ही बड़ी पार्टियों (भाजपा-कांग्रेस) के अपने चाल चरित्र में यह संभव नहीं है। पिछले तीस से ज्यादा वर्षों से शहर की राजनीति करने वाले डॉ. बीडी कल्ला अपनी चलाने को एडी चोटी का जोर लगाये हुए हैं। मोतीलाल बोरा से मुलाकात कर उन्होंने इसे साबित भी किया है। बीकानेर शहर कांग्रेस को अपनी पारिवारिक कांग्रेस बनाये रखने की कल्ला की जिद का पता होने के बावजूद प्रदेश कांग्रेस बेबस है--जिसके दो कारण समझे जा सकते हैं--एक तो कल्ला की लम्बी राजनीतिक सक्रियता के चलते पार्टी में उनकी कई दिग्गजों तक पहुंच है। उनकी इस पहुंच पर तो स्थानीय कल्ला विरोधियों का दावं नहीं चल सकता। लेकिन दूसरा जो कारण है उससे कल्ला विरोधी चाहे तो पार पा सकते हैं।
शहर अध्यक्षी के लिए मोटा-मोट तीन गुट बने हुए हैं कल्ला गुट, भानीभाई गुट और राजूव्यास-तनवीर मालावत गुट। पहले दो गुटों की ताकत तो अपने दम पर है पर तीसरे गुट की ताकत के तार मोतीलाल बोरा और तनवीर के अपने बनाये रिश्तों के चलते है। हालांकि भानीभाई और तनवीर गुटों के बीच संवाद है लेकिन वे दोनों ही अपनों पर अड़े हैं। वह इस शाश्वत वाकिये को भूल जाते हैं कि दो की लड़ाई में तीसरा फायदा उठा ले जाता है। शहर राजनीति में पार्टी की अंदरूनी लड़ाई में फिलहाल इन दोनों गुटों की लड़ाई कल्ला गुट से है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त की कूटनीति पर चलते होना यह चाहिए था कि दोनों एक होकर अपना काम निकाल ले जाते। लेकिन कल्ला विरोधी दोनों गुटों में इस राजनीतिक चतुराई की कमी के चलते देखा गया है कि कल्ला लाख विरोधों के बाद भी अपनी चलाने में सफल हो जाते हैं।
जो परिस्थितियां बन रही है उसमें राजू व्यास-तनवीर गुट यदि भानी भाई गुट के लिए त्याग करें तो ऐसा लम्बी पारी में उनके हित में जायेगा और अगर वे अड़े रहते हैं तो कल्ला इतने सक्षम तो हैं ही कि वे अपने ही किसी को इस पद पर ले आयेंगे।
-- दीपचंद सांखला
5 मार्च, 2012

सुधार गृह (3 मार्च, 2012)

जेलें आजकल सुर्खियों में हैं। इन जेलों को सरकारी रिकार्ड में सुधारगृह कहा जाने लगा है, लेकिन इनमें जिनको रखा जाता है उन्हें आज भी कैदी ही कहा जाता है। आपको बता दें कि जेल का एक हिन्दी शब्दार्थ कैदखाना भी है। इस हिसाब से देखें तो यदि जेल शब्द अनुचित था तो फिर कैदी शब्द भी उसी श्रेणी में आना चाहिए, तब कैदी के लिए भी कोई अन्य शब्द जैसे सुधरिया या अन्य कोई हो सकता था। जेल को तो सुधारगृह नाम दे दिया, शायद कैदी के लिए उन्हें कोई सकारात्मक शब्द नहीं सूझा होगा। खैर बात बनाने का मकसद यह बताना है कि केवल नाम बदलने से ही चमत्कार घटित नहीं हो जाता है उसके लिए मंशा बदलनी होती है जिसकी सम्भावनाएं फिलहाल न के बराबर हैं अन्यथा जिस तरह की खबरें खुले और दबे मुंह इन सुधारगृहों के बारे में आती है उनसे लगने लगा है कि यह सुधारगृह नहीं बिगाड़गृह ही.हैं। किसी भले आदमी से आवेश में या लालच में कोई चूक हो गई और वह इस सुधारगृह के धक्के चढ़ गया तो समझो कि उसके बिगड़ने की आशंका ही ज्यादा है।
-- दीपचंद सांखला
3 मार्च, 2012

इज्जत के नाम पर बदले की प्रवृत्ति (3 मार्च, 2012)

कल अपने बीकानेर की कोलायत तहसील की देवड़ों की ढाणी में एक दर्दनाक हादसे को अंजाम दिया गया। पुरानी रंजिश में सुलह के लिए कुछ लोग दोनों पक्षों के साथ जब अपने प्रयासों के अंतर्गत इकट्ठा हुए तो बजाय बात बनने के ऐसी बिगड़ी की तीन लोग मौत के घाट उतार दिये गये। अब इस मानसिकता को आदिम कहें या कबायली, दोनों ही उपमाएं उन युगों के नागरिकों के अपमान की श्रेणी में ही आयेंगी, वह इसलिए कि आदिम युग के बाशिंदों और कबायलियों के पास आज की तरह संवेदनशील जीवन-जीने और विवेक सम्मत सोचने-विचारने के अवसर न्यूनतम थे या फिर थे ही नहीं। जीवन-यापन की पूर्ण सामान्य सुविधाएं ना सही लेकिन व्यापक सामाजिक हित में अच्छा-बुरा सोचने-समझने का अवसर तो सभ्यता के इस मुकाम पर सभी को हासिल है ही। इसके बावजूद हम बदले के नाम पर या इज्जत के नाम पर पाशविक हो जाते हैं। नहीं पता किनने ऐसी हत्याओं को जिन्हें आजकल ऑनर किलिंग नाम दे दिया है और जिनमें युवक-युवती द्वारा बिना पारिवारिक सहमति के सहजीवन का निर्णय कर लिए जाने पर उनमें से किसी एक के या कभी दोनों के परिजनों द्वारा उन्हें मार दिया जाने लगा है।
ऑनर और इज्जत या इन्हीं के जैसे सकारात्मक समानार्थक शब्द जिन के साथ जीवन में आनन्द का, खुशियों का आभास होना चाहिए, लेकिन पता नहीं क्यों बदला, हत्या, किलिंग जैसे शब्दों की बेमेल जुगलबन्दी का चलन हो गया है।
इस तरह से होने वाली हत्याएं ऐसे अपराध हैं जिनमें पीड़ित और आरोपी दोनों ही परिवारों का अमन-चैन हमेशा के लिए छिन जाता है। विडम्बना यह कि यह सब होता इज्जत और ऑनर जैसे शब्दों के नाम पर है जो सामान्यतः सुकून देने के निमित्त बने हैं। क्या हमारे सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी विकास की प्रक्रिया में ही कोई खामी है जिसके चलते लगभग सभ्य कहे जाने वाले इस युग में आज भी इस तरह की घटनाओं के लिए गुंजाइश निकल आती है?
-- दीपचंद सांखला
3 मार्च, 2012

यदा यदा ही धर्मस्य.... (2 मार्च, 2012)

