बात 1977 की है, आपातकाल के दौरान लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई।
कहते हैं इन्दिरा गांधी को सूचना हुई कि माहौल उनके अनुकूल है सो आपातकाल जैसे गलत
निर्णय पर जनता से लोकतांत्रिक मुहर भी लगवा लेनी चाहिए। चुनाव की घोषणा होते ही
असल माहौल खुलने लगा—यूं लगा कि बीच
अंधेरी रात में सूरज निकलने वाला है। कांग्रेस को अपने विपरीत माहौल का आभास तब
हुआ जब उसे उम्मीदवार मिलने में परेशानी होने लगी। राजस्थान में अस्सी पार के
जोगेन्द्रसिंह राज्यपाल हुआ करते थे। वैसे तो 80 पार की उम्र में भी कई चुस्त-दुरुस्त पाये जाते है जैसे
बीकानेर पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी। लेकिन सरदार जोगेन्द्रसिंह की स्थिति दूसरी
थी, उन्हें उठाने-बैठाने के
लिए ही दो हट्टे-कट्टों की जरूरत होती थी। ऐसे में जब उम्मीदवारों को टोटा आया और
उत्तरप्रदेश के बहराइच में उम्मीदवार नहीं मिला तो 1957 में वहीं से लोकसभा का चुनाव जीत चुके जोगेन्द्रसिंह को
राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलवा उम्मीदवार बनाया गया। उस माहौल में हारना ही था सो
वे जनता पार्टी के ओमप्रकाश त्यागी से चुनाव हार गये। जोगेन्द्रसिंह की यह
उम्मीदवारी इसलिए याद है कि तब अखबार गिने-चुने ही हुआ करते थे और वो भी दिल्ली या
जयपुर से आया करते थे। जोगेन्द्रसिंह की उम्मीदवारी की यह खबर तब दिल्ली के
अखबारों में 'बॉक्स न्यूजÓ
के तौर पर लगी।
जोगेन्द्रसिंह की उम्मीदवारी का स्मरण तब हो आया कि जब भारतीय जनता पार्टी ने
राजस्थान विधानसभा चुनावों की लिए अपने उम्मीदवारों की दूसरी सूची जारी की। इसमें 84 पार के गोपाल जोशी फिर से चुनावी मैदान में
उतारे गये हैं। हालांकि जैसा कि ऊपर बताया गया डॉ. गोपाल जोशी कुछ वर्ष पहले आने
वाले झंडू केशरी जीवन के उस मॉडल के से हैं जिनके लिए विज्ञापन की टेगलाइन थी—'साठ साल बूढ़े या साठ साल के जवानÓ। लेकिन अब जब मोदी-शाह की करतूतों की छाया में
सूबे की मुखिया वसुंधरा राजे ही जब हार नहीं मान रही तो अब तक वफादार रहे गोपाल
जोशी पांव भला पीछे क्यों पटकते? हालांकि भाजपा ने
अपनी पहली सूची में भी सूरसागर, जोधपुर से 80 पार की ही उम्मीदवार सूर्यकांता व्यास को
मैदान में उतार दिया, बताते हंै कि
इनकी शारीरिक स्थिति 1977 के सरदार
जोगेन्द्रसिंह से बहुत बेहतर नहीं है।
कांग्रेस ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की कोई सूची नहीं जारी की है। जिस तरह कई
फर्जी सूचियां सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं—वैसे ही कांग्रेस की सूची जारी ना हो पाने के भी कयास
लगातार वायरल हो रहे हैं, इनमें कई
उम्मीदवारों को लेकर सूबे के दिग्गजों में मतैक्य नहीं होना प्रमुख है। लेकिन
नामांकन करने की अंतिम तारीख ही जब 19 नवंबर है तो 15 नवंबर तक तो
उन्हें सूची जारी कर ही देनी चाहिए। वह भी तब जब मुख्य प्रतिद्वन्द्वी भाजपा ने
अपने तीन-चौथाई से ज्यादा उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं।
बीकानेर जिले की सातों सीटों पर भाजपा के घोषित उम्मीदवारों की बात करना वैसे
खास मायने तब नहीं रखता कि सामने हैं कौन? लेकिन फिर भी जब बात हवाई करनी है तो करने में हर्ज क्या? बात बीकानेर पश्चिम से घोषित गोपाल जोशी से ही
शुरू करते हैं, कांग्रेस यदि
बीडी कल्ला के अलावा किसी अन्य को उतारती है तो उनके लिए लगातार तीसरी बार
विधानसभा में पहुंचना आसान हो जायेगा और कांग्रेस से यदि कल्ला आते हैं तो लड़ाई
दोनों ही के लिए राजनीतिक जीवन-मरण की हो जायेगी। तब और भी ज्यादा जब साले-बहनोई
