'बीकानेर की व्यावहारिक राजनीति : राजनेता मक्खन जोशी की आज पुण्यतिथि है। इस
शहर को आज भी मक्खनजी जैसे सदाशयी, यारबाश, व्यवहारकुशल और बहुविध रुचिसम्पन्न जनप्रतिनिधि
की उडीक है। सक्रियों में ऐसा कोई नजर नहीं आ रहा है।'
14 जनवरी को मक्खनजी की 17वीं पुण्यतिथि के
अवसर पर किए अपने इस ट्वीट के अनुसरण में ही बात करते हैं। इस अवसर पर हुए
कार्यक्रम का मकसद आयोजकों का कुछ भी रहा हो, उपस्थितों में से कई को मक्खनजी से प्राप्त स्नेह के प्रति
क्षणिक कृतज्ञ होने का अवसर उन्होंने दे ही दिया।
मंचासीनों में केन्द्रीय राज्यमंत्री अर्जुनराम मेघवाल भी थे, लेकिन उनके पास मक्खनजी के लिए कहने को कुछ खास
नहीं था, कभी सान्निध्य उनका रहा
भी नहीं तो आयोजन के घोषित उद्देश्य 'युवा जागृति अभियान' के आगाज के बहाने
वे प्रधानमंत्री की घोषणाओं की विरुदावली गाने के अलावा करते भी क्या।
विधायक गोपाल जोशी और ओम आचार्य मक्खनजी के लिए कुछ जो कह सकते थे, कहा भी। गोपाल जोशी मक्खनजी के बचपन में मित्र
रहे, राजनीति करना साथ शुरू
किया। अपने अनुभवों को सदाशयता से सुनाया भी। गोपालजी ने बताया कि 1962 में निर्दलीय लड़े बीकानेर शहर विधानसभा सीट
के इस चुनाव को लडऩे के लिए मक्खनजी ने ना केवल हुड़े की हद तक प्रेरित किया बल्कि
पूरे चुनाव अभियान को संभाला भी। उल्लेखनीय है कि उस चुनाव में डॉ. छगन मोहता जैसे
मनीषी ने भी गोपाल जोशी के समर्थन में सभाएं कीं, व्यावहारिक राजनीति में डॉ. छगन मोहता की वैसी सक्रियता का
दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
विधायक मुरलीधर व्यास को 1967 के विधानसभा
चुनावों में विधानसभा से बाहर रखने की रणनीति के तहत मुख्यमंत्री सुखाडिय़ा ने
गोकुलप्रसाद पुरोहित को पर्याप्त समयपूर्व पैराशूट से मैदान में उतार दिया और सफल
भी हुए। उस चुनाव में जोशीद्वय गोपालजी और मक्खनजी को गोकुलजी के साथ लगने के
अलावा कुछ करने की गुंजाइश नहीं मिली। लेकिन 1970 में लम्बे समय बाद जब नगर परिषद चुनावों की घोषणा हुई तो
इन मित्रद्वय को फिर अवसर मिल गया। बकौल गोपालजी मक्खनजी ने उन्हें पार्षद का
चुनाव लडऩे को तैयार किया। बिना पार्टी सिम्बल लड़े गये उस चुनाव में कांग्रेस
समर्थित दोनों मित्रों ने चुनाव जीता भी। उस चुनाव संबंधी दो उल्लेखों का जिक्र
जरूरी है, जिनमें से एक का जिक्र
खुद गोपाल जोशी ने अपने उद्बोधन में किया। गोपालजी के सामने जनसंघ समर्थित
उम्मीदवार के तौर पर मक्खनजी के श्वसुर मैदान में डटे थे, मक्खनजी ने किसी तरह का लिहाज न बरतते हुए मित्र गोपाल जोशी
के लिए प्रचार किया। दूसरा उल्लेख अशोक आचार्य का जरूरी है, नगर परिषद के इन चुनावों में वे चमकदार उम्मीदों के साथ
उभरे थे लेकिन नहीं पता क्यों वे उल्कापात के हश्र को हासिल हो लिए।