गांधीजी ने कहा है कि देश गांवों में बसता है। जबकि सामान्य ज्ञान यही कहता है कि कोई देश गांव, कस्बों, शहरों और समाज, संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज आदि-आदि से बनता है। गांधीजी की नकल से उलटबांसी हमारे ‘सभ्य समाज’ में भी चलती है, वे कहते सुने गये हैं कि नगरों और महानगरों की झुग्गियों में नरक का वास होता है। हिंदू धर्म के संदर्भ से सुना यही है कि मृत्यु के बाद परिगमन के लिए तीन स्थान ही मुकर्रर हैं--स्वर्ग नरक और मोक्ष। कहा यह भी जाता है कि इन गंतव्यों के चयन का हक जाने वाले को नहीं होता। वैसे नरक में जाने के उपायों के बारे में जानना हो तो गरुड पुराण का पाठ सुन लें। इसे सुनना कोई बड़ा मुश्किल काम नहीं है। अपना शहर इसके लिए पर्याप्त बड़ा है, शहर में बदल-बदलकर एकाधिक जगह इसके पाठ रोजाना होते ही हैं। कहा यह भी जाता है कि अनाप-शनाप धन की प्राप्ति, बिना खोटे कर्म किये नहीं होती है और अगर खोटे करोगे तो यह जीवन धन के संग और परलोक नरक-संग गुजरेगा। यह दूसरी वाली बात हम नहीं गरुड पुराण कहता है।
अब आज एक खबर है कि जब जयपुर में एक धर्मगुरु के चेलों के पास नकद एक करोड़ रुपये मिले, इस पर आयकर विभाग ने जब उन धर्मगुरु के ट्रस्टों को टटोला तो एक अद्भुत बात पता चली कि मुम्बई की एक झुग्गी में रहने वाले भक्त ने उस ट्रस्ट को दान में बीस करोड़ रुपये दिये थे, इस घटना से ऊपर कही बातें क्या साबित नहीं होती है? जैसे अनाप-शनाप धन की प्राप्ति के लिए खोटे करने होते हैं  और खोटे करोगे तो नरक मिलेगा। हालांकि इन सब बातों का मिश्रण आपको ऊलजलूल जरूर लग सकता है लेकिन आप सुलझाने लगोगे तो इनके सिरे मिलने की संभावनाएं जरूर हैं।
लीला पुरुष श्रीकृष्ण को जब वीर अर्जुन युद्ध से पलायन की मानसिकता में दिखे तो उन्होंने उसे उस मानसिकता से निकालने को जो कुछ कहा है, उस कहे से श्रीमद्भगवद् गीता नाम से हमारा एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बन गया। इसी ग्रंथ के चौथे अध्याय का सातवां श्लोक है :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अपने देश के माध्यम से अर्जुन को ही सम्बोधित इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ। अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं!
गीता के अठारह अध्यायों के इन सात सौ श्लोकों में से उक्त एक श्लोक की महिमा इन वर्षों में सर्वत्र देखने को मिलती है। वह चाहे टीवी के धार्मिक, सामाचारिक और सामाजिक चैनल हों या गांव से लेकर नगरों-महानगरों तक के धार्मिक स्थल। हर कहीं ‘रचित रूप में सद्गुरु’ हमें मिल जायेंगे। वैसे श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि उनका वास कण-कण में है।
अब उक्त श्लोक की बात करें तो क्या अपने देश में सचमुच अधर्म की वृद्धि हो गई है और अगर हो गई है तो इन सब सदगुरुओं में से वो कौन से हैं जिन्हें श्रीकृष्ण ने अपने रूप में रचा है!
-- दीपचंद सांखला
2 मार्च, 2012

स्त्री की दोयम हैसियत : शिकार भंवरी से परवीन तक (1 मार्च, 2012)

भंवरीदेवी प्रकरण में लगभग पूर्ण आरोप-पत्र कल सीबीआई ने अदालत में पेश कर दिया है। इसे लगभग इसलिए लिखा क्योंकि सीबीआई के हिसाब से इस प्रकरण की एक महत्त्वपूर्ण आरोपी इन्द्रा बिश्नोई और दो-एक अन्य अभी उनकी पहुंच से बाहर हैं। सामाजिक ताने-बाने से इस भंवरी प्रकरण को देखें तो यह स्त्री की दोयम हैसियत को अभिशापित इस समाज के दलित वर्ग से आई उस स्त्री की कथा है जिसकी अति महत्त्वाकांक्षी होने की रफ्तार को उसके सुदर्शना होने और सरकारी नौकरी में होने ने बेकाबू कर दिया था।
सीबीआई के आरोप-पत्र के अनुसार दो विपरीत सत्ताकांक्षियों-महिपाल मदेरणा की सत्ता में होने से जगी हवस और मलखानसिंह की सत्ता में भागीदारी की आकांक्षा की शिकार वह भंवरी ही हुई जिसके साथ दोनों के संबंध रहे होने का आरोप है। महिपाल और मलखान एक ही भौगोलिक क्षेत्र से आते हैं, सत्ता में क्षेत्रवार संतुलन को बनाये रखने के चलते बिना  महिपाल के हटे मलखान मंत्री नहीं बन सकते थे। मलखान ने अपनी ही बहिन इन्द्रा की मदद और भंवरी की सहमति और तत्परता से भंवरी और महिपाल के अंतरंग क्षणों की सीडी बनवाई, यह सीडी ही भंवरी के काल का कारण बनी।
अब देखिये जिन मलखान ने सत्ता हासिल करने के लिए महिपाल को पदच्युत करने की साजिश रची उन्हीं मलखान को जब यह लगा कि स्वयं उनके समुदाय के प्रतिष्ठित खेजरली मेले में भंवरी अपनी एक बेटी के मलखान से होने की बात को बेपर्दा कर देगी तो यही मलखान उसी भंवरी को मरवाने के लिए महिपाल के साथ हो लिए जो खुद भंवरी के साथ की उस अंतरंग सीडी से ब्लैकमेल होने से परेशान थे। जबकि सीडी की साजिश के सूत्रधार मलखान ही थे। आपको यह कहानी उन कहानियों जैसी नहीं लगती है जो कभी बचपन या किशोरवय में शायद सुनी हो जिनकी विषय वस्तु राजमहलों के षड्यंत्रों से प्रेरित होती थीं!
कहने के मानी यही है कि देश की आजादी को पैंसठ वर्ष होने को हैं और इन पैंसठ वर्षों में अपने सामाजिक ताने-बाने में और सत्तारूपों में मोटा-मोट कोई बदलाव आज तक नहीं आ पाया है। अनुसूचित जाति और पिछड़ों के आरक्षण का तर्कहीन क्रियान्वयन तथा स्त्रियों को आरक्षण की कवायद के बावजूद कुछ प्रतीकात्मकों को छोड़ दें तो सभी सत्तारूप आज भी उच्च वर्ग, धनपतियों, भूपतियों और पुरुषों के पास हैं और इनका शिकार निम्नवर्ग, निर्धन, भूमिहीन और स्त्रियां ही होती आईं हैं, उन वर्गों से आने वाली स्त्रियां भी जिनको कोई न कोई सत्तारूप हासिल हैं।
बीकानेर मूल की जयपुर में कल ही अकाल मृत्यु की शिकार हुई एक स्त्री परवीन जिसकी मृत्यु के बारे में अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि उसे आत्महत्या को मजबूर होना पड़ा या उसे मार दिया गया! लेकिन इतना स्पष्ट जरूर हो गया है कि उसके मायके वाले और ससुराली दोनों ही परिवार संपन्न और समृद्ध हैं। सम्पन्नता के हिसाब से किसी भी प्रकार की कोई कमी न होने के बावजूद उसे या तो हिंसा का शिकार होना पड़ा या स्वयं उसे अपने प्रति हिंसक होना पड़ा। मात्र छब्बीस की उम्र में उसे अपनी जान गंवानी पड़ी! अब वह चाहे भंवरी हो या परवीन दोनों की नियति भिन्न होने के बावजूद परिणति एक ही हुई--मृत्यु। क्या यह दोनों ही घटनाएं समाज में स्त्री की दोयम हैसियत का खुलासा नहीं करतीं?
उक्त बातों का आधार सीबीआई के आरोप-पत्र, प्रथम सूचना रिपोर्ट, पीड़ित पक्ष और आरोपियों के बयान हैं। यह दोनों मामले न्यायालय में कौन-सी करवट लेते हैं, देखना होगा।
-- दीपचंद सांखला
1 मार्च, 2012

अरुण चतुर्वेदी का बयान और बीकानेर शहर भाजपा (29 फरवरी, 2012)