दोनों के लिए यह चुनाव अंतिम साबित होने वाला है। गोपाल जोशी के लिए 2013 की तरह मैदान फतह करना आसान नहीं है, तब उन्हें मिली अधिकांश अनुकूलताएं अब नहीं रही
है।
बीकानेर पूर्व की बातें करे तो घनी बसावट वाले क्षेत्रों के पारम्परिक
बाशिन्दों की गुलाम मानसिकता के चलते भाजपा की उम्मीदवार सिद्धिकुमारी के लिए यह
चुनाव भी चुनौतीविहीन रहने वाला है। भाजपा के सिम्बल का सिद्धिकुमारी की जीत में
कोई विशेष योगदान नहीं रहने वाला है, तब भी जब इस सीट के लिए कांग्रेस के मुखर या दावेदारी का मन रखने वालों में से
कोई भी उम्मीदवारी ले आए। हां, राज्यश्रीकुमारी
को उम्मीदवारी के लिए कांग्रेस तैयार कर ले तो पासा पलट सकता है, जो संभव लगता नहीं है।
कोलायत में भी भाजपा ने परम्परागत राजपूत गृहिणी पूनम कंवर से रुख बहुत कुछ
अपने पक्ष में कर लिया है। देवीसिंह का यह दावं जीवन के अन्तिम पड़ाव में उनके लिए
पिछला घाव भरने वाला साबित हो सकता है। भिड़ंत देवीसिंह-भंवरसिंह में होती तो
देवीसिंह के लिए मुश्किल होता लेकिन विनम्र महेन्द्रसिंह की पत्नी होने की
सहानुभूति और ससुर देवीसिंह का चुनाव प्रबंधन पूनम कंवर को विधानसभा भिजवा सकते
हैं। जीते चाहे पूनम कंवर लेकिन राजनीति ससुरजी ही करेंगे और ये भी कि 2023 के संभावित विधानसभा चुनाव के लिए वह पुत्र
अंशुमान के लिए सीट रोके रखने के अलावा कुछ कर पायेंगी, लगता नहीं।
जिले में हॉट सीट बन चुका नोखा क्षेत्र कन्हैयालाल झंवर के ताल ठोकने के साथ
ही नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी के लिए आसान नहीं रहा। भाजपा के बिहारीलाल
बिश्नोई को स्वजातीय वोटों के अलावा अन्य कुछ हासिल करना झंवर के मैदान में होने
से संभव नहीं लगता। डूडी यह चुनाव यदि हार जाते हैं तो जाट राजनीति में सांप-सीढ़ी
के खेल में उनके लिए 98 का अंक साबित
होगा जो सीधे दस के अंक पर ले आता है। डूडी की राजनीतिक समझ में बड़ी कमी यह है कि
वे टकटकी लक्ष्य की ओर ही लगाए रखते हैं इससे वे अक्सर ठोकर खाते हैं जबकि होना यह
चाहिए कि नजर कदमों पर होनी चाहिए और लक्ष्य के लिए इच्छाशक्ति।
खाजूवाला में भाजपा के डॉ. विश्वनाथ के सामने कांग्रेस गोविन्द मेघवाल को
उतारती है तो सीट निकाल भी सकती है अन्यथा मुश्किल होगा। यही स्थिति लूनकरणसर में
कांग्रेस से वीरेन्द्र बेनिवाल की उम्मीदवारी को लेकर है जहां भाजपा ने सुमित
गोदारा को फिर से उम्मीदवार बनाया है। हां, वहां अगर भाजपा के बागी प्रभुदयाल डटे रहें तो कांग्रेस के
लिए राह ज्यादा आसान होगी।
श्रीडूंगरगढ़ का मामला सबसे ज्यादा पेचीदा है। वामपंथी गिरधारी महिया अपनी
अच्छी खासी उपस्थिति से ताल ठोक चुके हैं, वहीं भाजपा विधायक किसनाराम नाई ने भी बगावत कर भारत वाहिनी पार्टी से चुनाव
लडऩे की घोषणा कर दी है। ऐसे में कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार मंगलाराम गोदारा
की राह आसान होते हुए भी मुश्किल हो जानी है, सुनते हैं नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी खुद बागी उम्मीदवार
के तौर पर कॉ. गिरधारी महिया में परकाया प्रवेश कर मैदान में आ सकते हैं।
कांग्रेस में उम्मीदवारों की घोषणा ना हो पाने की अंधेर और जिले के सातों
घोषित भाजपा उम्मीदवारों के आलोक में इतना तो समझ आ गया कि महीने-दो महीने पहले
बीकानेर जिले की सातों सीटों पर कांग्रेस की जो बढ़त लग रही थी वह अब बराबरी पर आ
गई गयी है।
—दीपचन्द सांखला
15 नवम्बर, 2018
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