'राजस्थान विधानसभा चुनाव : बीकानेर जिले में कांग्रेस को कुछ हासिल करना है तो
नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की फदरपंचाईती नोखा तक ही सीमित कर देनी चाहिए
अन्यथा ये इतना कबाड़ा कर देंगे कि कांग्रेस की खीर को कुत्ते भी नहीं खाएंगे।'
28 सितम्बर, 2018 दोपहर बाद के
अपने इस ट्वीट/फेसबुक पोस्ट के हवाले से बीकानेर जिले की चुनावी राजनीति की बात कर
लेते हैं। कांग्रेस आलाकमान ने उक्त ट्वीट का संज्ञान लिया, इसे अपनी खुशफहमी चाहे ना भी मानें लेकिन आलाकमान ने जिले
की सात में से तीन—खाजूवाला,
लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ में डूडी को खिंडावण
नहीं करने दी, इतना ही बहुत है।
और यह भी कि नोखा में अपनी हार की आशंका में दूबळै होते नेता प्रतिपक्ष को नोखा के
बजाय लूनकरणसर से उम्मीदवारी तक की छूट नहीं दी। सूबे की संभावित सरकार में
कैबिनेट मंत्री बनने में डूडी के लिए दो बड़ी बाधाएं—डॉ. चन्द्रभान और डॉ. बीडी कल्ला हो सकते थे। 33 जिलों से कुल 15-16 की कैबिनेट में जाटों में वरिष्ठ डॉ. चन्द्रभान और बीकानेर
जिले से वरिष्ठ डॉ. बीडी कल्ला कैबिनेट मंत्री पद में डूडी के आड़े आ सकते थे,
शायद इसीलिए डूडी लगातार दो बार हारने वाले को
टिकट नहीं देने पर अड़े रहे। पैराशूटर्स को टिकट नहीं देने जैसे बचकाने और
अव्यावहारिक निर्णय की तरह ही लगातार दो बार हारने वाले को टिकट नहीं देने के
निर्णय को भी आलाकमान को अंतत: खूंटी पर टांग देना पड़ा। कहा भी जाता है कि जैसे
काचर का बीज और असुरक्षित मनुष्य अपनी प्रकृति नहीं बदलता, इसी तर्ज पर हार जैसे असुरक्षित भाव से ग्रसित डूडी ने जो
राफड़ बीकानेर शहर की दोनों सीटों पर डाली, उससे पार्टी का उबरना अब भारी साबित हो रहा है।
लगातार दो बार हारे डॉ. बीडी कल्ला को दरकिनार कर खुद उनके अपने बीकानेर शहर
कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत को बीकानेर पश्चिम से टिकट दे दी गई। जैसे ही ऐसा
हुआ, सत्ता से निहाल हुए कल्ला
के परिजन यशपाल पर दबाव यह बनाने लगे कि वह पार्टी हाइकमान को लिख कर दें कि
उन्हें चुनाव लडऩा ही नहीं है। इधर शहर में कल्ला के समर्थक डागा चौक से लेकर
कोटगेट फाटक तक हीकछडि़न्दा हो लिए। कार्यकर्ताओं में पनपा असंतोष जायज है,
समर्थक नाउम्मीदगी में इतना भर नहीं करेंगे तो 'कैसा लोकतंत्रÓ। लेकिन बीकानेर पूर्व में जो दूसरी घोषणा पैराशूटर्स
कन्हैयालाल झंवर की कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर की गई, उस पर भी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इस सीट पर कई स्थानीय के
दावे धरे रह गये। इनमें से किसी एक को उम्मीदवारी मिलती तो रोष फिर भी इतना नहीं
होता। जबकि इसी बीकनेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में हुई अपनी रैली में राहुल गांधी
एक महीने पहले ही यह भरोसा दिला गये थे कि पैराशूटर्स उम्मीदवार की डोर वह स्वयं
काट देंगे। पर बीकानेर पूर्व से ना केवल एक गैर कांग्रेसी को बल्कि नोखा में
राजनीति करते रहने वाले झंवर को केवल इसलिए उतार दिया कि इससे नोखा में डूडी की
जीत सुरक्षित हो जायेगी। हालांकि अपरिपक्व राजनीतिज्ञ डूडी की यह आस गलत इसलिए
साबित हो सकती है कि झंवर नोखा में रहते तो लाभ डूडी को ही होता। झंवर को मिलने