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी बीकानेर संभाग के दौरे पर हैं। कल उन्होंने कहा कि प्रदेश की जनता वर्तमान सरकार से निजात पाना चाहती है। हो सकता है ऐसा हो भी लेकिन इसको प्रामाणिक करने का पैमाना सिर्फ विधानसभा चुनाव ही है जिसमें अभी लगभग पौने दो साल बाकी हैं। वैसे देखा गया है कि अपने राजस्थान की जनता अपनी सरकारों से पांच सालों में धाप जाती है। तभी अब हर चुनाव में वह सरकार बदलने लगी है। अब देखने वाली बात यह है कि इसे जनता की धाप कहेंगे या भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों की अक्षमता कि वह सुशासन के द्वारा जनमानस को संतुष्ट नहीं कर पाती। चतुर्वेदी के इस बयान को इस तरह भी लिया जा सकता है कि 2008 के चुनाव में जनता तत्कालीन भाजपा सरकार से निजात पाने की मनःस्थिति में थी। तभी उसने भाजपा के खिलाफ वोट दिया। चतुर्वेदी का यह भी कहना था कि राजस्थान की जनता का द्विदलीय शासन व्यवस्था पर ही विश्वास है। इसलिए किसी तीसरे मोर्चे की यहां कोई संभावना नहीं बनती। उनके बयानों का विश्लेषण करें तो उक्त दोनों बयान विरोधाभासी लगते हैं। जैसे हर विधानसभा चुनाव में जनता यदि इस मानसिकता में आ जाती है कि वह अपनी मौजूदा शासक पार्टी से निजात पाने को उतावली हो तो माना जाना चाहिए कि जनता में किसी तीसरे विकल्प के लिए कसमसाहट है और अगर सचमुच में ऐसा है तो चतुर्वेदीजी का यह दूसरा बयान कि राजस्थान की जनता द्विदलीय शासन प्रणाली में ही भरोसा रखती है, सही नहीं कहा जा सकता।
चतुर्वेदी के तीसरे मोर्चे की संभावना को खारिज करने के बयान की रोशनी में बीकानेर शहर भाजपा को देखा जाय तो स्थिति और विचित्र बनी हुई है। शहर भाजपा अध्यक्ष शशि शर्मा हैं। यह शशि शर्मा पार्टी में उन्हीं गोपाल गहलोत के खेमे से माने जाते हैं जो राजनीति के इस समन्दर में अपना दूसरा पैर दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक महासभा रूपी तैरते उस फट्टे पर इस उम्मीद में रखे हुए हैं ताकि जैसे ही तीसरे मार्चे का जहाज तैयार दिखे, वे लपक कर उसमेें सवार हो सकें।
वैसे जिस तरह के बयान आजकल राजनीतिज्ञ देने लगे हैं उनको लोगबाग विश्वसनीय कम और अपनी डफली अपना राग ज्यादा मानने लगे हैं।
-- दीपचंद सांखला
29 फरवरी, 2012

सोनिया गांधी की आय (25 फरवरी, 2012)

एक खबर और है अखबारों में, जिसे टीवी और अखबार दोनों ने ही पर्याप्त सुर्खी नहीं दी। लेकिन है यह बहुत गंभीर मामला। सूचना के अधिकार के तहत आयकर विभाग से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की आय से सम्बन्धित चाही गई सूचनाएं देने पर सोनिया ने यह कहकर अपनी असहमति जताई है कि इससे उनको जान का खतरा हो सकता है। सोनिया ने यह भी कहा कि इस सूचना से जनहित का कोई लेना-देना नहीं है।
जिन महात्मा गांधी की राजनीतिक धरोहर को संभालने का दम कांग्रेस (यूपीए का प्रमुख घटक) भरती रही है उन्हीं गांधी ने सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों के आचरण का शुद्ध और पारदर्शी होना जरूरी बताया है। शब्दकोशों के अनुसार आचरण का मतलब ‘समाज में एक-दूसरे के प्रति किया जाने वाला व्यवहार और चाल चलन’ बताया गया है और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय किसी की भी आय का स्रोत समाज में एक-दूसरे के प्रति किये जाने वाले व्यवहार की श्रेणी में ही आता है।
आचरण के मामले में अब तक मिसाल मानी जाने वाली सोनिया गांधी की यह आना-कानी कई प्रकार के संशय और संदेहों को जन्म देगी। इसलिए इसे न केवल एक बड़ी खबर बनना चाहिए था बल्कि बहस का मुद्दा भी।
-- दीपचंद सांखला
25 फरवरी, 2012

डॉ. बीडी कल्ला का अलाप (25 फरवरी, 2012)

उत्तर-पश्चिम रेलवे के मण्डल महाप्रबन्धक अपने रूटीन दौरे पर कल बीकानेर में थे। कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष, प्रदेश में कांग्रेसी सरकार की संभावनाओं के समय मुख्यमंत्री पद के संभावितों की सूची में शामिल, शहर विधानसभा सीट से पांच बार नुमाइंदगी कर चुके और कैबिनेट मंत्री के दर्जे के साथ वर्तमान में राज्य वित्त आयोग के अध्यक्ष डॉ बीडी कल्ला रेल बायपास के मुद्दे पर महाप्रबन्धक से मिलने गये। अब हम उनकी इस मुलाकात पर यह कहावत लागू करें कि ‘बींद के मुंह से लाळ पड़ै तो बेचारे बाराती क्या करें’, तो कई इसे अतिशयोक्ति कह सकते हैं। डॉ कल्ला जिस पारिवारिक माहौल से आये हैं उसके चलते हम यह कहें कि उन्हें सुर-बेसुर का ज्ञान नहीं है तो इसे अतिशयोक्ति जरूर कहा जाएगा। इस मुलाकात का उल्लेखनीय यह है कि रेल बायपास के नाम पर सुर्खी बटोरू समूहों के बेसुर को आलाप देने में लगे हैं तो संदेह और संशय, दोनों खड़े होते हैं। डॉ कल्ला ने क्या कभी गंभीरता से विचार किया है कि शहर के रेल फाटकों का व्यावहारिक समाधान रेल बायपास ही है?
मण्डल रेल महाप्रबंधक ने कोटगेट रेल फाटक की जगह अन्डर ब्रिज के लिए रेलवे की  सहमति जताई है। यह तो हुआ रेलवे का पक्ष कि उनके हिसाब से यह व्यावहारिक है। उन्हें ना तो शहर के जोगराफिया से मतलब है न सांस्कृतिक धरोहर से। लगभग सवा आठ फुट से भी कम ऊंचाई का यह अन्डर ब्रिज शहर के हृदय स्थल कोटगेट जहां पर थोड़ी-सी बारिश होने पर एक-डेढ़ फुट पानी बहने लगता है, क्या व्यावहारिक होगा? शहर की नुमाइंदगी के तथाकथित सभी ठेकेदारों को अपने स्वार्थों से अलग हटकर शहर के व्यापक हित में सोचने का थोड़ा समय तो निकालना चाहिए।
--दीपचंद सांखला
25 फरवरी, 2012

