Thursday, February 22, 2018

आन्दोलन की गाय कामधेनु बन क्या चुनावी वैतरणी भी पार करवा सकेगी?

2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व केन्द्र की तत्कालीन सरकार के खिलाफ जो माहौल बना, वर्तमान भाजपा सरकारों के खिलाफ वैसा ही माहौल बनने की अनुकूलताएं दिखने लगी है, विपक्ष चाहे तो केन्द्र और सूबे की वर्तमान सरकारों के खिलाफ वैसा सा माहौल बना कर लाभ उठा सकता है। लेकिन विपक्षियों में ना वैसी इच्छाशक्ति और ना ही वैसी तैयारी देखी जा रही है। धाडफ़ाड़ और दंदफंद वाला मोदी जैसा नेता ना भी हो, लेकिन एकाधिक फुलटाइम नेताओं की विपक्ष को सख्त जरूरत है।
शीर्षक बीकानेर के संदर्भ से लगाया है तो बीकानेर की बात कर लेते हैं। पिछले एक माह से अधिक समय से कलक्ट्रेट पर कांग्रेस का जो धरना चला, उसका बैनर भले ही कांग्रेस का था, वह था गोपाल गहलोत का ही आन्दोलन। शेष जो नेता धरने पर सक्रिय, अति सक्रिय देखे गये, वे सभी लोकलाज की तर्ज पर पार्टीलाज के चलते ही सक्रिय थे। और जो नेता इस आन्दोलन की उपेक्षा करने पर पूरी तरह उतरे हुए थे, वे अपनी इस उपेक्षा के माध्यम से गोपाल गहलोत को कुछ आगाह करने की मंशा से ही ऐसा कर रहे थे। उपेक्षाकर्ताओं की हेकड़ी की ऐसी बानगियों के पहले भी कई उदाहरण रहे हैं। लेकिन लगता है गोपाल गहलोत बीकानेर पूर्व विधानसभा सीट की कांग्रेस से अपनी दावेदारी में ना तो कोई कसर रखना चाहते हैं और ना ही चुनाव जीतने में।
जहां तक पार्टी टिकट दावेदारी की बात है वह कई रणनीतियों पर निर्भर करती है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें लगातार प्रयासों और बन चुकी हैसियत के चलते अपने को टिकट के पुख्ता दावेदार मान चुके  भी खाली हाथ लौट आते हैं। टिकट वितरण के निर्णयों में फाउल या थर्ड एम्पायर के निर्णय भी कम असरकारी नहीं देखे गये हैं। इसलिए उम्मीदवार वही होता है जो नाम वापसी के समय बाद तक कायम रह पाता है।
रही बात चुनाव जीतने की, तो यह निर्णय करना भी कम विकट नहीं है कि टिकट लाना ज्यादा मुश्किल है या चुनाव जीतना। गोपाल गहलोत उस क्षेत्र से नुमाइंदगी की मंशा पाले हैं, जिस क्षेत्र के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा संस्कारों के मामले में घराने-विशेष के प्रति कृतार्थ भाव से अपने को आजादी के 70 वर्षों बाद भी मुक्त नहीं कर पा रहा है।  ऐसा भाव बीकानेर पूर्व विधानसभा के पुराने बसावटी क्षेत्र की कमोबेश सभी जातियों में देखा जा सकता है। खासकर इसी बिना पर बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से घराने के डॉ. करणीसिंह लगातार पांच चुनाव बिना कुछ खास किए जीतते रहे। गोपाल गहलोत यदि कांग्रेस में उम्मीदवारी ले आते हैं तो उनकी लगभग तय प्रतिद्वन्द्वी सिद्धिकुमारी ही होंगी। अच्छे खासे वोटों के अंतर से दो बार चुनाव जीत चुकी सिद्धिकुमारी क्षेत्र और विधानसभा दोनों जगह हर तरह से लगभग निष्क्रिय होने के बावजूद जीत की पूरी संभावनाएं संजोए हैं।
इसीलिए गोपाल गहलोत ही नहीं, सिद्धिकुमारी के सामने किसी भी उम्मीदवार के लिए ये स्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं। चुनाव लडऩे की सभी क्षमताएं रखने वाले गोपाल गहलोत भी उक्त परिस्थितियों के सामने असर खो सकते हैं तो अन्य किसी उम्मीदवार के सामने उक्त प्रतिकूलताएं और भी ज्यादा भारी हो सकती हैं। गोपाल गहलोत का मुख्य नकारात्मक बिन्दु उनकी छवि भी है, जिसे प्रचारित करकेउनके विरोधी बड़ी बारीकी से लाभ उठाते रहे हैं। इसे गोपाल गहलोत की लापरवाही कहें या उनकी असफलता कि वह अपनी नकारात्मक छवि को बदल नहीं पाए हैं। इसके ठीक उलट नन्दलाल व्यास उर्फ नन्दू महाराज की बात करें तो राजनीति में जब वे आए थे, तब उनकी छवि भी नकारात्मक थी। लेकिन जनता में उन्होंने इसे स्वीकार्य बना लिया। इस स्वीकार्यता में उनके विरोधी रहे डॉ. बीडी कल्ला की अन्य आयामों में बनी नकारात्मक छवि भी बड़ा कारण रही। नंदू महाराज को कल्ला से जिस तरह की अनुकूलता मिली वैसी गोपाल गहलोत को सिद्धिकुमारी से नहीं मिलने वाली। नाकारा और जनता को सुलभ ना होने जैसी नकारात्मकता छोड़ दें तो सिद्धिकुमारी की छवि शालीन महिला की तो है ही।
