Thursday, April 28, 2016

अवाम को कैसे निहाल करें ये प्रवासी जनप्रतिनिधि-तीन

विचारों से समाजवादी मानिकचन्द सुराना के भाजपा में चले जाने पर यह कहा गया गया था कि सही आदमी गलत जगह पर चला गया है। विचारशील और मंजे हुए राजनेता सुराना खुद व्यावहारिक राजनीति में उस दुराग्रह के शिकार रहे जिसके शिकार अनेक राजनेता देखे गये हैं। ऐसे नेताओं ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में कांग्रेस विरोध की राजनीति की और विकल्पहीनता के अभाव में भाजपा जैसी साम्प्रदायिक झुकाव वाली पार्टी से गठबंधन भी किया लेकिन कांग्रेस के साथ हरगिज नहीं गए। हो सकता है पुराने संगी-साथियों को इसके लिए तैयार न कर पाने में अपने को अक्षम मान लेना भी एक कारण हो। वैसे आजकल सभी पार्टियों के लेबल में ही अन्तर है। यद्यपि सुराना ने शुरुआत में कांग्रेस विरोध की राजनीति करने में सांप्रदायिक लेबल से अपना पल्ला बचाने के लिए जनता पार्टी (जेपी) बना कर राजनीति तो की लेकिन गठबंधन भाजपा से ही किया। आखिर में जब यह भी नहीं चला तो उन्हें मन मसोस कर भाजपा में जाना पड़ा। खुले विचारों का व्यक्ति भाजपा जैसी पार्टी के लिए सरदर्द से कम नहीं होता है, अवसर मिलते ही भाजपा प्राय: छुटकारे की अनुकूलता ढूंढ़ लेती है और पिछले चुनाव में उसने सुराना के साथ यही किया।
सुराना को जिले का सांगोपांग नेता इसलिए ही कहा सकता है कि वे प्राय: जिले के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र से सम्मानजनक परिणामों के साथ चुनाव लड़ चुके  हैं। बात प्रवासी हो चुके जनप्रतिनिधियों के हवाले से चल रही है। इसी सन्दर्भ से सीधे बात करें तो 1956 में 25 वर्ष के होते ही चुनावी राजनीति करने और आदर्श जनप्रतिनिधि माने जाने वाले सुराना भी पिछले चार दशकों से भी ज्यादा समय से जयपुर में निवास करते हैं। बावजूद इसके सुराना को देवीसिंह भाटी और बुलाकीदास कल्ला की तरह प्रवासी जनप्रतिनिधि इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि वे निश्चित अन्तराल में अपने मतदाताओं के बीच होते हैं। 1983 के बाद से तो लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र को अपनी स्थाई कर्मस्थली बना चुके सुराना स्थाई तौर पर जयपुर और अस्थाई रूप से बीकानेर शहर में रहने के बावजूद अपने क्षेत्र के प्रत्येक गांव के न केवल लगातार सम्पर्क में रहते हैं बल्कि वहां के बाशिन्दों से जीवन्त सम्पर्क भी बनाए रखते हैं। यही नहीं, सुराना सरकारी-अद्र्धसरकारी योजनाओं के अपने क्षेत्र में क्रियान्वयन के प्रति निरन्तर सचेष्ट और सजग तो रहते ही हैं, कार्य की सतत निगरानी भी करते हैं। इसी के चलते जाट प्रभावी विधानसभा क्षेत्र के होते और प्रतिद्वंद्वी भी हर बार जाट समुदाय से होने के बावजूद सुराना सम्मानजनक चुनावी राजनीति करते रहे हैं। हारना-जीतना अलग बात है, और यह कई स्थितियों-परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सुराना की इस राजनीतिक शैली के चलते उन्हें कोरा प्रवासी जनप्रतिनिधि कहने से पहले ठिठकना जरूरी है।
सुराना के इन तौर-तरीकों के चलते उनके प्रतिद्वन्द्वी राजनेताओं को अपने विधानसभा क्षेत्र में वैसा सा ही कुछ-कुछ करते रहने की मजबूरी हो लेती है। मजबूरी शब्द का प्रयोग इसलिए किया कि लूनकरणसर में सुराना के विरासती प्रतिद्वन्द्वी रहे कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल और पिछले चुनाव में ही उनका टिकट कटवा भाजपा के बैनर से चुनावी राजनीति में आए सुमित गोदारा की जन जुड़ाव की कवायदें बे-मनी लगती हैं। कांग्रेस के टिकट से लूनकरणसर सीट पर पिता भीमसेन चौधरी की राजनीतिक विरासत संभाले हुए और लगातार दो बार (20032008 में) सुराना को हरा चुके वीरेन्द्र बेनीवाल भी जयपुर ही रहने लगे हैं। विधायक और मंत्री रहते सुराना की तरह ही बेनीवाल भी जन जुड़ाव की कोशिश तो करते रहे हैं लेकिन वैसी छाप नहीं छोड़ पाए। फिलहाल बीकानेर में ही निवास करने वाले भाजपा के सुमित गोदारा के लिए भी राजनीति करने के सुराना के तौर-तरीकों के सामने राजनीति करना सहज नहीं है।
परिसीमन के बाद बीकानेर जिले में विधानसभा क्षेत्र चार से सात हो लिए हैं। इनमें कोलायत विधानसभा क्षेत्र के शहरी हिस्सों से बने बीकानेर पूर्व और लूनकरणसर-कोलायत के कुछ हिस्सों से खाजूवाला क्षेत्र बना है। चूरू जिले की श्रीडूंगरगढ़ तहसील को बीकानेर जिले में शामिल करने के बाद नया जुड़ा श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र भी है। श्रीडूंगरगढ़ में पिछले लम्बे समय से भाजपा के विधायक किसनाराम नाई अपनी पैठ जमाए हैं। खुद किसनाराम जहां अपने श्रीडूंगरगढ़ कस्बे स्थित निवास को नहीं छोड़ते और हर आए गए की सुनते हैं उसी तर्ज पर पिछले लगभग बीस वर्षों से उनके कांग्रेसी प्रतिद्वन्द्वी मंगलाराम गोदारा भी अपना निवास गांव से श्रीडूंगरगढ़ कस्बे में ले आए हैं। इन दोनों ने ही अपने विधानसभा क्षेत्र को कितना निहाल किया इस पर राय अलग-अलग हो सकती है लेकिन इन्हें प्रवासी जनप्रतिनिधि तो हरगिज ही नहीं कहा जा सकता।
अगले अंक में नये बने बीकानेर पूर्व और खाजूवाला विधानसभा क्षेत्रों तथा संसदीय क्षेत्र से चुने गए और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे उम्मीदवारों की पड़ताल इस प्रवासी प्रसंग के मार्फत करके स्थानीय राजनीति से संबंधित इस शृंखला का समापन करेंगे।