Thursday, December 20, 2018

विधानसभा चुनाव 2018 : परिणामों की पड़ताल


पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित तीन राज्यों में कांग्रेस काबिज हो गई है, वहीं उत्तर-पूर्व के मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने कांग्रेस को सत्ता से हटा 10 वर्ष बाद पुन: वापसी कर ली। नवगठित राज्य तेलंगाना में सत्ता फिर से तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के पास ही रह गई।
इन पांचों राज्यों तथा पिछले एक वर्ष में हुए विभिन्न चुनाव परिणामों का निचोड़ समझें तो यही लगता है कि 2013-14 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की धमाकेदार वापसी के 5 वर्ष बाद उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक मोदी के प्रति मोह भंग होता साफ दिखने लगा है। जो विश्लेषक ये मानते हैं कि भाजपा प्रादेशिक एंटी इंकम्बेंसी के चलते हारी, वे कम से कम राजस्थान और मध्यप्रदेश को लेकर मुगालते में हैं। हां, छत्तीसगढ़ में रमनसिंह की भाजपा सरकार के प्रति एंटी इंकम्बेंसी ने मोदी-मोहभंग के साथ जबरदस्त असर दिखाया और कांग्रेस को दो-तिहाई से ज्यादा बहुमत देकर जनता ने अपनी मंशा जाहिर जरूर की। मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के बावजूद कांग्रेस का मत प्रतिशत भाजपा से कम रहना और राजस्थान में भाजपा को 73 सीटें देकर कांग्रेस को 99 पर रोक देनाइससे लगता है कि इन राज्यों में स्थानीय सरकारों से नाराजगी कम रही और मोदी का वादों पर खरे नहीं उतरना लोगों को रास नहीं आया। इसके मानी ये कतई नहीं है कि जनता कांग्रेस या राहुल गांधी को विकल्प के तौर पर देखने लगी है, ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि जिन दो राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा जनता के पास चुनने को तीसरा विकल्प था, जनता ने उसे चुना, मिजोरम और तेलंगाना के परिणाम इसके प्रमाण हैं। राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में जनता को भरोसेमंद विकल्प नहीं सूझे तो जनता असमंजस में रही कि किसे चुने! कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश के बनिस्पत राजस्थान में थोड़ी अनुकूलता इसलिए हो गई कि भिन्न-भिन्न कारणों से सूबे के प्रभावी जातीय समूह सत्ताधारी पार्टी से नाराज थे, राजस्थान में इतनी ही एंटी इंकम्बेंसी मान सकते हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन तो किया लेकिन जनता ने उन्हें विकल्प मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। प्रि-पोल सर्वे किसी भी राज्य में सटीक नहीं रहे लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने तो सर्वे को चौंकाने वाली पटखनी दी है। वहां यही माना जा रहा था कि जोगी-मायावती गठबंधन के चलते चुनाव त्रिकोणात्मक हो गये। लेकिन जनता ने वहां रमनसिंह से एंटी इंकम्बेंसी और मोदी मोहभंग के चलते तीसरे कोण को पूरी तरह नकार भूपेश बघेल  के नेतृत्व में भरोसा जताया है। भूपेश की सतत मेहनत और आक्रामक रवैया जनता को भा गया।
इन परिणामों में मोदी मोहभंग के अलावा एक और खास बात जो उभर कर आई वह यह कि हिन्दी पट्टी के राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य हों या दक्षिण का तेलंगानाहिन्दू बहकावे में नहीं आए। भाजपा के खुद द्वारा घोषित 'फायर-ब्रांड नेता' योगी आदित्यनाथ को जनता ने कोई भाव दिया ही नहीं। इसमें अल्पसंख्यकों के संयमी योगदान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सभी कोशिशों को नकार-भारतीय जनमानस ने अपने को बजाय हिन्दुत्वी जताने के सनातनी हिन्दू होने का प्रमाण दिया।
राजस्थान के नतीजों पर संक्षिप्त बात करें तो इन परिणामों से कांग्रेस को मिला जनादेश नहीं कह सकते। मोदी से मोहभंग और सूबे की प्रभावी जातियों की स्थानीय सरकार से नाराजगी ही कांग्रेस के काम आई है। तीसरे मोर्चे की कोशिशें तो जरूर हुई लेकिन भाजपा ने किरोड़ीलाल मीणा को राजी कर पार्टी में ले उसे नाकाम कर दिया। हालांकि घनश्याम तिवाड़ी (भारत वाहिनी पार्टी), हनुमान बेनीवाल (राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी) और किरोड़ीलाल मीणा (राष्ट्रीय जनता पार्टी) तीनों साथ मिल-बैठ पाते ऐसा इन अलग-अलग मिजाज और भिन्न मकसद वाले व्यक्तित्वों से लग नहीं रहा था। ऐसों को जिस गति को हासिल होना था हो लिए। अभिनव राजस्थान और आम आदमी पार्टी राजस्थान में अपनी अगंभीर कोशिशों के चलते कई उत्साही नवयुवकों को निराश करने के अलावा कुछ खास नहीं कर पाई। जनता ने कांग्रेस को जिस तरह भी सत्ता सौंपी, उससे और चुनावों में किए भारी भरकम वादों से लगता यही है कि 2023 के चुनावों में 'उतर भीखा म्हारी बारी' का खेल ही फिर चलेगा।
अब कुछ बात बीकानेर की भी कर लेते हैं। चुनाव पूर्व अनुमान में जिले की सात में से छह सीटें कांग्रेस की मानी जा रही थीं लेकिन नेता प्रतिपक्ष रहे रामेश्वर डूडी ने अपने स्वार्थों के चलते टिकट बंटवारे में जो राफड़-रोळी की और करवाई उसके चलते माहौल में कांग्रेस के प्रति ना केवल उत्साह कम हुआ बल्कि खुद रामेश्वर डूडी हार गये। जिले के कांग्रेस खाते में यह उल्लेखनीय हार हैइसके अलावा कांग्रेस के खाते में एक उल्लेखनीय जीत भी दर्ज हैवह है कोलायत की। कोलायत में लगभग अजेय किवदंती हो चुके देवीसिंह भाटी की मोदी मोह में भी पिछली हार जहां अप्रत्याशित थी वहीं इस बार के चुनाव में सब कुछ दावं पर लगाकर भी उनकी पुत्रवधू पिछले से दस गुणा अंतर से भंवरसिंह भाटी से हार गईं। इस तरह चालीस वर्षों की क्षत्रपई का पटाक्षेप हो लिया। दो और उदाहरणों में श्रीडूंगरगढ़ से सीपीएम के गिरधारी लाल महिया की जीत और खाजूवाला से गोविन्दराम मेघवाल की जिले में सर्वाधिक वोटों से जीत उल्लेखनीय कही जा सकती है। इन दोनों की जीत यह साबित करती है कि अपने क्षेत्र में सतत क्रियाशील रहने वालों की जनता उपेक्षा नहीं करती चाहे किसी की पार्टी कोई भी हो या छवि पहले कैसी भी रही हो।
दीपचन्द सांखला
20 दिसम्बर, 2018

Thursday, December 6, 2018

मेरी बेटी--मेरा गौरव!!! (24 फरवरी, 2012)

गर्भ में पलती लड़की के भ्रूण का पता करके उसे वहीं खत्म करने को क्या कहें, समझ से परे हैं। यह कुकर्म एक साथ कई मर्यादाओं को तोड़ता है। देश के सन्दर्भ में कानून को तोड़ता है, समाज के सन्दर्भ में एक असामाजिक कृत्य है, परिवार के सन्दर्भ में स्त्री की दोयम हैसियत की पुष्टि करता है और धर्म के सन्दर्भ में देखें तो यह घोर अधर्मी का काम माना गया है। बावजूद इस सबके यह कुकर्म धड़ल्ले से हो रहा है। इस कुकर्म की बहुतायत भी उच्च, उच्च मध्य, और मध्य वर्ग के तथाकथित पढ़े-लिखे कहे जाने वाले परिवारों में ज्यादा देखी, सुनी गई है। होता भी यह इसलिए कि माना जाने लगा है लड़कियां देश और समाज में अपनी और अपने परिवार की संपन्नता में बाधा बनेगी।
देखा-जाना गया है कि आज के अधिकांश छोटे-बड़े धर्मगुरु दो घृणित मुद्दों पर अपनी मौन स्वीकृति दे चुके हैं जिनमें पहला है कन्या भ्रूणहत्या और दूसरा है धन का भ्रष्टाचार। कभी वे विरोध करते भी हैं तो वह रस्म अदायगी ज्यादा लगती है। इनमें से अधिकांश इतने आत्मविश्वासहीन देखे गये हैं कि उन्हें लगता है वे ऐसी वर्जना बतायेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा कहीं कम न हो जाय, क्योंकि इन्हीं उच्च, उच्च मध्य और मध्य वर्ग के सम्पन्नों पर ही उनकी प्रतिष्ठा का सारा दारोमदार होता है। सत्तासीनों की स्थिति तो और भी चिन्तनीय है। इन कन्याओं की गर्भ जांच और गर्भपात में लगे डॉक्टरों को प्रतिष्ठा देने में वे लगे रहते हैं, क्योंकि ये धन के बड़े स्रोत जो हैं। इस तरह के कुकर्मों में लगे इन डॉक्टरों से तो अब लगभग दुर्लभ और निष्काम भाव से अपने काम को अंजाम देने वाले जल्लाद ज्यादा मानवीय और ज्यादा धार्मिक कहे जा सकते हैं।
समाज के प्रतिष्ठित तो यह कह पल्ला झाड़ लेते हैं कि अब यह किये बिना गुजारा नहीं है। पारिवारिक मुखियाओं का तो क्या कहें उनमें से अधिकांश तो इसके दुष्प्रेरक का काम करते हैं या आंखें मूंद लेते हैं। दोयम दर्जे को अभिशप्त अधिकांश स्त्रियां इन तथाकथित पढ़े-लिखे अधिकांश परिवारों में आज भी किसी निर्णय को अपने विवेक क्षेत्र का मानती-सोचती भी नहीं हैं।
इन दिनों दैनिक भास्कर ने ‘मेरी बेटी-मेरा गौरव’ अभियान चला रखा है। इसमें शहर के कई मौजिजों के बयान आ रहे हैं। वे कृपया अंतर्मन में झांकें, अपने भीतर का अवलोकन करें कि उनके मौन को खुद उनके परिवार में और समाज में कन्या भ्रूणहत्या करने की स्वीकृति तो कभी नहीं मान लिया गया था। आपको लगता है कि हां, सचमुच ऐसा हो गया था तो आपको अखबार में छपे अपने वक्तव्य पर ग्लानि होनी चाहिए क्योंकि तब इस बड़बोलेपन का कोई हक आपको नहीं है। यदि तब भी ग्लानि नहीं होती है तो इसे अपने को अमानवीय होने की प्रक्रिया में आ जाने का संकेत मान लें!
-- दीपचंद सांखला
24 फरवरी, 2012