खैर, जिस मुद्दे पर बात शुरू की वहीं लौट आते हैं। गाय को कामधेनु मान जिस चुनावी वैतरणी को पार करने की आकांक्षा में गोपाल गहलोत ने जो लम्बा धरना दिया वह किन्हीं कारणों से ही सही, सम्मानजनक स्थितियों में उठ गया। और यह भी कि दिहाडिय़ों को छोड़ दें तो जो राजनीतिक कार्यकर्ता कांग्रेस के नाम पर इस आन्दोलन से जुड़े वे ऊबने लगे थे। वह तो गो-शाला के लिए भूमि आवंटन का सरकारी आदेश यदि नहीं आता तो गोपाल गहलोत को धरना उठाने के लिए कोई अन्य तजवीज बिठानी पड़ती। अन्त में प्रश्न तो यही है कि क्या इस आन्दोलन का लाभ आगामी चुनावों में गोपाल गहलोत को मिलेगा। जनता जिन तरीकों से अपना मन बनाती या बदलती है, उससे तो ऐसा नहीं लगता।

जनता में पैठ बनाने के लिए गोपाल गहलोत को कोई अन्य आयोजन करना होगा जिसके चलते वे अपने क्षेत्र के मतदाता का मन बदल सकें। यदि ऐसा कुछ वे कर पाते हैं और उसका अहसास सिद्धिकुमारी को करवाने में सफल हो जाते हैं तो फिर हो सकता है वह आशंकित हार के लगते मैदान छोड़ देंगी, वे डॉ. करणीसिंह की पोती हैं, 1971 के लोकसभा का एक ही चुनाव जीतने में उन्हें जोर आया और लगा कि हार गये तो 'आब' उतर जायेगी। डॉ. करणीसिंह ने तभी तय कर लिया था कि अब कोई चुनाव नहीं लडऩा। फिर तो जीतने में सर्वाधिक अनुकूल 1977 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने जनता पार्टी से भी उम्मीदवार होने से इनकार कर दिया था।
दीपचन्द सांखला

22 फरवरी, 2018

Thursday, February 15, 2018

उपचुनावों के परिणाम : कांग्रेस और भाजपा


राजस्थान सरकार ने बजट की औपचारिकता पूरी कर ली। मीडिया कह रहा है कि तीन उपचुनावों में सत्ताधारी भाजपा की हार की छाया इस बजट पर है, मान लेते हैं। वैसे किसी भी सरकार का अंतिम बजट आगामी चुनावों के प्रकाश में ही होता आया है, हो सकता है कि हार की छाया ने प्रकाश की तीव्रता बढ़ा दी हो। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी बजटीय आभा से सीधे तौर पर लाभान्वित होने से वंचित ही रहा है। सरकारों का प्रयास भी यही रहा है कि इस आभा का घेरा छोटा होता जाएचाहे वे यह भ्रम भले ही दें कि इसका घेरा वे लगातार बढ़ाते रहे हैं। विशेष तौर पर 1991 के बाद अर्थव्यवस्था के जिस चक्रव्यूह में हम आ लिए हैं उसमें यह बजटीय आभा लगातार सिकुड़ती जा रही है। इन्हीं सरकारों के आंकड़े ही यह बता कर पुष्टि भी करते हैं कि देश का गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। सरकार की बात जब बहुवचन में कर रहे हैं तो इसके मानी कांग्रेस-भाजपा सहित गठबंधन की उन सभी सरकारों से है जिन्हें राज करने के अवसर मिले हैं। सरकारें जिस तरह आ लेती हैं और चली जाती हैं, फिर आ लेती हैं। ऐसा इसलिए कि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर न जनता ने शिक्षित होने की जरूरत समझी और न सरकारों नें जनता को लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करने की। चूंकि देश में अधिकांशत: शासन कांग्रेस का रहा तो इसके लिए बड़ी जिम्मेदार भी वही है।
लेकिन जब गांधी की विरासत सम्हालने वाली पार्टी ही इस जनता की भेड़ चाल प्रवृत्ति में स्वार्थ देखने लगी तो दूसरों को दोष देना औपचारिकता होगी।
