Thursday, May 31, 2018

मूल्यों के खयाल के साथ राजनीति करने वाले अशोक गहलोत 'भोले' हैं ना 'भोंदू'


गुजरात चुनाव के बाद से अशोक गहलोत कांग्रेस की केन्द्रीय राजनीति की चर्चाओं में हैं। वहीं 2019 के चुनावों के बाद की बात करने वालों में से कईयों का यह मानना है कि किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में विपक्षी सहमति के लिए कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल के बाद दूसरे नाम की जरूरत पड़ी तो वह अशोक गहलोत का हो सकता है। जिन्हें ऐसा दूर की कौड़ी लगता है, उन्हें पिछली सदी के अन्तिम दो दशकों की केन्द्रीय राजनीति को खंगाल लेना चाहिए।
फिलहाल हमें राजस्थान के सन्दर्भ से बात करनी है, क्योंकि 2019 से पहले है 2018, जिसके अन्त में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के साथ राजस्थान विधानसभा के चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नजरबंदीय करिश्मे के बावजूद राजस्थान में भाजपा की हालत कुछ ज्यादा ही खस्ता है। सुनते हैं खुद सरकार के खुफिया विभाग ने मात्र 39 सीट का आंकड़ा देकर पार्टी के हर छोटे-बड़े नियंता का चैन छीन लिया है। खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह अपना डेरा यहीं डालने की सोचने लगे हैं।
अचम्भा तो यह है कि इस सबके बावजूद राजस्थान का मुख्य और एकमात्र विपक्षी दल कांग्रेस इतमीनान से है। प्रदेश पार्टी अध्यक्ष सचिन पायलेट किस जुगत में रहते हैं, पता नहीं चलता। अच्छे डिबेटर और सुलझे हुए नेता होने के बावजूद पायलेट भीड़ से भय खाते नजर आते हैं, प्रदेश भर से पहुंचने वाले कार्यकर्ताओं के बीच भी वे अपने को सहज नहीं पाते तो फील्ड में उनसे क्या उम्मीद करें। जबकि राजस्थान की जनता आगामी विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा को नकारती है तो मुख्यमंत्री होने की संभावना पायलेट की ज्यादा लगती है बावजूद इसके पार्टी उनको मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित कर चुनाव शायद ही लड़े, ऐसा करके अशोक गहलोत से जनता की उम्मीदों को वह खत्म नहीं करना चाहती है। कांग्रेस हाइकमान यह भी जानती है कि राजस्थान में गहलोत के नाम के बिना चुनाव में जाना जोखिम भरा है।
कई पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जो ये कहते हैं कि अशोक गहलोत तीसरी बार सूबे के मुख्यमंत्री बनने की फिराक में हैं, उन्हें गहलोत के तखमीने से अवगत हो लेना चाहिए। दूसरे प्रदेशों के नेता का तो पता नहीं लेकिन राजस्थान में अशोक गहलोत आजादी बाद सार्वजनिक जीवन में आने वाले अकेले ऐसा नेता हैं जिनका ना तो पुख्ता जातीय आधार है, ना वे किसी राजनीतिक घराने या सम्पन्न परिवार से हैं। बावजूद इस सबके स्वनिर्मित छवि के आधार पर मात्र 29 वर्ष की उम्र में हर तरह की कसौटी पर दुरूह जोधपुर सीट से लोकसभा के लिए ना केवल चुनकर गये बल्कि पहली ही बार में केन्द्र में मंत्री भी बने।
मकसद विशेष से चुने किसी भी कॅरिअर में उत्तरोत्तर तरक्की की आकांक्षा को गलत नहीं कहा जा सकता, वह भी तब जब कोई उसके लिए पूरी तरह डिजर्व करता हो, गहलोत पर यह बात फिट बैठती है। इस संदर्भ में पहले यहीं बताया एक प्रसंग पुन: दोहरा देता हूं—पिछले वर्ष 3 जनवरी 2017 की बात है, एक निहायत निजी लम्बी बातचीत में राजस्थान में राजनीति में अपनी भूमिका के प्रसंग में गहलोत ने कहा था कि 'देखिए, हमारे कांग्रेस में कल्चर है कि आप काम करते रहो, जो डिजर्व करते हो वह मिलेगा।' तब गहलोत गुजरात में चुनाव पूर्व की तैयारियों में लगे थे और पारिवारिक कारणों से जयपुर आए हुए थे। उनके इस नैष्ठिक भाव का ही नतीजा था कि मोदी-शाह के गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को लगभग सफलता मिली। इसके बाद से ही लगातार लुंज-पुंज होती पार्टी में उनकी जरूरत को समझा गया और एक तरह से सांगठनिक दारमदार पार्टी ने उन्हीं पर छोड़ दिया है।
