Saturday, November 24, 2018

कांग्रेस : संगठन अध्यक्षी और शहर राजनीति (10 फरवरी, 2012)

अंदरूनी शहर के पाटों और राजनीति के ठियौं पर चुनावी चहक शुरू हो गई है, इन पाटों और ठियों पर सभी तरह की बातें कभी ठसकाई के साथ तो कभी गारंटी के साथ होती हैं। कभी यह बातें हलके-फुलके अंदाज में तो कभी दिखावटी गर्मा-गर्मी के साथ भी। कुछ बातेरी ऐसे भी होते हैं जो एक ही विषय के कभी पक्ष में बात करते सुनाई देते हैं तो थोड़ी देर बाद ही खुद अपने को ठीक उलटा भी साध लेते हैं। हां, पाटों पर होने वाली बातचीत से राजनीति के ठियौं पर होने वाली चर्चाओं की स्टाइल कुछ भिन्न जरूर होती है।
पिछले एक अरसे से पाटों पर, ठियौं पर, स्थानीय और सूबाई अखबारों में भी घूम-फिर कर एक चर्चा बारंबार होने लगी है, कांग्रेस के शहर और देहात अध्यक्षों की नियुक्ति की। पहले इसके साथ न्यास अध्यक्ष की भी चर्चा होती थी। लेकिन राजनीति पर होने वाली ज्यादा चर्चाएं होती इस डेढ़ मुद्दे पर ही है, दो इसलिए नहीं कहा कि शहर की चर्चाओं में देहात का मुद्दा हाशिये पर रहता है। हालांकि बातों के पेटे में अगले चुनाव में पार्टियों की टिकटें किनको मिलेंगी, किसकी कितनी लपेट और कहां तक पहुंच है आदि-आदि जारी रहती है। यूं तो ज्यादातर बातें कांग्रेस और भाजपा की ही होती है लेकिन शहर में कमोबेश सक्रिय सभी पार्टियों के पुट-संपुट भी लगते रहते हैं।
राजस्थान पत्रिका ने आज फिर शहर देहात को लेकर एक ‘आइटम’ लगाया है, जिसकी उम्मीद फरवरी लगते ही होने लगे थी कि कहीं कोई ऐसा आइटम आयेगा। क्योंकि कांग्रेस के सूबाई अध्यक्ष जनवरी मध्य की अपनी पिछली बीकानेर यात्रा में कह गये थे कि इस माह के अंत तक दोनों अध्यक्षों की घोषणा हो जाएगी। होती कैसे? दोनों ही अखाड़ों में जोड़ के पहलवान जो उतरे हुए हैं, शहर में कल्ला बंधु और भानीभाई तो देहात में वीरेन्द्र बेनीवाल और रामेश्वर डूडी। डिस्टिल्ड वॉटर भानीभाई अन्य कई कलर्स के साथ अपना रंग दिखा रहे हैं। कुश्ती जब जोड़ के दो के बीच होती है तो छूटती रेफरी की सीटी पर ही है। लेकिन इस राजनीतिक कुश्ती में रेफरी की तो छोड़िये गुरू भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पत्रिका में जो नाम आये हैं, वही नाम लम्बे समय से चल रहे हैं। हां, कभी कोई नाम बाहर होता है तो कभी वापस सूची में लौट आता है।
लेकिन यह जो नाम हैं उनमें घटत-बढ़त उस हिसाब से नहीं आई है जिस हिसाब से परिसीमन के बाद सीटों के बदले जोगराफिया और जातीय समीकरणों के बाद आनी चाहिए। इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। अपने इस देश की राजनीति में अधिकांश जाति ही तय करती है। परिसीमन के बाद देहात में मोटा-मोट जो गणित चल रहा है वह तो ठीक-ठाक है। लेकिन शहर के गणित को दोनों ही मुख्य पार्टियों द्वारा न समझना उस कबूतर के मानिन्द है जिसके सामने अचानक बिल्ली आ गई हो, ऐसी स्थिति में कबूतर का यह सोचकर आंखें बंद कर लेना कि बिल्ली मुझे नहीं देख पायेगी तो मैं बच जाऊंगा, कबूतर की नासमझी तो समझ में आती है लेकिन राजनीति में अपने को घाघ मानने वाले जो आंखें बंद किए हैं, क्या वे इन नये बनते जातीय समीकरणों से बच पाएंगे?
शहर अध्यक्ष के लिए पत्रिका में आये कुल आठ में से छः नाम उच्च कही जाने वाली एक ही जाति से हैं बाकी एक अल्पसंख्यक और एक ओबीसी से है। न्यास में अध्यक्ष अल्पसंख्यक, महापौर ब्राह्मण के रहते ब्राह्मण बीडी कल्ला की पश्चिम सीट से दावेदारी तभी व्यावहारिक मानी जाएगी जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष ओबीसी का या दलित हो। पाटों की बातें और ठियौं की चर्चाओं के रंग बदलने जरूरी हैं अन्यथा वो समय आते देर नहीं लगेगी कि बोलने वालों के तो बोर ही नहीं बिकेंगे और नहीं बोलने वाले भूंगड़े बेच जायेंगे!
-- दीपचंद सांखला
10 फरवरी, 2012

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