इसलिए बजट के बारे में कहने को कुछ खास नहीं है। उपचुनावों के परिणामों के बहाने बात की जा सकती है। जो राज में हैं उनके लिए चुनाव परिणाम चिन्ता के कारक हैं ही। लेकिन राजस्थान में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस यदि इसे आश्वस्तकारी मानती हो तो भूल में है। सत्ता से ऊब के वोट विपक्षियों को उनके हबीड़े में मिलते हैं। इस तरह के वोट विपक्ष को बिना कुछ किए मिलते रहे हैं। बड़ी चिन्ता में सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे हैं, ऐसा भी नहीं लगता। गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की जैसी-तैसी भी जीत के बाद वसुंधरा मान चुकी हैं कि शाह-मोदी के रहते अगले विधानसभा चुनावों के बाद कमान उन्हें नहीं मिलेगीराजे की चिन्ता इतनी ही है कि सूबे में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले उनके साथ कुछ बुरा ना हो। वैसे भी जब से शाह-मोदी पावर में आए हैं तब से राजे असहज हैं, अनमनी होकर नाकारा हुई वसुंधरा राजे का खमियाजा प्रदेश की जनता भुगत रही है। अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रित्व काल को छोड़ दें, खुद वसुंधरा के पिछले कार्यकाल की इस कार्यकाल से तुलना करें तो 'डिलीवरी' में बड़ा अन्तर है।
वसुंधरा के अकर्मण्य होने का कारण शायद 2013 के विधानसभा चुनावों के परिणाम हों, उन्होंने देख लिया कि अशोक गहलोत की पिछली सरकार के समय जयपुर, जोधपुर, कोटा, अजमेर में विकास के बहुत काम हुए। इसी तरह दिल्ली में शीला दीक्षित के कार्यकाल में विकास के जितने काम हुए उतने आजादी बाद नहीं हुए, पर इन सभी जगह कांग्रेस बुरी तरह हारी। ठीक विपरीत उदाहरण में गुजरात को देख लें-पिछले पन्द्रह वर्षों में विकास में गुजरात सभी क्षेत्रों में 7वें से 13वें स्थान पर था। बावजूद इसके वहां भाजपा जीतती रही है। जिस देश की जनता भ्रमित होकर वोट करती है वहां के चुनाव परिणाम उसी के पक्ष में जाते हैं जो ज्यादा अच्छे से भ्रमित कर सकता हो। संभवत: यह सब समीकरण वसुंधरा राजे के अच्छे से समझ में बहुत पहले से आए हुए हैं। शाह-मोदी की तरह भ्रमित करने की कूवत वसुंधरा अपने में नहीं पाती और उनकी हेकड़ी उन्हें हरियाणा, असम और झारखण्ड के भाजपाई मुख्यमंत्रियों की तरह कठपुतली होने नहीं देती। ऐसे में अगला चुनाव भाजपा जीते या हारे वसुंधरा के कोई बड़ा फर्क  नहीं पडऩा।
भ्रमित करके वोट लेने का फार्मूला यदि पिट भी जाता है तो शाह-मोदी के पास हिन्दू-मुसलिम फार्मूला भी है जो उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अच्छे से कारगर  हो चुका है। हां, यह जरूरी नहीं सभी जगह वह अच्छे से लागू हो। हिन्दू-मुसलिम फार्मूले की उनकी पहली प्रयोगशाला खुद गुजरात में इन चुनावों में दम तोड़ती दिखी। वह तो गुजरात की जनता में कांग्रेस ने अपना भरोसा पूरी तरह जमाया नहीं अन्यथा भाजपा का बेड़ा उक्त दोनों फार्मूलों के बावजूद गर्क हो जाना था। चुनाव जीतने के एक और फार्मूले की बात लोग करने लगे हैं और वह है पाकिस्तान से युद्ध। इसकी आशंका इसलिए नहीं लगती कि युद्ध अब उतने आसान नहीं रहे जो पिछली सदी में थे। दूसरी बात यह जरूरी नहीं कि युद्ध का लाभ आपको मिले ही, वह उलटा भी पड़ सकता है।
कांग्रेस की बड़ी दिक्कत यह है कि संगठन के मामले में वह आज भी लगभग उसी पुराने ढर्रे पर है। सांगठनिक ढांचे पर कोई विशेष काम नहीं हो रहा। ऊपर से राहुल गांधी जैसे उसके नेता की छवि अभी तक पार्ट टाइम नेता की सी बनी हुई है। दूसरी ओर भाजपा के पास मोदी और शाह जैसे दो फुलटाइम नेता हैं, बल्कि मोदी तो प्रधानमंत्री मोड में कम और पार्टी के नेता रूप में नजर ज्यादा आते हैं। इधर अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद से भाजपा पूरी तरह कोरपोरेट मोड में है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन यथा विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल आदि-आदि इसके नेटवर्क के तौर पर अच्छी खासी भूमिका निभाते ही हैं। ताजा उदाहरण विश्व हिन्दू परिष्द की अयोध्या से शुरू होकर दक्षिण में रामेश्वरम तक जाने वाली राम राज्य यात्रा को ही लें-यह अकारण नहीं कि उसे उन क्षेत्रों से ही गुजरना है-जहां चुनाव होने को हैं। अब तो लोग कहने भी लगे इनके रामलला भी चेतन चुनाव पूर्व ही होते हैं। शाह की कार्य प्रणाली ऐसी है कि ब्लॉक लेवल तक के पार्टी संगठन को नियमित रिपोर्ट करनी होती है। प्रत्येक जिला मुख्यालय पर पार्टी कार्यालय खुद का भवन बनने की प्रक्रिया में है।