जो गहलोत को जानते हैं वे ये भी अच्छे से समझते हैं कि गहलोत की पार्टी में वर्तमान जिम्मेदारी परिवार की उस गृहिणी जैसी है जो अपने शिशु का मोह त्याग घर के अन्य जरूरी काम निबटाने में लग जाती है।  यह राजस्थान गहलोत के लिए गृहिणी के उस शिशु से कम नहीं है जहां प्रत्येक जिला-तहसील स्तर तक के कार्यकर्ताओं से इनके 'नाम-पुकारू' रिश्ते हैं। चूंकि पार्टी गहलोत के लिए घर-परिवार से कम नहीं है, पार्टी के इन हालातों में राजस्थान की सत्ता को वे पार्टी से ऊपर तरजीह देंगे, नहीं लगता। 2019 के लोकसभा चुनावों और उसके बाद भी कांग्रेस को गहलोत जैसे चतुर और कर्मठ नेता की जरूरत है, वे खुद इसे अच्छे से समझते भी होंगे। कर्नाटक विधानसभा और हाल ही के चार लोकसभा और दस विधानसभा उपचुनावों के परिणामों से बन रही उम्मीदों के बाद मोदी विरोधी एकजुटता की जरूरत वैसी ही महसूस की जा सकती है जैसी आपातकाल के बाद कांग्रेस विरोधी एकजुटता की महसूस की गई थी। ऐसे में केन्द्रीय राजनीति में अशोक गहलोत की भूमिका की संभावना ज्यादा दिखती है।
राजस्थान के साथ उन्हें मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम को भी देखना है, ऐसे में मुख्यमंत्री के तौर पर बिना किसी का नाम आगे किए ही यहां चुनाव लडऩा पार्टी के हित में होगा, ऐसा गहलोत भी मानते-समझते होंगे, इसमें दो राय नहीं। सार्वजनिक बयानों में गहलोत कब क्या कहते हैं और पार्टी प्रभारी और पायलेट क्या कहते हैं, यह सब उनके सामने प्रस्तुत प्रश्न और परिस्थितियों पर निर्भर करता है, इनके किसी भी कहे पर कयास लगाना पत्रकारों का पेशा है और राजनीतिक विश्लेषकों की जरूरत। ऐसे में जो अभी नकारात्मक बातें करते हैं, वे गहलोत को अंडर एस्टीमेट ही कर रहे हैं। 
—दीपचन्द सांखला
31 मई, 2018



Thursday, May 24, 2018

इसी खंडर में कहीं, कुछ दीये हैं टूटे हुए इन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात


फिराक गोरखपुरी का यह शे'र पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने पिछली सदी के आखिरी दशक के मध्य में जयपुर प्रेस क्लब द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में तब कहा जब नेताओं से निराशा का माहौल था। समारोह में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत, उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा और नेहरू-गांधी परिवार से मंच पर मेनका गांधी भी थी। कवि-चिंतक नन्दकिशोर आचार्य ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन की शुरुआत चन्द्रशेखर के शे'र के जवाब में फिराक जलालपुरी के इस शेर से की-'तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि काफिला क्यूं लुटा। मुझे रहजनों से गिला नहीं, तिरी रहबरी का सवाल है।' यह शेर कहते हुए आचार्यजी चन्द्रशेखर के मुखातिब थे, सुनते हैं तब चन्द्रशेखर एकबारगी-सहम ही गये।
बिना कोई खास सन्दर्भ के, पता नहीं क्यों उक्त घटना का स्मरण कर्नाटक चुनाव के नतीजों के बाद जेह्न में आया, शायद चन्द्रशेखर के कहे शे'र के माध्यम से।
