Thursday, July 27, 2017

अमित शाह का तीन दिन का जयपुर प्रवास बहुत कुछ तय कर गया

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तीन दिन के प्रवास पर जयपुर हो कर गये हैं। इसे सामान्य या औपचारिक यात्रा नहीं कहा जा सकता। इस यात्रा का पार्टी और सरकार पर गहरा असर और दूरगामी परिणाम होंगे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि निचले स्तर के पार्टी संगठनों तक पहुंचने के लिए अमित शाह की यह यात्रा बायपासीय पड़ाव है जिसमें राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके मोहरे प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को बायपास कर दिया जाना है। असर तो यात्रा की घोषणा के साथ ही दिखाई देने लगे थे। प्रदेश भाजपा में लगभग सुप्रीमो की हैसियत बना चुकी वसुंधरा राजे पर इस तरह का दबाव तब से ही शुरू हो गया जब से मोदीजी प्रधानमंत्री बने और बाद इसके पार्टी की कमान शाह को मिली। लेकिन लम्बे अरसे तक राजे ने जोर आजमाइश जारी रखी, वहीं चतुर और शातिर मोदी एण्ड शाह एसोसिएट कम्पनी ने आत्मविश्वास के साथ धैर्य रखा और उलझने का अवसर नहीं आने दिया। उनकी इसी रणनीति का परिणाम था कि वसुंधरा राजे का विश्वास धीरे-धीरे डिगने लगा। राजे के टूटते आत्मबल ने जैसे ही गुंजाइश दी अमित शाह तीन दिनों के लिए बैठकों के विस्तृत कार्यक्रम के साथ आ धमके। जैसा कि ऊपर कहा कि शाह का यह आना कोरा यूं ही आकर चले जाना भर नहीं था। प्रदेश भाजपा की प्रत्येक इकाई के माध्यम से कार्यकर्ताओं तक शाह ने यह सन्देश पहुंचा दिया कि बजाय सरकार को मजबूत बनाने के पार्टी को मजबूत बनाने में लगें और प्रयास इस तरह के करें कि अगले पचीस वर्षों तक सभी तरह की सत्ताएं पार्टी के पास रहें।
शाह की इस पूरी कवायद के मानी यही निकल रहे हैं कि प्रदेश भाजपा की कमान कहने भर को परनामी के हाथों रहेगी, लेकिन अब चलेंगे शाह के ही तौर-तरीके। जिसके मानी यह भी हैं कि वसुंधरा को भी अब ठिठके रहना होगा, मुंह निकालने की कोशिश की तो निस्तेज करते देर नहीं लगेगी।
2013 के बाद से पार्टी पर लगातार पकड़ बढ़ाते मोदी एण्ड शाह की स्थितियां अब लगभग अजेय हो चुकी हैं। अनुकूल शासकीय माहौल के चलते और परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर अपने ऐजेन्डे में लगातार सफलता मिलते रहने से पार्टी की पितृ संस्था आरएसएस भी इन दोनों पर लगभग मोहित है। वैसे भी वसुंधरा राजे भाजपा की गैर-संघी मुख्यमंत्री हैं। इसलिए संघ की सहानुभूति कभी राजे के साथ नहीं रही। ऐसे में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों को पार्टी कहने भर को वसुंधरा के नेतृत्व में भले ही लड़े लेकिन पिछले तीन विधानसभा चुनावों से आधी भी पकड़ वसुंधरा की रहेगी, नहीं लगता। पार्टी उम्मीदवारों के चयन तक में सब शाह की ही चलनी है। अभी से भारी दबाव में आ चुकी वसुंधरा समय की नजाकत देख हो सकता है सबकुछ बर्दाश्त कर लेंगी। इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। पार्टी का लगभग अपहरण कर चुके मोदी और शाह अब तो अधिनायकों जैसी हैसियत भी पा चुके हैं। ऐसे में वसुंधरा वैसी अनुकूल परिस्थितियों में भी अपने को नहीं पाएंगी कि वह अपनी पसन्द सख्ती से रख भी सकें।
भाजपा प्रदेश में अगला चुनाव फिर जीतती हैजो फिलहाल दीख रहा हैतो वसुंधरा को उसके पिछले या बचे-खुचे तेवरों के साथ शासन दुबारा पार्टी नहीं सौंपेगीराजे को वर्तमान शासकीय हैसियत पुन: हासिल करने के लिए मोदी-शाह कम्पनी के आगे शत-प्रतिशत समर्पण दिखाना होगा। जैसा वसुंधरा का मिजाज रहा है, उसमें ऐसी गुंजाइश लगती कम है।
कुल तीन दिन के प्रवास में सन्देश यही देने की शाह की पूरी कोशिश रही कि पार्टी का मुख्य ऐजेन्डा पितृ संस्था आरएसएस और संघ के वर्तमान और पूर्व पितृ-पुरुषों की घोषित-अघोषित मंशाओं के अनुरूप देश को बनाना और चलाना है। यह इस बात से पुख्ता समझा जा सकता है कि शाह की इस यात्रा से कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने वैश्विक दिखावे के लिए ही सही गो-रक्षकों के भेष में सक्रिय नरभक्षियों को भले ही चेतावनी दी हो मगर तत्संबंधी कोई सन्देश दबे स्वरों में भी शाह ने राज्य के भाजपाई कार्यकर्ताओं को दिया हो, जानकारी में नहीं। इसका सीधा सा मतलब यही है कि संघ और उसके अनुषंगी संगठनों की जैसी मंशा पिछले नब्बे वर्षों में रही है, उसे निर्बाध चलने दिया जाए। वोटों के धर्माधारित धु्रवीकरण के लिए वही सही है और पार्टी को सत्ता पर काबिज रखने के लिए अनुकूलतम भी।