जबकि सवा सौ वर्ष पुराना पार्टी संगठन का ढांचा और 70 वर्ष के शासन के लेबल में कम से कम 56 वर्ष राज में रह कर भी कांग्रेस उक्त सभी मामलों में भाजपा के आसपास भी नहीं फटक रही। ऐसे में कांग्रेस यदि आगामी चुनावों को अपने बूते जीतने के प्रति आश्वस्त है तो वह बड़े भ्रम में है। शासन से ऊब कर जनता भले ही कांग्रेस को जिता दे। कांग्रेस के आलस्य की हद तो यह है कि इस ऊब की अनुकूलता को भुनाने की भी कूवत वह दिखा नहीं पा रही है। शासन की असफलताओं, तथ्यहीन तर्क और झूठ के जवाब भी ढंग से देने को कांग्रेस के पास नेता तो दूर की बात कोई प्रवक्ता तक नहीं है।
दीपचन्द सांखला
15 फरवरी, 2018


Thursday, February 1, 2018

मक्खन जोशी के बहाने स्थानीय राजनीति में संबंधों की पड़ताल


'बीकानेर की व्यावहारिक राजनीति : राजनेता मक्खन जोशी की आज पुण्यतिथि है। इस शहर को आज भी मक्खनजी जैसे सदाशयी, यारबाश, व्यवहारकुशल और बहुविध रुचिसम्पन्न जनप्रतिनिधि की उडीक है। सक्रियों में ऐसा कोई नजर नहीं आ रहा है।'
14 जनवरी को मक्खनजी की 17वीं पुण्यतिथि के अवसर पर किए अपने इस ट्वीट के अनुसरण में ही बात करते हैं। इस अवसर पर हुए कार्यक्रम का मकसद आयोजकों का कुछ भी रहा हो, उपस्थितों में से कई को मक्खनजी से प्राप्त स्नेह के प्रति क्षणिक कृतज्ञ होने का अवसर उन्होंने दे ही दिया।
मंचासीनों में केन्द्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल भी थे, लेकिन उनके पास मक्खनजी के लिए कहने को कुछ खास नहीं था, कभी सान्निध्य उनका रहा भी नहीं तो आयोजन के घोषित उद्देश्य 'युवा जागृति अभियान' के आगाज के बहाने वे प्रधानमंत्री की घोषणाओं की विरुदावली गाने के अलावा करते भी क्या।
विधायक गोपाल जोशी और ओम आचार्य मक्खनजी के लिए कुछ जो कह सकते थे, कहा भी। गोपाल जोशी मक्खनजी के बचपन में मित्र रहे, राजनीति करना साथ शुरू किया। अपने अनुभवों को सदाशयता से सुनाया भी। गोपालजी ने बताया कि 1962 में निर्दलीय लड़े बीकानेर शहर विधानसभा सीट के इस चुनाव को लडऩे के लिए मक्खनजी ने ना केवल हुड़े की हद तक प्रेरित किया बल्कि पूरे चुनाव अभियान को संभाला भी। उल्लेखनीय है कि उस चुनाव में डॉ. छगन मोहता जैसे मनीषी ने भी गोपाल जोशी के समर्थन में सभाएं कीं, व्यावहारिक राजनीति में डॉ. छगन मोहता की वैसी सक्रियता का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
विधायक मुरलीधर व्यास को 1967 के विधानसभा चुनावों में विधानसभा से बाहर रखने की रणनीति के तहत मुख्यमंत्री सुखाडिय़ा ने गोकुलप्रसाद पुरोहित को पर्याप्त समयपूर्व पैराशूट से मैदान में उतार दिया और सफल भी हुए। उस चुनाव में जोशीद्वय गोपालजी और मक्खनजी को गोकुलजी के साथ लगने के अलावा कुछ करने की गुंजाइश नहीं मिली। लेकिन 1970 में लम्बे समय बाद जब नगर परिषद चुनावों की घोषणा हुई तो इन मित्रद्वय को फिर अवसर मिल गया। बकौल गोपालजी मक्खनजी ने उन्हें पार्षद का चुनाव लडऩे को तैयार किया। बिना पार्टी सिम्बल लड़े गये उस चुनाव में कांग्रेस समर्थित दोनों मित्रों ने चुनाव जीता भी। उस चुनाव संबंधी दो उल्लेखों का जिक्र जरूरी है, जिनमें से एक का जिक्र खुद गोपाल जोशी ने अपने उद्बोधन में किया। गोपालजी के सामने जनसंघ समर्थित उम्मीदवार के तौर पर मक्खनजी के श्वसुर मैदान में डटे थे, मक्खनजी ने किसी तरह का लिहाज न बरतते हुए मित्र गोपाल जोशी के लिए प्रचार किया। दूसरा उल्लेख अशोक आचार्य का जरूरी है, नगर परिषद के इन चुनावों में वे चमकदार उम्मीदों के साथ उभरे थे लेकिन नहीं पता क्यों वे उल्कापात के हश्र को हासिल हो लिए।
