Thursday, November 29, 2018

बीकानेर जिला-सात सीटें : पड़ताल आज तक की-कल की बात फिर


चुनावी झनझन यूं तो एक वर्ष पूर्व ही से शुरू हो जाती है लेकिन छह माह पहले से ना केवल गोटियों को सम्हाला जाने लगता है बल्कि चौसर भी मांड ली जाती है। राजस्थान विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर एक माह पहले का कांग्रेस:भाजपा का 115:65 का आंकड़ा आज दिन तक 100:80 के लगभग आ गया है। इसी आधार पर बीकानेर संभाग की बात करें तो वर्ष 2013 में कुल 23 में से कांग्रेस 3 भाजपा 17 और अन्य पर 4 थे-एक माह पहले का अनुमान जो 12:8:4 पर था अब 10:10:4 पर आया लगता है। कांग्रेस व भाजपा के उस अनुमानित अन्तर को पाटने में नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की कारस्तानियों के चलते बीकानेर जिले का योगदान ज्यादा है। वैसे यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि इस तरह के अनुमान तत्समय के  होते हैं-हो सकता है अगले दिन बदल भी जायें। ऐसे क्षणभंगुर अनुमानों में मतदान तक कितना बदलाव होगा कहना मुश्किल है-बड़ा कुछ घटित ना हो तो मोटामोट इसके इर्द-गिर्द ही रहता लगता है-10 से 15' तक जोड़-घटाव के  साथ।
बीकानेर जिले की बात करें और रामेश्वर डूडी का जिक्र ना हो संभव नहीं है। एक-दो माह पहले बीकानेर जिले की 7 सीटों में कांग्रेस:भाजपा का आंकड़ा 6:1 का था लेकिन इस शर्त के साथ कि डूडी अपने स्वभाव से बचे रहें लेकिन उन्हें जो करना था किया ही। उनके किए धरे से सबसे कम प्रभावित रहने वाली कोलायत सीट से बात शुरू करते हैं। मगरे के शेर देवीसिंह भाटी अपनी आसन्न हार के चलते दड़बे में चले जाने के  निर्णय पर कायम रहे। बहुतों का मानना था कि देवीसिंह अंत-पंत चुनाव में खुद उतरेंगेयह बात कभी हजम नहीं हुई, हुआ भी वही। भाजपा के पास कोलायत में कोई विकल्प था नहीं और राजनीति को पुश्तैनी पेशा बना चुके देवीसिंह को भी लगा होगा कि इसे जारी रखना जरूरी है। पौत्र अंशुमान सिंह की उम्र चुनाव लड़ सकने की नहीं हुई सो उनकी मां, महेन्द्रसिंह की पत्नी पूनमकंवर को मैदान में उतारा गया, कोलायत में भाजपा भी यही चाहती थी। पूनमकंवर के नाम की घोषणा के साथ एक बारगी तो लगा भी कि महेन्द्रसिंह की शालीनता-सदाशयता और अचानक उनके चले जाने का भावनात्मक लाभ पूनमकंवर को हासिल होगाकुछ हुआ भी हो, लेकिन उतना नहीं जितना राजनीतिक फासला बीते पांच वर्षों में हदां और बरसलपुर के बीच कांग्रेस विधायक भंवरसिंह भाटी ने बना लिया है। देवीसिंह भाटी के प्रति 33 वर्षों की ऊब और कुछ नाराजगियां जो भीतर की भीतर कसमसा-सिसक रही थीं, वही इस चुनाव में पूनमकंवर के आड़े आती दिख रही हैं। इस ऊब और कसमसाहट को भंवरसिंह भाटी ने बहुत अच्छे से सहलाया है, भंवरसिंह की शालीनता और सदाशयता महेन्द्रसिंह के जोड़ की ही मानी जा रही है, ऐसे में देखना यही है कि देवीसिंह भाटी अपने राजनैतिक पेशे को इस चुनाव से अगली पीढिय़ों के लिए सहेज कर रख पाते हैं कि नहीं।
जिले की शेष छह सीटों की मोटा-मोट बात पिछले आलेख में की गई। लेकिन जब तवा चूल्हे पर हो तो रोटी को उलट-पुलट कर देखते रहने में हर्ज क्या है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि डेढ़-दो माह पहले के कांग्रेस:भाजपा के 6:1 के आंकड़े को ग्रहण खुद कांग्रेस के सूरज रामेश्वर डूडी के हस्तक्षेप से लगा हैखाजूवाला, लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ के टिकट बंटवारे में डूडी की चली भले ही ना हो लेकिन उनकी कुचमादी आशंकाओं के  चलते श्रीडूंगरगढ़ में तय जीत वाले कांग्रेस प्रत्याशी मंगलाराम गोदारा फिलहाल तीसरे नम्बर पर पिछड़ते नजर आ रहे हैं। श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र की 10 पंचायतों पर सीधे प्रभाव रखने वाले रामेश्वर डूडी हालांकि इसके लिए अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार गिरधारी महिया का पुरुषार्थ उनकी जीत की संभावनाएं बना रहा हैडूडी की संभावित भीतरघात क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहने वाले महिया के लिए मात्र सहारा बना है। माना यह भी जा रहा कि जाट प्रभावी इस विधानसभा क्षेत्र में जैसे ही यह लगेगा कि गिरधारी महिया भाजपा के ताराचन्द सारस्वत से पिछड़ सकते हैैं वैसे ही जाट समुदाय मंगलाराम के साथ आ लेंगे। बीकानेर की सात में से यही एक सीट है जिसमें आखिरी क्षण तक बड़े उलट-फेर की सम्भावना हो गई है।
लूनकरणसर में स्थिति अभी भी स्पष्ट नहीं है, इसके दो कारण हैं। एक यह कि गैर-जातीय आधार पर क्षेत्र में राजनीति करने वाले प्रदेश के आदर्श जनप्रतिनिधि मानिकचन्द सुराना मौन हैं। उम्र और स्वास्थ्य कारणों के चलते ना वे खुद चुनाव में उतरे और ना ही किसी को समर्थन की घोषणा की हैसुराना का कहना है कि वे क्षेत्र की जनता के वास्ते हमेशा की तरह खड़े रहेंगे। दूसरा, भाजपा के बागी प्रभुदयाल सारस्वत का पूरे दम-खम के  साथ ताल ठोकना, कहने को नुकसान वे कांग्रेस और भाजपा दोनों को पहुंचाने वाले हैं, यदि ऐसा है तो भी कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल भारी पड़ सकते हैंबशर्ते स्थानीय समीकरणों के चलते रामेश्वर डूडी उनके पलड़े का वजन कम करने में सफल ना हों। डूडी यहां भी शांत रहें तो बेनीवाल अपना वजन बढ़ा सकते हैं।
खाजूवाला का मामला बावजूद इस सब के पेचीदा होता नहीं लगता है कि वर्तमान विधायक और भाजपा उम्मीदवार डा. विश्वनाथ भले हैं। सूबे की एंटी इंकम्बेसी और कांग्रेसी उम्मीदवार गोविन्द मेघवाल की क्षेत्र में लगातार सक्रियता विश्वनाथ की तीसरी जीत को रोकती लग रही है। श्रीडूंगरगढ़, लूनकरणसर की ही तरह अपने ही पार्टी उम्मीदवारों पर डूडी की छाया पडऩे के कयास भी यहां लगाये जा रहे हैं, लेकिन छाया कितनी लम्बी होगी कह नहीं सकते, क्योंकि ज्यों-ज्यों मतदान का दिन नजदीक आता जायेगा त्यों-त्यों हो सकता है डूडी कहीं अपनी ही बचाने में लगे ना रह जाएं!
बीकानेर पूर्व की बात जरूरी इसलिए नहीं है कि जिले में कांग्रेस:भाजपा का 6:1 का जो अनुमानित आंकड़ा था उसमें सिद्धिकुमारी की बीकानेर पूर्व की सीट ही भाजपा के लिए निश्चित मानी जा रही थी और आज भी स्थिति कुछ वैसी ही है। अन्तर कन्हैयालाल झंवर की कांग्रेस उम्मीदवारी के बाद इतना ही आया कि जिन सिद्धिकुमारी का मन इस बार का चुनाव घर बैठे ही जीतने का था, अब वह गली-मुहल्लों में भी प्रतिदिन नजर आने लगी हैं।
डूडी ग्रहण के सूतक से कांग्रेस के लिए जिले की सर्वाधिक प्रभावित बीकानेर पश्चिम की सीट हुईडॉ. कल्ला की तय उम्मीदवारी के चलते कांग्रेस की जो जीत इस बार यहां निश्चित मानी गई-उसमें बड़ा पंगा आ गया है। पहले कल्ला को उम्मीदवारी ना मिल यशपाल गहलोत को मिलना और फिर बीकानेर पूर्व से घोषित कन्हैयालाल झंवर को उम्मीदवारी से हटा कर यशपाल को पूर्व में सिफ्ट करना। सिलसिला यहीं नहीं रुकाफिर यशपाल को पूर्व से भी खदेड़कर झंवर को पुन: उम्मीदवारी देना, यह चकरघिन्नी कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकती है। वहीं कांग्रेस से बागी होकर बीकानेर पूर्व और पश्चिमी दोनों जगह से ताल ठोकने वाले गोपाल गहलोत अपनी साख भी बचा पाएंगे लगता नहीं है, बावजूद इस सबके माली समाज की कांग्रेस से नाराजगी कल्ला के लिए भारी साबित हो तो आश्चर्य नहीं।
रही बात नोखा की तो जिस अपनी सीट को सुरक्षित करने के लिए डूडी ने पूरे जिले को हिला दिया, उसी नोखा में डूडी पर दबाव लगातार बढ़ता लग रहा है। भाजपा उम्मीदवार बिहारी बिश्नोई के लिए यह चुनाव जहां राजनीतिक अस्तित्व का है वहीं रामेश्वर डूडी के लिए राजनीतिक हैसियत बचाए रखने का। डूडी यह चुनाव हार जाते हैं तो अपनी हैसियत हासिल करने में उन्हें लम्बी जद्दोजहद करनी पड़ेगी, जरूरी नहीं कि वर्तमान हैसियत फिर से हासिल भी हो। बिहारी बिश्नोई के प्रति क्षेत्र में सहानुभूति जहां डूडी के  लिए भारी पड़ती दीख रही है वहीं डूडी की सगी भानजी और हनुमान बेनीवाल के आरएलपी की उम्मीदवार इन्दू तर्ड हुड़ा अलग लगाये हुए है। इतना ही नहीं कन्हैयालाल झंवर को जैसे ही लगेगा कि डूडी ने उन्हें बीकानेर पूर्व में फंसा दिया तो नोखा में उनका इतना प्रभाव तो है कि वे डूडी को परेशानी में डाल सकते हैं। इस सबसे ऊपर खुद डूडी का अपना स्वभाव उनसे दुश्मनी कम नहीं साधता। आज बात इतनी ही अगले सप्ताह बदले अनुमानों के साथ-बदले तो।
दीपचन्द सांखला
29 नवम्बर, 2018