पद्मश्री सैफ अली खान (23 फरवरी, 2012)

पद्मश्री सैफ अली खान अपनी मंगेतर (!), संभावित सालियों और मित्रों के साथ मुंबई के एक आलीशान रेस्त्रां में देर रात मौजमस्ती कर रहे थे। वहीं एक अप्रवासी भारतीय भी अपने ससुरालियों के साथ रस लेने में मशगूल था। कहते हैं सैफ की मौजमस्ती से उस अप्रवासी को अपने रस में बाधा महसूस हुई तो उसने सैफ को टोक दिया, कह नहीं सकते कि केवल टोका ही या डपटा भी था। पदम्श्री, नवाब, स्टार आदि-आदि सैफ इस सब का वैसे भी आदी नहीं हैं और जब वे अपनी मंगेतर (!), संभावित सालियों के साथ हों तो ऐसा कैसे गवारा करते, मार दिया घूंसा उस अप्रवासी भारतीय की नाक पर। उसने भी इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया। अब पछतावा उस अप्रवासी को ही होगा। थाना भी मुंबई का और कोर्ट भी मुंबई का, सैफ को तो अधिकांश समय मुंबई में ही गुजारना है, अप्रवासी को सैफ की बदमिजाजी न भुगतने की परेशानी तो भुगतनी ही होगी।
-- दीपचंद सांखला
23 फरवरी, 2012

जनसुनवाई या फिजूलखर्ची (23 फरवरी, 2012)

पूरे प्रदेश में जनसुनवाई चल रही है। कल बीकानेर में भी थी। प्रभारी मंत्री, महापौर, न्यास अध्यक्ष और जिला कलक्टर सभी अपने लवाजमे के साथ उपस्थित थे, कमी थी तो जन की। तो क्या रामराज्य आने को है जो जनता की सभी समस्याओं का निबटारा लगभग हो गया है या फिर जनता का इन आयोजनों में भरोसा समाप्त हो गया है। पहली बात तो यह कि सभी सार्वजनिक कार्यालयों में यदि समयबद्ध, निष्ठा और ईमानदारी से काम होने लगे तो इस तरह के आयोजनों की जरूरत ही क्यों हो। दूसरी बात इन जनसुनवाई आयोजनों में कार्यरत उन्हीं लोगों से ही यदि आमजन को दो-चार होना है जिनसे आम दिनों में सम्बन्धित कार्यालयों में होता है तो वे ही कर्मी उन्हीं कामों को अपने कार्यालयों में ही क्यों नहीं अंजाम तक पहुंचा देते।
पिछली और इस जनसुनवार्ई के प्रति लोगों की उत्साहहीनता यह संदेश देने को पर्याप्त है कि इस भारी फिजूलखर्ची को बंद कर दिया जाना चाहिए। यदि इन आयोजनों पर होने वाले खर्च का हिसाब मांगा जाय तो इस स्तर के होने वाले निजी आयोजनों से कई गुना बैठेगा!
अशोक गहलोत यदि अपनी सरकार को आमजन की सरकार होने का दावा करते हैं और मंशा भी यदि सचमुच वैसी ही है तो पूरे प्रशासनिक ढांचे में न केवल आमूल परिवर्तन की जरूरत है बल्कि इन अधिकारियों और कर्मियों के मन भी बदलने की जरूरत है। पूरे प्रशासनिक ढांचे का मन बदलाव और कायाकल्प होगा तभी सरकार आमजन की कहलाएगी और ऐसी इच्छाशक्ति अब अशोक गहलोत में नजर नहीं आती है। शायद वे इस व्यवस्था में यह सब करना असंभव मान चुके हैं।
-- दीपचंद सांखला
23 फरवरी, 2012

डॉ. केसी नायक की दुर्घटना की खबर काश! इस तरह होती (22 फरवरी, 2012)

बीकानेर के मेडिकल कॉलेज के कार्यवाहक प्राचार्य डॉ. केसी नायक ट्रेन से उतरते समय घायल हो गये थे। दोनों पैर कुचले गये, इसलिए उन्हें टखने और घुटने के बीच से काटना पड़ा। स्थानीय अखबारों में यह सूचना थी। साथ ही यह भी बताया गया कि वे इसी 29 तारीख को सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो जायेंगे। डॉ. नायक को तड़के जयपुर उतरना था, नींद नहीं खुली तो जयपुर के ही एक उपस्टेशन, दुर्गापुरा पर जब कोच अटेंडेंट ने उन्हें उठाया तब तक गाड़ी वहां से भी रवाना हो चुकी थी।
दरअसल उपरोक्त सभी सूचनाएं ही थीं--खबर नहीं! उक्त दुर्घटना की खबर तो यह बनती है कि जिस एसी कोच में डॉ. नायक अपने अधिकृत टिकट से यात्रा कर रहे थे उस कोच के अटेंडेंट और टिकट निरीक्षक, दोनों ही अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाह पाये गये जिससे यह दुर्घटना घटी! उच्च श्रेणी कोच के टिकट निरीक्षक की ड्यूटी में आता है कि वह कोच अटेंडेंट को बताए कि उसे यात्री को उसके गंतव्य स्टेशन से पर्याप्त समय पूर्व सूचित करना है कि स्टेशन आना वाला है। संभवतः डॉ. नायक के कोच कंडक्टर और अटेंडेंट दोनों ने अपनी इस ड्यूटी का समय पर निर्वहन नहीं किया जिसके चलते उन्हें अपना शेष जीवन बिना पांवों के गुजारना होगा। अगर इस तरह की खबरें कारणों के साथ टीवी-अखबारों में आने लगे तो न केवल यात्री-उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगे वरन् प्रत्येक सेवारत व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास भी होगा।
इस मामले में भी डॉ. केसी नायक चाहें तो रेलवे, अटेंडेंट और कोच कंडक्टर के खिलाफ मुकदमा कर सकते हैं। लेकिन इस तरह के मुकदमे हमारे देश में बहुत कम देखे गये हैं, इस कारण से भी इस तरह की गैर जिम्मेदारियों में बढ़ोतरी देखी जा रही है अन्यथा आजकल सुना, भुगता और देखा जाता है कि कई कोच कंडक्टर और अटेंडेंट कभी जुगलबंदी के साथ तो कभी शीत-युद्ध के साथ कोच की खाली शायिकाओं की आकस्मिक यात्रियों में बंदरबांट करने में लगे रहते हैं।
अभी 17 फरवरी को ही बाड़मेर-कालका गाडी नं. 14888 के बी-2 कोच का अटेंडेंट खुद सूरतगढ़ स्टेशन पर कोच पर लगा चार्ट इसलिए फाड़ रहा था ताकि उसकी खाली शायिकाओं की जानकारी आकस्मिक यात्रा करने वाले यात्रियों को ना हो और खाली सीटों का मोल-भाव वह और जुगलबंदी हो तो कोच कंडक्टर अपने ढंग से कर सकें। ऊपर के सेवारत जब भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं तभी उनके अधीनस्थ इस तरह का दुस्साहस करने को प्रेरित होते हैं।
इसलिए हमारे समानधर्मी पत्रकारों की भी जिम्मेदारी है कि वह केवल सूचनाएं नहीं खबरें भी दें!
-- दीपचंद सांखला
22 फरवरी, 2012

