Friday, May 31, 2013

रस्म अदायगी और लीक पीटना

जनाक्रोश को बढ़ाने वाली कोई दुर्घटना दिल्ली में हो या बीकानेर में उसका प्रशासनिक प्राथमिक उपचार एक-सा ही है, मंत्री या प्रशासन-पुलिस के बड़े अधिकारी गाड़ियों के जत्थों में कई बार घटना स्थल पर पहुंचेंगे, इन सबसे और कुछ हो या ना हो जनाक्रोश में तो कमी आती ही है। जनता मानने लगती है कि हमारे आक्रोश को भाव दिया जा रहा है। परसों हुई डकैती की घटना के बाद से बीकानेर में भी यही हो रहा है। लोक में इसे सांप निकल जाने के बाद लीक पीटना कहते हैं।
दूसरी ओर शहर के व्यापारियों को खजांची मार्केट व्यापार संघ के आक्रोश को सुर देने को प्रेरित किया जा रहा है। गए कल को खजांची मार्केट बन्द था तो आने वाले कल को पूरे शहर के व्यापार को बन्द करने की घोषणा कर दी गई है। मानो यह बन्द सभी समस्याओं का अचूक इलाज हो।
समाज में जो भी समस्याएं हैं उनके निबटारे के लिए तो प्रशासनिक अमला है लेकिन क्या अकेले प्रशासन की ही यह जिम्मेदारी है। समाज का अधिकांश समर्थ और सक्षम वर्ग या तो बिगाड़े में लगा है या सावचेत नहीं है। जबकि हकों के लिए ये सभी मुस्तैद हैं, और अपने कर्तव्यों की सुध तक नहीं लेते। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव है कि प्रशासनिक अमला जादुई छड़ी से सभी समस्याओं को छूमंतर कर देगा। इससे इनकार नहीं है कि प्रशासनिक अमले में कई या अधिकांश कर्तव्यनिष्ठ नहीं रहे हैं; ये भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। हम तो मैले भले ही रहें लेकिन प्रशासन दूध का धुला हो, ऐसी उम्मीदें कितनी व्यावहारिक हो सकती है!
खजांची मार्केट में सैकड़ों दुकानें और ऑफिस हैं, कहने को उनका एक संगठन भी है। क्या इस संगठन की जिम्मेदारी नहीं है कि कम से कम मार्केट के भीतर की जरूरी सावचेती की व्यवस्था वे स्वयं करें। कई बार चोरी की वारदातें हो चुकी हैं, हत्या भी हो चुकी है। मार्केट का मालिक अवैध निर्माण में लिप्त भी पाया गया। इन सब के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी वहां का व्यापार संघ समझता है या नहीं या केवल मीडिया में सुर्खियां पाने भर को ही इन संघों का भोग करता है।
शहर के अधिकांश बाजार और शॉपिंग मॉल्स सुरक्षा और पार्किंग आदि के तय मानकों पर खरे नहीं हैं, वे मार्केट भी जो सरसब्ज हैं, वहां भी न्यूनतम मानकों का निर्वहन नहीं होता। शहर के पहले शॉपिंग मॉल सिल्वर स्क्वायर का निर्माण जरूर लगभग तय मानकों पर हुआ। उसके बाद बने लगभग सभी मॉल्स में तय मानकों से आधों का भी ध्यान नहीं रखा गया है। स्थानीय निकायों ने भी पता नहीं किन कारणों से सम्मोहित होकर या आंखें मूंद कर सब होने दिया है। स्टेशन के सामने के सभी मॉल्स सड़कों की छाती पर खड़े दीखते हैं। यह सब कैसे संभव हुआ? कल कोई बड़ी दुर्घटना हो तो कौन जिम्मेवार होगा? व्यापारी सावचेती ना रखें और करतूतें भी करें और कुछ बुरा घटित हो जाए तो बन्द का आह्वान करके जनजीवन को अस्त-व्यस्त करने में भी देरी ना लगाएं। इन बन्द-हड़तालों को दिहाड़ी मजदूर तो भुगतते ही हैं, और भी बहुत से लोगों के रोजमर्रा के कामों में बाधा आती है। दुर्घटनाओं के ऐसे अवसर आत्मावलोकन के होते हैं ना कि केवल हाकों के।
31 मई, 2013


उलटबांसी
कल एक अजब वाकिआ भी हुआ। शहर को साफ-सुथरा रखने की जिम्मेदारी जिस निगम की है उसी की उपमहापौर अपने घर के पास की अकुरड़ी को हटवाने की गुहार लगाने कुछ मुहल्लेवासियों को लेकर जिला कलक्टर के पास पहुंच गईं। अरे! उपमहापौर की भी खुद उसके अधीनस्थ नहीं सुनते हैं तो महापौर हैं ना। क्या महापौर ने भी अनसुना कर दिया, तो कलक्टर क्या महापौर से ऊपर हैं। अपनी अक्षमताओं पर पर्दा डालने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का मजाक तो ना बनाएं उपमहापौर मोहतरमा!


31 मई, 2013