Thursday, April 19, 2018

पुष्करणा स्टेडियम और नरसिंह भवन के बहाने जनता की भेड़ावस्था की बात


बीकानेर क्षेत्र के दिग्गज-दबंग राजनेता देवीसिंह भाटी ने 2003 का चुनाव अपनी जेबी पार्टी राजस्थान सामाजिक न्याय मंच से जीता। कोई राजनेता दिग्गज हो और साथ में दबंग भी तो वह भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को भी ठेंगा दिखाने का दुस्साहस कर सकता है। अति महत्त्वाकांक्षी भाटी का दावं चुनाव जीतने के बावजूद उलटा पड़ा, विधानसभा में भाजपा को बहुमत मिला और वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हो गईं। समय बीतते 2008 के चुनावों की चुनौती देख वसुंधरा भी अपने को असुरक्षित समझने लगीं, भाटी को मनाने की नौबत आ गई। आज तो वसुंधरा को भाटी की असल हैसियत का भान है, लेकिन तब शायद नहीं था। पार्टी में लौटने की भाटी ने अपनी अन्य शर्तों में जो एक शर्त रखी और पूरी करवाई वह यह कि प्रदेश के रियासती राजे-रजवाड़ों, ठाकर-ठिकानों की जमीनें सीलिंग से बाहर कर दी जाएं। वसुंधरा ने यह शर्त मानी और कानून पारित करवा उक्त किस्म की जमीनें सीलिंग से बाहर भी करवा दी। यह निर्णय विशुद्ध रूप से समूहविशेष के लाभ के लिए लिया घोर अनैतिक निर्णय था, तब राजस्थान पत्रिका ने तत्संबंधी बड़ी खबर लगाई और तथ्यों के साथ बताया कि इस बदलाव से किस तरह देवीसिंह भाटी को बड़ा लाभ हुआ है, सीमान्त क्षेत्र की हजारों बीघा भूमि भाटी के लिए अधिकृत हो गई। इस खबर को भाजपा में ही भाटी के प्रतिद्वंद्वी नरपतसिंह राजवी द्वारा उपलब्ध करवाने की चर्चा को भले ही दरकिनार कर दें, लेकिन याद नहीं पड़ता कि वसुंधरा राजे के उस घोर अनैतिक निर्णय के खिलाफ कोई छोटा-मोटा उद्वेलन भी प्रदेश में कहीं हुआ हो।
उक्त प्रकरण की याद अभी तब आई जब दैनिक भास्कर के स्थानीय संस्करण में बीकानेर नगर निगम की एम्पावर्ड कमेटी की बैठक की खबर पढ़ी। खबर का शीर्षक था 'पुष्करणा स्टेडियम के मुद्दे पर भड़के विधायक बोले : मुझे जलील करने के लिए निकाली फाइल।' मामला था निगम क्षेत्र के उन भवनों का जिनका नगरीय विकास कर (यूडी टैक्स) बकाया है। ऐसे भवनों को कुर्क करने का निर्णय लिया जाना था। पुष्करणा स्टेडियम का प्रकरण रखने और नरसिंह भवन के प्रकरण को कमेटी के सामने न रखने का मकसद भले ही उपायुक्त का अनुचित होबावजूद इसके मंझे-मंझाए राजनेता गोपाल जोशी ने जो कहा वह उन्हें नहीं कहना था। जिस पुष्करणा स्टेडियम की देखरेख गोपाल जोशी लम्बे समय से कर रहे हैं अलबत्ता उसका यूडी टैक्स बकाया होना ही नहीं चाहिए था, जबकि उस स्टेडियम का उपयोग व्यावसायिक हो रहा है। उन्हें लगता है कि वह सरकार के नियम-कायदों का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं तो स्टेडियम जैसी संपत्ति को सरकार के सुपुर्द कर देते। जोशी 1971 में भी और हाल ही की सरकार के हिस्सा रहे हैं। कम से कम उन्हें तो शासकीय गरिमा का खयाल रखना चाहिए था। अच्छा तो यह होता कि जिस नरसिंह भवन का जिक्र उन्हें अपने लक्षित प्रतिद्वंद्वी जनार्दन कल्ला के हवाले से किया, उस प्रकरण को भी कमेटी में रखवाते और पुष्करणा स्टेडियम और नरसिंह भवन दोनों के फैसले करवाते। और यदि उन्हें लगता है कि पुष्करणा स्टेडियम जैसा परिसर यूडी टैक्स से मुक्त होना चाहिए तो राज उनका है, क्यों नहीं तत्संबंधी आदेश निकलवा लाते। जब तक टैक्स वसूलने का कानून है आप इस बिना पर संबंधित विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों को सार्वजनिक रूप से हड़का नहीं सकते कि वे पक्षपाती हैं या भ्रष्ट हैं। और जोशी कौनसा जानते नहीं है कि शहर के आम लोगों के आए दिन काम वाले दफ्तर नगर निगम और नगर विकास न्यास, दोनों ही महा बदनाम हैं। 84 पार के गोपाल जोशी से उम्मीद की जाती है कि ऐसे मौकों पर संजीदगी चाहे वे ना दिखा पायें, चतुराई से काम तो उन्हें लेना ही चाहिए।
रही बात जनता की तो आजादी के 70 वर्षों बाद भी वह भेड़चाल से नहीं निकल पा रही। इसके लिए वह कांग्रेस ही सर्वाधिक जिम्मेवार है जिसने देश पर सबसे ज्यादा शासन किया और अपनी अनुकूलता के लिए जनता को लोकतांत्रिक देश के बतौर नागरिक अशिक्षित बनाए रखा। गोपाल जोशी इस जिम्मेवारी से भी अपने को मुक्त इसलिए नहीं मान सकते कि उनके कुल राजनीतिक जीवन का अधिकांश हिस्सा एक कांग्रेसी के तौर पर ही बीता है। जनता जागरूक होती तो राजस्थान सरकार ने जब राजे-रजवाड़ों और ठाकर-ठिकानों के पक्ष में सीलिंग कानून में बदलाव किया तब कुछ बोलती। कांग्रेस भी इस ठकुरसुहाती से बरी नहीं है, 2008 में जब प्रदेश में अशोक गहलोत के नेतृत्व में पुन: सरकार बनी तब भी सीलिंग कानून के उस घोर अनैतिक बदलावों को उन्होंने न वापस लिया बल्कि चूं तक नहीं की।
कुल जमा बात यही है कि जब तक जनता अपने को भेड़ावस्था से बाहर नहीं ले आती तब तक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुरुपयोग यूं ही होता रहेगा। जिन्हें जनता जिता कर शासन सौंपती है वे ही जनता को भूल कर ना केवल अपना हित साधने में लगे रहते हैं बल्कि वे अपने को, अपने परिजनों को और अपने जातीय समाज को लाभ पहुंचाने में ही लगे रहेंगे। जन प्रतिक्रिया के अभाव में लोक कल्याण की भावना इन राजनेताओं में कब की समाप्त हो चुकी है।
दीपचन्द सांखला
19 अप्रेल, 2018

