इस वर्ष अब तक सात और इससे पहले के पिछले पन्द्रह वर्षों में पाकिस्तानी सीमा
से 19 आतंकी हमले हुए हैं।
जम्मू-कश्मीर के उड़ी में रविवार तड़के हुए हमले की खबर के साथ दैनिक भास्कर
द्वारा इस तरह के पिछले सोलह हमलों की पड़ताल भी छापी गई। यह पड़ताल वैसे तो यह
समझने के लिए पर्याप्त है कि अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश का शासन
हड़पने के लिए छप्पन इंची सीने के दावे पर जनता को किस तरह बरगलाया था। इस बात का
आज अवसर नहीं है लेकिन फेसबुक-ट्यूटर और एनडीटीवी को छोड़ कर अधिकांश न्यूज चैनलों
पर उड़ी की आतंकी घटना के बाद जिस तरह उग्रता देखने को मिल रही है उससे लगता है कि
ना केवल ऐसे मुखर लोगों की बल्कि मीडिया जैसे लोकतंत्र के चौथे पाए की समझ ऐसे
संवेदनशील मुद्दों पर कितनी खतरनाक है। इनमें से अधिकांश ये बिना समझे कि युद्ध ने
कभी भी समाधान नहीं दिए—पाकिस्तान पर
युद्ध थोपने पर उतारू हैं।
इस तरह की बात करने से पहले पाकिस्तान की अन्दरूनी असलियत और अपनी ताकत,
दोनों को आंकना जरूरी है। 'विनायक' ने ऐसी घटनाओं पर हर बार संयम से उन परिस्थितियों को
समझने-समझाने की कोशिश की जिनके चलते इस तरह की घटनाओं पर खुद पाकिस्तान की चुनी
हुई सरकारों का ही बस नहीं है। उन्हें फिर से यहां लिखने की बजाय पूर्व में लिखे
पाकिस्तान से संबंधित सम्पादकीयों को साझा करना ही उचित होगा। 5 अगस्त 2013 की रात ऐसा ही आतंकी हमला हुआ था। तब 7 अगस्त 2013 को 'विनायक' में लिखा सम्पादकीय हो सकता है हमें ऐसी घटनाओं
पर कुछ सकारात्मक ढंग से विचारने को विवश करे इनके अंश :
जम्मू और कश्मीर में भारत-पाकिस्तान नियन्त्रण रेखा पर सोम
और मंगल के बीच की रात पाकिस्तान की ओर से कुछ हमलावरों ने पांच भारतीय सैनिकों की
हत्या कर दी। यह बर्बर कृत्य निन्दनीय है और संसद से लेकर टीवी-अखबारों से होती
हुई शहर के पाटों तक इस पर चिन्ता और इसकी निन्दा हो रही है। देखा-सुना गया है कि
इस तरह की घटनाओं के बाद निन्दा करते हुए सामान्य आदमी तो गुस्से में अविवेकी भाषा
बोलने और उपाय बताने लगता है लेकिन जिन लोगों के पास देश की जिम्मेदारी के महती पद
हैं या जिन्होंने हजारों, लाखों वोट लेकर
नुमाइंदगी का हक हासिल कर रखा है, वे भी अविवेकी प्रतिक्रियाएं देने लगे तो चिन्ता की बात है। चाहे वह चीनी
घुसपैठ के समय की हो या पाक जेल में सरबजीत की हत्या या सीमा पर आए दिन होने वाली
जघन्य घटनाएं, पिछले एक अर्से
से देखा गया है कि ऐसे समय पर हमारे राजनेता इस तरह से बयान देने और कोसने लगते
हैं कि क्यों ना जस का तस या बढ़ चढ़ कर करारा जवाब दे दिया जाय। यहां तक कि अपनी
पारी के समय सरकार की बड़ी जिम्मेदारियां निभा चुके बड़े नेता भी भूल जाते हैं कि
उनके सरकार में रहते क्या वही कुछ करते जो इस सरकार से चाहा जा रहा है या हमेशा ही
कोरी उत्तेजना पैदा कर राजनीतिक लाभ लेने की ही फिराक में रहते हैं।