वसुंधरा राजे जो अटलबिहारी वाजपेयी और भैरोंसिंह शेखावत की विरासत की राजनीति करती रही हैं, प्रकारांतर से वह कांग्रेस-संस्कृति की ही राजनीति मानी जाती है। इसीलिए संघ बहुत खुश कभी ना अटलबिहारी के शासन से रहा और ना भैरोसिंह शेखावत के और ना ही वसुंधरा राजे के शासन से। यही बड़ी प्रतिकूलता वसुंधरा राजे के लिए बनने जा रही है। इसी सब के चलते आगामी चुनाव की बिसात घोषित करना लगभग असंभव है। शाह राजस्थान में भी सभी तरह के मानवीय मूल्यों को ताक पर रखकर अधिनायकीय तरीके से वही सब करने वाले हैं जिससे सत्ता पुन: भाजपा को हासिल हो सके। अंत में पुन: यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि आगामी चुनाव में वसुंधरा की भूमिका कोई होगी भी तो जरूरत जितनी और कठपुतली जैसी। वसुंधरा यदि इसके लिए तैयार नहीं होंगी, तो छिटका दी जायेंगी।
दीपचन्द सांखला

27 जुलाई, 2017

Thursday, July 20, 2017

सोशल साइट्स जंगल की मानिंद, चिनगारी आग में तबदील होने में देर नहीं करेगी

'ईश्वर सत्य है' कहने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने अन्वेषण के बाद सत्य को ही ईश्वर माना। 'मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है' कहने वाले गांधी ने अपने जीने के तौर-तरीकों से यह बताया कि जो मानवीय है वह ही सत्य है। उनके व्यावहारिक जीवन से लगता है कि इस चर-अचर जगत की प्रत्येक इकाई के साथ अहिंसक और गरिमापूर्ण व्यवहार को ही उन्होंने मानवीयता की पात्रता माना। भ्रष्टाचार, बेईमानी, मिलावट, कर चोरी, हिंसा, झूठ-फरेब, भ्रमित करना, अन्य के अधिकारों का हनन, धर्म और जातीय आधार पर व्यवहार में अन्तर आदि-आदि के साथ न्यूनतम भरण-पोषण के अलावा प्रकृति का दोहन और लालच में जीव-अजीव पर हिंसा अमानवीय कृत्य है, इसलिए असत्य हंै।
आज यह बात जिस विशेष सन्दर्भ में कह रहे हैं, उसका खुलासा जरूरी है। बुद्धि के होते मनुष्य चंूकि जीवों में श्रेष्ठ है और वह झूठ का आभासी मण्डल घडऩे की चेष्टा करता रहा है। पिछली एक-डेढ़ सदी में तकनीक अपने नित-नये संचार साधनों के माध्यम से झूठ के इस आभासी मण्डल को विकराल बनाती जा रही है।
फेसबुक, ह्वाट्स एव, ट्विटर आदि से लोडेड स्मार्टफोन, मोबाइल आने से पहले पिछली सदी के आखिरी दशक में जब एसटीडी (सब्सक्राइबर ट्रंक डायलिंग) सेवाओं का विस्तार हुआ तब 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दूध पीने की बात कुछ ही घंटों में पूरे देश-विदेश में फैल गई।  उस झूठ को फैलाने के पीछे किसी की कोई मंशाविशेष थी या मात्र भक्तिभ्रम, नहीं कहा जा सकता। लेकिन उस भ्रम से निकलने में आस्थावान भारतीयों को ज्यादा दिन नहीं लगे।
मोबाइल के साथ जरूरत बन चुके कम्प्यूटरों के इस युग में ऐसे ही बड़े भ्रम की शिकार हुई पूरी आभासी दुनिया, 1 जनवरी, 2001 की मध्यरात्रि 12 बजे के ठीक बाद कम्प्यूटर सहज देखे गये तो उस बड़े भ्रम से मुक्ति मिली। हुआ यह था पिछली सदी के अंत में दक्षिण अमेरिका के किसी देश के एक अखबार के कोने में एक छोटी खबर इस आशंका के साथ लगी कि हो सकता है 31 दिसम्बर, 2000 की रात से दुनिया के सभी कम्प्यूटरों के प्रोग्राम 2001 में शिफ्ट ना हों। फिर क्या, बिना कम्प्यूटर वैज्ञानिकों से विमर्श किए इस खबर को मीडिया अधकचरे विशेषज्ञों के साथ विस्तार देता गया। यहां झूठ का उद्गम भक्ति-भ्रम नहीं, आशंका माना जा सकता है जिसे मीडिया के मतिभ्रम ने विकरालता दी। इसके ठीक बाद 2001 के मध्य में दिल्ली में मंकीमैन का भय व्याप्त हो गया। ऐसा कुछ भिन्न घटनाओं के साथ अन्य शहरों में होता रहा होगा। चूंकि दिल्ली देश की राजधानी है इसलिए इस घटना को मीडिया ने देशव्यापी खबर बना दिया। हो सकता है यह किसी खुराफाती दिमाग की उपज हो और लहर में बहकर अनेक ने विस्तार दे दिया। लेकिन अपनी छवि के विपरीत पुलिस ने इसे जल्द ही झूठा साबित कर दिया।