Thursday, April 12, 2018

बीकानेर के राजनीतिक संदर्भों से जोशी, डूडी, कल्ला की बात


चुनावी वर्ष है, दिसम्बर में विधानसभा के और अगले वर्ष 2019 की मई में लोकसभा के चुनाव होने हैं। विधानसभा के संभावित उम्मीदवारों की ऐसी रेलम-पेल इससे पूर्व नहीं देखी गई। बीकानेर पूर्व क्षेत्र की विधायक जहां अपवाद हैं वहीं पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी अपनी 84 से ऊपर की वय में भी उम्मीदों को हरा रखे हुए हैं, जबकि यही गोपाल जोशी 2013 का चुनाव जीतने के बाद बहुत संतोष से कहने लगे थे कि मुझे तो अब कोई चुनाव लडऩा नहीं है। तब उम्मीद बनी थी कि उत्तरवय के उनके राजनीतिकांक्षी मझले पुत्र गोकुल जोशी दावेदारी करेंगे। ऐसा कुछ होता उससे पहले ही पौत्र विजयमोहन जोशी की राजाकांक्षाएं हिलोरे मारने लगी। लेकिन थोड़ा समय क्या गुजरा, गोपाल जोशी महाभारत के ययाति की मानिंद अपना राजाकांक्षी यौवन लौटा लाए?
कहने को तो हाइकमान के निर्देश हैं, लेकिन गोपाल जोशी अपने विधानसभा क्षेत्र के वार्ड-वार्ड घूम रहे हैं। जोशी अपने शहर को कुछ देने की सचमुच मंशा रखते तो कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या के समाधान को सिरे चढ़ाते। लेकिन जो राज भोगने की मंशा से राजनीति में आते हैं, उनसे ऐसी उम्मीदें कर खुद को निराश करना होता है। जोशी दर-दर इसलिए घूम रहे हैं ताकि पार्टी उन्हें एक अवसर और दे, कल्ला फिर सामने हों ताकि रिश्ते में साले कल्ला बंधुओं से हिसाब पूरा चुकत कर लें। अब तक पांच चुनाव जीते कल्ला को आमने-सामने का तीसरा चुनाव हराने की मंशा जोशी शायद इसीलिए पाले हैं। तुलसीदास की कही—'हानि लाभ-जीवन मरण, यश-अपयश विधि हाथ' में थोड़ा परिवर्तन कर यूं कहें तो?—'जय-पराजय विश हाथ' (विश का मानी जनता से है)। इसलिए हो सकता है इस बदले माहौल में जीजा अपने सालों से पटखनी खा जाये।
खैर। जब बात कल्ला-बंधुओं पर आ ही ली है तो उन्हें भी निराश क्यों किया जाए, उनकी बात भी कर लेते हैं। पांच बार विधायक, पार्टी में प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रह चुके
डॉ. बीडी कल्ला भी इन दिनों परिवर्तन यात्रा के नाम पर अपने क्षेत्र के वार्डों में विचरण कर रहे हैं। यहां अपने उस आकलन को फिर दोहराने में कोई संकोच नहीं है कि बीकानेर से कांग्रेस के दोनों बड़े नेताओंडॉ. बीडी कल्ला और रामेश्वर डूडी को जो राजनीतिक हैसियत विभिन्न अनुकूलताओं से हासिल है, वह उनकी पात्रता से अधिक है, जरूरत पर कभी विस्तार से भी लिखूंगा। आज बड़ी हैसियत के इन नेताओं की आत्मविश्वासहीनता का जिक्र कर लेते हैं।
संक्षिप्त में कुछ बानगियांकांग्रेस के इसी 9 अप्रेल के जयपुर के राज्यस्तरीय सांकेतिक उपवास में सीपी जोशी समेत कुछ नेता केन्द्र से भी आए, लेकिन प्रदेश के बड़े नेताओं में शुमार तो सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी दो ही थे, उपवास के जो फोटो जारी हुए उसमें पायलट अग्रिम पंक्ति में केन्द्रीय नेताओं के साथ बैठे हैं, लेकिन डूडी की मुंडी कहीं पीछे से झांक रही है। मतलब, नेता प्रतिपक्ष बनने के चार वर्ष बाद भी डूडी पार्टी में अपनी ऐसी हैसियत हासिल नहीं कर पाये कि पार्टी नेता उन्हें अग्रिम पंक्ति में तवज्जो देते। यही बात ना केवल बीकानेर क्षेत्र में डूडी की है, बल्कि खुद के कस्बे नोखा में भी उन्हें अपनी हैसियत जताने को बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है। आत्मविश्वासहीनता का ही नतीजा है कि बीकानेर पार्टी संगठन में अग्रिम पंक्ति के किसी नेता से उनके भरोसे के संबंध नहीं हैं।