गोपाल जोशी ने यह भी बताया कि चुनाव जीतने के बाद परिषद् में कांग्रेस समर्थक पार्षद अल्पमत में होने के बावजूद मक्खनजी ने ना केवल उन्हें सभापति का चुनाव लडऩे को तैयार किया बल्कि रणनीति बनाकर उन्हें जितवाया भी। 1969 में हुए राष्ट्रपति के चुनावों में हुई कांग्रेस की आपसी खींचातानी के बाद इन्दिरा गांधी ने प्रदेश कांग्रेस क्षत्रप मोहनलाल सुखाडिय़ा को निस्तेज कर दिया। इन बदलावों के बाद गोकुलप्रसाद पुरोहित का प्रभाव कम हुआ, परिणामस्वरूप 1972 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के टिकट बंटवारे की राजनीति में उनके अनुगामी गोपाल जोशी ने ही मात दे दी।
गोपाल जोशी कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर जीतकर विधायक बन गये। रिक्त हुए पद पर नगर परिषद सभापति का चुनाव होना था। मक्खन जोशी उम्मीदवार थे, मित्रता निभाने की जिम्मेदारी अब गोपाल जोशी की थी। इस बीच दोनों के बीच क्या कुछ हुआ, इसकी जानकारी नहीं है। हां, उस चुनाव में गोपाल जोशी ने कोलायत विधायक कान्ता खथूरिया के साथ मिल अपने मित्र मक्खन जोशी को हरवा दिया। यहीं से मक्खन जोशी को समझ आ गया कि राजनीति करनी है तो रास्ता बदलना होगा। शहर कांग्रेस की राजनीति में उनके लिए संभावनाएं नहीं बची। प्रगतिशील विचारों के मक्खन जोशी को जनसंघ में जाना नहीं था, ना तब तक जनसंघ की राजस्थान में कोई खास उपस्थिति थी। मुरलीधर व्यास के निधन के बाद शहर की समाजवादी राजनीति में संभावनाएं थी। मक्खनजी के मित्रों का रुझान भी वही था सो वे कांग्रेस विरोध की राजनीति में आ लिए। 1975 में लगे आपातकाल में 19 माह जेल में रहे। 1977 के लोकसभा चुनावों में शहर राजनीति में मक्खन जोशी सर्वाधिक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे। मान लिया गया था कि होने वाले विधानसभा चुनावों में नई बनी जनता पार्टी में शहर सीट से वह ही उम्मीदवार होंगे। लेकिन टिकट वितरण की अव्यवस्थित प्रक्रिया में विचारों से समाजवादी महबूब अली टिकट ले आए। बावजूद इसके सभी जानते हैं मक्खन जोशी ने खुद को उम्मीदवार मान कर चुनाव अभियान चलाया, महबूब अली को चुनाव जीतना ही था। इस चुनाव में चूके केवल मक्खन जोशी ही नहीं, जैसा कि पहले के अपने आलेखों में भी जिक्र किया है, बड़ी चूक गोपाल जोशी से भी हुई, हारने के भय से उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवारी से तब जो पांव पीछे किए, उसका बड़ा खमियाजा उन्होंने लम्बे समय तक भुगता। वे शहर कांग्रेस की राजनीति से हमेशा-हमेशा के लिए बाहर कर दिए गये।
मक्खन जोशी के राजनीतिक जीवन में प्रतिकूलताओं ने पीछा कभी नहीं छोड़ा, फिर वह चाहे 1973 का नगर परिषद के सभापति का चुनाव हो या फिर सर्वाधिक अनुकूलता लिए 1977 का विधानसभा चुनाव। जनता में जनता पार्टी से मोहभंग की शुरुआत चाहे 1980 के लोकसभा-विधानसभा चुनावों को भले ही मान लें, बावजूद इसके तब के कांग्रेस विरोधी तासीर वाले इस शहर में 1980 के विधानसभा चुनाव में भी मक्खन जोशी की जीत लगभग तय थी।
जनता पार्टी बिखराव पर थी, जनसंघ घटक छिटककर भारतीय जनता पार्टी के तौर पर अस्तित्व में आया। भैरोसिंह शेखावत जैसे दिग्गज के चलते प्रदेश में कांग्रेस विरोध की राजनीति में बची खुची जनता पार्टी से भाजपा अधिक प्रभावी हो गई, इसलिए जनता पार्टी भाजपा के बीच गठबंधन की गुंजाइंश भी खत्म हो ली। मात्र चुनावी समझौता हुआ। मक्खन जोशी को प्रतिकूलता फिर भोगनी थी, चुनावी समझोते में शहर की सीट भाजपा के पाले में गई। संघनिष्ठ परिवार के ओम आचार्य भाजपा से उम्मीदवार बने। गठबंधन ना होकर मात्र चुनावी समझौता था इसलिए मक्खन जोशी निष्क्रिय हो लिए।  इस निष्क्रियता से बड़ा नुकसान यह हुआ कि कांग्रेसी उम्मीदवार बीडी कल्ला के घाघ अग्रज जनार्दन कल्ला, जिनकी भी राजनीतिक शुरुआत 1970 के पार्षद के चुनावों में जीत से भले ही मानी जाती हो लेकिन वह चौड़े 1980 के बाद ही आई, उन्हीं जनार्दनजी ने मक्खनजी के कार्यकर्ताओं को ऐसा लपका कि उनमें से कुछ तो मक्खनजी की जरूरत पर लौट कर भी नहीं आए। दिल के इस मलाल को मक्खन जोशी बाद की अपनी चुनावी सभाओं में शीन काफ निजाम के शे'र के माध्यम से जाहिर किए बिना नहीं रहे
पेड़ों को छोड़कर जो उड़े उनका जि़क्र क्या
पाले हुए भी गैर की छत पर उतर गए!