देश की वर्तमान परिस्थितियों का विश्लेषण तटस्थ और निस्स्वार्थ भाव से लोकतांत्रिक मूल्यों के आलोक में करें तो लगता है देश सुकून भरे दौर से नहीं गुजर रहा है। इन सन्दर्भों में नेहरू के काल का जिक्र करने की कोई जरूरत नहीं लगती। इन्दिरा गांधी और उनके बाद के कांग्रेसी शासकों की कार्यशैली के सन्दर्भ से ही बात करें तो आपातकाल के अलावा कोई बड़ा आरोप कांग्रेसी-परम्पराओं में ऐसा नजर नहीं आता जिसकी तुलना से इन चार वर्षों के मोदी शासन को बेहतर बताया जा सके। नरसिंहराव-मनमोहनसिंह द्वारा किए आर्थिक नीतियों के बदलावों को सही नहीं मानते हुए भी फिलहाल उन पर बात करने से विषयांतर होगा। वैसे वर्तमान प्रधानमंत्री उन्हीं आर्थिक नीतियों का अनुसरण बिना संकोच के बेधड़क कर रहे हैं।
यह आलेख उनके साथ विमर्श है जिन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के शासन करने और पार्टी चलाने के तौर-तरीकों में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण दिख रहा है। 1971 के युद्ध और संजय गांधी की पार्टी और सत्ता में सक्रियता के बाद विपक्ष के एकजुट होने की जैसी जरूरत पिछली सदी के आठवें दशक में समझी जाने लगी, लगभग वैसी ही जरूरत मोदी और शाह के तौर-तरीकों के बाद महसूस की जाने लगी है। हां, बचाव में कहा जा सकता है कि मोदी-शाह ने आपातकाल तो नहीं थोपा है। संचार और संवाद के साधनों में आ रहे स्तब्धीय बदलावों में तानाशाही को ठीक वैसे ही लागू नहीं किया जा सकता जिस तरह पिछले शासकों ने किया है? यहां उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है, लेकिन क्या भारत जैसे देश में तानाशाही को ठीक उत्तर कोरिया की तरह ही लागू किया जा सकता है, शायद नहीं। 'आपातकाल' भी देश में इतना बदनाम हो चुका है कि शायद ही कोई तानाशाह अपनी सनक को उस छाप के साथ सहलाए। इसके लिए हिन्दुत्वी खुजली पर्याप्त है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासक निरंकुश ना हो, इसलिए विपक्ष का मजबूत या एकजुट होना जरूरी है, चाहे उनकी विचारधारा अलग-अलग ही क्यों न हो। एकाधिक लोगों द्वारा परिचालित कोई भी व्यवस्था पूरी तरह सही नहीं हो सकती। अपनी ही इस प्रणाली की उस खामी की ओर अक्सर ध्यान दिलाया जाता है जिसमें शासक की यह कहकर आलोचना होती है कि उसे 30-32 प्रतिशत जनता ने ही चुना है। यह बेमानी इसलिए है कि इस व्यवस्था को हमने चुना है, और प्रत्येक व्यवस्था में कोई ना कोई कमी होगी ही। इस 'हम' से अपने को अलग करने वाले भी होते हैं, लेकिन ऐसे 'हम' का फलक और काल दोनों व्यापक होते हैं। यह 'हम' ना एक-दो या हजार-लाख में सीमित होता है और ना ही वर्तमान में।
विपक्ष में जैसे भी राजनीतिक दल हैं और नेता भी जैसे हैं, संतुलन के लिए वे ही काम आएंगे। लोकतंत्र का प्रमाण भी यही है कि इसमें वामपंथी हो सकते हैं तो दक्षिणपंथी विचारने वाले भी। वाम और दक्षिण झुकाव के मध्यपंथी हैं तो तानाशाहों से भ्रमित होने वाले भी होंगे, ऐसे भी होंगे जो कुछ भी ना विचारते हों। हमारे देश की बड़ी प्रतिकूलता यह भी है कि अधिकांश नागरिक कुछ भी ना विचारने वाले हैंलहर और हवा के साथ शासक चुनने वाले! भ्रमित होकर वोट करने वाले! हालांकि, एक बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर प्रत्येक का इस तरह से शिक्षित होना एक लम्बी प्रक्रिया है फिर भी कांग्रेस पर यह आरोप लगाने में कोई संकोच नहीं कि आजादी बाद चूंकि सर्वाधिक समय तक और अधिकांश