बीडी कल्ला का मिजाज भी डूडी सा ही है। अभी चल हरी परिवर्तन यात्रा की बात करें तो जहां कल्ला राजकुमार किराड़ू के साथ अपने को असहज पाते हैं वहीं प्रदेश सरकार की अकर्मण्यता जाहिर करने के बजाय वे डॉ. तनवीर मालावत के साथ कहा-सुनी तक मुखर हो लिए। इस सार्वजनिक बदमजगी के दूसरे दिन डॉ. तनवीर के साथ वैसी ही अधीरता जनार्दन कल्ला ने भी दिखाई। तय है, इस परिवर्तन यात्रा का मकसद बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस उम्मीदवार को स्थापित करना तो नहीं है। बावजूद इस यात्रा में 'हमारा विधायक कैसा हो बीडी कल्ला जैसा हो' जैसे नारे लगाए गए, यहां तक की डॉ. तनवीर के भाषण के दौरान भी डॉ. कल्ला के समर्थक चुप नहीं रह सके, बदमजगी की शुरुआत यहीं से हुई।
पार्टी की प्रदेश इकाई में कल्ला को वैसी हैसियत हासिल है जिसमें तय नियम कायदों के बावजूद उनकी उम्मीदवारी को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा। राजकुमार किराड़ू और डॉ. तनवीर मालावत कभी कल्ला गुट के ही माने जाते थे। अब स्थिति यह है कि उन्हीं के सामने किराड़ू उम्मीदवारी के लिए बराबरी का हक ठोके हुए हैं वहीं इस घटना के बाद डॉ. तनवीर के तौर पर दूसरी चुनौती उन्होंने स्वयं खड़ी कर ली। इन्हीं दो नेताओं की बात क्योंबीते चालीस वर्षों की कल्ला बंधुओं की राजनीतिक सक्रियता में उनके परिजनों के अलावा क्या कोई एक भी नेता या कार्यकर्ता ऐसा है जिसे कल्ला बंधु लम्बे समय तक परोट पाए हों? जब व्यक्ति को खुद पर भरोसा नहीं होता तो वह किसी अपने पर भी यकीन नहीं कर पाता, कल्ला बंधु इसी मानसिकता के शिकार हैं।
यहां सोमचन्द सिंघवी के साथ हुए एक मामले का उल्लेख भी कर सकते हैं। मार्च 2002 में वे नगर विकास न्यास के अध्यक्ष मनोनीत हुए, बिना कल्ला बंधुओं की कृपा के, इसे कल्ला बन्धु पचा नहीं पा रहे थे। एक दिन आमने-सामने होते ही जनार्दन कल्ला फट पड़े। सिंघवी की नियुक्ति के लगभग एक महीने बाद ही बीकानेर के जिला कलक्टर निर्मल वाधवानी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई, उनके शोक का कार्यक्रम था। अग्रज कल्ला मौके की नजाकत का भी लिहाज नहीं रख पाए, उनका धैर्य चुक गया। कलक्टर कोठी से बाहर निकलते ना निकलते ही सोमचन्द सिंघवी से यूं उलझ पड़े जैसे वे इनकी गाय खोल के ले आए हों। डॉ. कल्ला की आत्मविश्वासहीनता के अन्य कई उदाहरण पूर्व में जब-तब इसी कालम में पाठकों के साथ साझा किए हैं। कल्ला बंधुओं को अब भी धैर्य धारण कर लेना चाहिए, अन्यथा हश्र देवीसिंह भाटी वाला होते देर नहीं लगती, चुनाव ना लडऩे का भी कोई बहाना ढूंढऩा पड़ सकता है।
कल्ला बंधु संजीदगी नहीं रखेंगे तो वे ये भूल रहे हैं कि परिसीमन के बाद उनके क्षेत्र की तासीर बदल गई है, मुस्लिम समुदाय के बाद माली समुदाय से कोई दावेदार इस सीट पर उन्हें चुनौती देने आ धमका तो? ऐसे में प्रदेश स्तरीय नेता कल्ला क्या अपने को उस हैसियत में पाते हैं कि राजस्थान की दो-चार में से किसी भी सीट से ताल ठोक सकें?
दीपचन्द सांखला
12 अप्रेल, 2018

