Saturday, November 30, 2013

चुनावी अटकलें-सात

जिले के सात में से शेष रहे बीकानेर (पूर्व) क्षेत्र की बात भी आज सन् 1971 के लोकसभा चुनावों से इसलिए करेंगे कि इस क्षेत्र से भाजपा की उम्मीदवार सिद्धीकुमारी 1971 में बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से लगातार पांचवी बार जीते डॉ. करणीसिंह की पोती हैं और चुनाव अभियान के दौरान वह अकसर डॉ. करणीसिंह की नजीर भी देती हैं।
आजादी बाद के पहले चार चुनावों में डॉ. करणीसिंह को कोई चुनौती होती ही नहीं थी। कांग्रेस सहित कोई भी पार्टी उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारती थी, चारों चुनाव लगभग निर्विरोध कहे जा सकते हैं। 1971 के चुनाव में जैसे ही कांग्रेस ने भीमसेन चौधरी को गम्भीरता से उतारा डॉ. करणीसिंह दबाव में गये। चुनाव परिणाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि जाट समुदाय के भीमसेन के सामने, जाटों के वोट फांटने के लिए डॉ. करणीसिंह अपने खर्चे पर डमी उम्मीदवार के रूप जाट दौलतराम सारण को नहीं लड़वाते और मुरलीधर व्यास पार्टी लाइन के उलट डॉ. करणीसिंह के समर्थन में कांग्रेस विरोध की विशेष इजाजत नहीं लेते तो डॉ. करणीसिंह चुनाव हार जाते। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व रियासतों के विशेषाधिकार खत्म करने के कांग्रेस के निर्णय को अच्छा बताते हुए समाजवादी 1971 के चुनाव में कांग्रेस के साथ थे। डॉ. करणीसिंह ने इस चुनाव से सबक लिया और तय कर लिया था कि आगे वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। दबी-कुचली इच्छा कोई रही भी हो तो आपातकाल में रियासतों के साथ सरकार के व्यवहार ने खत्म कर दी। 1977 के लोकसभा चुनाव में बीकानेर से उम्मीदवारी के लिए जनता पार्टी ने सबसे पहले डॉ. करणीसिंह से ही पूछा और उन्होंने तत्काल दृढ़ता से इनकार कर दिया था।
यह इतिहास बताने का मकसद इतना ही है कि ये पूर्व रियासती लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में इसलिए ही शामिल होते रहे कि उनकीपागमें राज के मोरपांख लग जाए। जीत की पुख्तगी हो तभी ये चुनाव में खड़े होते हैं। पिछला चुनाव सिद्धीकुमारी ने गुड़ी-गुड़ी जीत लिया, घर से बिना हींग-फिटकरी लगे। उस चुनाव में उन्हें एहसास ही नहीं हुआ कि चुनाव कैसे लड़ा और जीता जाता है। कांग्रेस ने भी तब बिना सोशल इंजीनियरिंग की हकीकत समझे डॉ. तनवीर मालावत को चुनाव में उतारा था। जबकि सभी जानते हैं कि बहुसंख्यकों के क्षेत्र में कोई अल्पसंख्यक दो ही कारणों से जीत सकता है। एक तो उसकी पार्टी की लहर चल रही हो जैसे 1977 में जनता पार्टी की चली और बीकानेर से महबूबअली जीत गये थे या फिर अल्पसंख्यक नेता का व्यक्तित्व ऐसा हो कि उसे बहुसंख्यक भी सहर्ष स्वीकार कर लें। बीकानेर की किसी भी पार्टी के किसी अल्पसंख्यक राजनेता ने ऐसी हैसियत पा ली हो नहीं लगता। यह तथ्य कटु हो सकता है पर है सत्य।