प्रदेशों में शासन कांग्रेस का ही रहा, उसने देश के नागरिकों को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के तौर पर शिक्षित करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया। वह प्रयास करती तो देश आज जहां है, वहां नहीं होता। रही बात भ्रष्टाचार की तो नेता या शासन-प्रशासन को भ्रष्ट होने की छूट हमने दी, तभी ये भ्रष्ट और महाभ्रष्ट हो पाए। हम सावचेत होते तो ऐसी सभी तरह की नकारात्मकताएं न्यून या न्यूनतम होती। इसलिए जो कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, या जो संघ पर प्रतिबंध की बात करते हैं या वाम को खदेडऩे की बात करते हैं, ऐसे सभी खुद के लोकतांत्रिक ना होने की पुष्टि कर रहे होते हैं। वोट हमें क्यों देना है? यदि इस तथ्य से प्रत्येक नागरिक को शिक्षित कर दिया जाय तो आज के अधिकांश मुद्दे और संकट या तो समाप्त हो जाएंगे या अप्रासंगिक।
चन्द्रशेखर के हवाले से जिस शे'र का जिक्र शुरू में किया, उसकी अपनी प्रासंगिकता है तो जवाब में जो शे'र आचार्यजी ने कहा, उस तरह शासकों से जवाब मांगना भी एक परिपक्व नागरिक के कर्तव्य में आता है। 
दीपचन्द सांखला
24 मई, 2018

Thursday, May 17, 2018

कर्नाटक चुनाव परिणामों के बहाने मोदी और कांग्रेस की बात


'सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस जो-जो करतूतें सहम-ठिठक कर कभी करती रही, भाजपा उससे कई गुना बढ़-चढ़कर, वही सबकुछ बीते चार वर्षों में बेशर्मी से हक मानकर बेधड़क कर रही है।'
कर्नाटक विधानसभा चुनावों के 15 मई, 2018 के आए परिणामों के संदर्भ से दूसरे दिन सुबह छह बजे यह ट्वीट किया ही था कि एक-डेढ़ घंटे बाद ही फेसबुक ने चार वर्ष पूर्व 2014 के लोकसभा चुनावों के परिणामों पर मेरी इस फेसबुक पोस्ट का स्मरण करवा दिया
'आजादी बाद के इन 66 वर्षों में कांग्रेस ने भ्रमित करके वोट लेने की जो युक्तियां अपनाई, उससे ज्यादा भ्रमित करने वाला आने पर ऐसे ही परिणाम आने थे।'
चार वर्ष पूर्व का यह फेसबुक पोस्ट और हाल ही में किए उपरोक्त ट्वीट में संदर्भ और निहितार्थ समान हैं। उपरोक्त दोनों कथनों में लगभग जो बात सम्प्रेषित हो रही है, उसके माध्यम से देश के वर्तमान राजनीतिक चरित्र को समझने की कोशिश कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछली सदी के सत्तर के दशक से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय है। वे उस संघ विचारधारा से संस्कारित है, जिसमें व्यक्तिश: गांधी और परिवार विशेष में नेहरू परिवार से घृणा कूट-कूट कर भर दी जाती है। संघ का संभवत: ऐसा मानना है कि नेहरू और उसके वंशज यदि नहीं होते तो देश पर वे अपना हिन्दुत्वी ऐजेंडा बहुत पहले लाद सकते थे। पहले खुद जवाहरलाल नेहरू, बाद में इंदिरा गांधी और फिर राजीव-सोनिया तक नेहरू परिवार उनके हिन्दुत्वी उद्देश्यों को साधने में बाधा बनता रहा है। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संघानुगामी पहले भी सत्ता पर काबिज रहे, लेकिन वाजपेयी वैचारिक तौर पर ना केवल उदार थे, बल्कि आजादी बाद के कई सुलझे राजनेताओं की संगत में वे कट्टर संघीय ऐजेन्डे में अपने को असहज भी पाते।