वाले अधिकांश वोटों को भाजपा में जाने से डूडी रोक नहीं पाएंगे। डूडी तो चलो
अपरिपक्व राजनेता हैं लेकिन घाघ कन्हैयालाल झंवर ने अपनी अक्ल निकलवा ली, आश्चर्य तो इसी बात का है। झंवर नोखा के चुनाव
को त्रिकोणीय बनाते तो उनकी जीत की संभावना वहां फिर भी थी पर यहां बीकानेर पूर्व
में तो ऐसी कोई गुंजाइश दिख भी नहीं रही। वह भी तब जब बीकानेर पूर्व की घनी आबादी
वाले मुहल्लों के बाशिन्दे आज भी अस्सी-सौ वर्ष पूर्व की मानसिकता से मुक्त नहीं
हुए हैं, चाहे फिर वे माली,
मुसलमान, मेहरे हों या कि राजपूत और रावणा राजपूत या फिर
चारण-ब्राह्मण तथा इन्हीं मुहल्लों के इर्द-गिर्द रहने वाले अनुसूचित जाति के वोटर
ही क्यों ना हों। सिद्धिकुमारी के सामने झंवर अपनी चतुराई कितनी दिखा पाएंगे,
देखने वाली बात होगी। इस सीट पर कांग्रेस की
हार-जीत का पिछला अन्तर झंवर कम कर पाएंगे, यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी जो नामांकन भरे
गये हैं उनमें से कितने और किन-किन के वापस होंगे, बहुत कुछ उस पर भी निर्भर होगा।
डूडी की कुचमादी से हुआ यह है कि बीकानेर शहर के दोनों विधानसभा क्षेत्रों में
अच्छे-खासे वोटों वाले माली समुदाय को कांग्रेस ने जबरदस्त नाराज कर लिया है—अनुमान है कि इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में
इस समुदाय के अलग-अलग 23 से 25 हजार वोट हैं। नाराजगी का कारण भी बड़ा है,
पहले तो बीकानेर पूर्व से पिछली बार के
उम्मीदवार गोपाल गहलोत को नजरअंदाज किया गया फिर इसी समुदाय के यशपाल गहलोत को
बीकानेर पश्चिम से दी गई उम्मीदवारी वापस लेकर पूर्व से दी और फिर पूर्व से भी
वापस ले ली। कांग्रेस मालियों को मनाने में नाकाम रही तो बीकानेर पूर्व के
परिणामों पर वे असर भले ना डालें लेकिन यह नाराजगी बीकानेर पश्चिम के डॉ. कल्ला के
लिए भारी पड़ सकती है। उन कल्ला के लिए जिन्हें निर्विवाद रूप से पहले ही
उम्मीदवारी दी गयी होती तो जिनकी जीत निश्चित मानी जा रही थी। हालांकि बीकानेर
पश्चिम में जीत का गणित यशपाल के लिए कल्ला से ज्यादा पक्ष में था, लेकिन यह बात उन डूडी को समझ ना आयेगी जो खुद
को तरजीह पार्टी से ज्यादा देते रहे हैं।
रामेश्वर डूडी को यह नहीं भूलना चाहिए कि नेता प्रतिपक्ष की उनकी वर्तमान
हैसियत उनकी काबिलीयत की वजह से नहीं, वरन् 2013 के चुनाव में
कांग्रेस के अधिकांश वरिष्ठ नेताओं के हार जाने पर पार्टी की मजबूरी की वजह के
चलते बनी है और यह भी कि अभी के टिकट वितरण में लिहाज उनका नेता प्रतिपक्ष के पद
की वजह से किया गया है। यह भी सभी जानते हैं कि 2013 की कांग्रेस विरोधी लहर में वे जीते भी तो कन्हैयालाल झंवर
और देवीसिंह के नेक्सस के चलते। भाटी ने तब अपनी ही पार्टी के साथ घात करके बिहारी
बिश्नोई जैसे मजबूत उम्मीदवार की जगह सहीराम बिश्नोई जैसे कमजोर को उम्मीदवारी
दिलवाई थी। बाइचांस बनी हैसियत का हासिल तो यह होता कि डूडी पार्टी में अपने
व्यक्तित्व को बड़ा बनाते, यदि वे ऐसा कुछ
करते-कराते तो ना नोखा से अपने को असुरक्षित समझते और ना ही पार्टी पर दबाव बनाने
के लिए उन्हें तुनकमिजाजी जैसी बचकानी हरकतें करनी पड़ती। डूडी यह भूल रहे हैं कि
बाइचांस जैसे अवसर बार-बार नहीं मिला करते हैं।
—दीपचन्द सांखला
22 नवम्बर, 2018
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