गोपाल जोशी ने यह भी बताया कि चुनाव जीतने के बाद परिषद् में कांग्रेस समर्थक
पार्षद अल्पमत में होने के बावजूद मक्खनजी ने ना केवल उन्हें सभापति का चुनाव लडऩे
को तैयार किया बल्कि रणनीति बनाकर उन्हें जितवाया भी। 1969 में हुए राष्ट्रपति के चुनावों में हुई कांग्रेस की आपसी
खींचातानी के बाद इन्दिरा गांधी ने प्रदेश कांग्रेस क्षत्रप मोहनलाल सुखाडिय़ा को
निस्तेज कर दिया। इन बदलावों के बाद गोकुलप्रसाद पुरोहित का प्रभाव कम हुआ,
परिणामस्वरूप 1972 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के टिकट बंटवारे की
राजनीति में उनके अनुगामी गोपाल जोशी ने ही मात दे दी।
गोपाल जोशी कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर जीतकर विधायक बन गये। रिक्त हुए
पद पर नगर परिषद सभापति का चुनाव होना था। मक्खन जोशी उम्मीदवार थे, मित्रता निभाने की जिम्मेदारी अब गोपाल जोशी की
थी। इस बीच दोनों के बीच क्या कुछ हुआ, इसकी जानकारी नहीं है। हां, उस चुनाव में
गोपाल जोशी ने कोलायत विधायक कान्ता खथूरिया के साथ मिल अपने मित्र मक्खन जोशी को
हरवा दिया। यहीं से मक्खन जोशी को समझ आ गया कि राजनीति करनी है तो रास्ता बदलना
होगा। शहर कांग्रेस की राजनीति में उनके लिए संभावनाएं नहीं बची। प्रगतिशील
विचारों के मक्खन जोशी को जनसंघ में जाना नहीं था, ना तब तक जनसंघ की राजस्थान में कोई खास उपस्थिति थी।
मुरलीधर व्यास के निधन के बाद शहर की समाजवादी राजनीति में संभावनाएं थी। मक्खनजी
के मित्रों का रुझान भी वही था सो वे कांग्रेस विरोध की राजनीति में आ लिए। 1975 में लगे आपातकाल में 19 माह जेल में रहे। 1977 के लोकसभा चुनावों में शहर राजनीति में मक्खन जोशी
सर्वाधिक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे। मान लिया गया था कि होने वाले विधानसभा
चुनावों में नई बनी जनता पार्टी में शहर सीट से वह ही उम्मीदवार होंगे। लेकिन टिकट
वितरण की अव्यवस्थित प्रक्रिया में विचारों से समाजवादी महबूब अली टिकट ले आए।
बावजूद इसके सभी जानते हैं मक्खन जोशी ने खुद को उम्मीदवार मान कर चुनाव अभियान
चलाया, महबूब अली को चुनाव जीतना
ही था। इस चुनाव में चूके केवल मक्खन जोशी ही नहीं, जैसा कि पहले के अपने आलेखों में भी जिक्र किया है, बड़ी चूक गोपाल जोशी से भी हुई, हारने के भय से उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवारी
से तब जो पांव पीछे किए, उसका बड़ा
खमियाजा उन्होंने लम्बे समय तक भुगता। वे शहर कांग्रेस की राजनीति से हमेशा-हमेशा
के लिए बाहर कर दिए गये।
मक्खन जोशी के राजनीतिक जीवन में प्रतिकूलताओं ने पीछा कभी नहीं छोड़ा,
फिर वह चाहे 1973 का नगर परिषद के सभापति का चुनाव हो या फिर सर्वाधिक
अनुकूलता लिए 1977 का विधानसभा
चुनाव। जनता में जनता पार्टी से मोहभंग की शुरुआत चाहे 1980 के लोकसभा-विधानसभा चुनावों को भले ही मान लें, बावजूद इसके तब के कांग्रेस विरोधी तासीर वाले