मक्खन जोशी और कल्ला बन्धु रिश्ते में भाई हैं। कल्ला बन्धु गोपाल जोशी के रिश्ते में साले और मक्खन जोशी बताते थे कि गोपाल जोशी और हम भाई हैं। इस नाते आम शहरी रिश्तों के इस समीकरण से वाकिफ था। लेकिन मक्खन जोशी की स्मृति में आयोजित उक्त कार्यक्रम में गोपाल जोशी ने मक्खन जोशी के साथ जो एक रिश्ता बताया उसके अनुसार मक्खनजी गोपालजी के साले भी थे। रिश्तों की इस गपड़चौथ पर माथापच्ची की तो तसल्ली हुई कि रिश्तों की जिस शृंखला में कल्ला बंधु गोपाल जोशी के साले और मक्खन जोशी जिस रिश्ते से कल्ला बन्धुओं के भाई लगते हैं, गोपाल जोशी ने संभवत: उसी रिश्ते से मक्खनजी को अपना साला बताया होगा।
खैर! रिश्तों के इस गुच्छ से बाहर आकर मक्खन जोशी के राजनीतिक जीवन पर हावी प्रतिकूलताओं पर ही बात करते हैं। 1985 के विधानसभा चुनावों तक जनता पार्टी के अमीबाई वंशज जनता दल ने राजस्थान में अपने अस्तित्व को जैसे-तैसे संभाला और मक्खन जोशी को अन्तत: शहर से उम्मीदवारी मिल ही गई। भाजपा में भैरोसिंह शेखावत की दबंगई के चलते जनता पार्टी के विघटन के समय भाजपा में अपने साथ आए समाजवादी महबूब अली को भाजपा की उम्मीदवारी मिल गई। आकण्ठ साम्प्रदायिकता में डूबी भाजपा में महबूबजी का जो हश्र होना था वही हुआ। वहीं प्रदेश में लगभग खत्म हो चुकी उम्मीदों के चलते जनता दल पर मतदाताओं का जी नहीं जम रहा था। सो, अच्छी टक्कर देने के बावजूद मक्खन जोशी हार गये।
इस सबके बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में जनता दल का ठीकठाक अस्तित्व था। इसी बीच 1990 के विधानसभा चुनाव आ लिए। लगातार दो चुनावों में नुमाइंदगी से बीडी कल्ला के अफसराना अन्दाज और उनके एकमात्र स्थानीय सम्पर्क बन चुके अग्रज जनार्दन कल्ला की बनी नकारात्मक छवि से लगने लगा था कि इस बार मक्खनजी लड़ें तो बाजी मार ले जाएंगे। लेकिन मक्खनजी की राजनीति में प्रतिकूलता किसी ना किसी बहाने आ धमकती। जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति में देवीलाल के दबदबे के चलते उनके रिश्तेदार मनीराम को लूनकरणसर से उम्मीदवारी मिली और तब वहां से विधायक और प्रदेश जनता दल में दिग्गज की हैसियत पा चुके मानिकचन्द सुराना को कहीं से लड़ाना जरूरी हो गया तो उन्हें बीकानेर शहर सीट पर भेज दिया। इस तरह मक्खनजी की जीत की गुंजाइश के इस वर्ष में भी उन्हें उम्मीदवारी से वंचित कर दिया गया। सुरानाजी की हार के अन्तर से लोगों ने यह माना कि मक्खनजी होते तो उनका जीतना निश्चित था।
बीडी कल्ला 1990 का चुनाव जीते भले ही लेकिन इस चुनाव तक उनकी अजेय छवि भंग हो चुकी थी। जीतने के अन्य कई तरीके विकसित हो लिए, उनमें से कोई ना कोई कारगर हो ही जाता है। इस बीच 1993 में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव आ गए। भैरोंसिंह ने मक्खन जोशी को भाजपा में फिर आमंत्रित कियाइस बार उम्मीदवारी के भरोसे के साथ। मक्खन जोशी का प्रगतिशील मन ठिठक गया, लेकिन जिस जनता दल में वे थे, वह प्रदेश में तब तक पूरी तरह लुंजपुंज हो लिया। बीकानेर में जनता दल का दीखता अस्तित्व केवल मक्खन जोशी के व्यक्तित्व के भरोसे था। 