नरेन्द्र मोदी ना केवल शातिर हैं, बल्कि संघीय विचार में विषबुझे भी हैं, लोकतांत्रिक और मानवीय उदारता के 'संक्रमण' से वे शायद इसीलिए बचे रहे कि पिछली सदी के सातवें दशक के पूर्वाद्र्ध के जेपी आन्दोलन के सिवाय उन्होंने अपने को सुलझे और मानवीय राजनेताओं की संगत से बचाए रखा। 2002 से पूर्व के लगभग तीस वर्षों तक के अपने सार्वजनिक जीवन में पद, पहनावे और विदेश भ्रमण की दमित आकांक्षाएं थोड़ी अनुकूलता मिलते ही अच्छे से मुखर हो लीं। वे कहते चाहे कुछ भी रहे लेकिन शासन चलाने के उनके तरीके से लगता है कि आम आदमी की दुख-तकलीफों से इनका कभी वास्ता नहीं रहा। गुजरात में उनके मुख्यमंत्री काल की बात करें तो अभावों में जीने वाले वहां के बहुजन वर्ग के लिए किसी आधारभूत काम का प्रमाण उनके शासन का नहीं मिलता है। कुछ वे ऐसा करते हैं भी तो मकसद उनका मात्र ऐसी योजनाओं से लोकप्रियता हासिल करना भर रहता है। हां, गुजरात के मुख्यमंत्री रहते बड़े व्यापारियों और कॉरपोरेट घरानों के लिए मोदी ने अधिकृत-अनधिकृत बहुत सी अनुकूलता जरूर बनाई। उनके राज में बहुत से व्यापारिक घराने सम्पन्न से सम्पनतर होते गये। एवज में ऐसे सभी घरानों ने खुद मोदी और मोदी के जिम्मे पड़ी पार्टी की जरूरतों को खुलेमन से पूरा भी किया। मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा लड़ा गया 2014 का बेहद खर्चीला चुनाव इसका बड़ा उदाहरण है।
अलग-अलग समय पर विभिन्न कांग्रेसी नेताओं द्वारा अपने और पार्टी के हित साधने की जो-जो करतूतें की गई उन सभी को मोदी, उनके विशिष्ट सहयोगी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अच्छे से साध लिया है। ऐसी सभी बुराइयों को ना केवल खुद इस जोड़ी ने साध लिया बल्कि अपने खास अनुगामियों को ऐसे सभी हथकण्डों को बेधड़क अपनाने को प्रेरित इस बिना पर कर दिया कि चूंकि शासन में रहते कांग्रेसी ऐसा ही सब अब तक करते आ रहे हैं, तो वैसा सब कुछ करने के हक से हमें वंचित नहीं किया जा सकता।
इसीलिए आजादी बाद देश की राजनीति में इस तरह आए घोर पतन के लिए किसी पार्टी को सब से ज्यादा जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो वह कांग्रेस है। क्योंकि केन्द्र में, अधिकांश प्रदेशों में अधिकांश समय तक कांग्रेस का शासन रहा है। उसी के शासन में ना केवल भ्रष्टाचार बढ़ा बल्कि उसके चलते चुनाव अभियान भी हर तरह से भ्रष्ट होते गयेसाम, दाम, दंड, भेद से सत्ता हासिल करने और उस पर जमे रहने की अनुकूलताएं बनाने के लिए कांग्रेस बड़ी जिम्मेदार है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस ने देश की जनता को एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के रूप में शिक्षित करने की कभी जरूरत ही नहीं समझी। इसे यूं कहने में भी संकोच नहीं है कि कांग्रेस को इसी में अपने लिए अनुकूलता लगने लगी कि जनता भोंदू बनी रहेगी तो हमें वोट करती रहेगी। जनता को जिस दिन अपने वोट की असल कीमत और उद्देश्य समझ आ जायेगा, फिर वह भेड़चाल में वोट नहीं करेगी। कांग्रेस ही नहीं वामपंथी व तथाकथित समाजवादी सहित सभी राजनीतिक दल जनता को भेड़ों की तरह हांक के रखने में अपना स्वार्थ देखने लगे है।
कर्नाटक चुनावों के बाद कांग्रेस की भी यह महती लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है कि देश की जो शासन व्यवस्था है उसका लोकतांत्रिक स्वरूप बना रहे। इसके लिए उसे अपने कायाकल्प के साथ मन शुद्धि भी करनी होगी। वर्तमान में देश की राजनीतिक, शासनिक और प्रशासनिक गत जो बनी है उसके लिए जिम्मेदार कांग्रेस को अपनी भूलों को स्वीकार करते हुए जनता के बीच जाना होगा। चाहे उन भूलों के जिम्मेदार जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ही क्यों न हो। राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह से हुई भूलें भी स्वीकार कर जनता से एकबार अवसर देने की बात करनी होगी, अवाम के असल हित की कार्ययोजना बना अपनी शुद्ध मंशा का भरोसा दिलाना होगा। इतिहास में दर्ज हो चुकी कांग्रेस की सभी भूलों को बिना संकोच स्वीकारना होगा। अन्यथा देश जिस गर्त में जा रहा है उसके लिए वर्तमान शासकों से कांग्रेस कम जिम्मेदार नहीं ठहराई जायेगी।