क्रमश:

28 अप्रेल, 2016

Thursday, April 21, 2016

अवाम को कैसे निहाल करें ये प्रवासी जनप्रतिनिधि-दो


पड़ोस का लोकसभाई क्षेत्र है नागौर, प्रदेश में अभी के सभी बड़े शहरों से पुराना। आजादी बाद के पहले आम चुनाव में पाली से जुड़े नागौर लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय गजाधर सोमानी जीते थेउसके बाद के चुनावों में लगातार जीतने वाले नाथूराम मिर्धा के बारे में कहा जाता था कि बाबा नागौर में विकास इसलिए नहीं करवाते कि विकास के साथ लोग समझदार हो जाएंगे, जब तक डोफे हैं तभी तक बाबे को वोट देंगे। ऐसा ही एक विधानसभाई क्षेत्र अपने जिले में भी है कोलायत, जो पहले आधा शहरी और आधा ग्रामीण था। पुन:सीमांकन के बाद यह क्षेत्र पूरा ग्रामीण हो गया। नागौर को जिस तरह आज भी कस्बाई शहर माना जाता है वैसे ही कोलायत को गांव जैसा कस्बा। जबकि यह उत्तर पश्चिमी भारत का बड़ा तीर्थ है। 1962 में बने इस विधानसभा क्षेत्र से तब समाजवादी मानिकचन्द सुराना जीते थे। सूबे और केन्द्र में राज कांग्रेस का था। ऐसे में विकास की उम्मीद करना बेकार था। बाद के दो चुनावों में कांग्रेस की कान्ता खथूरिया जीती। सत्ता के साथ अच्छे संबंधों के बावजूद उन्होंने कुछ नहीं करवाया।
1977 के चुनाव में जनता पार्टी लहर की बदौलत रामकृष्णदास गुप्ता जीते, यद्यपि इस विधानसभा का पटाक्षेप जल्दी हो गया, नहीं भी होता तो कोलायत के विधायक ने विधायकी की फाड़ा-फूंसी पहले ही कर दी, राज होते भी क्षेत्र में कुछ नहीं हो पाया। 1980 से विधायकी को बपौती बना चुके देवीसिंह भाटी हाल की विधानसभा के अलावा हमेशा न केवल विधायक रहे हैं बल्कि जब भी भाजपा की सरकार रही भारी-भरकम मंत्रालय के साथ मंत्री रहे। बावजूद इसके कोलायत की गिनती प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े विधानसभा क्षेत्रों में है। दिल्ली में स्थाई डेरा बना चुके प्रवासी जनप्रतिनिधि मिर्धा की तरह भाटी भी प्रवासी हो लिए। जयपुर रहते भाटी को जब क्षेत्र को नवाजना होता है बीकानेर आ लेते हैं। क्षेत्र के अपने से लाभान्वितवृन्द को बुलाकर मिल लेते हैं। हां, कभी एकांतवास करना हो तो गांव के अपने फार्म हाउस में कुछ समय बिताते हैं। लेकिन  आम मतदाता को सुलभ इसलिए नहीं रहे क्योंकि भाटी पुराने सामन्त हैं तो ग्रामीण वैसे ही दाता मानते हैं। वे पहले तो उन तक पहुंचने की हिम्मत ही नहीं जुटाते, अगर पहुंच जाते हैं तो मुंह नहीं खोल पाते। किसी मुंहलगे ने मेहरबानी कर दी तो बात भाटी तक पहुंचा दी। कह सकते हैं कि भाटी चाहते तो कोलायत क्षेत्र में बहुत कुछ हो सकता था लेकिन यह क्षेत्र अब तो मात्र अवैध खनन का हब होकर रह गया। चुनाव जीतते तो भी भाटी जयपुर ही रहते, हार गए तो भी जयपुर ही रहते हैंकोढ़ में खाज ऊपर से यह कि सूबे की मुखिया पिछली बार जैसा भाव भाटी को नहीं दे रही हैं। बावजूद इस सब के प्रवासी भाटी इस बटबटी में तो हैं ही कि 2018 का चुनाव तो जैसे-तैसे जीतना ही है, सरकार भले ही बने न बने। कोलायत के वर्तमान विधायक भंवरसिंह भाटी युवा हैं कुछ करना भी चाहते हैं लेकिन सत्ता नहीं है, अगले चुनाव पर नजर है। बीकानेर में रहते हैं, क्षेत्र के लोगों का हाल-चाल जानने को लगातार सम्पर्क करते हैं। कोलायत क्षेत्र के आम लोग बहुत ज्यादा उम्मीद कोई पाले भी नहीं हुए, मगरे के लोग अवैध खनन के वेस्ट से बनते टीलों को अपनी नियति मान चुके हैं।