Saturday, November 24, 2018

लोकतंत्र की परखी (11 फरवरी, 2012)

दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की विधानसभा का चुनाव चल रहा है। बीकानेर में भी उत्तरप्रदेश के बहुत से लोग मेहनत-मजदूरी के लिए आए हुए हैं। भवन निर्माण के कार्य में पीओपी करने वाले कुछ मजदूरों से जब पूछा गया कि वोट डालने नहीं जा रहे हो? उनका जवाब था कि ‘वोट डालने से हमें क्या मिलेगा!’ जब उन्हें वोट की महत्ता बताने की कोशिश की गई तो उन्होेंने कोई रुचि नहीं दिखलाई। आजादी के 64 साल बाद भी वोट के प्रति इस उदासीनता के भी अपने पुख्ता कारण हैं और इन कारणों पर विचार करने की जिम्मेदारी भी सभी पर है।
-- दीपचंद सांखला
11 फरवरी, 2012

जनरल वीके सिंह प्रकरण : सुखद पटाक्षेप (11 फरवरी, 2012)

थल सेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह की उम्र को लेकर विवाद का पटाक्षेप सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और सद्भावपूर्ण तरीके से कर दिया। विद्वान् न्यायाधीशों ने बहुत समझदारी से पहले तो सरकार को बैकफुट करते हुए 30 दिसम्बर के उस निर्णय को वापस करवाया जिसमें सरकार ने जनरल की शिकायत को नामंजूर किया गया था और फिर जनरल को कहा कि दोपहर दो बजे तक वे अपनी याचिका वापस ले लें अन्यथा दो बजे बाद न्यायालय अपना फैसला दे देगा। यह व्यवस्था देते हुए न्यायाधीशों ने जनरल से पूछा कि इससे पूर्व आपने अपनी जन्म तारीख को संघ लोक सेवा आयोग, इंडियन मिलिटरी अकादमी और नेशनल डिफेंस अकादमी के रिकार्ड में ठीक क्यों नहीं करवाया। न्यायालय ने उन्हें यह भी ध्यान दिलाया कि सन् 2008-09 में उनके द्वारा दिये पत्रों में उन्होंने अपना जन्म वर्ष 1950 स्वीकार किया है अतः वे अपने लिखे का सम्मान करें। दो बजे बाद जनरल वीके सिंह के वकील ने कोर्ट से अपनी याचिका वापस  ले ली।
भारतीय सेना में अनुशासन की शानदार परंपरा रही है। उसमें इस तरह का वाकिआ बेहद गंभीर और चिन्ताजनक था। देश की सुरक्षा के जिम्मेदारों को संवेदनशीलता दिखाते हुए बेहद सतर्कता के साथ इस तरह की बदमजगी के अवसर आने देने से बचना चाहिए। इसी तरह की चिन्ता अपने 17 जनवरी, 2012 के आलेख में भी जाहिर की थी जिसमें व्यवस्था और जनरल वीके सिंह, दोनों से अपेक्षाएं और अपनी चिन्ताएं इस तरह जाहिर की थी :--
‘....प्रार्थी के 10वीं पढ़े होने की स्थिति में जब जन्म दिनांक संबंधी सभी वैधानिक औपचारिकताओं में उस सर्टिफिकेट में दर्ज जन्म तारीख को प्रामाणिक माना जाता है तो जनरल वी के सिंह के मामले में यह असावधानी क्यों हुई? इस तरह की असावधानी की जानकारी यदि उन्हें सेवाकाल के शुरुआत में ही हो गई थी तो इसे तभी सुधरवा लेना चाहिए था... उनको इसकी जानकारी अब हुई हो-यदि ऐसा है तो अंग्रेजी कहावत के अनुसार वे सज्जन की तरह आये तो सज्जन की ही तरह विदा हो लेते।’
इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के कल के हस्तक्षेप की रोशनी में पाठक उक्त पंक्तियों को दुबारा पढ़ लें, बस इतना ही आग्रह है।
-- दीपचंद सांखला
11 फरवरी, 2012

कांग्रेस : संगठन अध्यक्षी और शहर राजनीति (10 फरवरी, 2012)

अंदरूनी शहर के पाटों और राजनीति के ठियौं पर चुनावी चहक शुरू हो गई है, इन पाटों और ठियों पर सभी तरह की बातें कभी ठसकाई के साथ तो कभी गारंटी के साथ होती हैं। कभी यह बातें हलके-फुलके अंदाज में तो कभी दिखावटी गर्मा-गर्मी के साथ भी। कुछ बातेरी ऐसे भी होते हैं जो एक ही विषय के कभी पक्ष में बात करते सुनाई देते हैं तो थोड़ी देर बाद ही खुद अपने को ठीक उलटा भी साध लेते हैं। हां, पाटों पर होने वाली बातचीत से राजनीति के ठियौं पर होने वाली चर्चाओं की स्टाइल कुछ भिन्न जरूर होती है।
पिछले एक अरसे से पाटों पर, ठियौं पर, स्थानीय और सूबाई अखबारों में भी घूम-फिर कर एक चर्चा बारंबार होने लगी है, कांग्रेस के शहर और देहात अध्यक्षों की नियुक्ति की। पहले इसके साथ न्यास अध्यक्ष की भी चर्चा होती थी। लेकिन राजनीति पर होने वाली ज्यादा चर्चाएं होती इस डेढ़ मुद्दे पर ही है, दो इसलिए नहीं कहा कि शहर की चर्चाओं में देहात का मुद्दा हाशिये पर रहता है। हालांकि बातों के पेटे में अगले चुनाव में पार्टियों की टिकटें किनको मिलेंगी, किसकी कितनी लपेट और कहां तक पहुंच है आदि-आदि जारी रहती है। यूं तो ज्यादातर बातें कांग्रेस और भाजपा की ही होती है लेकिन शहर में कमोबेश सक्रिय सभी पार्टियों के पुट-संपुट भी लगते रहते हैं।
राजस्थान पत्रिका ने आज फिर शहर देहात को लेकर एक ‘आइटम’ लगाया है, जिसकी उम्मीद फरवरी लगते ही होने लगे थी कि कहीं कोई ऐसा आइटम आयेगा। क्योंकि कांग्रेस के सूबाई अध्यक्ष जनवरी मध्य की अपनी पिछली बीकानेर यात्रा में कह गये थे कि इस माह के अंत तक दोनों अध्यक्षों की घोषणा हो जाएगी। होती कैसे? दोनों ही अखाड़ों में जोड़ के पहलवान जो उतरे हुए हैं, शहर में कल्ला बंधु और भानीभाई तो देहात में वीरेन्द्र बेनीवाल और रामेश्वर डूडी। डिस्टिल्ड वॉटर भानीभाई अन्य कई कलर्स के साथ अपना रंग दिखा रहे हैं। कुश्ती जब जोड़ के दो के बीच होती है तो छूटती रेफरी की सीटी पर ही है। लेकिन इस राजनीतिक कुश्ती में रेफरी की तो छोड़िये गुरू भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पत्रिका में जो नाम आये हैं, वही नाम लम्बे समय से चल रहे हैं। हां, कभी कोई नाम बाहर होता है तो कभी वापस सूची में लौट आता है।
लेकिन यह जो नाम हैं उनमें घटत-बढ़त उस हिसाब से नहीं आई है जिस हिसाब से परिसीमन के बाद सीटों के बदले जोगराफिया और जातीय समीकरणों के बाद आनी चाहिए। इसे नजरअंदाज किया जा रहा है। अपने इस देश की राजनीति में अधिकांश जाति ही तय करती है। परिसीमन के बाद देहात में मोटा-मोट जो गणित चल रहा है वह तो ठीक-ठाक है। लेकिन शहर के गणित को दोनों ही मुख्य पार्टियों द्वारा न समझना उस कबूतर के मानिन्द है जिसके सामने अचानक बिल्ली आ गई हो, ऐसी स्थिति में कबूतर का यह सोचकर आंखें बंद कर लेना कि बिल्ली मुझे नहीं देख पायेगी तो मैं बच जाऊंगा, कबूतर की नासमझी तो समझ में आती है लेकिन राजनीति में अपने को घाघ मानने वाले जो आंखें बंद किए हैं, क्या वे इन नये बनते जातीय समीकरणों से बच पाएंगे?
शहर अध्यक्ष के लिए पत्रिका में आये कुल आठ में से छः नाम उच्च कही जाने वाली एक ही जाति से हैं बाकी एक अल्पसंख्यक और एक ओबीसी से है। न्यास में अध्यक्ष अल्पसंख्यक, महापौर ब्राह्मण के रहते ब्राह्मण बीडी कल्ला की पश्चिम सीट से दावेदारी तभी व्यावहारिक मानी जाएगी जब शहर कांग्रेस अध्यक्ष ओबीसी का या दलित हो। पाटों की बातें और ठियौं की चर्चाओं के रंग बदलने जरूरी हैं अन्यथा वो समय आते देर नहीं लगेगी कि बोलने वालों के तो बोर ही नहीं बिकेंगे और नहीं बोलने वाले भूंगड़े बेच जायेंगे!
-- दीपचंद सांखला
10 फरवरी, 2012