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भाजपा का हिन्दुत्वी ऐजेन्डा उफान पर था, इस बीच बिल्ली के भाग का छींका टूटने की तर्ज पर भाजपा से नन्दलाल व्यास को उम्मीदवारी मिल गई। शहर के गैर पुष्करणा और पिछड़ी जातियों में सर्वाधिक प्रभावी संन्यासी रामसुखदासजी महाराज राजनीति में  अपने उपयोग के लिए तैयार हो गये, जो अनुचित तो था ही उनके तेज और साख को बट्टा लगाने वाला भी था। स्वामी रामसुखदासजी जैसे संत ने अपरोक्ष भाषा की आड़ में लेकर भाजपा को समर्थन कर दिया। मक्खन जोशी के अब तक के सबसे आक्रामक और प्रभावी चुनाव प्रचार के एकमात्र लक्ष्य बीडी कल्ला थे। नन्दलाल व्यास को रेस में कोई मान ही नहीं रहा था। अपना जादू लगभग खो चुके बीडी कल्ला के लिए इस चुनाव की बड़ी प्रतिकूलता यह भी रही कि जनार्दन कल्ला का शातिर चुनाव प्रबंधन इन सबमें असफल होता गया। मक्खन जोशी द्वारा कल्ला बन्धुओं के खिलाफ बनाए गए माहौल और स्वामी रामसुखदासजी की राजनीतिक पहल ने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का काम किया और आश्चर्यचकित करते हुए नन्दलाल व्यास जीत गये!
मक्खन जोशी की प्रगतिशीलता ने अन्तत: घुटने टेक दिये और कम सम्मान के साथ ही सही 1998 के चुनावों से पहले अन्तत: वे भाजपा में शामिल हो लिए। इससे हुआ यह कि राजनीति में वे जिन मित्रों से सर्वाधिक बौद्धिक खुराक पाते थे, उनसे उनका रास्ता अलग हो गया। अब उनके साथ मात्र वे ही थे जो केवल उनका अनुसरण करते थे, चर्चा और बहस नहीं। मक्खन जोशी की बौद्धिक खुराक बन्द हो गई। उन्हें बारीकी से समझने वाले उनमें आए अनमनेपन को भांपने लगे थे, पर बौद्धिकों के पास ऐसी स्थितियों का कोई अन्य चारा नहीं होता।
प्रतिकूलताएं मक्खनजी का पीछा नहीं छोड़ रही थी। प्रदेश भाजपा में भैरोसिंह शेखावत की पकड़ वैसी नहीं रही, संघ प्रभावी होता जा रहा था। इस बीच 1998 के विधानसभा चुनाव आ लिए। उम्मीदवारी हासिल करने की मक्खनजी की हैसियत वह नहीं रही जैसी 1993 में हो सकती थी। तब के मौजूदा विधायक नन्दलाल व्यास ने अक्खड़पन से संघ प्रभावी पार्टी में अपनी साख खत्म कर ली, ऐसी परिस्थितियों में भी मक्खनजी की दावेदारी चुनौतीहीन नहीं थी, हुआ भी यही, संघ कोटे से बीकानेर शहर की टिकट सत्यप्रकाश आचार्य ले आए। इस तरह 1998 के इस चुनाव में सत्यप्रकाशजी का समर्थन मक्खनजी की नियति हो गई। भले ही मक्खनजी सत्यप्रकाशजी के साथ मन से लगे रहे, जिसे उक्त उल्लेखित कार्यक्रम में उन्होंने स्वीकारा भी। लेकिन नन्दलाल व्यास ने अपने अक्खड़पन से जनता में जो पैठ बनाई उसके बूते उन्होंने इस चुनाव में निर्दलीय ही ताल ठोक दी, जिसके चलते इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी सत्यप्रकाश आचार्य हाशिए पर चले गए। वे भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी होते हुए भी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। इस चुनाव के बाद मन से हार चुके मक्खन जोशी 2003 का चुनाव आने तक नहीं जीये।
इस आलेख को जहां से शुरू किया वहीं लौट आते हैं। मक्खन जोशी की साख यही थी कि उन्होंने कभी भितरघात नहीं किया, जिसके साथ भी हुए पूरे मन से रहे। फिर वह चाहे अपनी पार्टी से दूसरे को मिली उम्मीदवारी के समय की बात हो या अपने निकटजनों की। अपने इस स्वभाव के चलते वे अपने परिजनों को भी डपटकर दौड़ाने में देर नहीं लगाते थे। मक्खन जोशी पर जो चुनावी भितरघात का आरोप लगाते हैं वे या तो चुनावी निष्क्रियता और भितरघात में अन्तर नहीं कर रहे होते या फिर मक्खन जोशी को अच्छे से जानते नहीं।