इस शहर में 1980 के विधानसभा
चुनाव में भी मक्खन जोशी की जीत लगभग तय थी।
जनता पार्टी बिखराव पर थी, जनसंघ घटक छिटककर
भारतीय जनता पार्टी के तौर पर अस्तित्व में आया। भैरोसिंह शेखावत जैसे दिग्गज के
चलते प्रदेश में कांग्रेस विरोध की राजनीति में बची खुची जनता पार्टी से भाजपा
अधिक प्रभावी हो गई, इसलिए जनता
पार्टी भाजपा के बीच गठबंधन की गुंजाइंश भी खत्म हो ली। मात्र चुनावी समझौता हुआ।
मक्खन जोशी को प्रतिकूलता फिर भोगनी थी, चुनावी समझोते में शहर की सीट भाजपा के पाले में गई। संघनिष्ठ परिवार के ओम
आचार्य भाजपा से उम्मीदवार बने। गठबंधन ना होकर मात्र चुनावी समझौता था इसलिए
मक्खन जोशी निष्क्रिय हो लिए। इस निष्क्रियता
से बड़ा नुकसान यह हुआ कि कांग्रेसी उम्मीदवार बीडी कल्ला के घाघ अग्रज जनार्दन
कल्ला, जिनकी भी राजनीतिक शुरुआत
1970 के पार्षद के चुनावों
में जीत से भले ही मानी जाती हो लेकिन वह चौड़े 1980 के बाद ही आई, उन्हीं जनार्दनजी ने मक्खनजी के कार्यकर्ताओं को ऐसा लपका कि उनमें से कुछ तो
मक्खनजी की जरूरत पर लौट कर भी नहीं आए। दिल के इस मलाल को मक्खन जोशी बाद की अपनी
चुनावी सभाओं में शीन काफ निजाम के शे'र के माध्यम से जाहिर किए बिना नहीं रहे—
पेड़ों को छोड़कर जो उड़े उनका जि़क्र क्या
पाले हुए भी गैर की छत पर उतर गए!
मक्खन जोशी और कल्ला बन्धु रिश्ते में भाई हैं। कल्ला बन्धु गोपाल जोशी के
रिश्ते में साले और मक्खन जोशी बताते थे कि गोपाल जोशी और हम भाई हैं। इस नाते आम
शहरी रिश्तों के इस समीकरण से वाकिफ था। लेकिन मक्खन जोशी की स्मृति में आयोजित
उक्त कार्यक्रम में गोपाल जोशी ने मक्खन जोशी के साथ जो एक रिश्ता बताया उसके
अनुसार मक्खनजी गोपालजी के साले भी थे। रिश्तों की इस गपड़चौथ पर माथापच्ची की तो
तसल्ली हुई कि रिश्तों की जिस शृंखला में कल्ला बंधु गोपाल जोशी के साले और मक्खन
जोशी जिस रिश्ते से कल्ला बन्धुओं के भाई लगते हैं, गोपाल जोशी ने संभवत: उसी रिश्ते से मक्खनजी को अपना साला
बताया होगा।
खैर! रिश्तों के इस गुच्छ से बाहर आकर मक्खन जोशी के राजनीतिक जीवन पर हावी
प्रतिकूलताओं पर ही बात करते हैं। 1985 के विधानसभा चुनावों तक जनता पार्टी के अमीबाई वंशज जनता दल ने राजस्थान में
अपने अस्तित्व को जैसे-तैसे संभाला और मक्खन जोशी को अन्तत: शहर से उम्मीदवारी मिल
ही गई। भाजपा में भैरोसिंह शेखावत की दबंगई के चलते जनता पार्टी के विघटन के समय
भाजपा में अपने साथ आए समाजवादी महबूब अली को भाजपा की उम्मीदवारी मिल गई। आकण्ठ
साम्प्रदायिकता में डूबी भाजपा में महबूबजी का जो हश्र होना था वही हुआ। वहीं
प्रदेश में लगभग खत्म हो चुकी उम्मीदों के चलते जनता दल पर मतदाताओं का जी नहीं जम
रहा था। सो, अच्छी टक्कर देने