बीकानेर : शहरी यातायात की बात (9 फरवरी, 2012)

अपने बीकानेर शहर के यातायात को लेकर कोई गंभीर नहीं है। बड़े-छोटे सभी राजनेता इतने आत्मविश्वासहीन लगते हैं कि एक दुपहिया वाहक बिना हेलमेट पकड़ा जाये और उसके पास किसी नेता का फोन नं. है तो वह सीधे ही उसे डॉयल करता है। हर पल वोट जुगाड़ु मानसिकता में रहने वाले ये नेता उसकी सुनते भी हैं और अपनी हैसियत के अनुसार हेकड़ी या निवेदन की भाषा में पुलिसवाले को कह कर एक वोट बन जाने की खुशफहमी में इजाफा भी कर लेते हैं।
इसी प्रकार व्यापारिक संगठनों के ये कर्णधार सिवाय व्यापारिक हितों के--उसमें भी उन छोटे-छोटे मुखर समूहों के हितों की बात बिना यह विचारे करते हैं कि उनके उस कदम से सीमित हित भी सचमुच सधेंगे या नहीं। वैसे आजकल छोटे व्यापारिक संघों से लेकर व्यापार उद्योग मण्डल तक सभी अहम के अखाड़े बने हुए हैं।
हम टीवी अखबार वाले भी ज्यादातर उपरोक्तों की बात पहुंचाने का ही काम कर पाते हैं। रही बात पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की तो उनमें से ज्यादातर समय निकालु--यथास्थितिवादी ही आते हैं, यदि कोई नया आया कुछ उत्साह दिखाता भी है तो जनता के नुमाइंदों के टेलीफोनिक निर्देशों और ऊपर तक से आये मौखिक आदेशों को सुन वह चक्करघिन्नी हो जाता है। ऐसे में वह अधिकारी अपनी अगली पोस्टिंग तक सामान्य ड्यूटियां में ही समय निकालना उचित समझने लगता है।
महात्मा गांधी रोड, स्टेशन रोड के यातायात को सुचारू करने की एक कवायद कल घोषित होने से पहले एक पार्षद का विरोध मुखर हो गया। वैसे सादुल सर्किल से राजीव मार्ग तक की जो नयी यातायात व्यवस्था प्रशासन ने दी है, उसे न तो व्यावहारिक कहा जा सकता है और ना ही पार्षद के उस विरोध को जायज। सादुल सर्किल से रेलवे स्टेशन और कोटगेट के अंदर की ओर जाने वाले तिपहिया-चौपहिया वाहनों के लिए जो रास्ता तय किया है, उसके अनुसार यह वाहन पब्लिक पार्क में विश्नोई धर्मशाला के आगे से होते हुए--तुलसी सर्किल, मॉडर्न मार्केट, राजीव चौक, पुरानी मालगोदाम रोड, कोयला गली, सांखला फाटक, मटका गली होते हुए गोल कटला से रेलवे स्टेशन और राजीव मार्ग की ओर जायेंगे।
पब्लिक पार्क में वैसे भी यातायात का दबाव ज्यादा है और उसके मुख्यद्वार पर तो हमेशा बाधाओं के साथ ही ट्रैफिक गुजरता है, होना यह चाहिए था कि पब्लिक पार्क को तो कम से कम प्रदूषित यातायात से मुक्त रखा जाता। जब वकीलों की गली का विकल्प उपलब्ध है तो पब्लिक पार्क से ट्रैफिक गुजारना उचित नहीं जान पड़ता। पुरानी मालगोदाम रोड और कोयला गली जैसी ही चौड़ाई वकीलों की गली की भी है। उस मटका गली की चौड़ाई भी इन जितनी ही है जिसका विरोध एक पार्षद ने कल किया। ऐसे विरोध बढ़ते शहरी यातायात के लिए बेमानी हैं।
सांखला फाटक को कोयला गली स्थित तुलसी प्याऊ तक डबल बेरियर लगा कर रेलवे बढ़ा दे तो कोयला गली का ट्रैफिक स्टेशन रोड के ट्रैफिक को बिना बाधित किये मटका गली की ओर जा सकता है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों और प्रशासन को साझा प्रयास करने होंगे। ऐसा करवाना असंभव नहीं है। कोटगेट के अन्दर-बाहर और तोलियासर भैरूं मंदिर के आस-पास के इलाकों को पार्किंग और टैक्सी स्टैण्ड से पूर्णतया मुक्त करना भी जरूरी है, इसके लिए आमजन के व्यापक हित में टैक्सी यूनियनों को पहल करनी चाहिए।
इस शहर के बारे में सोचने-विचारने का दावा करने वाले सभी से गुजारिश है कि रेल बायपास के लॉलीपोप को वो अब फेंक दें और पूर्व में बनी योजना के अनुसार सादुल सर्किल से राजीव मार्ग तक के एलिवेटेड रोड के साझा प्रयास पुनः और गंभीरता से शुरू करें। रेल फाटक, ट्रैफिक और प्रदूषण इन तीनों समस्याओं का समाधान इसी में है। अपने शहर के बहुत से लोग लुधियाना जाते रहते हैं, वहां भी ऐतिहासिक ग्रांड ट्रंक रोड शहर के बीच में आ गई थी, उसका समाधान भी उस जीटी रोड पर एलिवेटेड रोड बनाकर ही किया गया है। रही शहर से गुजरने वाली रेलवे लाइन की बात तो जब दिल्ली, गुवाहाटी जैसे शहरों में ही रेल लाइनें पुराने शहर के बीच से ही गुजरती हैं तो इसे हम बीकानेरी अपनी नाक का बाल क्यों बनाये बैठे हैं?
-- दीपचंद सांखला
9 फरवरी, 2012

Friday, November 23, 2018

आबादी को लेकर कुछ सामान्य बातें (8 फरवरी, 2012)