मक्खनजी के राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों में से सबसे ज्यादा शिकायत जिन्हें हो सकती है तो वे हैं ओम आचार्य। 1980 के चुनाव में बीडी कल्ला से वे मात्र 1855 वोटों से हारे। मक्खन जोशी यदि उस चुनाव में ओम आचार्य के लिए सक्रिय होते तो परिणाम दूसरा होता। इस चुनाव में मक्खनजी की निष्क्रियता के तीन कारण गिनाए जा सकते हंै। पहला, वैचारिक : प्रगतिशील विचारों के मक्खन जोशी दक्षिणपंथी भाजपा के साथ कैसे हो सकते हैं। दूसरा, असुरक्षा : ओम आचार्य यदि जीत जाते तो इस सीट पर कांगे्रस-विपक्षी पार्टियों में भविष्य के लिए भाजपा का दावा मजबूत हो जाता। तीसरा, पारिवारिक : मक्खन जोशी और कल्ला बन्धुओं में नजदीकी पारिवारिक रिश्ता रहा, इसलिए मक्खन जोशी रिश्ते में भाई कल्ला बन्धुओं के लिहाज में आ गये। चूंकि अब मक्खनजी हैं नहीं, होते तो भी इनमें से किसी एक पर अपनी सार्वजनिक सहमति देते,नहीं लगता।
तीनों कारणों का विश्लेषण करें तो बाद के चुनाव इन तीनों आशंकाओं-संभावनाओं को ध्वस्त कर देते हैं। पहला : 1993 की हार के बाद स्वयं मक्खनजी दक्षिणपंथी भाजपा में चले गये। दूसरा : 1980 के तुरंत बाद 1985 के चुनाव से ही विपक्षी एकता ध्वस्त हो गई। तीसरा : 1985 में मक्खनजी जैसे ही बीडी कल्ला के मुकाबले में आए भाईपा खिरना शुरू हो गया और 1993 के चुनावों तक तो सभी कुछ ध्वस्त कर कटुता ने भाईपे की जगह ले ली।
14 जनवरी को हुए मक्खन जोशी स्मृति आयोजन के सन्दर्भ से ही बात को समाप्त करते हैं। गोपाल जोशी के सम्बोधन का केन्द्रीय भाव यही था कि राजनीति में उनकी रुचि मक्खन जोशी ने जगाई, प्रेरित कर-कर के चुनाव लड़वाए। सुबह से देर रात लम्बे समय तक साथ रहने का चला सिलसिला गिनवाया। लेकिन गोपाल जोशी की यह सदाशयता अनौपचारिक बातचीत में नदारद हो जाती है। वे 1973 के नगर परिषद् सभापति के चुनाव में कान्ता खथूरिया के साथ मिलकर धूड़ाराम पारीक से मक्खन जोशी को हरवाने की बात उपलब्धि के तौर पर गिनवाते हैं।
मान लेते हैं कि ऐसा हुआ होगा, कहीं कुछ तात्कालिक कारणों के चलते दो मित्रों में कोई प्रतिस्पर्धी कटुता आ गई होगी। लेकिन गोपाल जोशी अब जिस उम्र में हैं और जिस हैसियत को वे हासिल कर चुके हैं उसमें उनका इस तरह से जिक्र करना ना केवल उन्हें ओछा दर्शाता है बल्कि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यह मक्खन जोशी को लेकर उनकी हीनभावना को भी जाहिर करता है। काफी अरसे से गोपालजी 1973 के सभापति चुनाव की अपनी कारस्तानी एकाधिक बार प्रकट कर चुके हैं बल्कि मक्खनजी के परिजनों के सामने भी वे नहीं चूकते। कुल मिलाकर उनके मुखारविन्द से ऐसा सुनना किसी भी संवेदनशील को अच्छा नहीं लगेगा। पुराने-प्रामाणिक लोगों की बात का हवाला दें तों वे बताते हैं कि गोपाल जोशी को शुरुआती युवावस्था में अपने व्यापार में भारी संकट का सामना करना पड़ा। ऐसे में इसी मित्र मक्खन जोशी के प्रतिष्ठित पिता झमण सा जोशी की साख शहर में उनके काम आयी। यदि ये सच है तो पूरा नहीं तो कुछ तो होगा ही जो उल्लेख भी गोपाल जोशी को कभी-कभार करना चाहिए।
दीपचन्द सांखला
1 फरवरी, 2018