दीपचन्द सांखला
17 मई, 2018

Thursday, May 10, 2018

कांग्रेस के ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति के बहाने कुछ इधर की, कुछ उधर की


'पार्टी विद ए डिफरेंस' का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने क्रिया-कलापों और लोक कल्याण के दावों के मामलों में जहां कांग्रेस से बदतर साबित हुई वहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था की राजनीतिक पार्टी होते हुए भी सांगठनिक नियुक्तियों के मामले में शाह-मोदी की भाजपाई हाइकमान कांग्रेस की अब तक की किसी भी हाइकमान से कम अधिनायकवादी नहीं नजर आ रही है। अपवाद स्वरूप राजस्थान भाजपा की सुप्रीमो वसुंधरा राजे उन्हें आईना दिखाने का चाहे दुस्साहस कर रही हो, लेकिन उसके अंजाम का अनुमान अच्छे भले राजनीतिक विश्लेषक भी नहीं लगा पा रहे हैं। हालांकि अब प्रजातांत्रिक व्यवस्था के इस प्रतिकूल समय में ऊंट का वसुंधरा की करवट में बैठना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कुछ तो उम्मीद जगाएगा।
आज बात कांग्रेस की करनी है, वह भी उसके बीकानेर संगठन के ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति प्रकरण के आधार पर। भारत की स्वतंत्रता और शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए पिछली सदी की शुरुआत में जिस कांग्रेस के नेतृत्व में देश ने चालीस से ज्यादा वर्षों तक लम्बी राजनीतिक लड़ाई लड़ी, उसी कांग्रेस के शासन में लोकतंत्र का क्या हश्र हुआ है, किसी से छिपा नहीं है। शासन के प्रशासनिक तौर-तरीकों की बात ना भी करें तो खुद कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अपनाए कई दशक बीत गये हैं। प्रदेश संगठनों में हुई नियुक्तियों की क्या बात करें जब जिला और ब्लॉक स्तरीय नियुक्तियों की सूचि भी हाइकमान जारी करता रहा हैबिना किसी चुनावी प्रक्रिया के।
इन पार्टियों की यह नियुक्ति प्रक्रिया जिन्हें 'थोपना' कहना ही ज्यादा उचित होगावह भी इतनी बोझिल और लम्बी होती है कि उनकी घोषणाओं से कई बार पार्टियों को शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ जाता है। जैसे हाल ही में कांग्रेस पार्टी हाइकमान ने लम्बे समय से प्रतीक्षित बीकानेर के नये ब्लॉक अध्यक्षों की सूचि जारी की। प्रस्तावों पर निर्णय करने में पांच-छह महीने लग गये होंगे, तभी तीन माह पूर्व दिवंगत हुए विजय आचार्य के नाम की घोषणा भी कर दी गई। जिन्होंने इस नाम की सिफारिश की उन्होंने यह जिम्मेदारी भी नहीं समझी कि जिस व्यक्ति की उन्होंने सिफारिश की है, उसका देहान्त होने पर इसकी सूचना हाइकमान को देना जरूरी है। हो सकता है उन्होंने यह मान लिया होगा कि हमारे चाहने भर से कौनसी नियुक्ति हो जानी है। सुनते हैं, दिवंगत विजय आचार्य का नाम कांग्रेस के बुजुर्ग दिग्गज मोतीलाल बोहरा की रहनुमाई में बीकानेर के उस गुट की तरफ से दिया गया जिसकी चौधर बोहरा के दामाद डॉ. राजू व्यास कर रहे हैं। नागौर मूल के बोहरा तो खैर राष्ट्रीय नेता हैं, क्षेत्र विशेष में उनकी रुचि हो सकती है, लेकिन मजे की बात तो यह है कि उनके दामाद डॉ. राजू व्यास जोधपुर के हैं, बीकानेर से बिना किसी लेने-देने के बावजूद अपने ससुर की हैसियत के चलते यहां पिछले एक दशक से ज्यादा समय से वे यहां अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को हवा-पानी दे रहे हैं।