ऐसी सब घटनाएं बिना कुछ नुकसान किए नहीं गुजर जातीं, काम के घंटों, करोड़ों-अरबों के फिजूल खर्च और असल मुद्दों से भटकाव जैसे नुकसान के साथ सामूहिक छविक्षय का काम भी करती हैं।
फेसबुक, ह्वाट्स एप, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसी सोशल साइटों के साथ इस तरह के लोग अब ना केवल बेलगाम हो रहे हैं, बल्कि भय, भ्रम और आशंकाओं के साथ मनुष्य को हिंसक हो जाने के हेतु भी ये देने लगी हैं। लिखित में, दृश्य श्रव्य (राइटिंग, ऑडियो विजुअल) में बदलाव कर, नया घड़कर या सन्दर्भ बदलकरकुछ लोग स्वार्थ और विचारविशेष को बल देने के वास्ते जानबूझ कर ऐसा करने लगे हैं। इस शातिरपने का शिकार अकसर वे होने लगे हैं जो अविचारी हैं या आदतन तर्क-वितर्की नहीं हैं, और इनमें से कुछ प्रतिक्रिया भी देने लगे हैं। ऐसी प्रतिक्रियाओं को कुछ की मासूमियत मान सकते हैं, जैसे कुछ भी मैसेज, फोटो या ऑडियो आया, उसे सुने या बिना पूरा सुने अन्यों के साथ साझा करने में देर नहीं लगाते, यह भी नहीं सोचते कि बिना पुष्टि किए और बिना यह विचारे ऐसा किये जाने से देश और समाज की सामंजस्यता को नुकसान हो सकता है या किसी की गरिमा भी आहत हो सकती है।
फेसबुक, ह्वाट्स एच, ट्विटर आदि पर झूठी पोस्टों, झूठे फोटों और झूठे ऑडियो की बाढ़ सी पिछले एक अरसे से आने लगी है। इतना ही नहीं, हाल ही के वर्षों में कुछ अखबार और टीवी चैनल भी फेक न्यूज, पढ़ाने-दिखाने लगे हैं। इन सब का मोटा-मोट मकसद राजनीतिक है, येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना या सत्ता में बने रहना। इसके लिए वे बिना दया-हया के बेधड़क कुछ भी करने लगे हैं। अधिकांशत: धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर मासूम लोग इनके वाहक (कुरियर) भी बन जाते हैं।
स्वदेशी की अलख जगाने वाले राजीव दीक्षित की असामयिक मृत्यु के बाद इन सोशल साइटों पर उनके नाम का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है, हर कोई अपने अंडबंड विचार उनके नाम से पेल रहा है। खुद गांधी और जवाहरलाल नेहरू की छवि खराब करने का जो काम आजादी के बाद से धीमी गति से चल रहा है उसे संचार के आधुनिक साधनों ने न केवल गति दी बल्कि अश्लील भी बनाया है। जनगणना के आंकड़ों को दरकिनार कर जनसंख्या के धर्म आधारित झूठे आंकड़ों के माध्यम से वैमनस्य फैलाया जाने लगा है।
इस दौर के किसी नेता के लिए यह कहना कि वह भ्रष्ट नहीं है, असंभव है। इसकी बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी है जिसने आजादी बाद सर्वाधिक शासन किया। लेकिन इसके मानी यह कतई नहीं है कि अन्य पार्टियों के नेता दूध के धुले हैं। राजनीति और चुनावी-तंत्र जिस तरह खर्चीला हो गया है उसमें तो ऐसा कतई संभव नहीं।
अब तो और भी मुश्किल दौर आ गया है। सत्ता पर जो काबिज हैं उनका मकसद ही येन-केन देश को हिन्दुत्वी राष्ट्र बनाना है। इसके लिए देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की सफलताएं परवान पर हैं। अपने पितृ संगठन के नेतृत्व में अपने इस मकसद से यह विचारधारा ना तब विचलित हुई जब देश गुलाम था, आजादी इनका मकसद तब भी नहीं था। आपातकाल में भी ये विचलित नहीं हुए, तब भी इनका मकसद लोकतंत्र नहीं था।
गांधी ने कहा, 'सत्य साध्य है, अहिंसा साधन है।' लेकिन इन अधिनायकीय सत्ताकांक्षियों का मानना कुछ दूसरा है:—'हिन्दुत्वी राष्ट्र साध्य है, झूठ और हिंसा साधन हैं।' दूसरी ओर भयभीत मानसिकता के चलते अल्पसंख्यक भी संयम नहीं रख पा रहे हैं। एक तरफ से थूका-थूकी होती है तो दूसरी तरफ से कुत्ता-फजीती शुरू करने में देर नहीं की जाती।
इस देश की तासीर समुद्र की सी रही है जो अपने में सभी को समा लेता है। तासीर बदलने वालों से सावधान रहने की जरूरत है। ईश्वर, अल्लाह, गॉड, वाहेगुरु आदि-आदि ऐसे छुईमुई से हैं कि उन्हें या उन पर कुछ भी अंडबंड कह देने भर से वे खिरने लगते हैं तो ईश्वर, अल्लाहगॉड, वाहेगुरु आदि-आदि होने की वे पात्रता नहीं रखते।
