महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव स्मारक पर आयोजित कार्यक्रम में भड़की हिंसा के
बाद पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में तनाव व्याप्त है। 200 वर्ष पूर्व 1 जनवरी, 1817 को अंग्रेजों और
मराठों के बीच हुए युद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ रहे दलित समुदाय के सैनिक
विजयी हुए। यह युद्ध ऐतिहासिक इसलिए माना जाता है कि इसमें मात्र 800 दलित सैनिकों ने मराठों के 28,000 सैनिकों को हरा दिया। यह उस काल की बात है जब
दलितों की सामाजिक स्थिति पशुवत थी, वे उच्च वर्ण के सामने आंख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं रखते थे। वहीं
मराठों का शासन पेशवाओं के चंगुल में आने के बाद निम्न वर्गों पर अत्याचार और बढ़
गये थे। ऐसे में दलित चाहे वे अंग्रेजों की ओर से ही लड़े हों, युद्ध की जीत उनके आत्मबल में इजाफा करने वाली
थी। इस जीत पर अंग्रेजों ने वहां एक विजय स्तंभ का निर्माण करवाया, बाद में उसी स्थल पर प्रतिवर्ष 1 जनवरी को उस जीत की स्मृति से आत्मसम्मान के
सुख की अनुभूति करने दलित, पिछड़े और
अल्पसंख्यक इक_ा होने लगे। अन्य
सभी पर्वों की तरह यह आयोजन भी रूढ़ होता गया। गत एक जनवरी 2018 को चूंकि उस घटना की 200वीं जयंती थी, सो इस बार काफी बड़ा आयोजन था। लेकिन इस बार राज की इस अनुकूलता में कुछ
दक्षिणपंथी समूहों की हेकड़ी जाग गई और उन्होंने 200 वर्षों से हो रहे इस आयोजन का हिंसक विरोध करने की ठान ली।
माहौल इसीलिए खराब हुआ।
आगे बात करने से पूर्व यह स्पष्ट कर दें कि हिंसा से हासिल किसी भी जीत के
जश्न को सैद्धान्तिक तौर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन हमारे देश में बहुत
से जश्न हिंसा से हासिल जीत से गौरवान्वित होने में रूढ़ हो गए हैं, तो वैसा ही एक आयोजन यदि दलित अपने आत्मसुख के
लिए कर रहे हों तो अन्यों को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन वर्तमान शासन में
दक्षिणपंथियों को अपनी दबंगई की अनुकूलता दिखने और छीजती अपनी हेकड़ी को पुन:
सहेजने का उचित अवसर लगने लगा है। यहां यह भी समझना जरूरी है कि दक्षिणपंथ मुख्यत:
उच्च जाति वर्गीय समूहों का हित पोषक है। जिसकी बानगी में पद्मावती प्रकरण के बाद
भीमा-कोरेगांव की हिंसक घटना को देख सकते हैं। सामाजिक समानता हेतु हो रहे बदलावों
को ठेंगा दिखाती इस तरह की घटनाओं को सरकारें भी अनुकूलता देने लगी, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में और भी खतरनाक है।
दक्षिणपंथ की पोषक वर्तमान सरकार ऐसी घटनाओं से ना कड़ाई से निबटती है और ना
ही सख्ती से इन्हें भुंडाती है। गो-रक्षा के नाम पर दलितों-अल्पसंख्यकों पर हिंसक
हमले अन्य उदाहरणों में देख सकते हैं।
आजादी बाद के इन सत्तर वर्षों में देश ने सामाजिक और साम्प्रदायिक समरसता
जैसी-तैसी भी सहेजी है, उसे बनाए रखने की
जिम्मेदारी भारत देश के संविधान के अन्तर्गत सत्ता हासिल करने वाली पार्टी की ही
बनती है। लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा भी यही है।
लोकतंत्र में चौथा स्तंभ माने जाने वाला मीडिया भी पूरी तरह धर्मच्युत होता लग
रहा है। उक्त घटना की मीडिया रिपोर्टिंग पर देश के जाने-माने पत्रकार ओम थानवी की
सोशलसाइट्स पर दी गई यह टिप्पणी इसे समझने के लिए पर्याप्त है। '
उंची जातियों के लोग मीडिया में भरे पड़े हैं
और उनका क्षुद्र जातिगत पूर्वग्रह ऐसे मौके पर अक्सर विवेक खो देता है।'
यहां यह बताना भी जरूरी है कि ओम थानवी उच्च
जातिवर्ग से आते हैं।
—दीपचन्द सांखला
04 जनवरी, 2018