बीकानेर कांग्रेस के ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति पर दैनिक भास्कर के विश्लेषण पर गौर करें तो इनमें जहां रामेश्वर डूडी की पदरपंचाई जम कर चली, वहीं पार्टी के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष, पूर्व नेता प्रतिपक्ष और पांच बार विधायक रहे डॉ. बीडी कल्ला अपनी सामान्य प्रतिष्ठा भी बनाए नहीं रख पाए। बीकानेर शहर और देहात की कुल चौदह नियुक्तियों में डूडी ने जहां अपने छह आदमी बिठवा लिए वहीं कल्ला खुद अपने बीकानेर पश्चिम क्षेत्र की दोनों नियुक्तियों में अपने मन की नहीं करवा सके। कुल हुई चौदह नियुक्तियों में से मात्र एक नियुक्ति कल्ला के हिसाब से हुई है। उनसे से तो पिछले विधानसभा चुनावों से कुछ पहले भाजपा से कांग्रेस में आए गोपाल गहलोत भी जीत में रहे, जिन्होंने बीकानेर पूर्व क्षेत्र की दोनों नियुक्तियां अपने समर्थकों की करवा ली। कल्ला से ज्यादा पहुंच तो उन डॉ. राजू व्यास ने साबित कर दी, जिनका बीकानेर से कोई खास लेना-देना ही नहीं। इसी बहाने ही और अपनी उम्र के इस मुकाम पर कल्ला को एक ओर पारी सफलतापूर्वक यदि खेलनी है तो उन्हें अपनों को परोटने के तौर-तरीकों का गहन विश्लेषण करना चाहिए कि अपने वरिष्ठों और कनिष्ठों का भरोसा लम्बे समय तक वे क्यूं नहीं सहेज कर रख पाते हैं।
दीपचन्द सांखला
10 मई, 2018

Thursday, May 3, 2018

भाजपा : असंतुष्टों की स्वाभाविक नेता वसुंधरा राजे!


मुख्य सचिव पद से एनसी गोयल का सेवानिवृत्त होना और डीबी गुप्ता का पदभार संभालना, कहने को एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया हैलेकिन ऐसा लगता बिल्कुल नहीं है। 30 अप्रेल के पूरे दिन की प्रशासनिक बेचैनी ऐसे उच्च स्तरीय सूत्र छोड़ गई, जो तूफान से पहले की शान्ति का संकेत देते हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चाहती थीं कि गोयल को तीन माह का सेवा विस्तार मिल जाए, तत्संबंधी प्रस्ताव पर्याप्त समय पूर्व प्रधानमंत्री कार्यालय भिजवा दिए गये। केन्द्र और प्रदेश में विरोधी दलों की सरकारें होते भी इस तरह की प्रक्रियाएं अब तक सामान्य कार्यकलापों की तरह निपटाई जाती रही हैं। इसीलिए सूबे के ऊपरी हल्कों में उम्मीद थी कि यह आदेश भी देर शाम तक आ ही जाएगा। गोयल की चाहे फेयरवेल पार्टी चल रही हो लेकिन उम्मीद यही थी कि उनके सेवा विस्तार का आदेश आ ही जायेगा। जब लग गया कि आदेश अब नहीं आना, तभी रात 11 बजे चार्ज हस्तांतरण की प्रक्रिया पूरी की गयी।
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नियुक्ति के मद्देनजर उक्त प्रकरण से स्पष्ट हो गया है कि पार्टी के केन्द्रीय नियन्ता अपनी साख बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। दिल्ली की केजरीवाल सरकार के साथ केन्द्र सरकार के नुमाइंदे उप राज्यपाल की ओर से लगातार पैदा की जा रही परेशानियों को देखते हुए केन्द्र की इस सरकार से किसी सदाशयता की उम्मीद बेमानी है। बावजूद इसके कि केजरीवाल परेशानियों की तीव्रता से शोर अक्सर ज्यादा ही मचाते रहे हैं।