Thursday, April 5, 2018

दलितों के भारत बन्द के बहाने अपने शहरियों से कुछ


एससी/एसटी से संबंधित कानून पर आए उच्चतम न्यायालय के ताजे फैसले से नाराज दलित समुदाय के 2 अप्रेल 2018 के भारत बन्द पर बात करने से पूर्व यह बता देना जरूरी है कि यह आलेख किसी भी प्रकार की हिंसा की ना तो पैरवी है और ना ही तरफदारी।

आगे बात करने से पूर्व बीकानेर के संदर्भ में पिछली सदी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से बन्द और हड़तालों की कुछ बानगियों से रू-बरू हो लेते हैं। समाजवादी नेता मुरलीधर व्यास व्यवस्था के खिलाफ बीकानेर में मुख्य स्वर रहे। उनके बुलाए बन्द पर शहर सहानुभूतिपूर्वक सहयोग करता रहा है। आठवें दशक की शुरुआत में उनके निधन के बाद 1972-73 में संभाग की उल्लेखनीय हड़ताल विश्वविद्यालय की मांग को लेकर हुई। इस हड़ताल के दौरान ना केवल एकाधिक बंद हुए बल्कि उग्र और हिंसक प्रदर्शन भी कई बार हुए। 1974 में रेलवे की देशव्यापी हड़ताल के दौरान हुए भारत बन्द के दिन जबरदस्त उग्रता के बीच सार्वजनिक संपत्ति का काफी नुकसान हुआ था।