आत्महत्या (17 फरवरी, 2012)

कल दोपहर अठारह वर्षीय कोमल ने फांसी खा कर अपने जीवन को समाप्त कर लिया। खबरों में इस तरह का उल्लेख नहीं है जिससे जाहिर हो कि कोमल ने ऐसी कोई टीप छोड़ी हो जिसमें इस जघन्य करतूत के कारण का कोई उल्लेख हो। आत्महत्या एक ऐसा अपराध है जिसे करने वाला न्यायिक सजा का भागी नहीं होता। लेकिन उसके परिजन आजीवन मानसिक सजा के भागी जरूर बन जाते हैं। इसका दुरूपयोग भी होता देखा गया है, ऐसे कई मामले न्यायाधीन हो सकते हैं जिनमें हत्यारे अपने अपराध को छुपाने के लिए आत्महत्या करार देने की कोशिश करते हैं।
बात जब कोमल के बहाने से शुरू की है तो वहीं लौटते हैं। कोमल की शादी पिछले वर्ष ही हुई थी, पूरे बारह महीने ही नहीं हुए कि उसने अपना जीवन समाप्त कर लिया। इस दुर्घटना विशेष के लिए कौन दोषी है और किसे सजा मिलनी चाहिए, यह देखने और न्याय करने का काम कानून और व्यवस्था का है। इस तरह की घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। ऐसा होता क्यों है, इस पर समाज स्तर पर चिंता की बजाय विचार की ज्यादा जरूरत है।  समाज स्तर पर यह ज्यादा विचारणीय इसलिए भी है कि कोई व्यक्ति आत्महत्या को ही समाधान कैसे मान लेता है? इस तरह की घटनाओं के बाद होने वाली चर्चाओं में आत्महत्या के सम्बन्ध में जो जानकारियां आती हैं उनमें कई बार बहुत मामूली या कई बार कुछ जटिल या बेहद जटिल कारण सामने आते हैं। यद्यपि इन्हें अन्तिम इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि भुक्तभोगी मौजूद नहीं रहता है। तथाकथित आधुनिकीकरण या तकनीक पर ही केवल दोष मढ़ना इसलिए उचित नहीं होगा क्योंकि समाज में इस तरह की घटनाएं हमेशा ही होती रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपने परिवार के और अपने समाज के प्रति जिम्मेदारियों की समझ में कमी भी क्या इस तरह की दुर्घटनाओं का कारण नहीं बनती? असीमित इच्छाएं और अपनी पात्रता से ज्यादा पाने की आकांक्षाएं भी इस तरह की घटनाओं की प्रेरक बनती देखी-सुनी गई हैं। समाज यदि विवेकपूर्ण तरीके से विचार करना शुरू करे तो इस तरह के हादसों के अलावा भी अन्य कई पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं से निजात पायी जा सकती है।
-- दीपचंद सांखला
17 फरवरी, 2012

चौधराहट को चुनौती (16 फरवरी, 2012)

सोवियत संघ के विघटन के बाद लगने लगा था कि अब अमेरिका के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। यह भी लगने लगा था कि हथियारों की अंधी-दौड़ अब समाप्त हो जाएगी। अमेरिका या उसी तरह अपने को बड़े मानने वाले देशों की ऐसी मंशा होती तो शायद यह संभव था। लेकिन इन बड़े देशों की चौधराहट की आकांक्षा और इनके हवसनाक आर्थिक हित चुनौतीहीनता में भी चुनौतियां खड़ी करते रहते हैं। वे चाहे अमेरिका द्वारा अपने सामरिक और आर्थिक-हितों को साधने के चलते अति महत्त्वाकांक्षी हुए तालिबान और इराक हों या फिर प्रतिक्रिया के रूप में ईरान। बीकानेर शहर में अच्छे-भले परिवारों के अच्छी-भली पढ़ाई करने वाले किशोरों-युवकों द्वारा अपनी हवसनाक आर्थिक जरूरतों की पूर्ति हेतु नकबजनी और छीना-झपटी के पीछे की मानसिकता और इन बड़े राष्ट्रों की मानसिकता में अंतर कमोबेश का ही है।
-- दीपचंद सांखला
16 फरवरी, 2012

बीकानेर : विस्तार खाता कस्बाई शहर (16 फरवरी, 2012)

अपना यह कस्बाई शहर अब विस्तार खाने लगा है। कहने को आत्म-मुग्धता में हम इसे छोटीकाशी कहते रहे हैं। बिना उन दावों को खारिज किये जिसमें राजस्थान के ही फलौदी जैसे कस्बे से लेकर महानगर होने की दहलीज पर खड़े जयपुर जैसे कई शहरों और कस्बों के आत्ममुग्ध अपने-अपने शहर-कस्बे को छोटीकाशी कहते रहते हैं।
अपने शुरुआती वाक्य ‘विस्तार खाता’ पर पुनः आता हूं। विस्तार खाना एक नकारात्मक स्थानीय कहावत है, घाव में रस्सी पड़ कर फैलने के संदर्भ में सामान्यतः इस का प्रयोग होता है। अखबार देखते हैं तो चोरी, लूट, बलात्कार, हत्या और दुर्घटनाओं के समाचार पढ़कर जो भाव अपने शहर के संदर्भ में मन में आते हैं उनमें एक यह भी है कि अपना शहर अब ‘विस्तार खा’ रहा है। महानिरीक्षक से सिपाही तक की पूरी व्यवस्था के बावजूद यह सब होता है। जोधपुर, जयपुर, दिल्ली तक के अपराधों के आंकड़े आजकल कोई सिहरन पैदा नहीं करते, केवल टीवी, अखबारों की सुर्खी भर बनते हैं। तो क्या केवल पुलिस-प्रशासन ही इसके लिए जिम्मेदार है। या इसके लिए विकास की आधुनिक अवधारणा, सामाजिक संरचना और राजनीतिक ताने-बाने की भूमिका की पड़ताल भी जरूरी है। पुलिस अगर कुछ नहीं कर पा रही है तो क्या इसके लिए एकमात्र वही जिम्मेदार है? इस तरह के मुद्दों पर बिना किसी आग्रह के विचार की जरूरत है।
-- दीपचंद सांखला
16 फरवरी, 2012

नगर विकास न्यास और नगर निगम के मसाणिया बैराग (15 फरवरी, 2012)