प्रत्येक व्यक्ति सामान्य है, जो अपने को विशिष्ट मानता है वो भी। क्योंकि विशिष्टों की भी एक श्रेणी होती है, विशिष्टों की उक्त श्रेणी में समाये लोग जब आपस की किसी धारणा पर बात करेंगे, तब वे यही कहेंगे कि ऐसा या ऐसा होना सामान्य है। कहने का भाव यही है कि सभी की अपनी एक दुनिया होती है, जैसे कुएं के मेढक की दुनिया उस कुएं के व्यास जितनी और तालाब के मेढक की उस तालाब के किनारों तक!
इसी तरह देश और दुनिया की आबादी का बढ़ना लगभग सभी के लिए सामान्य बात है। पर्यावरण या जनसंख्या विशेषज्ञ इस बढ़ोतरी को विस्फोटक बताने लगे हैं। जनसंख्या की इस विस्फोटक बढ़ोतरी पर टीवी-अखबारों में लेख, खबरें, आंकड़े और वार्ताएं अकसर आती रहती हैं। सामान्यतः सभी सामान्य लोगों के लिए यह लगभग हाइगोल होती हैं, यही इस समस्या की बड़ी समस्या है।
आज एक खबर है हांगकांग से। इसमें बताया गया चूंकि चीन में केवल एक संतान पैदा करने का नियम लागू है, इसलिए दूसरे बच्चे की आकांक्षी चीनी महिला प्रसूति प्रवास पर हांगकांग चली जाती हैं। लेकिन वे अब वहां जाने के बाद भी जुर्माने से नहीं बच पायेंगी। कहने को कहा जा सकता है बच्चे कुदरत की देन होते हैं इसलिए इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए। बच्चों के जन्म को जब भगवान की कृपा, खुदा की नेमत या कुदरत की देन कहा गया तब बच्चों की मृत्युदर विकराल थी, नवजात बच्चों को ही नहीं प्रसूताओं को भी बचाने को सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं थी। पिछली एक-डेढ़ सदी में इस दुनिया ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में जबरदस्त तरक्की की है। नवजातों की और बड़ों की असमय मृत्युदर में आश्चर्यजनक कमी आ रही है। मुश्किल यही है कि जिस आश्चर्यजनक ढंग से उक्त मृत्युदर में कमी आई उसी अनुपात में जन्मदर पर नियन्त्रण नहीं हो पा रहा है। परिणाम यह कि न केवल प्राकृतिक संसाधनों के समाप्त होते चले जाने के समाचार आते रहते हैं बल्कि मानव निर्मित सभी सुविधाओं और संसाधनों के लिए सभी जगह लाइनें लगी दिखाई देती हैं।
सामान्य तुलनाओं को भी घुड़दौड़ की तरह देखने वाला हमारा सामान्य मन गर्व के साथ यह कहने से भी नहीं चूकता कि आबादी के मामले में हमारा भारत दुनिया में अभी दूसरे नम्बर पर है और यह भी कि अगले कुछ दशकों में ही हम इसमें चीन को पछाड़ देंगे! क्या हमने कभी इसको बड़ी चिंता के रूप में भी लिया है कि आजादी के बाद से आज हमारे देश की आबादी दुगुनी से भी ज्यादा हो गई है? बढ़ती आबादी अगर प्रत्येक सामान्यजन की चिंता का कारण नहीं बनेंगी तो हमारी आगामी पीढ़ियां नहीं हमारे पोते-पड़पोते ही बढ़ती आबादी के दुष्परिणामों को भुगतेंगे! क्योंकि कुदरती और मानवीय दोनों ही साधन-संसाधन सीमित हैं। कानून सबकुछ नहीं कर सकता है यह भी हम सब की सामान्य धारणा है!
-- दीपचंद सांखला
8 फरवरी, 2012

उत्तर प्रदेश में खेवनहारों की खीज (7 फरवरी, 2012)

यूपी चुनाव की चार प्रमुख पार्टियों में से तीन के खेवणहार खीजने लगे हैं। कल बसपा की मायावती, कांग्रेस के राहुल गांधी और भाजपा की उमा भारती की खीज साफ-साफ सार्वजनिक हुईं। मतदान-पूर्व के आये सर्वेक्षणों ने ही शायद उन्हें निराश कर खीजने को विवश किया है। मायावती ने सभाओं में गड़बड़ी करने वाले विरोधियों को कुत्ता कहा तो उमा भारती ने चुनाव बाद के गठबंधनों को स्वीकार करने की बजाय सरयू नदी में डूबना पसंद किया। राहुल गांधी बालहठ में यह कह बैठे कि चाहे थप्पड़ मारो या जूता मैं यहां से जाने वाला नहीं। जिन्होंने भी टीवी में इन दृश्यों को देखा उनके अपने-अपने अनुभव और अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं थीं। हां, समाजवादी पार्टी के पिता-पुत्र, मुलायमसिंह और अखिलेश ठीक-ठाक आत्मविश्वास के साथ जरूर नजर आने लगे हैं।
-- दीपचंद सांखला
7 फरवरी, 2012

नगर विकास न्यास, बीकानेर : मक्खन जोशी से मकसूद अहमद तक (7 फरवरी, 2012)

पिछली सदी के आठवें दशक की बात है, देश में और प्रदेश में आजादी के बाद की पहली गैर कांग्रेसी सरकारें राज कर रही थीं। आम-अवाम की उम्मीदें अलग तरह की अंगड़ाई ले रही थीं। बीकानेर के नगर विकास न्यास के अध्यक्ष के रूप मक्खन जोशी मनोनीत हुए। इसी दौरान सार्वजनिक शहरी जमीनों पर कब्जे भी धड़ाधड़ होने लगे। जरूरतमंदों की छतों के साथ भू-माफियाओं की चारदीवारियों से जगह-जगह ढिंगाणियां बस्तियां आकार लेने लगीं। तब के विपक्षी (कांग्रेसी) सहमे से थे वहीं अपने वोट से प्रदेश और देश की सरकार बनवाने वालों में से कई लगभग बेलगाम मनःस्थिति में। कांग्रेसी खुली-दबी जबान से न्यास पर कब्जे करवाने के आरोप लगाने लगे। तब मीडिया मुखर तो था पर आज की तरह हाका नहीं करता था। सप्ताहांत और मरुदीप तब शहर के दो चर्चित साप्ताहिकों में थे। कब्जों को लेकर मरुदीप में एक रिपोर्ट छपी। इसमें भू-माफियाओं द्वारा किये जाने वाले कब्जों का तो विरोध था लेकिन छतों के असल जरूरतमंदों का पक्ष इस भाव के साथ लिया गया कि इन्हें जहां कहीं से भी हटाया जायेगा--वे रहेंगे जमीन पर ही, हवा में तो रह नहीं सकते। एक जगह से उजड़-विस्थापित होकर बसेंगे यहीं कहीं, तो उनकी इस यंत्रणा से छुटकारा स्थाई होना चाहिए। मरुदीप में छपी यह रिपोर्ट चर्चा में इसलिए रही क्योंकि इसके प्रबंध संपादक मक्खन जोशी स्वयं थे और प्रधान संपादक नन्दकिशोर आचार्य।
आज जब मोहता सराय के विस्थापितों को न्यास द्वारा भूखंड आवंटित कर बसाने का समाचार पढ़ा तो मरुदीप की उस रिपोर्ट का स्मरण हो आया। न्यास अध्यक्ष मकसूद अहमद की इस पहल को सकारात्मक, मानवीय और व्यावहारिक कहा जा सकता है। मकसूद अहमद से उम्मीद की जाती है कि वे भू-माफियाओं के अनुचित दबाव में आये बिना न्यास की सभी कब्जाई जमीनों को इसी भावना से पुनर्नियोजित करें। काम यह मुश्किल जरूर है क्योंकि लगभग सभी भू-माफिया अब राजनीति भी करने लगे हैं, बावजूद इसके न्यास की जमीनों को पुनर्नियोजन नामुमकिन नहीं। जरूरतमंदों को इस तरह से छत मिलने लगेगी तो वे इन भू-माफियाओं के टूल नहीं बनेेंगे, वे सीधे न्यास को और तदनंतर मकसूद अहमद को इसका श्रेय देंगे। श्रेय लेने की अटकल है हाजी मकसूद में, ऐसा कई बार देखा गया है।
-- दीपचंद सांखला
7 फरवरी, 2012

रेशमा और मानिक बच्छावत.(6 फरवरी, 2012)