1975 में लगे आपातकाल और 1977 में जनता पार्टी की सरकार के बाद 1980 तक उग्र हड़तालों का दौर लगभग थम गया। जो इनमें संलग्न थे वे राज में आ लिए और विपक्ष में आई कांग्रेस एक तो स्तब्ध थी, दूसरे हड़तालों के अनुकूल अपने को सहज पा ही नहीं रही थी। इन्दिरा गांधी की गिरफ्तारी हुई तो कांग्रेसी इतना ही चेतन हो पाए कि गिरफ्तारियां देकर कुछ दिनों के लिए जेलों के वासी हो लिए।

1980 में लौटे, कांग्रेस राज के बाद हड़तालों का दौर फिर से शुरू हुआ। इन अवसरों पर तब के कांग्रेस के दो व्यापारी नेताओं ने बन्द में शामिल ना होने का तय किया। पहले तब के पूर्व विधायक और कांग्रेस नेता गोपाल जोशी व दूसरे तत्कालीन शहर युवक कांग्रेस अध्यक्ष विजय कपूर, वे बाद में सभापति बने, जो अब रहे भी नहीं हैं। गोपाल जोशी की स्टेशन रोड पर छोटू-मोटू जोशी नाम से तो विजय कपूर की महात्मा गांधी रोड पर कपूर ब्रदर्श नाम से दुकानें हैं। पिछली सदी के नवें दशक के सभी बन्दों में इन दोनों नेताओं की अपनी जिदें चली भी, इसका बड़ा कारण तो यही था तब की कोई हड़ताल और बन्द उग्र-हिंसक नहीं थे।

उसी दौरान के एक भारत बन्द का, जिसमें बैंक कर्मचारी भी शामिल थे, किस्सा बयां कर देते हैं। स्टेशन से निकले विशाल जुलूस के मद्देनजर छोटू-मोटू जोशी की खुली दुकान के आगे पुलिस का पूरा जाब्ता था। हड़ताली दुकान के आगे कई देर तक रोष जाहिर कर आगे बढ़ लिए। जोशी के परिजन दुकान पर खड़े मुसकराते रहे। लेकिन कपूर ब्रदर्श के यहां उतना जाब्ता नहीं था। जुलूस महात्मा गांधी रोड पहुंचा तो लगा हड़ताली छोटू-मोटू जोशी दुकान की अपनी खीज क्रॉकरी और ग्लासवेयर से भरे कपूर ब्रदर्श पर निकालेंगे। विजय कपूर स्वयं काउण्टर पर शान्त बैठे रहे। पूरा जुलूस कपूर ब्रदर्श के आगे सिमटता जा रहा था। लगने लगा कि कुछ भी हो सकता है। इतने में बैंक कर्मचारी नेता 'कॉमरेड' योगी दुकान और हड़तालियों के बीच आ गये। 'चोर कपूरिया मुर्दाबाद-मुर्दाबाद, कपूरिया तेरी ऐसी-तैसी' जैसे जोरदार नारों के बीच योगी ने चतुराई से कब आन्दोलनकारियों को कचहरी की ओर प्रस्थान करवा दिया, हड़तालियों को पता ही नहीं लगने दिया। इसकी चर्चा शहर में कई दिनों तक रही, लोग यह कहने से भी नहीं चूकेदेखो, योगी ने कपूर के साथ शाम को बैठने का वास्ता किस चतुराई से निभाया। वैसे योगी को ये वामपंथी अपनी शब्दावली में 'कॉमरेड' क्यों संबोधित करते हैं, इसका जवाब वही देंगे।