वर्तमान आर्थिक नीतियों और सामाजिक असमानताओं के बढ़ते यह समय घोर निराशाजनक हो गया है। पूंजी लगातार एक छोटे समूह में सिमटती जा रही है और हम हैं कि इस सत्य को देखना-समझना ही नहीं चाहते और धर्म के नाम पर अपने राजनीतिक हित साधने वालों के औजार बनते जा रहे हैं। सोशल साइट्स व संचार के ये साधन तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों को जंगल की आग में तबदील करते देर नहीं लगाते। इसलिए इन साधनों को बरतते वक्त ना केवल सावधान रहना होगा बल्कि प्रतिक्रिया करते वक्त ठिठकते भी रहना जरूरी है। सत्य ही ईश्वर है और उसकी प्रतिष्ठा मानवीयता की पात्रताएं विकसित किये बिना संभव नहीं है।
दीपचन्द सांखला

20 जुलाई, 2017

Thursday, July 13, 2017

नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों का पलायन : कुछ तथ्य --अशोक कुमार पाण्डेय

1. 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में आतंकवाद के चरम के समय बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया। पहला तथ्य संख्या को लेकर। कश्मीरी पंडित समूह और कुछ हिन्दू दक्षिणपंथीयह संख्या चार लाख से सात लाख तक बताते हैं। लेकिन यह संख्या वास्तविक संख्या से बहुत अधिक है। असल में कश्मीरी पंडितों की आखिरी गिनती 1941 में हुई थी और उसी से 1990 का अनुमान लगाया जाता है। इसमें 1990 से पहले रोजग़ार तथा अन्य कारणों से कश्मीर छोड़कर चले गए कश्मीरी पंडितों की संख्या घटाई नहीं जाती। अहमदाबाद में बसे कश्मीरी पंडित पी एल डी परिमू ने अपनी किताब 'कश्मीर एंड शेर-ए-कश्मीर : अ रिवोल्यूशन डीरेल्ड' में 1947-50 के बीच कश्मीर छोड़ कर गए पंडितों की संख्या कुल पंडित आबादी का 20 प्रतिशत बतायी है, (पेज़-244), चित्रलेखा ज़ुत्शी ने अपनी किताब 'लेंग्वेजेज़ ऑफ़ बिलॉन्गिंग : इस्लाम, रीजनल आइडेंटीटी, एंड मेकिंग ऑफ़ कश्मीर' में इस विस्थापन की वज़ह नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा लागू किये गए भूमि सुधार को बताया है (पेज़-318) जिसमें जम्मू और कश्मीर में ज़मीन का मालिकाना उन गऱीब मुसलमानों, दलितों तथा अन्य खेतिहरों को दिया गया था जो वास्तविक खेती करते थे, इसी दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम और राजपूत ज़मींदार भी कश्मीर से बाहर चले गए थे। ज्ञातव्य है कि डोगरा शासन के दौरान डोगरा राजपूतों, कश्मीरी पंडितों और कुलीन मुसलमानों के छोटे से तबके ने कश्मीर की लगभग 90 फ़ीसद ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया था। (विस्तार के लिए देखें 'हिन्दू रूलर्स एंड मुस्लिम सब्जेक्ट्स', मृदुराय) इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों का नौकरियों आदि के लिए कश्मीर से विस्थापन जारी रहा (इसका एक उदाहरण अनुपम खेर हैं जिनके पिता 60 के दशक में नौकरी के सिलसिले में शिमला आ गए थे)। सुमांत्रा बोस ने अपनी किताब 'कश्मीर : रूट्स ऑफ़ कंफ्लिक्ट, पाथ टू पीस' में यह संख्या एक लाख बताई है ( पेज़ 120), राजनीति विज्ञानी अलेक्जेंडर इवांस विस्थापित पंडितों की संख्या डेढ़ लाख से एक लाख साठ हज़ार बताते हैं, परिमू यह संख्या ढाई लाख बताते हैं। सीआइए ने एक रिपोर्ट में यह संख्या तीन लाख बताई है। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य अनंतनाग के तत्कालीन कमिश्नर आइएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह 'कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति, श्रीनगर' की 7 अप्रैल, 2010 के प्रेस रिलीज़ के हवाले से बताते हैं कि लगभग 3,000 कश्मीरी पंडित परिवार स्थितियों के सामान्य होने के बाद 1998 के आसपास कश्मीर से पलायित हुए थे (देखें, पेज़ 79, माई कश्मीर : द डाइंग ऑफ़ द लाइट, वजाहत हबीबुल्ला)। बता दें कि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति इन भयानक स्थितियों के बाद भी कश्मीर से पलायित होने से इनकार करने वाले पंडितों का संगठन है। अब भी कोई साढ़े तीन हज़ार कश्मीरी पंडित घाटी में रहते हैं, बीस हज़ार से अधिक सिख भी हैं और नब्बे के दशक के बाद उन पर अत्याचार की कोई बड़ी घटना नहीं हुई। हां, हर आम कश्मीरी की तरह उनकी अपनी आर्थिक समस्याएं हैं जिस पर अकसर कोई ध्यान नहीं देता. हाल ही में तीस्ता सीतलवाड़ ने उनकी मदद के लिए अपील जारी की थी। साथ ही एक बड़ी समस्या लड़कों की शादी को लेकर है, क्योंकि पलायन कर गए कश्मीरी पंडित अपनी बेटियों को कश्मीर नहीं भेजना चाहते।