यहां की हवाओं का साया
उस पर अब मंडराता है....
वह अपनी सरजमीं के लिए
छटपटाती है बार-बार
कोलकाता प्रवासी बीकानेरी परिवार में जन्मे कवि मानिक बच्छावत की पुस्तक ‘इस शहर के लोग’ के उर्दू संस्करण का कल लोकार्पण था। मूल हिन्दी पुस्तक का लोकार्पण यहीं हुआ था। उक्त कविता पंक्तियां इसी संग्रह की ‘रेशमा’ शीर्षक की कविता से है। रेशमा का जन्म बीकानेर रियासत की रतनगढ़ तहसील के लोहा गांव के बंजारा कबीले में हुआ था। बंटवारे के समय यह कबीला पाकिस्तान चला गया। इस कबीले की पहचान आज भी ‘बीकानेरिया’ से है। ‘हाय लम्बी जुदाई’ और ‘दमादम मस्त कलन्दर’ गीत जिन्होंने सुने हैं उन्हें रेशमा का परिचय देने की जरूरत नहीं है। मानिक बच्छावत भी अपने शहर में लगातार आते रहे हैं, साहित्य से और अखबारों से वास्ता रखने वालों के लिए भी मानिक बच्छावत अनजाने नहीं कहे जा सकते।
बात कल के आयोजन की है। आयोजन पुस्तक के विमोचन का था। बीकानेर में एक अरसे से देखा गया है कि इस तरह के अधिकांश साहित्यिक आयोजनों में उस पुस्तक की विधा पर बात कम और रचनासार पर ज्यादा होने लगी है। कल भी यही हुआ, बात मानिक बच्छावत की कविताओं पर कम, उन पात्रों पर ज्यादा हुई, जिन पात्रों को लेकर उन्होंने कविताएं लिखी है। सभी वक्ताओं ने उन पात्रों का ही जिक्र किया। इससे एक दिन पहले भी डॉ. आरडी सैनी के उपन्यास की चर्चा में लगभग यही हुआ। और यह भी कि जितने वक्ता होते हैं वे भी रचनासार को दुहराने में लगे रहते हैं। पता नहीं कि लगभग रोज होने वाले इन साहित्यिक आयोजनों में रचना विधा की कसौटी पर चर्चा कब होने लगेगी। कविता के बारे में जानने-समझने वाले गुणीजन बताते हैं कि इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कविताओं में नया कहने को अब शायद ही कुछ बचा हो! किस तरह से कहा गया है, अब यही सब देखा जाता है।
मानिक बच्छावत बताते हैं कि उनका परिवार दो सौ साल पहले बीकानेर छोड़ चुका था, स्वयं बच्छावत का जन्म भी कोलकाता में ही हुआ, इसके बावजूद उक्त कविता पंक्तियों में रेशमा के माध्यम से मानिक स्वयं अपनी पीड़ा भी जाहिर करते लगते हैं। रेशमा के गाये गीत की पंक्तियों का उल्लेख यहां मौजूं होगा--
बिछड़े अभी तो हम
बस कल परसों
जिऊंगी मैं कैसे
इस हाल में बरसों
मौत न आई तेरी याद क्यों आई
हाय लम्बी जुदाई....
-- दीपचंद सांखला
6 फरवरी, 2012

ऑटोरिक्शा और एलपीजी (4 फरवरी, 2012)

परिवहन विभाग द्वारा बीकानेर शहर के लिए एलपीजी गैस से चलने वाले तीन पहिया ऑटोरिक्शा के एक हजार परमिट जारी करने की घोषणा के बाद अब इस तरह के ऑटो रिक्शा बनाने वाली कंपनियों के स्थानीय डीलर सक्रिय हो गये हैं। बीकानेर के पर्यावरण और बाशिन्दों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी सूचना है। बीकानेर में अधिकांश ऑटोरिक्शा हाल-फिलहाल डीजल से चलते हैं। कहने को कहा जाता है कि इनमें से आधे अनधिकृत हैं। इन डीजल चलित रिक्शाओं में चूंकि सेल्फस्टार्ट की सुविधा के लिए बैटरी की जरूरत होती है और बैटरी के इस खर्चे से बचने के लिए इन ऑटोरिक्शाओं के मालिक सेल्फस्टार्ट का उपकरण नहीं लगवाते। ऑटोचालक भी बार-बार डोरी खींच कर उसका इंजन चलाने के झंझट से बचने के लिए स्टार्ट इंजन के साथ ही सड़कों पर सवारी का इंतजार करते देखे जाते रहे हैं। अतः जिन-जिन पॉइंट्स पर सवारियां मिलने की संभावना रहती है वहां यह ऑटोरिक्शा लगभग दिनभर चालू हालत में ही खड़े मिलते हैं। इसलिए कोटगेट और कोयला गली के आस-पास का इलाका शहर में सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्र में गिना-जाने लगा है। एलपीजी रिक्शा आने के बाद क्या सरकार शहर को इन डीजल ऑटोरिक्शाओं से राहत दिलाएगी?
एलपीजी ऑटोरिक्शा आने से कम से कम इस क्षेत्र के लोगों को तो राहत मिल सकती है लेकिन हो सकता है इसकी कीमत पूरे शहर को भुगतनी पड़े! फिलहाल शहर में एलपीजी का अधिकृत आउटलेट (पंप) एक ही है और वह भी लगभग शहर के एक किनारे श्रीगंगानगर रोड पर। इस आउटलेट पर मिलने वाली एलपीजी गैस सब्सिडी के साथ घरेलू सिलेण्डर में मिलने वाली एलपीजी गैस से लगभग पौने दो गुना महंगी है। अतः न केवल हलवाई बल्कि एलपीजी गैस से चलने वाली कारों में भी इन्ही घरेलू सिलेण्डरों की गैस काम ली जाती रही है। क्योंकि व्यावसायिक सिलेण्डरों में मिलने वाली गैस तो घरेलू सिलेण्डरों में मिलने वाली गैस से तीन गुना से ज्यादा महंगी है!
इन सबके चलते घरेलू गैस सिलेण्डरों को ब्लैक में बेचने वालों का एक संगठित समूह काम करने लगा है जिसमें गैस एजेन्सी के संचालकों से लेकर गैस गोदाम-कीपर, घरों तक पहुंचाने वाले वाहक, गाड़ियों में अनधिकृत रूप से गैस भरने वाले और सरकारी निगरान तक के शामिल होने की बातें होती रहती हैं।
यह भी कि सर्दियों में ठंड और विवाहों के चलते ब्लैक में मिलने वाले सिलेण्डर के दाम दो सौ से ढाई सौ रुपये अधिक देने पड़ते हैं। यह दो सौ से ढाई सौ रुपये की ब्लैक और इन सिलेण्डरों से कारों में अनधिकृत फिलिंग के पचास रुपये चार्ज जोड़ने के बाद यह गैस प्रति किलोग्राम अधिकृत पंप पर मिलने वाली चवांलीस रुपये इकतालीस पैसे प्रति किलोग्राम के लगभग ही पड़ जाती है। शायद यह बात किसी के ध्यान में आती नहीं है! या फिर इतनी दूर अधिकृत पंप तक जाने से बचना भी एक कारण हो सकता है। शहर में आने वाले एक हजार एलपीजी चालित ऑटोरिक्शाओं और इसी गैस से चलने वाली कारों की बढ़ती संख्या के बाद इनके मालिकों/चालकों की मंशा नहीं बदली तो शहर में घरेलू सिलेण्डरों की कमी से त्राहिमाम् होते देर नहीं लगेगी। सरकारी मुलाजिम जिस तरह से काम करते और करने को ‘मजबूर’ होते हैं, उसकी वाकफियत सभी को है?
-- दीपचंद सांखला
4 फरवरी, 2012

नील गाय के बहाने कुछ.... (3फरवरी, 2012)

कल सुबह-सवेरे दो नील गायें भटक कर बीकानेर के सिविल लाइन के आबादी क्षेत्र में आ गईं। भटक कर इसलिए लिखा है कि ये नील गायें सामान्यतः अपने को आबादी क्षेत्र से बाहर रखती हैं। कहा चाहे यह जाता रहा हो कि सजीवों में मनुष्य इसलिए श्रेष्ठ हैं कि उसमें समझ और विवेक होता है। लेकिन इसके यह मानी कतई नहीं है कि जानवरों में न्यूनतम समझ भी नहीं होती। समझ भी होती है और उस समझ का उपयोग भी करते उन्हें देखा गया है। तभी बुद्धू मानी जाने वाली नील गाय अपने को आबादी क्षेत्र से बाहर रखती हैं और यह भी कि उसे परभक्षियों से अपने को बचाये भी रखना है, इसलिए सुदूर निर्जन जंगलों में भी वह नहीं जाती। इस न्यूनतम समझ का उपयोग करके ही वो अपनी नस्ल को आज तक बचा पायी है।
लेकिन पर्याप्त समझ और ऊपर से विवेक का तकमा लगाये हम मनुष्यों ने कल उन दो नील गायों को लगातार तब तक हड़काये रखा जब तक कि वो छावनी क्षेत्र में ना चली गईं। नागरिकों के लिए वर्जित छावनी क्षेत्र में वे नहीं घुसतीं तो शायद पैदल, दुपहियों और यहां तक कि तिपहियों पर उनके पीछे भागते नजर आये लोग शायद उन्हें तब तक ना छोड़ते, जब तक वे किसी बड़े वाहन से टकरा कर खत्म ना हो जाती।
जैसा कि सुनते आएं हैं और तीस-चालीस साल पहले तक इसी बीकानेर शहर में इस तरह भटक कर आये जीवों को तमाशबीनों द्वारा परेशान करने पर कुछ लोग टोक-बरज देते थे, और नहीं मानने पर डांट भी देते थे। इस तरह की समझाइश पर वही परेशान करने वाले लोग उसी जीव को परोट कर वापस उसकी रिहाइश तक छोड़ भी आते थे। अब ना तो वैसे टोकने-बरजने वाले लोग देखे जाते हैं और अगर कोई इस तरह का साहस-समझदारी दिखाता भी है तो तमाशबीन सामने मंडने को तैयार होते हैं, अब इन सामने मंडने वालों को टोकने-बरजने-समझाने की हिम्मत जुटाने वाले तो लगभग दुर्लभ ही हो गये हैं।
इस घटना की खबरें यूं लगी और  प्रसारित हुईं कि इन नील गायों के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त और परेशानी का शिकार हुआ। सूचना-समाचारों का मुख्य माध्यम टीवी-अखबार विवेकी कहे जाने वाले उसी मनुष्य के पास है जिनकी बढ़ती हुई आबादी विस्फोटक कही जाने लगी है और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने वाली भी! आबादी क्षेत्र विकरालता से बढ़ता जा रहा है। वन्य जीव जन्तुओं की बहुत-सी प्रजातियां समाप्त हो गई हैं और बहुत-सी समाप्त होने की कगार पर हैं। इन जीव-जन्तुओं के रहने, विचरने और चरने के स्थानों को हमने सीमित कर दिया है। उनकी परेशानियों पर विचार करने का भी समय हमारे पास नहीं है। बावजूद इसके हम सभ्य हैं, समझदार है और विवेकी भी!
-- दीपचंद सांखला
3 फरवरी, 2012