के बावजूद मक्खन जोशी हार गये।
इस सबके बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में जनता दल का ठीकठाक अस्तित्व था। इसी बीच
1990 के विधानसभा चुनाव आ
लिए। लगातार दो चुनावों में नुमाइंदगी से बीडी कल्ला के अफसराना अन्दाज और उनके
एकमात्र स्थानीय सम्पर्क बन चुके अग्रज जनार्दन कल्ला की बनी नकारात्मक छवि से
लगने लगा था कि इस बार मक्खनजी लड़ें तो बाजी मार ले जाएंगे। लेकिन मक्खनजी की
राजनीति में प्रतिकूलता किसी ना किसी बहाने आ धमकती। जनता दल की राष्ट्रीय राजनीति
में देवीलाल के दबदबे के चलते उनके रिश्तेदार मनीराम को लूनकरणसर से उम्मीदवारी
मिली और तब वहां से विधायक और प्रदेश जनता दल में दिग्गज की हैसियत पा चुके
मानिकचन्द सुराना को कहीं से लड़ाना जरूरी हो गया तो उन्हें बीकानेर शहर सीट पर
भेज दिया। इस तरह मक्खनजी की जीत की गुंजाइश के इस वर्ष में भी उन्हें उम्मीदवारी
से वंचित कर दिया गया। सुरानाजी की हार के अन्तर से लोगों ने यह माना कि मक्खनजी
होते तो उनका जीतना निश्चित था।
बीडी कल्ला 1990 का चुनाव जीते
भले ही लेकिन इस चुनाव तक उनकी अजेय छवि भंग हो चुकी थी। जीतने के अन्य कई तरीके
विकसित हो लिए, उनमें से कोई ना
कोई कारगर हो ही जाता है। इस बीच 1993 में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव आ गए। भैरोंसिंह ने मक्खन जोशी को भाजपा में
फिर आमंत्रित किया—इस बार
उम्मीदवारी के भरोसे के साथ। मक्खन जोशी का प्रगतिशील मन ठिठक गया, लेकिन जिस जनता दल में वे थे, वह प्रदेश में तब तक पूरी तरह लुंजपुंज हो
लिया। बीकानेर में जनता दल का दीखता अस्तित्व केवल मक्खन जोशी के व्यक्तित्व के
भरोसे था। 1992 के बाबरी मस्जिद
ध्वंस के बाद भाजपा का हिन्दुत्वी ऐजेन्डा उफान पर था, इस बीच बिल्ली के भाग का छींका टूटने की तर्ज पर भाजपा से
नन्दलाल व्यास को उम्मीदवारी मिल गई। शहर के गैर पुष्करणा और पिछड़ी जातियों में
सर्वाधिक प्रभावी संन्यासी रामसुखदासजी महाराज राजनीति में अपने उपयोग के लिए तैयार हो गये, जो अनुचित तो था ही उनके तेज और साख को बट्टा
लगाने वाला भी था। स्वामी रामसुखदासजी जैसे संत ने अपरोक्ष भाषा की आड़ में लेकर
भाजपा को समर्थन कर दिया। मक्खन जोशी के अब तक के सबसे आक्रामक और प्रभावी चुनाव
प्रचार के एकमात्र लक्ष्य बीडी कल्ला थे। नन्दलाल व्यास को रेस में कोई मान ही
नहीं रहा था। अपना जादू लगभग खो चुके बीडी कल्ला के लिए इस चुनाव की बड़ी
प्रतिकूलता यह भी रही कि जनार्दन कल्ला का शातिर चुनाव प्रबंधन इन सबमें असफल होता
गया। मक्खन जोशी द्वारा कल्ला बन्धुओं के खिलाफ बनाए गए माहौल और स्वामी
रामसुखदासजी की राजनीतिक पहल ने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण का काम किया और
आश्चर्यचकित करते हुए नन्दलाल व्यास जीत गये!