गुजरात हो कि कश्मीर, भय से एक आदमी का भी अपनी ज़मीन छोडऩा भयानक है, लेकिन संख्या को बढ़ा कर बताना, बताने वालों की मंशा को साफ़ करता ही है।
2. उल्लिखित पुस्तक में ही परिमू ने बताया है कि उसी समय लगभग पचास हज़ार मुसलमानों ने घाटी छोड़ी। कश्मीरी पंडितों को तो कैम्पों में जगह मिली, सरकारी मदद और मुआवजा भी। लेकिन मुसलमानों को ऐसा कुछ नहीं मिला (देखें, वही)। सीमा काजी अपनी किताब 'बिटवीन डेमोक्रेसी एंड नेशन' में ह्यूमन राइट वाच की एक रपट के हवाले से बताती हैं कि 1989 के बाद से पाकिस्तान में 38,000 शरणार्थी कश्मीर से पहुंचे थे। केप्ले महमूद ने अपनी मुजफ्फराबाद यात्रा में पाया कि सैकड़ों मुसलमानों को मार कर झेलम में बहा दिया गया था। इन तथ्यों को साथ लेकर वह भी उस दौर में सेना और सुरक्षा बलों के अत्याचार से 48,000 मुसलमानों के विस्थापन की बात कहती हैं। इन रिफ्यूजियों ने सुरक्षा बलों द्वारा, पिटाई, बलात्कार और लूट तक के आरोप लगाए हैं। अफ़सोस कि 1947 के जम्मू नरसंहार (विस्तार के लिए इंटरनेट पर वेद भसीन के उपलब्ध साक्षात्कार या फिर सईद नक़वी की किताब 'बीइंग द अदर' के पेज़ 173-193) की तरह इस विस्थापन पर कोई बात नहीं होती।
3. 1989-90 के दौर में कश्मीरी पंडितों की हत्याओं को लेकर भी सरकारी आंकड़े में सवा सौ और कश्मीरी पंडितों के दावे सवा छ: सौ के बीच भी काफ़ी मतभेद है। लेकिन क्या उस दौर में मारे गए लोगों को सिफऱ् धर्म के आधार पर देखा जाना उचित है।
परिमू के अनुसार हत्यारों का उद्देश्य था कश्मीर की अर्थव्यवस्था, न्याय व्यवस्था और प्रशासन को पंगु बना देने के साथ अपने हर वैचारिक विरोधी को मार देना। इस दौर में मरने वालों में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मोहम्मद युसुफ़ हलवाई, मीरवायज़ मौलवी फ़ारूक़, नब्बे वर्षीय पूर्व स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मौलाना मौदूदी, गूजर समुदाय के सबसे प्रतिष्ठित नेता क़ाज़ी निसार अहमद, विधायक मीर मुस्तफ़ा, श्रीनगर दूरदर्शन के डायरेक्टर लासा कौल, एचएमटी के जनरल मैनेजऱ एच एल खेरा, कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रोफ़ेसर मुशीर उल हक़ और उनके सचिव अब्दुल गनी, कश्मीर विधान सभा के सदस्य नाजिऱ अहमद वानी आदि शामिल थे (वही, पेज़ 240-41)। ज़ाहिर है आतंकवादियों के शिकार सिफऱ् कश्मीरी पंडित नहीं, मुस्लिम भी थे। हां, पंडितों के पास पलायित होने के लिए जगह थी, मुसलमानों के लिए वह भी नहीं। वे कश्मीर में ही रहे और आतंकवादियों तथा सुरक्षा बलों, दोनों के अत्याचारों का शिकार होते रहे।
जगमोहन के कश्मीर में शासन के समय वहां के लोगों के प्रति रवैये को जानने के लिए एक उदाहरण काफी होगा। 21 मई 1990 को मौलवी फ़ारूक़ की हत्या के बाद जब लोग सड़कों पर आ गए तब तक वे एक आतंकवादी संगठन के खि़लाफ़ थे लेकिन जब उस जुलूस पर सेना ने गोलियां चलाईं और भारतीय प्रेस के अनुसार 47 (और बीबीसी के अनुसार 100 लोग) गोलीबारी में मारे गए तो यह गुस्सा भारत सरकार के खि़लाफ़ हो गया (देखें, कश्मीर : इसरजेंसी एंड आफ़्टर, बलराज पुरी, पेज़-68)। गौकादल में घटी यह घटना नब्बे के दशक में आतंकवाद का मूल मानी जाती है। उन दो-तीन सालों में मारे गए कश्मीरी मुसलमानों की संख्या 50,000 से एक लाख तक है। श्रीनगर सहित अनेक जगहों पर सामूहिक क़ब्रें मिली हैं। आज भी वहां हज़ारों माएं और ब्याहताएं 'आधी' हैंउनके बेटों/पतियों के बारे में वे नहीं जानती कि वे जि़ंदा हैं भी या नहीं, बस वे लापता हैं। (आप तमाम तथ्यों के अलावा शहनाज़ बशीर का उपन्यास 'द हाफ़ मदर' पढ़ सकते हैं।)