बात अखबारी पाठकों की... (2फरवरी, 2012)

जिन किसी की भी पॉकेट की पहुंच अखबार के मासिक बिल के भुगतान तक की है, लगभग उन सभी के यहां एक अखबार तो जरूर आता है, सुबह के अखबार सामान्यतः आठ से सोलह पृष्ठों के होते हैं, ब्रॉडशीट के न्यूनतम आठ पृष्ठ तो इसलिए कि उसके बिना सरकारी विज्ञापनों के लिए निर्धारित राज्य स्तरीय दरें नहीं मिलती। अखबार को चलाये रखने के लिए यह सरकारी विज्ञापन बड़ा आर्थिक आधार बनते हैं, अन्यथा कहा जाता है इन अखबारों की प्रति कॉपी लागत आठ से अठारह रुपये तक आती है। निजी क्षेत्र के विज्ञापन भी अखबार की साख के आधार पर मिलते हैं और इस साख के बनने का एक आधार इन सरकारी विज्ञापन का मिलना भी माना जाता है।
विभिन्न रुचि संपन्न पाठकों के लिए खबरों के अलावा भी बहुत सारी सामग्री रोजाना जुटानी होती है। पाठकों से बात करें तो कुछ आश्चर्यजनक सूचनाएं सामने आती हैं। पाठकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिनका ताजे समाचारों-सूचनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। इनमें कुछ तो छप रहे किसी धारावाहिक कॉलम को ही पढ़ते हैं तो कुछ केवल चित्रकथा देखते-पढ़ते हैं, और कुछ ऐसे भी होते हैं जो केवल वर्ग पहेली से ही अपना वास्ता जाहिर करते हैं। ऐसे भी बहुत से पाठक होते हैं जो केवल विज्ञापन ही देखते हैं तो कुछ ऐसे भी कि इन विज्ञापनों में भी केवल सरकारी टेन्डर या विज्ञप्तियां टटोलते हैं। अपनी-अपनी जरूरत के क्लासीफाइड विज्ञापन देखने वालों की तादाद भी अच्छी-खासी है। किसी अखबार में खेल का पन्ना या फिल्मी सामग्री ना हो तो कई उसे अखबार ही नहीं मानते।
जिस संपादकीय के नियमित प्रकाशित नहीं होने पर सरकार अखबार ही नहीं मानती उसी संपादकीय को पढ़ने वाले पाठक न्यूनतम पाये जाते हैं। सभी अखबारों के नियामकों को इसकी जानकारी होती है। शायद इसीलिए वे इस पर गंभीर नहीं होते। क्या संपादकीय का पाठक वर्ग बनाना असंभव है, ऐसा बिलकुल नहीं है। राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी और लाला जगतनारायण ने अपने-अपने सम्पादकीयों के नियमित पाठक वर्ग बनाये थे।
पाठकों में कुछ ऐसे भी देखे गये हैं जो अखबार का सिरोपांव तक अवलोकन करते हैं। इनमें हाल ही दिवंगत हुए पं. बंशीधर बिस्सा एक थे। छियानवें वर्ष की उम्र में अस्वस्थ होने से पहले तक अलसवेरे उन्हें अखबार चाहिए था और बाकी के परिजन जब तक सोकर उठते, उससे पहले वे अखबार को सांगोपांग तरीके से देख व बांच लेते थे और आये-गये से उस पर चर्चा भी करते थे। इन दिनों का तो पता नहीं, एक अरसा पहले तक कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य न केवल अखबारों में छपी घोर रुचिहीन सामग्री बल्कि विज्ञापन तक पढ़ने की आदत बनाये हुए थे।
-- दीपचंद सांखला
2 फरवरी, 2012

प्रतिष्ठित होता कानून का राज (1फरवरी, 2012)

पिछले एक अरसे से अखबारों में जिस तरह की खबरें आ रही हैं वो सुकून देती लगती हैं, यानी न्यायपालिका की सक्रियता और अन्ना आंदोलन की रोशनी में देश में लगातार ऐसा कुछ घटित हो रहा है जिससे लगने लगा है कि कानून का राज प्रतिष्ठित होगा। कहने को तो कानून का राज हमेशा ही रहा है लेकिन लगता नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट ने कल एक अहम व्यवस्था दी है कि सरकार अपने मंत्रियों और अफसरों पर भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने की अनुमति यदि चार माह में नहीं देगी तो उस मामले में अनुमति लेने की जरूरत खत्म हो जाएगी। देखा गया है कि इस तरह के मामलों की फाइलें सरकार में 20-20 वर्ष तक दबी रहती हैं और तब तक आरोपी या तो सेवानिवृत्त हो जाता है या फिर इस दुनिया से ही विदा हो लेता है। इससे जाहिर होता है कि सरकार इस निवृत्ति और विदाई का इंतजार ही करती है? धीरे-धीरे धारणा यह बनती गई कि समरथ का कुछ भी बिगड़ेगा नहीं और जब ऐसी धारणा आम हुई तो लोगों में दबंगों और समर्थों के खिलाफ आवाज उठाने की इच्छाशक्ति भी समाप्त होने लगी।
2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट की दी गई उक्त व्यवस्था हो या जयपुर में रामगढ़ बंधे की आगौर की जमीनों को खुर्द बुर्द करने का मामला, इनसे न्याय-व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ा है। ऐसे ही भंवरी प्रकरण में भी दबंग-दिग्गजों के सीखचों के पीछे होने से लोगों का कानून व्यवस्था पर भी जी जमने लगा है। एक अरसे बाद जगे इस भरोसे का ही नतीजा है कि आज के अखबारों में ही स्थानीय दो भिन्न मामलों के समाचार हैं जिनमें अदालतों ने जिले के लगभग पूरे शीर्ष प्रशासन के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को जांच के आदेश दिये हैं। अब यह अलग बात है कि जांच के नतीजे क्या आते हैं। हो सकता है अपीलकर्ताओं की अधकचरी जानकारी या अधकचरे साक्ष्य के चलते मामले सिरे नहीं चढ़ें। या यह भी कि अपीलकर्ताओं के व्यक्तिगत दुराग्रहों के चलते आरोपियों को केवल परेशान करना ही उनका मकसद हो और बीच जांच में पांव पीछे कर लें। यह भी कि ऐसा कुछ नहीं हो और आरोपी इतने सक्षम निकलें कि वो जांच को ही प्रभावित कर दें, क्योंकि इस तरह की संभावनाओं की बातें देखी-सुनी जाती रही हैं, लेकिन बावजूद इन सबके, अदालतों की इस सक्रियता को रेखांकित तो किया ही जाना चाहिए।
शहरी विकास को लेकर एक सकारात्मक समाचार और भी है। पारीक चौक की एक गली में घरों के आगे बनी चौकियों को न तोड़ने के आग्रह के चलते सड़क निर्माण का काम लगभग एक पखवाड़े से रुका हुआ था। कल की समझाइश के बाद अड़े लोग चौकियां हटवाने को मान गये हैं और कार्य प्रारम्भ हो गया है। इसी तरह की समझाइश और अड़ियल रुख छोड़ने की जरूरत है बढ़ते शहर के विकास के लिए।
-- दीपचंद सांखला
1 फरवरी, 2012

Thursday, November 22, 2018

दाता की स्पर्द्धा है जहां.... (30जनवरी, 2012)