भारत-चीन सीमा विवाद को छोड़ देते हैं, विनायक इस पर पहले लिख चुका है। भारत-पाकिस्तान
का मामला ना केवल संवेदनशील है बल्कि पाक की अन्दरूनी स्थिति को देखते हुए यह
लाइलाज भी है, कहने को तो
जवाबदेही वहां की निर्वाचित सरकार की बनती है लेकिन जैसी वहां की परिस्थितियां हैं,
असलियत में
अधिकृत-अनधिकृत तौर वहां इतने स्वघोषित जवाबदेह समूह सक्रिय हैं कि लगभग अराजकता
की स्थिति है। सबसे प्रभावी तो वहां की सेना है जिस पर निर्वाचित सरकारों का
वास्तविक नियन्त्रण कभी रहा ही नहीं। ऐसी सी स्थिति में वहां की खुफियां एजेन्सी
आइएसआई (इंटर-सर्विस इंटेलीजेंस) है। इसके बाद पाकिस्तान में ऐसे कई आतंकवादी और
ताकतवर उग्र समूह सक्रिय हैं जिनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव में वहां के शासक
हमेशा रहते हैं।
अब आप किसी ऐसे पड़ोसी की कल्पना कीजिये जिस घर परिवार में
कमोबेश ऐसे ही लोग हों तो शाश्वत शान्ति से आप भी रह सकते हैं क्या? आप खुद दबंग हों तो भी शत-प्रतिशत संतोष के साथ
तब भी नहीं। इस तरह की स्थितियों से निबटने के लिए स्वयं की सावचेती और जरूरत पडऩे
पर आंख दिखाने और डांटने-डपटने के अलावा कोई क्या कर सकता है। ऐसे ही पड़ोस की
भूमिका में पाकिस्तान है, उसके पास ठीक-ठाक
सैन्य ताकत है, चाहे वह किसी तरह
बनाई हो। सरकार वहां चुनी हुई रही हो या सैन्य, वह कभी भी पूरे विवेक से निर्णय करने की स्थिति में नहीं
रही। अलगाववादियों के बरगलाए आतंकवादी समूह कभी सीमा पर बदमजगी करते हैं तो
कभी-कभार धाए-धापे और तनाव में वहां के सैनिक भी कुछ गलत हरकत कर बैठते हैं,
कभी कोई सैनिक अफसर भी
अपनी सनक तुष्ट करने को इस तरह की वारदातों को अंजाम दिलवा देते हैं।
हमारी सेना के सन्दर्भ से भी इस तरह की हरकतों के समाचार
गाहे-बगाहे सुनते-पढ़ते हैं जिसमें सैनिक खुद को गोली मार लेता है या कोई अपने कई
सहयोगियों को ढेर कर देता है, सीमा या पड़ोसी देश के सैनिकों के साथ भी वह कभी कुछ करता है तो वह खबर हमारे
यहां नहीं आती, आती भी है तो रंग
बदलकर। ऐसे ही मनुष्य पाकिस्तान में हैं, वहां की परिस्थितियां ऐसी हैं कि वहां के लोग तनाव में
ज्यादा रहते हैं। इसलिए ऐसी घटनाओं की संख्या उधर से ज्यादा है। हम पड़ौसी हैं तो
सबसे ज्यादा प्रभावित हमें ही होना है। ना हम वहां की स्थितियों को सुधारने की
अवस्था में है और ना ही उसे नेस्तानाबूद करने की हैसियत में। ऐसी घटनाओं के उपाय
और उपचार कूटनीतिक ही होते हैं, जिनमें वहां के शासकों को कड़ा विरोध जताने या कभी-कभार सेना द्वारा तत्क्षण
करारा जवाब देना शामिल हो सकते हैं और होता ही है। अगर ऐसा नहीं होता है तो होना
चाहिए, सभी सरकारें करती
भी रहीं हैं, फिर वह चाहे राजग
की सरकार के समय करगिल की घुसपैठ हो या संसद पर हमला या फिर संप्रग सरकार के समय
की 26-11 की मुम्बई की
घटना हो या सीमा पर हुई जघन्य वारदातें।