मक्खन जोशी की प्रगतिशीलता ने अन्तत: घुटने टेक दिये और कम सम्मान के साथ ही
सही 1998 के चुनावों से पहले
अन्तत: वे भाजपा में शामिल हो लिए। इससे हुआ यह कि राजनीति में वे जिन मित्रों से
सर्वाधिक बौद्धिक खुराक पाते थे, उनसे उनका रास्ता
अलग हो गया। अब उनके साथ मात्र वे ही थे जो केवल उनका अनुसरण करते थे, चर्चा और बहस नहीं। मक्खन जोशी की बौद्धिक
खुराक बन्द हो गई। उन्हें बारीकी से समझने वाले उनमें आए अनमनेपन को भांपने लगे थे,
पर बौद्धिकों के पास ऐसी स्थितियों का कोई अन्य
चारा नहीं होता।
प्रतिकूलताएं मक्खनजी का पीछा नहीं छोड़ रही थी। प्रदेश भाजपा में भैरोसिंह
शेखावत की पकड़ वैसी नहीं रही, संघ प्रभावी होता
जा रहा था। इस बीच 1998 के विधानसभा
चुनाव आ लिए। उम्मीदवारी हासिल करने की मक्खनजी की हैसियत वह नहीं रही जैसी 1993 में हो सकती थी। तब के मौजूदा विधायक नन्दलाल
व्यास ने अक्खड़पन से संघ प्रभावी पार्टी में अपनी साख खत्म कर ली, ऐसी परिस्थितियों में भी मक्खनजी की दावेदारी
चुनौतीहीन नहीं थी, हुआ भी यही,
संघ कोटे से बीकानेर शहर की टिकट सत्यप्रकाश
आचार्य ले आए। इस तरह 1998 के इस चुनाव में
सत्यप्रकाशजी का समर्थन मक्खनजी की नियति हो गई। भले ही मक्खनजी सत्यप्रकाशजी के
साथ मन से लगे रहे, जिसे उक्त
उल्लेखित कार्यक्रम में उन्होंने स्वीकारा भी। लेकिन नन्दलाल व्यास ने अपने अक्खड़पन
से जनता में जो पैठ बनाई उसके बूते उन्होंने इस चुनाव में निर्दलीय ही ताल ठोक दी,
जिसके चलते इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी
सत्यप्रकाश आचार्य हाशिए पर चले गए। वे भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी होते हुए भी
अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। इस चुनाव के बाद मन से हार चुके मक्खन जोशी 2003 का चुनाव आने तक नहीं जीये।
इस आलेख को जहां से शुरू किया वहीं लौट आते हैं। मक्खन जोशी की साख यही थी कि
उन्होंने कभी भितरघात नहीं किया, जिसके साथ भी हुए
पूरे मन से रहे। फिर वह चाहे अपनी पार्टी से दूसरे को मिली उम्मीदवारी के समय की
बात हो या अपने निकटजनों की। अपने इस स्वभाव के चलते वे अपने परिजनों को भी डपटकर
दौड़ाने में देर नहीं लगाते थे। मक्खन जोशी पर जो चुनावी भितरघात का आरोप लगाते
हैं वे या तो चुनावी निष्क्रियता और भितरघात में अन्तर नहीं कर रहे होते या फिर
मक्खन जोशी को अच्छे से जानते नहीं।
मक्खनजी के राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों में से सबसे ज्यादा शिकायत जिन्हें हो
सकती है तो वे हैं ओम आचार्य। 1980 के चुनाव में
बीडी कल्ला से वे मात्र 1855 वोटों से हारे।
मक्खन जोशी यदि उस चुनाव में ओम आचार्य के लिए सक्रिय होते तो परिणाम दूसरा होता।