4. कश्मीर से पंडितों के पलायन में जगमोहन की भूमिका को लेकर कई बातें होती हैं। पुरी के अनुसार जगमोहन को तब भाजपा और तत्कालीन गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के कहने पर कश्मीर का गवर्नर बनाया गया। उन्होंने फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे। अल जज़ीरा को दिए एक साक्षात्कार में मृदुराय ने इस संभावना से इनकार किया है कि योजनाबद्ध तरीक़े से इतनी बड़ी संख्या में पलायन संभव है। लेकिन वह कहती हैं कि जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर छोडऩे के लिए प्रेरित किया वजाहत हबीबुल्लाह पूर्वोद्धृत किताब में बताते हैं कि उन्होंने जगमोहन से दूरदर्शन पर कश्मीरी पंडितों से एक अपील करने को कहा था कि वे यहां सुरक्षित महसूस करें और सरकार उनको पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराएगी। लेकिन जगमोहन ने मना कर दिया, इसकी जगह अपने प्रसारण में उन्होंने कहा कि 'पंडितों की सुरक्षा के लिए रिफ्यूजी कैम्प बनाये जा रहे हैं, जो पंडित डरा हुआ महसूस करें वे इन कैम्पस में जा सकते हैं, जो कर्मचारी घाटी छोड़ कर जायेंगे उन्हें तनख्वाहें मिलती रहेंगी।' ज़ाहिर है इन घोषणाओं ने पंडितों को पलायन के लिए प्रेरित किया। (पेज़ 86 ; मृदुराय ने भी इस तथ्य का जि़क्र किया है)। कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और पत्रकार बलराज पुरी ने अपनी किताब 'कश्मीर : इंसरजेंसी एंड आफ़्टर' में जगमोहन की दमनात्मक कार्यवाहियों और रवैयों को ही कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का मुख्य जि़म्मेदार बताया है (पेज़ 68-73)। ऐसे ही निष्कर्ष वर्तमान विदेश राज्यमंत्री और वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर ने अपनी किताब 'बिहाइंड द वेल' में भी दिए हैं (पेज़ 218-20)। कमिटी फॉर इनिशिएटिव ऑन कश्मीर की जुलाई 1990 की रिपोर्ट 'कश्मीर इम्प्रिजंड' में नातीपुरा, श्रीनगर में रह रहे एक कश्मीरी पंडित ने कहा कि 'इस इलाक़े के कुछ लोगों ने दबाव में कश्मीर छोड़ा। एक कश्मीरी पंडित नेता एच एन जट्टू लोगों से कह रहे थे कि अप्रेल तक सभी पंडितों को घाटी छोड़ देना है। मैंने कश्मीर नहीं छोड़ा, डरे तो यहां सभी हैं लेकिन हमारी महिलाओं के साथ कोई ऐसी घटना नहीं हुई।' 18 सितम्बर, 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार अफ़साना में छपे एक पत्र में के एल कौल ने लिखा— 'पंडितों से कहा गया था कि सरकार कश्मीर में एक लाख मुसलमानों को मारना चाहती है जिससे आतंकवाद का ख़ात्मा हो सके। पंडितों को कहा गया कि उन्हें मुफ़्त राशन, घर, नौकरियां आदि सुविधायें दी जायेंगी। उन्हें यह कहा गया कि नरसंहार ख़त्म हो जाने के बाद उन्हें वापस लाया जाएगा।' हालांकि ये वादे पूरे नहीं किये गए पर कश्मीरी विस्थापित पंडितों को मिलने वाला मासिक मुआवज़ा भारत में अब तक किसी विस्थापन के लिए दिए गए मुआवज़े से अधिक है। समय समय पर इसे बढ़ाया भी गया, आखिऱी बार उमर अब्दुल्ला के शासन काल में। आप गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर इसे देख सकते हैं।
बलराज पुरी ने अपनी किताब में दोनों समुदायों की एक संयुक्त समिति का जि़क्र किया है जो पंडितों का पलायन रोकने के लिए बनाई गई थी। इसके सदस्य थेहाईकोर्ट के पूर्व जज मुफ़्ती बहाउद्दीन फ़ारूकी (अध्यक्ष), एच एन जट्टू (उपाध्यक्ष) और वरिष्ठ वक़ील गुलाम नबी हगू्र (महासचिव)। ज्ञातव्य है कि 1986 में ऐसे ही एक प्रयास से पंडितों को घाटी छोडऩे से रोका गया था। पुरी बताते हैं कि हालांकि इस समिति की कोशिशों से कई मुस्लिम संगठनों, आतंकी संगठनों और मुस्लिम नेताओं ने घाटी न छोडऩे की अपील की, लेकिन जट्टू ख़ुद घाटी छोड़कर जम्मू चले गए। बाद में उन्होंने बताया कि समिति के निर्माण और इस अपील के बाद जगमोहन ने उनके पास एक डीएसपी को जम्मू का एयर टिकट लेकर भेजा जो अपनी जीप से उन्हें एयरपोर्ट छोड़ कर आया, उसने जम्मू में एक रिहाइश की व्यवस्था की सूचना दी और तुरत कश्मीर छोड़ देने को कहा! ज़ाहिर है जगमोहन पलायन रोकने की कोशिशों को बढ़ावा देने की जगह दबा रहे थे। (पेज़ 70-71)
कश्मीरी पंडितों का पलायन भारतीय लोकतंत्र के मुंह पर काला धब्बा है, लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि क़ाबिल अफ़सर माने जाने वाले जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल के रूप में घाटी में लगभग 4,00,000 सैनिकों की उपस्थिति के बावज़ूद पंडितों के पलायन को रोक क्यों न सके? अपनी किताब 'कश्मीर : अ ट्रेजेडी ऑफ़ एरर्स' में तवलीनसिंह पूछती हैंकई मुसलमान यह आरोप लगाते हैं कि जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩे के लिए प्रेरित किया। यह सच हो या नहीं लेकिन यह तो सच ही है कि जगमोहन के कश्मीर में आने के कुछ दिनों के भीतर ये समूह में घाटी छोड़ गए और इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि जाने के लिए संसाधन भी उपलब्ध कराये गए।'