तीसरा पुराना विधानसभाई क्षेत्र नोखा है। यह क्षेत्र 1952 के पहले चुनाव से है। 1957 में यह क्षेत्र सामान्य और सुरक्षित दोहरी सीट का रहा और 1962 से सुरक्षित हो गया। नोखा क्षेत्र राजनीतिक रूप से लगभग जाट प्रभावी रहा है। जिस उम्मीदवार के साथ जाट हो लिए वही जीतता है। इसका अपवाद 2008 का चुनाव रहा जब वणिक समुदाय के घाघ राजनीतिज्ञ कन्हैयालाल झंवर ने कांगे्रसी हेकड़ जाट रामेश्वर डूडी को हरा दिया था। 2013 का चुनाव डूडी ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और जीत भी लिया। डूडी मूलत: नोखा क्षेत्र से हैं लेकिन विद्यार्थी काल से अभी तक वे बीकानेर में रहते हैं। इसलिए इन्हें प्रवासी जनप्रतिनिधि तो उस तरह नहीं कह सकते जिस तरह कल्ला व भाटी को कह सकते हैं। रावतमल पारीक को छोड़ दें तो नोखा के लगभग सभी जनप्रतिनिधि स्थानीय रहे। 1980 का चुनाव जीते सुरजाराम ने जीतने के बाद नोखा से कोई खास लेना-देना नहीं रखा जबकि वे बीकानेर ही रहा करते थे। सुरजाराम तबके मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाडिय़ा के रिश्ते में दामाद होते थे। हालांकि प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा की उपस्थिति में उनकी कविता पर नकारात्मक टिप्पणी करने पर पहाडिय़ा को एक वर्ष में ही अपना पद खोना पड़ गया था। शायद इसीलिए सुरजाराम का मन अपने क्षेत्र और राजनीति से उचट गया।
नोखा क्षेत्र का जो भी विकास हुआ वह स्थानीयों के बूते ही हुआ या क्षेत्र की अवस्थिति और परिस्थितियों के चलते। किसी जनप्रतिनिधि को इसका श्रेय नहीं दिया जा सकता। कोई प्रभावी जनप्रतिनिधि क्षेत्र को मिला भी नहीं, जैसा कोलायत या बीकानेर क्षेत्र को मिलता रहा है। यद्यपि इन प्रभावियों ने निहाल न कोलायत को किया और ना ही बीकानेर को। कह सकते हैं कि इन जनप्रतिनिधियों की सत्ता में रहते भी ना वैसी मंशा थी, होती तो दृष्टिगत भी होती। बाशिन्दों के बूते हुए नोखा के विकास को तुलनात्मक तौर पर देखें तो वहां का विकास बीकानेर और कोलायत से ज्यादा गति से हुआ है। क्षेत्र का विकास जनप्रतिनिधियों के बूते ही होता है, इस धारणा का अपवाद नोखा में देखा जा सकता है।
बीकानेर जिले के पुराने क्षेत्रों में 1952 में बने लूनकरणसर की बात अगले अंक में करेंगे। इस क्षेत्र की राजनीति का ढांचा आदर्श जनप्रतिनिधि माने जाने वाले मानिकचन्द सुराना ने एक बारगी सेट कर दिया है। उनके मुकाबले में आने वाले राजनेता को इस क्षेत्र में राजनीति सुराना के बनाए ढांचे में ही करनी होती है।
क्रमश:

21 अप्रेल, 2016

Thursday, April 14, 2016

अवाम को कैसे निहाल करें ये प्रवासी जनप्रतिनिधि-एक

आजादी पाने का एक उद्देश्य यह भी था कि राज अवाम की अनुकूलताओं में चले, आप अपने शासक खुद हों। इसके लिए पंचायतों-स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा, लोकसभा में नुमाइंदे अपने बीच से हों। अपने बीच से होगा तभी आमजन जब चाहे तब, बिना किसी संकोच से उससे बतलावन कर लेगा, अपनी जरूरतें बता देगा, लेकिन हुआ क्या? आजादी बाद से ही ऐसी जरूरतों और शिकवा-शिकायतों की अभिव्यक्ति हेतु स्थानीय नेताओं ने जनता को स्थानीय उच्च अधिकारियों के मुखातिब कर दिया। इससे दो नुकसान हुए, एक तो चुने जनप्रतिनिधियों के मौज हो गई, जनता को सीधे जवाब देने के झंझट से उन्हें छुटकारा मिल गया, अब तो लगभग हमेशा के लिए ही। दूसरी ओर बिना वजह सरकारी मुलाजिमों की पूछ बढ़ती गई तो इनकी भौंहें भी ऊंची उठती गई।
बात यहीं समाप्त नहीं होती। चुने गए जनप्रतिनिधियों में से अधिकांश प्रवासी जनप्रतिनिधि की हैसियत को हासिल होते गए। बीकानेर के संदर्भ में बात करते हैं, एकदम शुरुआत के जनप्रतिनिधियों को छोड़ भी दें तो मुरलीधर व्यास ऐसा नाम है जो जनता के बीच पाए जाते थे। सुथारों की बड़ी गुवाड़ स्थित अपने घर से अधिकांशत: पैदल ही निकलते। कभी-कभार किसी तांगेवाले ने कुछ ज्यादा आग्रह किया तो थोड़ी दूर बैठते और फिर उतर जाते, कचहरी परिसर तक पहुंचते-पहुंचते व्यास न जाने कितनों को सुनते, सभी समुदायों को आश्वस्त करते थे। रात में उनके घर की कुंडी खटखटाने का भी कोई समय नहीं था। गोकुलप्रसाद पुरोहित आए तो वे आमजन को कुछ सुलभ तो थे लेकिन यहां किसी ना किसी माध्यम की जरूरत होने लगी। गोकुलप्रसाद को उन्हीं के शिष्य गोपाल जोशी ने अखाड़े से बाहर कर दिया। गोपाल जोशी के बारे तब भी कहा जाता था कि वे ड्राइंग रूम की राजनीति करते हैं और सुनते है, जवाब में जोशी कहते भी थे कि मेरी पार्टी की हवा है, मैं कुछ खास न भी करूं तो भी जीत जाऊंगा। हवा कहीं खिलाफ पार्टी की हो गई तो मैं जनता के लिए कितना भी कुछ कर दूं, हार जाऊंगा। शायद मुरलीधर के हार जाने का उदाहरण उनके सामने था। गोपाल जोशी की उस बात में दम था, यह अब हर चुनाव में साबित होता है। गोपाल जोशी ने 1972 के बाद कई चुनाव लड़े लेकिन जीत वे तीस वर्ष बाद ही पाए। वह भी लगातार दो बार जीते हैं। पहला विरोधी कल्ला के खिलाफ पड़े वोटों से तो दूसरी बार केन्द्र की सरकार के खिलाफ बनी हवा के चलते।