इसके बाद भी कई हड़तालें हुईंं और डंडे के जोर पर बन्द भी सफल होते रहे हैं। लेकिन वे सभी उच्च या पिछड़ी जातिवर्गीय दबंगों के नेतृत्व में हुएहिंसा हुई और तोड़-फोड़ भी। 2003 में ऐसे ही राजस्थान बन्द का खमियाजा बीकानेर के कई दुकानदारों ने भुगता है। पद्मावत को लेकर भी हाल का मुकम्मल बन्द एक उदाहरण है। 2 अप्रेल की हड़ताल पर शहर को नजर लगने का स्यापा जो कर रहे हैं, पिछली हड़तालों उक्त जानकारियां उन्हीं के लिए हैं। हो सकता है ऐसों के उस उच्चकुलीय दम्भ को धक्का इसलिए लगा हो कि ये 'नीच' भी डांग दिखाने लगे हैं।

अपने दो ट्वीट को यहां दोहरा कर कुछ और बातें भी लगे हाथ कर लेता हूंं 2 अप्रेल का ही ट्वीट है कि 'यह हिंसा की तरफदारी नहीं है लेकिन मन मार कर ही सहीदबंग समूहों द्वारा बुलाए बन्द के आह्वान को जब-तब सहते ही रहे हो, इसे भी सह लेते। खिलाफत नहीं करते तो हो सकता है यह बंद भी शान्तिपूर्वक निपट जाता। कमजोर के पास खोने को कुछ खास नहीं होता, वह अपनी जान की कीमत भी बहुत कम आंकता है।'

बन्द से एक दिन पूर्व 1 अप्रेल की शाम का मेरा ट्वीट भी आप पढ़ लें। 'बीते 70 वर्षों में दलितों ने पहली बार भारत बंद का आह्वान किया है। प्रतिक्रिया में बीकानेर के जिन 16-17 संगठनों ने बंद को असफल बनाने का आह्वान किया उनमें पिछड़े वर्ग के एक को छोड़ सभी या तो उच्च जातिवर्गीय संगठन हैं या उच्च जातिवर्गीय प्रभावी। 

अब कुछ प्रश्न : अब तक हुए ऐसे सभी बंदों से क्या सभी सहमत थे या अन्य कारणों से उनमें शामिल होते रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के सम्मान के नाम पर पहले भी ऐसी प्रतिक्रिया हुई है, पद्मावत फिल्म का ताजा उदाहरण याद कर लें। बंद यदि असफल होता है तो न्यायालय के ताजा फैसले पर दलितों की सभी तरह की आशंकाएं सही साबित होंगी।'

लेकिन लगता है दलित इस बार अपने होने को साबित करना तय कर चुके थे। इसका ही नतीजा था कि अपने बन्द को सफल करवाने के लिए वे हिंसक हुए। हम यह संतोष करें कि शहर में हुए पिछले बन्द सफल जिस तरह होते रहे हैं, दलित उनसे अनभिज्ञ थे, तो यह हमारी मासूमियत है। दलितों ने वही तरीका अपनाया जो उनसे पहले के बन्द के आयोजक समूह अपनाते आए हैं।

इस बंद का विरोध करने वालों ने इसे आरक्षण व्यवस्था के विरोध का अवसर समझा, वहीं कहा यह भी गया कि न्यायालय ने यही तो कहा कि एससी/एसटी कानून के तहत बिना जांच गिरफ्तारी ना हो और आरोपी को अग्रिम जमानत की व्यवस्था दी। लेकिन जो सबसे गंभीर चोट इस फैसले से एसटी/एससी कानून को लगी है उस का जिक्र उच्चवर्गीय प्रभावी मीडिया भी नहीं कर रहा, जिसे 2 अप्रेल के रवीशकुमार के प्राइम टाइम में विधिवेत्ता फैजान मुस्तफा ने कुछ यूं बताया : स्त्री प्रताड़ना जांच एफआइआर दर्ज ना करने की व्यवस्था उच्चतम न्यायालय की जिस पीठ ने कुछ माह पहले दी, उसी पीठ ने एससी/एसटी प्रताड़ना पर बिना जांच के एफआइआर दर्ज ना करने की व्यवस्था दी है। जबकि अन्य सभी प्रताड़नाओं पर सीधे एफआइआर करवाई जा सकती है।
उच्चतम न्यायालय की नई व्यवस्था के सीधे-सीधे मानी यही हैं कि प्रताड़ना के मामले में स्त्रियों से एफआइआर का वह सामान्य हक भी छीन लिया है जो सभी को हासिल है। दलितों का नेतृत्व चूंकि पुरुषों के हाथ में है। अत: स्त्रियों की तरह वे चुप नहीं रहे। अब स्त्रियों को प्रेरित कौन करे कि प्रताड़ना पर उच्चतम न्यायालय ने सीधे एफआइआर तक का हक आपसे भी छीन लिया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि समाज में चौथी-पांचवीं हैसियत वाले दलित भी अपनी स्त्री को पुरुष से एक दर्जा नीचे ही मानते हैं।