आज के अखबारों में फोटो सहित एक खबर है जिसमें बताया गया है कि कुछ भामाशाहों के सहयोग से ‘रॉक ऑन ग्रुप’नामक संस्था ने 90 क्विंटल गेहूं का निःशुल्क वितरण करवाया है। इसके लाभान्वितों में कुछ जरूरतमंद और कुछ ऐसी संस्थाएं हैं जो कम मूल्य में भोजन उपलब्ध करवाती हैं। समर्थ सामाजिकों में इस तरह के विसर्जन भाव का होना उल्लेखनीय है। चाहे वो मकर संक्रांति के बहाने हो या फिर बसंत पंचमी के अवसर पर। लेकिन इस तरह के विसर्जन को दान कहना या दाताभाव से फोटो साया करवाना कितना उचित है, यह विचारणीय है। देखा गया है कि टीवी अखबार वाले भी ऐसों को सुर्खीयां देने से नहीं चूकते। ऐसे अवसरों पर प्रेस फोटोग्राफर सामने वाले से लगभग माजना लेने की हद तक न केवल मुद्राएं बनवा लेते हैं बल्कि एक से अधिक रीटेक भी करवा लेते हैं। फोटो खिंचवाने वाले बहुत ही सहज भाव से यह करते भी हैं!
ऐसा नहीं है कि मुद्रा और वस्तुओं का विसर्जन करने वाले सभी उसको विज्ञापित ही करते हों! कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें विज्ञापित करने के अवसर ही नहीं मिलते। लेकिन बहुत से संस्कारित ऐसे भी होते हैं जो यह सब करते तो हैं लेकिन दाताभाव से नहीं। ऐसे लोग भारतीय परम्परा के अनुसार उॠण होने के भाव से ऐसा करते हैं। यानी जिस समाज में कुछ कर सकने का सामर्थ्य हासिल किया, उस समाज के आप प्रति ॠणी हुए, ॠणी हैं तो उससे उॠण होना आपका धर्म है। धर्म उनके प्रति जो ऐसी सुविधाओं से वंचित हैं जो आपको हासिल है। परम्परा के उल्लेख के साथ गुणीजन ऐसा बताते रहे हैं, न केवल गुणीजन बल्कि आधुनिक साहित्य सर्जन में भी यह पढ़ा जा सकता है।
सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय की इन दो पंक्तियों का उल्लेख मौजूं होगा, तल्ख जरूर ह्रै
दाता की स्पर्द्धा हो जहां, मन होता है मंगते का।
दे सकते हैं वही जो चुप, झुककर ले लेते हैं।
-- दीपचंद सांखला
30 जनवरी, 2012

जनवरी : सम्मान जुगाड़ू महीना (28 जनवरी, 2012)

जनवरी माह को हमारे यहां तिकड़म और जुगाड़ का महीना घोषित कर देना चाहिए। दो बड़े राष्ट्रीय पर्वों में से एक गणतंत्र दिवस जनवरी की 26 तारीख को आता है। लेकिन अब इस दिन का एक महातम और भी है। इस अवसर पर ग्राम, तहसील, जिला, संभाग, राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के सम्मानयोग्य लोगों की फेहरिस्त जारी होती है या वे सम्मानित हो जाते हैं। जितने बड़े स्तर का सम्मान उतनी ही बड़ी अवधि की प्रक्रिया भी उसे पाने की। कहते हैं कि राष्ट्रीय स्तर के पद्म पुरस्कारों की प्रक्रिया कई-कई महीने पहले शुरू हो जाती है। अपना शहर संभागीय मुख्यालय भी है इसलिए स्थानीय स्तर के सम्मानों की फेहरिस्त लगभग जनवरी माह में ही तय होती है।
आजकल इन सम्मानों को पाना आसान माना जाने लगा है। जो लोग इन्हें पाने की जुगाड़ और तिकड़म में लगे होते हैं, उनका मानना है कि यह काम बहुत मुश्किल है। लेकिन जब इस तरह का सम्मान पाये व्यक्ति के सामने आप सम्मान पाने की अपनी आकांक्षा जाहिर करेंगे तो वो सहज ही रास्ता बताने को उत्सुक दिखलाई देगा। दबी जबान से वह अनुभव प्रक्रिया का इस तरह बखान करेगा कि आपको करणीसिंह स्टेडियम के उस मंच पर होने का अहसास होने लगेगा, जहां मुख्य अतिथि खड़े होते हैं। हो सकता है वो इस प्रक्रिया की शुरुआत एक जनवरी से बताये कि किस-किस को एसएमएस भेजें और किस-किस के यहां बुके या मिठाई का डिब्बा लेकर पहुंचें। आप यदि किसी कम आत्मविश्वास वाले सम्मानित शख्स से पूछ बैठें तो हो सकता है वो एक साल की लम्बी व जटिल प्रक्रिया बताते हुए होली से शुरू कर अक्षयतृतीया, 15 अगस्त, दिवाली, ईस्वी नववर्ष तक की लम्बी प्रक्रिया में आपको डाल सकता है। हो सकता है कि इस तरह के लोग आपको भण भांगु लगने लगें और ये मान लें कि यह झंझट अपने बस का नहीं। तब आप में दो प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं, एक तो यह कि आप इन सम्मानों से निर्लिप्त हो जाएं। दूसरी प्रतिक्रिया यह कि आप को लगे कि इससे तो अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण निष्ठा से कार्य करना ज्यादा आसान है। इसलिए जिसको भी सलाहकार चुनें सोच-समझ कर चुनें।
यह खुद आपको ही तय करना है कि इस तरह के सम्मानों के लिए कब से लगना है। आत्मविश्वास हीनता के चलते अभी से लग गये तो इस हीनता के चलते ही हो सकता है कि अन्त तक ही सफल न हों। पर इसमें एक संभावना जरूर बनती है कि इस तरह की हीन भावना के साथ लगातार कई वर्षों तक प्रयास करके आप कइयों में अपने प्रति दयालुता जगा दें और ऐसे ही किसी मंच पर अपने को खड़ा पायें!
-- दीपचंद सांखला
28 जनवरी, 2012

एस सी/एसटी कानून : समाज को बालिग होना होगा (27 जनवरी, 2012)

एससी/एसटी अत्याचार-उत्पीड़न के मामलों की तिमाही समीक्षा हेतु गठित बीकानेर जिला स्तरीय सतर्कता एवं मॉनीटरिंग समिति की बैठक 23 जनवरी, 2012 को हुई। इसमें बताया गया है कि अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत वर्ष 2011-12 में पीड़ितों के लिए बजट में कुल राहत राशि रुपये 15.5 लाख आवंटित की गई थी जिसमें से अब तक रुपये 14,12,500 की राशि स्वीकृत की जा चुकी है। यह राशि विभिन्न 58 प्रकरणों में 79 पीड़ितों को स्वीकृत-आवंटित की गई है।
सार्वजनिक धन की अन्य सभी योजनाओं और आवंटन में सामान्यतः जो गड़बड़ियां होती है, जाहिर है कमोबेश इसमें भी हुई ही होंगी। हो सकता है कुछ झूठे प्रकरण बनाये गये होंगे, कुछ अन्य मामलों का बदला लेने के लिए और कुछ केवल राहत राशि पाने के लिए बनाये गये होंगे।
भारतीय समाज में एस.सी./एस.टी. और स्त्री उत्पीड़न अधिकांशत इतनी बारीकी से और अनायास अंजाम दिए जाते हैं कि उस पर सामान्यतः ध्यान ही नहीं जाता। देखा गया है कि शोषक या उत्पीड़क इसे इतनी मासूमियत से अंजाम देता है कि अहसास ही नहीं होता कि उससे कोई अन्याय हो भी रहा है। यह सब होता ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’ की ही तर्ज पर है। कोई भी सत्तारूप जिस किसी के पास होता है वह इस तरह के उत्पीड़न-अत्याचार को सामान्य लोकाचार के रूप में अंजाम देने लगता है। शारीरिकबल, धनबल, शासनबल, कर्मकांडबल आदि-आदि जैसे सत्तारूप होते समाज में सीमितों के पास ही हैं जबकि इनसे उत्पीड़ित समाज का बड़ा हिस्सा होता है, बारीकी से या कभी-कभार मोटे रूप में और विभिन्न तरीकों से हुए ऐसे उत्पीड़नों को लोकाचार मान लिए जाने के चलते इस पर अधिकांशतः ध्यान ही नहीं जाता।
एस.सी./एस.टी. कानून के दुरुपयोग की आशंकाओं जैसी-सी आशंकाएं स्त्री-उत्पीड़न कानून को लेकर भी चर्चा में रहती हैं। अधिकतर यह सुना जाता है कि दहेज की मांग के अधिकतर मामले गलत होते हैं। यानी पति-पत्नी और बहू-सास-ससुराल के बीच तनाव के कारण अन्य कई होते हैं लेकिन थानों में दर्ज कारण दहेज ही होता है। जो गलत है, उसे गलत ही कहा जाना चाहिए। लेकिन समझना यह भी होगा कि भारतीय समाज का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा माने जाने वाले दलित और स्त्रियां, सदियों से दोयम दर्जे की नागरिकता को  अभिशप्त हैं, इन्हें लोकाचार के नाम पर जब तक अभिशप्त रहने देंगे तब तक कानूनों के दुरुपयोग की ऐसी संभावनाएं भी बनी रहेंगी। उत्पीड़न होगा तो कानून बनेंगे और कानून बनेंगे तो उसके दुरुपयोग की आशंकाएं भी बनी रहेंगी। ऐसे दुरुपयोगों से बचने के लिए मासूमियत को त्याग कर समाज को बालिग होना होगा, व्यापक सामाजिक संस्कारों में बदलाव लाना होगा। भाग्य में यही लिखा है, इस जुमले को छोड़ना होगा। हालांकि संस्कारों में बदलाव का काम तकनीक कर रही है लेकिन उसके सकारात्मक बदलावों की गति बेहद धीमी और प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित है।
-- दीपचंद सांखला
27 जनवरी, 2012