लगभग जीती मानी जा रही भाजपा की इस सीट पर कांग्रेस ने इस बार फिर मूल पिछड़े उम्मीदवार का दावं खेला है पर देर से, और टिकट मिलने तक भाजपाई रहे को प्रत्याशी बना कर। गोपाल गहलोत भाजपा में लम्बे समय से असंतुष्ट थे और मौके-टोके वे इसे वह जाहिर भी करते रहे हैं। गोपाल गहलोत इससे पूर्व जिले में दो चुनाव लड़ चुके हैं और दोनों ही बार हारे हैं। गोपाल गहलोत इन दोनों हार को भी इस क्षेत्र के सम्बन्ध में अपने पक्ष में यह प्रमाण देकर भुनाते हैं कि 2003 में देवीसिंह भाटी जैसे भारी भरकम उम्मीदवार के सामने वे कोलायत से भाजपा के उम्मीदवार थे तब कोलायत क्षेत्र में आज के बीकानेर (पूर्व) का बहुत बड़ा हिस्सा आता था। उस समय इस बीकानेर (पूर्व) के वार्डों में गोपाल गहलोत देवीसिंह भाटी से लगभग 17,000 वोटों से आगे रहे थे। महापौर के पिछले चुनाव में भी गहलोत का आरोप है कि शहर के दोनों भाजपा विधायकों (गोपाल जोशी और सिद्धीकुमारी) ने उनके खिलाफ काम किया और पार्टी से उनका असन्तोष भी इसी कारण था। वे कहते हैं कि पार्टी को इसकी रिपोर्ट देने के बावजूद दोनों के खिलाफ कोई कार्यवाही करना तो दूर इस चुनाव में उन्हें फिर से अधिकृत प्रत्याशी बना दिया गया। महापौर चुनाव में गहलोत लगभग 88,000 वोट लेकर 27,000 वोटों से हारे थे और उनका मानना है कि इसमें बीकानेर (पूर्व) के वार्डों में तो वे मात्र 1,600 वोटों से पीछे रहे थे।
इन आंकड़ों के आधार पर देखें तो गहलोत की स्थिति ठीक-ठाक लगती है। यह भी लगता है कि क्षेत्र के बूथों तक प्रबन्ध वे चाक-चौबन्द कर सकते हैं लेकिन विरोधी जिस बात का उनके खिलाफ उपयोग कर रहे हैं वह उनका तात्कालिक दल बदल है, यही उलटफेर वह छह माह पहले कर लेते तो अच्छी खासी स्थिति में होते।
सिद्धीकुमारी के पक्ष में कई बातें हैं जिनमें पिछला चुनाव 37,693 के अच्छे खासे अन्तर से जीतना पूर्व रियासती परिवार से होने के नाते लालगढ़ पैलेस और जूनागढ़ किले की आसपास के मुहल्लों में आजादी के छियासठ साल बाद भी लोगों की जीवन-शैली मेंखमाघणी संस्कृतिका होना, नरेन्द्र मोदी का असर, केन्द्र सरकार की एंटी इन्कम्बेंसी का होना माना जा सकता है। जमींदारा पार्टी की यास्मीन कोहरी और बसपा के मुख्त्यार जितने ज्यादा वोट लेंगे उसका अधिकांश फायदा सिद्धीकुमारी को ही होगा। वहीं उनके खिलाफ जो सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है वह यह कि सिद्धीकुमारी पिछले पांच वर्षों के अपने विधायकी काल में चार से ज्यादा वर्षों तक बीकानेर से बाहर रहीं और जब वह यहां रही भी तो मतदाताओं से अपने सिपहसालारों के माध्यम से ही ज्यादा मिलती थीं।
गोपाल गहलोत भी स्थानीय स्तर पर यही भरोसा जताते घूम रहे हैं कि वे चौबीसों घंटे अपने मतदाताओं के लिए उपलब्ध रहेंगे। यह बात अलग है कि वह यह भरोसा दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को दिलाने में कितने सफल हुए हैं। यह सफलता ही चुनाव परिणाम को प्रभावित करेगी। वे इसमें सफल होते इसलिए लग रहे हैं कि उनकी विरोधी सिद्धीकुमारी की भाव भंगिमा में उनकी यह चुनौती देखी जाने लगी है। जिस सिद्धीकुमारी ने पिछला चुनाव बड़ेआरामसे जीत लिया था। उनका इस बार अपने कार्यकर्ताओं पर खीजना और उन्हें डपटना इस बात का संकेत है कि वह दबाव तो महसूस करने लगी हैं। और सचमुच ऐसा हुआ तो यदि वह जीत भी गईं तो अगली बार अपने दादा की तरह ही मैदान में शायद ही दिखेंगी क्योंकि असहजता को बर्दाश्त करना बड़े लोगों फितरत में नहीं है।
30 नवम्बर, 2013