राजनीतिक हितों को साधने के लिए बिना सोचे-समझे आमजन में अतिरिक्त उत्तेजना
पैदा करना, ना देश के हित में है और
ना ही मानवीयता के।
अब दिनांक 24 अगस्त, 2015 को लिखे
संपादकीय को पुन: इस समस्या के बातचीतीय समाधान के तौर पर भी समझने की कोशिश कर
सकते हैं :-
घर के कुमाणस पड़ोसी से छुटकारे का उपाय है, बात गले तक आने पर अनुकूलता बनते ही आप घर बदल
सकते हैं। पड़ोसी देश यदि ऐसा हो, उससे छुटकारे का कोई विकल्प नहीं है। भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर अपनी यह
बात 'विनायक' ने एकाधिक बार दोहराई है। पिछले वर्ष
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार से मतदाताओं ने जो
उम्मीदें बांध बहुमत दिया उनमें एक बड़ी उम्मीद पाकिस्तान के साथ रोज-रोज की इन
परेशानियों से छुटकारे की भी थी जिनके चलते सीमाओं पर रोज की गोलाबारी की नौबत है
और सीमा पार से आए आतंकियों की हिंसा का शिकार भी जब तब होना पड़ता है।
नरेन्द्र मोदी अपने चुनाव अभियान के दौरान अपनी पीठ खुद
इसलिए थपथपाते रहे कि पड़ोसी देश की बेजा हरकतों को डपटने के लिए छप्पन इंच के
सीने की जरूरत होती है और साथ ही यह अपरोक्ष
भरोसा भी वह देते रहे कि ऐसा छप्पन इंचीय सीना उनके पास है। जनता ने मोदी
के कहे पर भरोसा भी किया और ऐसे पूर्ण बहुमत की सरकार बनवा दी जिसकी उम्मीद खुद
उनको भी नहीं थी।
अन्तरराष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति की समझ के लिए सीने की
क्या भूमिकाएं होती है, पता नहीं लेकिन
चुनाव अभियान के दौरान मोदी के दिए अन्य सभी भरोसों, वादों और जुमलों की तरह ही यह छप्पन इंचीय भरोसा धराशायी
होता दीख रहा है। केन्द्र में इस नई सरकार के बाद भारत-पाक सीमा पर न केवल घुसपैठ
बढ़ी है, बल्कि पिछले
वर्षों की तुलना में गोलाबारी की अधिकता से चिन्ता में भी बढ़ोतरी हुई है।
पाकिस्तान में कभी लोकतांत्रिक शासन होता भी है तो उसके हाथ
पूरी तरह खुले नहीं होते। कई कारणों के चलते सेना का पूरा हस्तक्षेप रहता है
जिनमें आंतरिक उग्रवादी गतिविधियां और सहोदर पड़ोसी भारत का भय मुख्य है। ऐसे में
लोकतान्त्रिक तौर पर चुने शासक भी कुछ खास करने की स्थिति में नहीं होते। अपनी
पिछली मुलाकात में भारत-पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों ने तय किया था आपसी समस्याओं
पर बातचीत फिर शुरू हो। इसी के अनुसरण में आयोजित होने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द हो गई। भारत का मानना है कि यह बातचीत केवल आतंकवाद
पर होनी थी, कश्मीर इसके
ऐजेन्डे में ही नहीं था। जबकि पाकिस्तान यह मानता रहा है कि भारत-पाकिस्तान के बीच
मुख्य समस्या ही कश्मीर है। अपनी इस बात को पुख्तगी देने के लिए पाकिस्तान की
कोशिश रहती है कि वह भारत के साथ हर बातचीत के दौरान उन कश्मीरी अलगाववादियों से
मिले जिनका झुकाव पाकिस्तान की तरफ है। उधर भारत-पाक संबंधों के जानकारों का मानना