जैसा कि कहा जाता है कि गाड़ी तो चीलों (रेल लाइनों) पे ही चलती है। गोपाल जोशी ने गुरु गोकुल को कांग्रेस की स्थानीय राजनीति से बाहर किया तो जोशी को रिश्ते में साले और तब तक जीजा के सामने आते सहमने वाले बीडी कल्ला ने भाईजी जनार्दन की बदौलत जीजाजी को लम्बे समय तक राजनीतिक बनवास में भेज दिया था। शहर को मानों यहीं से ब्यूरोक्रैटिक जनप्रतिनिधि मिला। डॉ. कल्ला के व्यवहार से लगता है कि वे बनना तो उच्च अधिकारी चाहते थे। बन नहीं पाए तो जनप्रतिनिधि बन अपनी उन सभी हेकड़-इच्छाओं को पूरा करने में लग गए। कल्ला 1980 से राजनीति तो करते हैं लेकिन उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को कभी भी कार्यकर्ता रूप से नहीं परोटा तो बेचारी जनता की पहुंच उन तक कहां होती। कल्ला बन्धु शहर के नए सामन्तों के रूप में पहचाने जाने लगे। खुद डॉ. कल्ला तो स्थाई रूप से जयपुर ही रहने लगे। कभी आते भी तो उन तक किसी आम की पहुंच आसान रही ही नहीं, यहां तक कि उन्होंने कभी इस शहर की जरूरतों तक का पता करने की कोशिश नहीं की। अब भी वे रहते जयपुर ही हैं और कभी-कभार 'हम आ गए हैं' की तर्ज पर आते और लौट जाते हैं। जनता ने एक सीमा तक इन्हें बर्दाश्त किया और जब-जब अवसर मिला तब-तब आईना दिखा दिया। इस बार लगातार दूसरी बार और पिछले पैंतीस वर्षों में कुल तीन बार चुनाव हार चुके प्रवासी राजनीति करने वाले कल्ला 2018 के चुनाव में बीकानेर (पश्चिम) से फिर आस लगाए बैठे हैंवह भी जयपुर में रहते हुए।
इस बीच एक महबूब अली भी आए तो नन्दलाल व्यास भी जनप्रतिनिधि रहे। 1977 की जनता पार्टी की हवा में समाजवादी महबूब चुनाव जीते। कभी जनता से सीधे मेल-जोल न रखने वाले महबूब मंत्री भी बने। आम जनता में लोकप्रिय भले ही न हुए लेकिन ढाई वर्षों की अपनी नुमाइंदगी की छाप कई महत्त्वपूर्ण काम करवा कर छोड़ गए। शहर को पीने का पानी नहर से उन्हीं की बदौलत मिलने लगा। उन पर भ्रष्टाचार और पद भोगने जैसे किसी लांछन की छाया भी नहीं पड़ी।
इसी बीच 1993 में राजनीतिक पटल पर अचानक प्रकट हुए नन्दलाल व्यास ने तिकोने मुकाबले में डॉ. कल्ला के खिलाफ चुनाव जीत लिया। इसी के साथ परम्परागत रूप से कभी समाजवादी और फिर कांग्रेसी रहे इस क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी ने पांव टिका लिए। मुरलीधर व्यास जितने तो नहीं लेकिन फिर भी आमजन के लिए लगभग सुलभ और लोकप्रिय नन्दलाल व्यास ने पैठ जरूर बनाई लेकिन कुछ तो पुरानी छाप व पुराने तौर-तरीकों के चलते और कुछ राजनीतिक चतुराई के अभाव में नन्दलाल व्यास भी 2003 का चुनाव हार गए। यद्यपि अनुकूलता साधे न रखने के चलते फिर से जनप्रतिनिधि तो वे न बन पाए लेकिन नन्दलाल व्यास को प्रवासी जनप्रतिनिधि नहीं कह सकते।
क्रमश:

14 अप्रेल, 2016