राजस्थान के सन्दर्भ में एक ही पार्टी का शासन होने के बावजूद बीते चार वर्षों में केन्द्र-राज्य संबंध शासन और पार्टी दोनों स्तरों पर ठीक-ठाक कभी नहीं रहे। वसुंधरा राजे का जैसा स्वभाव है, उसमें वह हाइकमान के हस्तक्षेप के बिना काम करने की आदी रही हैं। 2003 से 2008 के उनके कार्यकाल पर नजर डालें तो तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह को उन्होंने कभी खास भाव नहीं दिया, बल्कि राजनाथसिंह तब वसुंधरा के बरअक्स कई बार सकपकाते ही देखे गये। ऐसे में मोदी जैसे समकक्ष और अमित शाह जैसे काफी कनिष्ठ रहे नेताओं का दबाव वह किस तरह बर्दाश्त करतीं। दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद 'कड़ी से कड़ी जोडऩा' शायद इसीलिए जुमला भर होकर रह गया। केन्द्र-राज्य में शासनिक तारतम्य के अभाव का खमियाजा प्रदेश को और उसकी जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसी के चलते रिफाइनरी स्थापना जैसी बड़ी परियोजना का कार्यारम्भ जहां लम्बे समय तक रुका रहा, वहीं छिट-पुट कामों की एक फेहरिस्त हो सकती है, जिन पर बीते चार वर्षों की इन प्रतिकूल परिस्थितियों से अनमनी रही वसुंधरा राजे ने तत्परता नहीं दिखाई।
पिछले कुछ माह से प्रदेश अध्यक्ष प्रकरण ने अमित शाह-नरेन्द्र मोदी और वसुंधरा राजे के बीच लम्बे समय से चले आ रहे शीत युद्ध को एकदम चौड़े ला दिया। पहले तो प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद से अशोक परनामी को हटाने को ही राजे तैयार नहीं हुईं, किसी तरह तैयार हुईं तो शाह-मोदी इस वहम में आ लिए कि राजे दबाव में आ गयीं। इसी वहम में उन्होंने राजे से बिना मशवरा किए गजेन्द्रसिंह शेखावत का नाम प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के लिए तय कर लिया। यही चूक शाह के लिए भारी पड़ती दिख रही है। इस प्रकरण से लगा कि शाह-मोदी के पार्टी के भीतर सरपट दौड़ते अश्वमेध के घोड़े की रास वसुंधरा राजे ने खींच दी है। भाजपा की वर्तमान हाइकमान को ऐसी चुनौती का सामना संभवत: पहली बार करना पड़ा है।
राजस्थान भाजपा में पार्टी अध्यक्ष का पद एक पखवाड़े से अधिक समय से रिक्त है, इसके निहितार्थ शाह-मोदी की कार्यशैली के प्रतिकूल हैं। हो सकता है कर्नाटक चुनाव की चुनौती के दिखते शाह ने फिलहाल ठिठकना ही उचित समझा हो। यदि ऐसा है तो कर्नाटक में जीतकर या कैसे भी तरीकों से भाजपा की सरकार बन जाती है तो हो सकता है शाह-वसुंधरा का मुकाबला देखने लायक हो। और यदि कर्नाटक में शाह ऐसा नहीं कर पाते तो ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि वसुंधरा राजे शाह-मोदी को चुनौती देने की ठान ले। भाजपा के भीतरी सूत्र बताते हैं कि भाजपा के लगभग वे सौ सांसद वसुंधरा खेमे में आने का साहस कर सकते हैं, जो विद्रोही नेतृत्व के अभाव में मुखर नहीं हो पा रहे और यदि राजनाथसिंह व सुषमा स्वराज आत्मसम्मान जाग्रत कर वसुंधरा के साथ हो लेते हैं तो पार्टी के भीतर ही क्यों, राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर रोचक दृश्य देखने को मिल सकते हैं। और यदि लालकृष्ण आडवाणी व मुरलीमनोहर जोशी बजाय मार्गदर्शक के, वसुंधरा राजे के लिए आशीर्वाद दाता की भूमिका अख्तियार कर लें तो अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता सुकून महसूस करने लगेंगे। तब संभावित परिस्थितियों में संघ के पास एकबारगी सकपकाने के अलावा अन्य विकल्प बचता नहीं है। सूत्र यह भी बताते हैं कि नरेन्द्र मोदी के आकस्मिक विकल्प के तौर पर संघ वसुंधरा राजे के नाम पर सहमत हैं।
दीपचन्द सांखला
3 मई, 2018