करणी औद्योगिक क्षेत्र में हाल ही में एक हादसा हुआ। इस हादसे में एक जान चली गई। रीको के अधिकारियों ने यह कह कर किनारे होने की कोशिश की कि बिना इजाजत के यह निर्माण हो रहा था। रीको के अधिकारी क्या यह बता पायेंगे कि उनके द्वारा विकसित क्षेत्रों में अब तक हुए निर्माणों में से आधे निर्माण भी क्या बाकायदा इजाजत और पारित नक्शों के आधार पर हुए हैं? रीको ही क्यों, नगर निगम, नगर विकास न्यास भी पिछले दो-तीन दशकों से इस प्रक्रिया के प्रति घोर गैर जिम्मेदार हैं। अलबत्ता पहले तो ॠण या अन्य किसी औपचारिकता के लिए इजाजत तामीर की जरूरत ना हो तो निर्माणपूर्व यह इजाजत ली ही नहीं जाती है। इजाजत यदि ले भी ली गई है तो पारित नक्शे के अनुसार ही सबकुछ हो रहा है यह सब जांचने-परखने की कोई प्रक्रिया उक्त विभागों में या तो तय नहीं है और यदि तय भी है तो इस तरह की सक्रियता कभी देखी नहीं गईं। कभी कोई किसी खुली या गोपनीय शिकायत के आधार पर या किसी दबाव से सक्रियता दिखाई भी जाती है तो दाबा-चिंथी का प्रभावी दौर शुरू हो जाता है।
इन दिनों शहर में एक लोभ और शुरू हो गया। पिछले एक अरसे से बने और बन रहे भवनों का निर्माण पट्टे की तयशुदा जमीन से चार इंच से लेकर दो-तीन फुट तक सड़क गली की जगह तक मय हेकड़ी बढ़ाने का प्रचलन सा हो गया है। करणी औद्योगिक क्षेत्र में हुए हादसे के बाद इसे मसाणियां बैराग कहें या अखबारी दबाव में दिया बयान? न्यास और निगम दोनों के ही अधिकारियों ने अभियान चला कर सावचेती बरतने का आश्वासन दिया है। इस तरह की चौकसी अभियान की निरंतरता तो क्या शुरुआत भी कर पायेंगे वे? पुलिस महकमे के साथ-साथ यह दो विभाग भी हैं जहां सर्वाधिक दाबा-चिंथी चलती है। न्यास की नाक कही जाने वाली सभी कॉलोनियां न केवल अवैध निर्माणों की शिकार हैं बल्कि रिहायशी भूखंडों पर व्यावसायिक निर्माण हो कर व्यावसायिक गतिविधियां भी धड़ल्ले से चल रही हैं। निगम और न्यास का ध्यान क्या इस ओर भी जायेगा!
-- दीपचंद सांखला
15 फरवरी, 2012

वेलेंटाइन डे (14फरवरी, 2012)

अपने यहां प्रेम का इजहार आंखों-आंखों में या दबे-छिपे ही होता रहा है। दबे-छिपे का इजहार तो अकसर अपने गंतव्य को हासिल कर लेता है लेकिन आंखों-आंखों में होने वाले इजहार के बीच की दूरी को पाटना अधिकांशतः मुश्किल ही रहता आया है।
आंखों-आंखों में या दबे-छिपे होने वाले इजहार को लगभग चुनौती के रूप में प्रेरित करने वाला जो एक पोस्टर तीसेक साल पहले भारतीय बाजार में आया वह पश्चिम से ही था। इस पोस्टर में पांच-सात साल की एक सजी-धजी लड़की हाथों में फूल लिए अपनी ही उम्र के एक लड़के के सामने खड़ी है। इस पोस्टर में प्रोप्रटी के नाम पर अन्य कुछ नहीं था। बस अंग्रेजी में एक स्लोगन था ‘इफ यू लव समबॉडी, शो इट’। चुनौती के रूप में इसलिए कि यह माना जाता है कि इजहार स्त्रियों के लिए वर्जित है। भारतीय संस्कृति पर यहां के बाजार के माध्यम से वेलेन्टाइन-संस्कृति की सम्भवतः वह पहली दस्तक थी। पश्चिम में वेलेन्टाइन डे प्यार के इजहार का दिन माना जाता है। हमारे यहां इस तरह के इजहार का कोई निश्चित दिन मुकर्रर नहीं रहा है, सम्भव भी नहीं। बेताबियां 364 दिन इंतजार नहीं करतीं वह भी तब जब यह तय ही ना हो कि उस तय दिन भी इजहार का अवसर मिल पायेगा? वैसे भी हमारे यहां यह इजहार किसी दिन विशेष का नहीं अवसर का मुहताज रहा है।
यह तो जब अब वैश्वीकरण के नाम पर पूरी दुनिया को सामने रखी तश्तरी में देखते रहने की आकांक्षा सभी संस्कृतियों को गड्ड-मड्ड और बहुत कुछ इधर-उधर कर रही है। तकनीक के गहरे हस्तक्षेप से यह नई बनती संस्कृति किसी प्रतीकात्मक विरोध से रुकने वाली नहीं है। यह परंपराएं और संस्कृतियां समय के साथ जड़ होकर नहीं कदमताल होकर चलती है और इस कदमताल की लय हमें भंग होती सी लग सकती है। लेकिन समय उसको हमेशा साध लेता है। समय के शाश्वत संवाहक गहरे मानवीय मूल्यों को सहेज कर रखेंगे तो समय के साथ-साथ परम्परायें और संस्कृति अपनी उसी काया में संवरती होती चली जायेंगी।
-- दीपचंद सांखला
14 फरवरी, 2012

सरकारी दफ्तरों पर कुछ इस तरह भी (13 फरवरी, 2012)

राजस्थान शिक्षा विभागीय मंत्रालयिक कर्मचारी संघ के हवाले से कल एक खबर थी जिसमें संघ ने मांग की है कि सेवानिवृत्ति की आयु अट्ठावन वर्ष की जाय ताकि सेवानिवृत्ति की वजह से खाली होने वाले पदों पर शिक्षित बेरोजगारों की नियुक्ति हो सके उक्त मांग की वजह यही बतलायी है उन्होंने। पता नहीं इस सकारात्मक खबर पर कितनों का ध्यान गया होगा और जिनका ध्यान गया उनमें से कितनों ने इस पर विचार किया होगा!
कर्मचारी-अधिकारी संघों के आंदोलनों, अधिवेशनों और मांगपत्रों पर खबरें अकसर छपती रही हैं। इस तरह की सभी खबरों का केंद्रीय प्रयोजन तनख्वाहें और सुविधाएं बढ़ाना ही होता है। इन संघों के संदर्भ से शायद ही कभी इस प्रकार की खबर आई हो जिसमें इन्होंने अपने सदस्यों को कार्यनिष्ठा या कर्तव्यपरायणता की हिदायत तो क्या कोई आग्रह भी किया हो।
स्थानीय अखबारों में इन संघों से संबंधित अधिकांश खबरें शिक्षा से संबंधित कर्मचारी-अधिकारी संघों की होती है। वहीं अपने इस देश की सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति किसी से छिपी नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो इस विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों के बच्चे तक सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं जाते हैं। छठे वेतन आयोग के लागू होने के बाद से मिल रही भारी तनख्वाह के बावजूद अधिकांश स्कूलों में नियमित कक्षाएं नहीं लगती हैं, ग्रामीण स्कूलों का हाल तो और भी बुरा है, शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक कर्मचारी अपनी-अपनी बारी के अनुसार सिर्फ हाजिरी लगाने भर को पहुंचते हैं। इसके प्रभावक और इससे प्रभावित, सभी को इसका पूरा भान है। बावजूद इसके स्थितियां लगातार बदतर होती जा रही हैं। कमोबेश सभी सार्वजनिक दफ्तरों की यही स्थिति है। इसके लिए केवल कर्मचारियों और अधिकारियों को दोषी मानना उचित नहीं होगा। राजनेता और आम जनता भी इसमें बराबर की दोषी है। नेता अपने तुच्छ स्वार्थों के चलते ऐसा होने देते और करवाते हैं और आम जनता इसे अपनी नियति मान कर या झमेले में पड़ने से बचने की जुगत में या इस धारणा के चलते कि सबकुछ सरकारी अपना नहीं है, इसलिए हमारी कोई जिम्मेदारी भी नहीं, ऐसी घोर भ्रमित मानसिकता की बदौलत यह सब होने दिया जा रहा है।
व्यापक सामाजिक हित, कर्तव्यपरायणता और कार्यनिष्ठा जैसे विषयों पर यह सभी कर्मचारी-अधिकारी संघ--और यही क्यों यह व्यापार और उद्योग संघ भी सक्रियता से और सकारात्मकता से विचार करना शुरू करे, अब महती जरूरत है इसकी।
-- दीपचंद सांखला
13 फरवरी, 2012

वोट : क्यों और किसे दें?