मित्रों से अनुरोध है कि कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति और उसके कर्ता धर्ता संजय टिक्कू के बयान और साक्षात्कार पढ़ लें। मिल जाएंगे इंटरनेट पर बिखरे।
असल में जैसा कि एक कश्मीरी पंडित उपन्यासकार निताशा कौल कहती हैं--कश्मीरी पंडित हिंदुत्व की ताक़तों के राजनीतिक खेल के मुहरे बन गए हैं। विस्तार के लिए वायर में छपा उनका 7 जुलाई, 2016 का लेख पढ़ लें। जब निताशा ने अल जज़ीरा के एक प्रोग्राम में राम माधव का प्रतिकार किया तो कश्मीरी पंडितों के संघ समर्थक समूह के युवाओं ने उनको भयानक ट्रॉल किया। दिक्क़त यह है कि भारतीय मीडिया संघ से जुड़े पनुन कश्मीर (पूर्व में सनातन युवक सभा) को ही कश्मीरी पंडितों का इकलौता प्रतिनिधि मानता है। वह दिल्ली में रह रहे बद्री रैना जैसे कश्मीरी पंडितों के पास भी नहीं जाना चाहता
(लेखक की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'कश्मीरनामा' से)

Thursday, July 6, 2017

सत्ता तक पहुंचने भर को गाय को कामधेनु न बनाएं

संपूर्ण गोवंश की जननी-कामधेनु दक्ष प्रजापति और अश्विनी की पुत्री मानी जाती है। यह वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच युद्ध का कारण भी बनी। कामधेनु के प्रताप से वशिष्ठ ने अपने आश्रम में विश्वामित्र का बड़ा सत्कार किया। प्रताप देखकर विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ से कामधेनु को मांग लिया। वशिष्ठ इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस इनकार पर दोनों में युद्ध हो गया। गाय से संबंधित यह उल्लेख भारतीय संस्कृति कोश में मिलता है। इस उल्लेख को हलके में लें तो कह सकते हैं कि गाय पौराणिक काल से ही हिंसा का हेतु रही है। वेद-पुराणों को ऐतिहासिक मानें तो हमारे यहां धार्मिक अनुष्ठान के तौर पर पशुयाग और गोमेघ होते रहे हैं जिनमें गाय की बलि दी जाती थी। इतना ही नहीं, भारतीय वाड्मय में गो मांस को श्रेष्ठ खाद्य माना गया और ऋषि-मुनि तक इसका सेवन करते थे। इस संदर्भ में पं. विद्यानिवास मिश्र अपनी पुस्तक 'हिन्दू धर्म : जीवन में सनातन की खोज' में लिखते हैं कि 'यदि हिन्दू धर्म शुद्ध रूप से पोथी धर्म रहता तो पशुयाग और गोमेघ अब भी होते, पर लगभग पिछले दो हजार वर्ष से दोनों बन्द हो गये। क्योंकि लोक में ऐसे आन्दोलन हुए जिन्होंने इन अनुष्ठानों को मंगलकारी नहीं माना। उन आन्दोलनों को बाद में शास्त्रीय प्रतिष्ठा भी मिली।'
इन पुस्तकों को टटोलने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले एक अरसे से गाय सर्वाधिक सुर्खियां पाने वाली मीडिया पर्सनैलिटी हो गई है। बल्कि यूं कहें तो अतिशयोक्ति नहीं कि गाय के नाम पर कानून-व्यवस्था की तो बिसात ही क्या संविधान तक को ताक पर रखा देखा जाने लगा है। यहां तक कि समुदाय-विशेष के व्यक्ति को गाय के नाम पर मारना बहुसंख्यकों के वोटों के धु्रवीकरण में भी कारगर होने लगा है। सर्वाधिक सम्मान्य (दूध देते रहने तक) मूक पशु गाय के नाम पर भारतीय समाज में अब नरबलियां होने लगी हैं। राजनेताओं को लगने लगा है कि सत्ता तक पहुंचने को वैतरणी यदि पार करनी है तो वह गाय की पूंछ पकड़े बिना संभव ही नहीं है। बीकानेर शहर कांग्रेस भी इन दिनों ऐसी ही जुगत भिड़ाने में जुटी है।