एससी/एसटी से संबंधित झूठे मुकदमे दर्ज होने की बात भी की जाती रही है। इस तरह की बातों के मानी इसलिए नहीं है कि दहेज सहित अनेक धाराओं के लिए भी यही कहा जाता है। ऐसी प्रवृतियों में सुधार कानून बदलने से नहीं होगा बल्कि जरूरत है जांच के तौर-तरीकों को निष्पक्ष और दुरुस्त करने की।

लगे हाथ कुछ यह भी...
यह तो हो ली बन्द के संबंध से बात। अब बीकानेर के वकीलों के संदर्भ से भी एक बात कर लेते हैं। बीकानेर का यह वही बार है जो बहुसंख्यकीय उच्चकुलीन मंशाओं का वाहक है। पिछले वर्ष जून में भारत-पाकिस्तान का मैच था, पाकिस्तान जीत गया। मूर्खता कहें या नादानी, भुट्टा बास के एक नाबालिग सहित छह मुसलिम युवाओं ने पास के सुभाषपुरा मुहल्ले में पहुंचकर पटाखों के साथ खुशी का इजहार कर दिया, शहर भर में हंगामा हो गया। एफआइआर दर्ज हुई और राजद्रोह में उन्हें अन्दर कर दिया गया। पाकिस्तान जिन्दाबाद के उन्होंने नारे लगाए इस पर भी दो मत हैं। कहा यही जाता है कि यह नारा लगा ही नहीं, एफआइआर को मजबूत बनाने के लिए जोड़ा गया। खैर, समाज में व्याप्त अनेक तरह की असमानताओं से उपजी कुण्ठाओं में कुछ युवकों ने गलती कर भी दी तो इतना बड़ा अपराध उन्होंने क्या कर दिया कि शहर के वकीलों ने न केवल उनकी पैरवी नहीं करने का निर्णय कर लिया बल्कि कोई तैयार भी हुआ तो वकीलों ने कोर्ट के गेट पर खड़े होकर उन्हें न्यायालय में घुसने तक नहीं दिया। 

इतना ही नहीं, घटना के आठ दिन बाद ही ईदुलफितर था, मुसलमानों का सबसे बड़ा त्योहार। युवक जेल में और उनके परिजनों का त्योहार हराम। एक महीने से ज्यादा समय बाद तक उन युवकों की जमानत नहीं हो पायी। अब तक सुनते तो यही रहे हैं कि बीकानेर के वकीलों में कई बुजुर्ग संजीदा और समझदार हैं लेकिन ऐसे समय में ये मौन हो लिए। भारत की न्याय व्यवस्था ने विदेशी आतंकवादियों को भी कानूनी सहायता का अधिकार दे रखा है। वे युवक तो अपने देश की ही थे, जो उस मुकदमे में आज भी आरोपी है। इस तरह का व्यवहार उन्हें स्थायी अपराधी नहीं बनाएगा, इस बात की क्या गारन्टी है?

वहीं, इसके बरअक्स पिछले तीन-चार वर्षों से रामनवमी के उत्सव पर जो-जो नारे लगते हैं वह क्या राजद्रोह नहीं है? संविधान की सीधी अवमानना नहीं है? इस पर कभी यहां के किसी वकील का संविधान प्रेम या राष्ट्रभक्ति जागती नहीं देखी गयी।

बन्द के ऐसे आह्वानों पर वकील अक्सर अदालती कामकाज स्थगित रखते हैं। 2 अप्रेल को उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हें बदमजगी का सामना करना पड़ा। यह लोकतंत्र है, या तो इसे समाप्त कर लें, नहीं तो हर क्षेत्र में असमानता से उपजी कुण्ठाओं का इजहार यूं ही होता रहेगा और अराजकता को बढ़ने से राज भी नहीं रोक पाएगा।
दीपचन्द सांखला
5 अप्रेल, 2018