इस चुनाव में मक्खनजी की निष्क्रियता के तीन कारण गिनाए जा सकते हंै। पहला,
वैचारिक : प्रगतिशील विचारों के मक्खन जोशी
दक्षिणपंथी भाजपा के साथ कैसे हो सकते हैं। दूसरा, असुरक्षा : ओम आचार्य यदि जीत जाते तो इस सीट पर
कांगे्रस-विपक्षी पार्टियों में भविष्य के लिए भाजपा का दावा मजबूत हो जाता। तीसरा,
पारिवारिक : मक्खन जोशी और कल्ला बन्धुओं में
नजदीकी पारिवारिक रिश्ता रहा, इसलिए मक्खन जोशी
रिश्ते में भाई कल्ला बन्धुओं के लिहाज में आ गये। चूंकि अब मक्खनजी हैं नहीं,
होते तो भी इनमें से किसी एक पर अपनी सार्वजनिक
सहमति देते,नहीं लगता।
तीनों कारणों का विश्लेषण करें तो बाद के चुनाव इन तीनों आशंकाओं-संभावनाओं को
ध्वस्त कर देते हैं। पहला : 1993 की हार के बाद
स्वयं मक्खनजी दक्षिणपंथी भाजपा में चले गये। दूसरा : 1980 के तुरंत बाद 1985 के चुनाव से ही विपक्षी एकता ध्वस्त हो गई। तीसरा : 1985 में मक्खनजी जैसे ही बीडी कल्ला के मुकाबले
में आए भाईपा खिरना शुरू हो गया और 1993 के चुनावों तक तो सभी कुछ ध्वस्त कर कटुता ने भाईपे की जगह ले ली।
14 जनवरी को हुए मक्खन जोशी स्मृति आयोजन के सन्दर्भ से ही बात को समाप्त करते
हैं। गोपाल जोशी के सम्बोधन का केन्द्रीय भाव यही था कि राजनीति में उनकी रुचि
मक्खन जोशी ने जगाई, प्रेरित कर-कर के चुनाव लड़वाए। सुबह से देर रात लम्बे समय तक साथ रहने का चला सिलसिला
गिनवाया। लेकिन गोपाल जोशी की यह सदाशयता अनौपचारिक बातचीत में नदारद हो जाती है।
वे 1973 के नगर परिषद् सभापति के
चुनाव में कान्ता खथूरिया के साथ मिलकर धूड़ाराम पारीक से मक्खन जोशी को हरवाने की
बात उपलब्धि के तौर पर गिनवाते हैं।
मान लेते हैं कि ऐसा हुआ होगा, कहीं कुछ
तात्कालिक कारणों के चलते दो मित्रों में कोई प्रतिस्पर्धी कटुता आ गई होगी। लेकिन
गोपाल जोशी अब जिस उम्र में हैं और जिस हैसियत को वे हासिल कर चुके हैं उसमें उनका इस तरह
से जिक्र करना ना केवल उन्हें ओछा दर्शाता है बल्कि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो
यह मक्खन जोशी को लेकर उनकी हीनभावना को भी जाहिर करता है। काफी अरसे से गोपालजी 1973 के सभापति चुनाव की अपनी कारस्तानी एकाधिक बार
प्रकट कर चुके हैं बल्कि मक्खनजी के परिजनों के सामने भी वे नहीं चूकते। कुल मिलाकर
उनके मुखारविन्द से ऐसा सुनना किसी भी संवेदनशील को अच्छा नहीं लगेगा।
पुराने-प्रामाणिक लोगों की बात का हवाला दें तों वे बताते हैं कि गोपाल जोशी को
शुरुआती युवावस्था में अपने व्यापार में भारी संकट का सामना करना पड़ा। ऐसे में
इसी मित्र मक्खन जोशी के प्रतिष्ठित पिता झमण सा जोशी की साख शहर में उनके काम
आयी। यदि ये सच है तो पूरा नहीं तो कुछ तो होगा ही जो उल्लेख भी गोपाल जोशी को
कभी-कभार करना चाहिए।
—दीपचन्द सांखला
1 फरवरी, 2018