है कि पाक सेना कभी चाहती ही नहीं है कि भारत-पाकिस्तान मित्र भाव से रहें। यदि ऐसा
होता है तो उनकी हड़पी ताकत कम हो जाएगी। पाक सेना ने बड़ी चतुराई से देश में
उग्रवादी गुटों को हर अनुकूलता देकर अपनी ताकत बढ़ाने की जरूरत बनाए रखी है।
बात अब अपने देश भारत की कर लेते हैं। पूरी तरह बदल चुके
अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य के चलते और पाकिस्तान के भी परमाणु ताकत बनने के बाद
करगिल जैसे सीमित युद्ध भले लड़े जाएं, व्यापक सीमाई थल, वायु और जलीय युद्ध भयावह हो सकते हैं। हो सकता है भारत की
नई सरकार ऐसे युद्धों को समाधानों के रूप में देखती हो क्योंकि वर्तमान राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार डोभाल ऐसी धैर्यहीन मंशा यह कहते हुए जता चुके हैं कि परमाणु
युद्ध भी हुआ तो भारत नाम-निशान जितना ही सही फिर भी बच जायेगा, पाकिस्तान कितना बचेगा वह देखे। उम्मीद करते
हैं कि ऐसी मंशा वाले सलाहकारों के चलते इस क्षेत्र को कभी विध्वंसनशील स्थितियों
से न गुजरना पड़े।
मानवीय समस्या का समाधान बातचीत से हो उसे जारी रखने से
परहेज उचित नहीं है। रही कश्मीर की बात तो भारत-पाकिस्तान के बीच मुख्य समस्या ही
कश्मीर है। कश्मीर यदि भारत का है तो यह क्यों भूल जाते हैं कि उसका एक बड़ा
हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में है। जैसा एक फेसबुक मित्र आशुतोष कुमार ने कहा कि
कश्मीर पर बात नहीं करोगे तो इसका सन्देश कहीं यही तो नहीं दिया जा रहा कि पाक
अधिकृत कश्मीर को भारत ने अन्तिम रूप से पाकिस्तान का हुआ मान लिया। पूरा कश्मीर
भारत का है तो उसके पाक अधिकृत हिस्से को क्या बिना कश्मीर पर बात के हासिल कर
सकते हैं।
भारत की इस सरकार को पहले तो यह मान लेना होगा कि कश्मीर की
स्थिति देश की उन दूसरी रियासतों की समस्याओं की तरह की नहीं है जिनका विलय आजादी
बाद भारत में हुआ था। इसे नजरअन्दाज करना समस्या के शान्तिपूर्ण हल की ओर बढऩा
नहीं है। रही बात पाक द्वारा की जाने वाली आए दिन की कुचरनी की तो पाकिस्तान भी यह
मानता है कि पूर्वी पाकिस्तान में अलगाववादियों को भारत ने हवा देकर बांग्लादेश
बनवाया था। इस घाव को पाकिस्तान के 'राष्ट्रवादीÓ सूखने नहीं देते। पाकिस्तान का यह भी आरोप है कि पाकिस्तान
के जिन इलाकों में अलगाववादी सक्रिय हैं उनको भारत शह और साधन दोनों देता है। ऐसे
में रास्ता यही है पाकिस्तान के तमाम बहानों के बावजूद भारत को बातचीत का माहौल
बनाए रखना चाहिए। युद्ध हल नहीं है।
इतिहास गवाह है कि युद्ध ने कोई समाधान नहीं दिए हैं। छप्पन
इंच का सीना जनता को बरगलाने हेतु चुनावी जुमले के तौर पर ही ठीक है, जिस किसी का होता भी है तो उनमें से अधिकांश को
मोटापे के चलते अस्वस्थ ही माना जाता है। पाकिस्तान जिन स्थितियों से गुजर रहा है
ऐसे में कैसी भी परिस्थिति में खोने को उसके पास कुछ नहीं है। भारत को बहुत कुछ
खोना पड़ सकता है।
22 सितंबर 2016