हमें वोट देना है, इसका पात्र चुनते वक्त हम अपने मन के किन तुच्छ तर्कों और लापरवाहियों से गुजरते हैं, आज उसी पर बात कर लेते हैं। देश को आजाद हुए 71 वर्ष हो चुके हैं लेकिन यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि वोट देने जैसी महत्त्वपूर्ण ड्यूटी या धर्म को लेकर हम परिपक्व नहीं हुए हैं। आजादी बाद की पीढिय़ों में पहली-दूसरी के बाद अब तीसरी पीढ़ी भी वोट देने चली है, लेकिन जिस तरह हमसे पूर्व की पीढिय़ां वोट का पात्र चुनने में अगंभीर रही, उसे हम भुगत रहे हैं, हम गंभीर नहीं हुए तो उसी तरह हमारे बाद की पीढिय़ां भी भुगतेंगी-आगाह यही करना है बस।
हमें वोट करना है ऐसे उम्मीदवार को जो बहुत खुली सोच के साथ समग्र समाज के हित की बात सोचता हो, भ्रष्ट नहीं हो। बल्कि, आजादी बाद से ही वोट का पात्र चुनने की कसौटी यही होनी चाहिए थी कि वह दूरदृष्टा (विजनरी) होने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक मामलों में भी ईमानदार होक्या ऐसी ही कसौटियों पर परख कर हम वोट दे रहे हैं? आजादी बाद के शुरुआती समय में केवल पार्टी देखकर ही हमने वोट किया है, पसन्द की पार्टी ने उम्मीदवार सही नहीं दिया तो उसे खारिज क्यों नहीं किया। ऐसा कुछ करते तो आज जैसी स्थितियां नहीं होती। किस-किस तरह के प्रत्याशी ना केवल आने लगे हैं बल्कि हम बिना संकोच उन्हें जिताने भी लगे?
हम यह भूल जाते हैं कि जिन्हें हम लोकसभा और विधानसभाओं हेतु विजयी कर भेजते हैं वे केवल हमारे समय को ही प्रभावित नहीं करते वरन् उनकी बनाई नीतियां हमारी अगली पीढिय़ों को प्रभावित करेंगी। ऐसे में हमें ऐेसा जनप्रतिनिधि चाहिए जो बहुत दूर तक की सोचता-विचारता हो, उसकी उपस्थिति में बनी नीतियों से सामाजिक समरसता पर कभी आंच नहीं आएगी-बाद में भी कभी समूहविशेष के प्रति अन्याय नहीं होगा।
एक हम हैं कि वोट यूं ही कर देते हैं। पिछली बार उसको दिया तो अबकी बार इसे दे देते हैं,  इस बार हमारे धर्म का या जाति का जो उम्मीदवार है उसे वोट हम नहीं देंगे तो कौन देगा, अरे! फलाना मेरे से वोट मांगने तो आया, मैं तो उसी को दूंगा, उसने मुझे व्यक्तिगत लाभ पहुंचाया या पहुंचा सकता है या कि यह पार्टी मेरे धर्म, जाति और समूह के हित की बात करती है तो वोट भी इसे ही। फलाने उम्मीदवार ने मेरा कोई शौक पूरा कर दिया, कुछ प्रलोभन दे दिया या इस बार तो फलानी पार्टी का राज आ रहा है, क्यों ना हम अपना वोट उसी को दें? ऐसे तुच्छ लालचों में हम ना केवल अपना वर्तमान ही नहीं बल्कि आगामी पीढिय़ों का भविष्य भी दावं पर लगा देते हैं और हमें संकोच तक नहीं होता।
इसके मानी यह कतई नहीं है कि उक्त कसौटियों पर खरा उतरता कोई उम्मीदवार दिखे नहीं तो वोट ही नहीं देना। हम उसे भी वोट दे सकते हैं जो इन कसौटियों के थोड़ा बहुत नजदीक भी हो। हमारा यह भ्रम है कि जीतने वाले को वोट नहीं दिया तो वह खराब हो गया, प्रत्येक वोट लोकतांत्रिक यज्ञ में आहुति का काम करता है, लोकतंत्र के प्रज्वलन को बनाए रखने में वह भूमिका निभाता है। इतिहास में नजर डालें तो 2500 वर्ष पूर्व यूनान में पहले लोकतांत्रिक शासन की स्थापना का उल्लेख मिलता हैं। फिर लोकतंत्र एकबारगी गुम गया-लेकिन फिर लौट आया। वर्तमान के इतिहास में 700 वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड में और 200 वर्ष पूर्व अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना हुई। शुरू में स्त्रियों को, अश्वेतों को, पिछड़ों को वोट का अधिकार वहां भी नहीं था। धीरे-धीरे सब को मिला। हालांकि इंग्लैण्ड का लोकतंत्र तो आज भी गणतांत्रिक नहीं है। समय अनुसार बदलाव आते रहे हैं। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही सर्वाधिक मानवीय मानी गयी है। ताजा उदाहरण पड़ोसी देश भूटान का है, वहां के राजा ने स्वेच्छा से शासन जनता के सुपुर्द हाल ही में किया है। ऐसे बदलाव लोकतंत्र को प्रतिष्ठ करते हैं।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बहुत कमियां गिना सकते हैं। शासन की आदर्शतम व्यवस्था उसे माना गया जिसमें किसी भी तरह के शासन की जरूरत ही ना हो, जिस दिन हम इसके योग्य हो जाएंगे वह भी आ जायेगी पर कितनी पीढिय़ों के बाद बताना मुश्किल है। हजारों वर्षों में ही सही आज तक जहां हम पहुंचे हैं, वही उम्मीदें जगाता है।
पिछले कुछ वर्षों में मिला 'नोटा' nota का विकल्प आपकी उस असमंजसता को दूर करता है कि जब कोई भी उम्मीदवार योग्य नहीं है तो मतदान केन्द्र तक हम जाएं ही क्यों? इस धारणा से हम मतदान के शत-प्रतिशत के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। उम्मीदवार पसन्द का न हो तो नोटा का बटन दबाएंं। लोग कहते इससे फायदा क्याकिसी विकल्प का उपयोग करेंगे तभी इसकी कमियां दूर करवा पाएंगे। पड़ोसी राज्य हरियाणा के चुनाव आयोग ने हाल ही में स्थानीय निकायों के चुनाव में नोटा को प्रतिष्ठा देते हुए यह प्रावधान किया है कि नोटा के वोट सभी उम्मीदवारों से ज्यादा हुए तो चुनाव रद्द होगा और नये सिरे से होने वाले चुनावों में उन उम्मीदवारों को अयोग्य माना जायेगा। ऐसा तभी संभव हुआ जब नोटा का उपयोग किया गया और तभी अयोग्यों की छंटनी का रास्ता निकला!  नोटा को हम खारिज ही कर देते तो कहां से मिलता ये रास्ता। इसलिए लोकतंत्र में ऐसे बदलावों को सहज स्वीकारना चाहिए। एक दिन ऐसा भी आयेगा कि उम्मीदवार बनते सोचेगा। लोकतांत्रिक शासन में सुधार भी सतत प्रक्रिया के तहत होते हैं। धैर्य की जरूरत है, विवेक की जरूरत है और स्वार्थ छोड़ने की जरूरत है। इस बार वोट अवश्य करें और अच्छे से करें और कोई भी उम्मीदवार नहीं जच रहा है तो नोटा का बटन निस्संकोच दबाएं। अपना और अपनों का भविष्य अच्छा बनाने के लिए विवेक-सम्मत और शत-प्रतिशत मतदान करें।

दीपचन्द सांखला
06 दिसम्बर, 2018