डूडी की आत्मविश्वासहीनता और बीकानेर पूर्व और पश्चिम में राफडऱोळी


'राजस्थान विधानसभा चुनाव : बीकानेर जिले में कांग्रेस को कुछ हासिल करना है तो नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी की फदरपंचाईती नोखा तक ही सीमित कर देनी चाहिए अन्यथा ये इतना कबाड़ा कर देंगे कि कांग्रेस की खीर को कुत्ते भी नहीं खाएंगे।'
28 सितम्बर, 2018 दोपहर बाद के अपने इस ट्वीट/फेसबुक पोस्ट के हवाले से बीकानेर जिले की चुनावी राजनीति की बात कर लेते हैं। कांग्रेस आलाकमान ने उक्त ट्वीट का संज्ञान लिया, इसे अपनी खुशफहमी चाहे ना भी मानें लेकिन आलाकमान ने जिले की सात में से तीनखाजूवाला, लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ में डूडी को खिंडावण नहीं करने दी, इतना ही बहुत है। और यह भी कि नोखा में अपनी हार की आशंका में दूबळै होते नेता प्रतिपक्ष को नोखा के बजाय लूनकरणसर से उम्मीदवारी तक की छूट नहीं दी। सूबे की संभावित सरकार में कैबिनेट मंत्री बनने में डूडी के लिए दो बड़ी बाधाएंडॉ. चन्द्रभान और डॉ. बीडी कल्ला हो सकते थे। 33 जिलों से कुल 15-16 की कैबिनेट में जाटों में वरिष्ठ डॉ. चन्द्रभान और बीकानेर जिले से वरिष्ठ डॉ. बीडी कल्ला कैबिनेट मंत्री पद में डूडी के आड़े आ सकते थे, शायद इसीलिए डूडी लगातार दो बार हारने वाले को टिकट नहीं देने पर अड़े रहे। पैराशूटर्स को टिकट नहीं देने जैसे बचकाने और अव्यावहारिक निर्णय की तरह ही लगातार दो बार हारने वाले को टिकट नहीं देने के निर्णय को भी आलाकमान को अंतत: खूंटी पर टांग देना पड़ा। कहा भी जाता है कि जैसे काचर का बीज और असुरक्षित मनुष्य अपनी प्रकृति नहीं बदलता, इसी तर्ज पर हार जैसे असुरक्षित भाव से ग्रसित डूडी ने जो राफड़ बीकानेर शहर की दोनों सीटों पर डाली, उससे पार्टी का उबरना अब भारी साबित हो रहा है।
लगातार दो बार हारे डॉ. बीडी कल्ला को दरकिनार कर खुद उनके अपने बीकानेर शहर कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत को बीकानेर पश्चिम से टिकट दे दी गई। जैसे ही ऐसा हुआ, सत्ता से निहाल हुए कल्ला के परिजन यशपाल पर दबाव यह बनाने लगे कि वह पार्टी हाइकमान को लिख कर दें कि उन्हें चुनाव लडऩा ही नहीं है। इधर शहर में कल्ला के समर्थक डागा चौक से लेकर कोटगेट फाटक तक हीकछडि़न्दा हो लिए। कार्यकर्ताओं में पनपा असंतोष जायज है, समर्थक नाउम्मीदगी में इतना भर नहीं करेंगे तो 'कैसा लोकतंत्रÓ। लेकिन बीकानेर पूर्व में जो दूसरी घोषणा पैराशूटर्स कन्हैयालाल झंवर की कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर की गई, उस पर भी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इस सीट पर कई स्थानीय के दावे धरे रह गये। इनमें से किसी एक को उम्मीदवारी मिलती तो रोष फिर भी इतना नहीं होता। जबकि इसी बीकनेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में हुई अपनी रैली में राहुल गांधी एक महीने पहले ही यह भरोसा दिला गये थे कि पैराशूटर्स उम्मीदवार की डोर वह स्वयं काट देंगे। पर बीकानेर पूर्व से ना केवल एक गैर कांग्रेसी को बल्कि नोखा में राजनीति करते रहने वाले झंवर को केवल इसलिए उतार दिया कि इससे नोखा में डूडी की जीत सुरक्षित हो जायेगी। हालांकि अपरिपक्व राजनीतिज्ञ डूडी की यह आस गलत इसलिए साबित हो सकती है कि झंवर नोखा में रहते तो लाभ डूडी को ही होता। झंवर को मिलने वाले अधिकांश वोटों को भाजपा में जाने से डूडी रोक नहीं पाएंगे। डूडी तो चलो अपरिपक्व राजनेता हैं लेकिन घाघ कन्हैयालाल झंवर ने अपनी अक्ल निकलवा ली, आश्चर्य तो इसी बात का है। झंवर नोखा के चुनाव को त्रिकोणीय बनाते तो उनकी जीत की संभावना वहां फिर भी थी पर यहां बीकानेर पूर्व में तो ऐसी कोई गुंजाइश दिख भी नहीं रही। वह भी तब जब बीकानेर पूर्व की घनी आबादी वाले मुहल्लों के बाशिन्दे आज भी अस्सी-सौ वर्ष पूर्व की मानसिकता से मुक्त नहीं हुए हैं, चाहे फिर वे माली, मुसलमान, मेहरे हों या कि राजपूत और रावणा राजपूत या फिर चारण-ब्राह्मण तथा इन्हीं मुहल्लों के इर्द-गिर्द रहने वाले अनुसूचित जाति के वोटर ही क्यों ना हों। सिद्धिकुमारी के सामने झंवर अपनी चतुराई कितनी दिखा पाएंगे, देखने वाली बात होगी। इस सीट पर कांग्रेस की हार-जीत का पिछला अन्तर झंवर कम कर पाएंगे, यह कहना भी अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी जो नामांकन भरे गये हैं उनमें से कितने और किन-किन के वापस होंगे, बहुत कुछ उस पर भी निर्भर होगा।
डूडी की कुचमादी से हुआ यह है कि बीकानेर शहर के दोनों विधानसभा क्षेत्रों में अच्छे-खासे वोटों वाले माली समुदाय को कांग्रेस ने जबरदस्त नाराज कर लिया हैअनुमान है कि इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में इस समुदाय के अलग-अलग 23 से 25 हजार वोट हैं। नाराजगी का कारण भी बड़ा है, पहले तो बीकानेर पूर्व से पिछली बार के उम्मीदवार गोपाल गहलोत को नजरअंदाज किया गया फिर इसी समुदाय के यशपाल गहलोत को बीकानेर पश्चिम से दी गई उम्मीदवारी वापस लेकर पूर्व से दी और फिर पूर्व से भी वापस ले ली। कांग्रेस मालियों को मनाने में नाकाम रही तो बीकानेर पूर्व के परिणामों पर वे असर भले ना डालें लेकिन यह नाराजगी बीकानेर पश्चिम के डॉ. कल्ला के लिए भारी पड़ सकती है। उन कल्ला के लिए जिन्हें निर्विवाद रूप से पहले ही उम्मीदवारी दी गयी होती तो जिनकी जीत निश्चित मानी जा रही थी। हालांकि बीकानेर पश्चिम में जीत का गणित यशपाल के लिए कल्ला से ज्यादा पक्ष में था, लेकिन यह बात उन डूडी को समझ ना आयेगी जो खुद को तरजीह पार्टी से ज्यादा देते रहे हैं।
रामेश्वर डूडी को यह नहीं भूलना चाहिए कि नेता प्रतिपक्ष की उनकी वर्तमान हैसियत उनकी काबिलीयत की वजह से नहीं, वरन् 2013 के चुनाव में कांग्रेस के अधिकांश वरिष्ठ नेताओं के हार जाने पर पार्टी की मजबूरी की वजह के चलते बनी है और यह भी कि अभी के टिकट वितरण में लिहाज उनका नेता प्रतिपक्ष के पद की वजह से किया गया है। यह भी सभी जानते हैं कि 2013 की कांग्रेस विरोधी लहर में वे जीते भी तो कन्हैयालाल झंवर और देवीसिंह के नेक्सस के चलते। भाटी ने तब अपनी ही पार्टी के साथ घात करके बिहारी बिश्नोई जैसे मजबूत उम्मीदवार की जगह सहीराम बिश्नोई जैसे कमजोर को उम्मीदवारी दिलवाई थी। बाइचांस बनी हैसियत का हासिल तो यह होता कि डूडी पार्टी में अपने व्यक्तित्व को बड़ा बनाते, यदि वे ऐसा कुछ करते-कराते तो ना नोखा से अपने को असुरक्षित समझते और ना ही पार्टी पर दबाव बनाने के लिए उन्हें तुनकमिजाजी जैसी बचकानी हरकतें करनी पड़ती। डूडी यह भूल रहे हैं कि बाइचांस जैसे अवसर बार-बार नहीं मिला करते हैं।
दीपचन्द सांखला
22 नवम्बर, 2018