भारतीय जीवनचर्या में गाय का बहुत महत्त्व है। गाय को पवित्र पशु जाना जाता है और उससे मिलने वाले दूध, दही, घी यहां तक कि गो-मूत्र तक का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। ट्रैक्टर आने से पहले खेत में हल जोतने का महती काम अधिकांशत: गौ-पुत्र बैलों द्वारा ही किया जाता था। यह बात अलग है कि इस मशीनी युग में बैलों की महत्ता इस रूप में भले ही घटी है लेकिन बीफ (गोवंश मांस जिसमें गाय-भैंस, बैल, सांड, पाडे आदि चौपाए आते हैं) निर्यात में भारत इन वर्षों में सिरमौर है। खेती में गोवंश की जरूरत भले ही खत्म हुई लेकिन इन्हें बेचने (जाहिर है इन्हें बूचडख़ाना-आपूतिकर्ता के अलावा कौन खरीदेगा) से प्राप्त धन को किसान ट्रैक्टर आदि की सेवाएं लेने में खर्च करने लगा, वहीं पशुपालक इसके बदले दुधारू गाय खरीदने में। पशुपालन में लगे लोग अधिकांशत: पिछड़े, अल्पसंख्यक और निम्न जातियों से आते हैं जिनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं होती, अत: ऐसे पशुपालक सामान्यत: नाकारा (दूध देना बंद कर चुकी) गायों को भी बूचडख़ाना-आपूर्तिकर्ता को बेचकर नई गाय ले आते हैं ताकि उनकी आजीविका चलती रहे।
यहां यह बताना जरूरी है कि वर्तमान बाजार युग में गोपालक अपनी जो आजीविका कमाते हैं, वह नाकारा गोवंश को बेचे बिना या दूध से क्रीम निकाले बिना या पानी मिलाए बिना या नकली दूध मिलाए बिना अपना गुजारा ही नहीं कर सकता। डेयरी इकोनॉमी के जानकारों का आकलन है कि वर्तमान में दूध उत्पादन की लागत न्यूनतम चालीस रुपए लिटर आती है जबकि गोपालक को बीस से तीस रुपये लिटर से ज्यादा का भाव मिलता ही नहीं। अपवादस्वरूप किसी को इससे कुछ ज्यादा मिलता भी है तो वह उल्लेख योग्य नहीं है।
यह सब लिखने का मकसद इतना ही है कि गोरक्षा के नाम पर जो लठैत नरभक्षी होते जा रहे हैं या कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में ले रहे हैं, ऐसे लोग भारतीय सामाजिक ताने-बाने की समझ नहीं रखते। अधिकांश भारतीय जीवनयापन की अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के वास्ते किस कदर जूझते हैं, उन्हें इसकी भी खबर नहीं है। लेकिन वे यह तो अच्छी तरह जानते ही होंगे कि बूचडख़ानों के माध्यम से जो मांस का निर्यात करने वाले और चमड़ा उद्योग चलाने वाले अधिकांश धनपति समर्थ-सवर्ण ही हैं। इन लठैतों ने कभी इन उद्योगपतियों की ओर आंख उठाकर भी देखा क्या?
ये तथाकथित गोरक्षक क्या इससे भी अनभिज्ञ हैं कि भारत की कुल आबादी में इकहत्तर प्रतिशत मांसाहारी हैं। जबकि कुल आबादी में मात्र चौबीस प्रतिशत अल्पसंख्यक हैं जिनमें मुसलिम, सिख, ईसाई, जैन और पारसी भी शामिल हैं। मुसलिम कुल आबादी का मात्र चौदह प्रतिशत ही हैं। ये आंकड़े 2011 कीे जनगणना से लिए गये हैं।
अगर पिछड़ों, दलितों को हिन्दू मानते हैं तो इस तरह लगभग दो-तिहाई हिन्दू मांसाहारी हैं। यह बात भी जाहिर है कि चूंकि गोमांस अन्य खाद्य मांसों से कुछ सस्ता होता है इसलिए आर्थिक तौर पर हिन्दुओं का कमजोर तबका जिसमें दलित और कुछ पिछड़े भी आते हैं, चोरी-छिपे ही सही वे नाकारा चौपायों का बीफ खा गुजारा करते हैं। अगर कोई अपराध कर भी रहा है तो इसकी शिकायत करें, कानून को अपना काम करने दें। वैसे अधिकांश समर्थ कानून कायदों के अनुसार कितना चलते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। हां, समर्थ अपनी एयाशी बढ़ाने के लिए नियम-कायदों का उल्लंघन करते हैं जबकि कमजोर मात्र अपना पेट पालने के लिए। यह सब लिखने का आशय न मांसाहार को प्रोत्साहन देना है और न बीफ सेवन की पैरवी करना और ना ही कानून तोडऩे वालों की हिमायत करना है। यह सब इसलिए लिखा जा रहा है कि किन्हीं के बहकावे में आकर हिंसक होने से पूर्व ठिठकें और जिस पर हिंसा कर रहे हैं उसकी जगह अपने को रख कर देखें। देखा यह भी गया है गो-रक्षा के नाम पर इस तरह की वारदातें करने वाले अधिकांश धाये-धापे परिवारों से आते हैं, जिनकी अपनी आजीविका सुरक्षित होती है।
गाय के नाम पर कुछ करना ही है तो सब से सार्थक काम यह होगा कि पॉलिथिन पर सम्पूर्ण देश में पूरी तरह रोक लगवाएं। सरकार से मांग कर इनकी फैक्ट्रियां बन्द करवाएं। यह बहुत मुश्किल नहीं, दुनिया के कई देशों में पॉलिथिन हर तरह से वर्जित है। अधिकांश आवारा गोवंश पॉलिथिन खाकर ही मरता है।
गाय के नाम शेष जो भी हो रहा है वह चाहे भारतीय जनता पार्टी या उसके संंबंधित संगठन कर रहे हैं या कांग्रेसी-मात्र ढोंग है। इनका मकसद केवल राजनीति करना और गाय की पूंछ पकड़ सत्ता तक पहुंचना भर है, पहुंच सकते हैं तो पहुंचिए, लेकिन गाय के नाम पर मनुष्यों को मारना बन्द कीजिए, यह ना धर्म  सम्मत है और ना ही कानून सम्मत।
दीपचन्द सांखला

6 जुलाई, 2017